बुधवार, दिसंबर 23, 2009

आ गई एक और गैय्या गार में !

हम आज से १५-२० साल पहले रेलवे रिजर्वेशन काउन्टर पर खडे हुये, लाईन मे लगे हुये, काउन्टर के दूसरी तरफ कुर्सियो पर जमे कर्मचारियो को बहुत हसरत भरी नजरो से देखते थे और उनकी किस्मत से रश्क करते थे कि यार नौकरी हो तो ऐसी, मजे से सीट पर जमे हुए कम्पयुटर पर काम करते रहो ! पावर इतनी कि किसी को भी कह दो कि आरक्शण सीट उपलब्ध नही है, तो कभी-कभी के अमिताभ की तरह ये ख्याल आता था कि कभी हम भी कम्प्युटर पर नजरे सी इनायत करके किसी से अपनी बात मनवा सकते तो कितना अच्छा होता ! बाबा लोगो ने सदियो पहले आगाह किया था कि निर्बल की आह मत लो, पर लोग थे कि माने नही ! सही कहा है कि लातो के भूत बातो से नही मानते, ल्यो भुगतो ! उस समय दलालो पर दया बिखेरने के साथ इस आम आदमी पर भी मेहरबान रह्ते तो हमे क्या जरूरत थी कम्प्युटर पे हाथ आजमाने की ! तो साहब, लब्बो-लुबाब ये है कि बडी-बडी कम्पनियो के सौजन्य से और कद्दावर ब्लोगर बन्धुओ की बरसाई गयी टिप्स ने एक आम-अदना से जीव को भी यह सुविधा दे दी है कि अपने मन की बात, अपनी सुविधानुसार औरो से साझी कर सके ! आप भी सोचते होंगे, हाथी-ऊट डूबे और गधैया पूछे कितना पानी, कि पहले ही सारी शाखे रिजर्व और ये एक और आ गये बेसिरपैर की उडाने वाले- तो हुजूर, अब आ ही गये है तो कुछ शौक पूरा कर ऐसे ही चले जाएंगे सो क्रपया दिल पर न ले ! पहली पोस्ट पर ही रेलवे का जिक्र इसलिये किया है कि सही मायने मे हम मध्यमवर्गीय लोगो ने कम्प्युटर का शुरुआती जलवा या कहें तो सार्वजनिक प्रयोग रेल रिजर्वेशन केन्द्र पर ही देखा था और यही से ललक लगी थी कि हम भले ही इस जादू के पिटारे पर कुछ न कर सके पर बच्चो को कम्प्युटर जरूर ले कर देन्गे ! परमात्मा की क्रपा से अपना ही वास्ता इस से पड गया लेकिन असली खेला तो इन्टरनेट ने शुरु करवाया और हमारा नाम भी राशन कार्ड, हाजिरी पुस्तिका के अलावा कहीं और छप सका ! और फ़िर हमारा तो स्वभाव ही ऐसा है कि किसी का आभार व्यक्त करना हो तो ऐसे करें कि अगला किसी का भला करे तो सोच समझ करे ना कि मन किया और कर दिया किसी को भी प्रेरित । खैर, ईश्वर अर्थात रचनाकार, उसकी सर्वोत्तम रचना अर्थात मानव व इस रचना द्वारा रची गई सभी रचनाओ का धन्यवाद करते इस नाचीज ने यह प्रयास किया है, आशा है महाजनस्य पंथे गिरतम संभलतम हम भी घुट्नों पर चलना सीख लेंगे ।