रविवार, मार्च 14, 2010

डुबोया मुझको होने ने(2)

तो साहेबान, आगे बढ़ते हैं अपनी डूब यात्रा पे। इस सफ़र की कहानी में हिंदी फ़िल्मों की तरह इमोशन भी है, ड्रामा भी है। गीत-संगीत यहां नहीं है, और कहीं है। ये कहानी कामेडी-कम-ट्रेजेडी ज्यादा है। मेरे साथ दिक्कत ये है कि जिंदगी में जहां लोगों को हंसी आती है मेरा पत्थर का दिल रोता है, जब फ़िल्म या ड्रामा देखकर पब्लिक रोती है, मैं हंसता हूं। इसीलिये अपनी लाईफ़ गड्डमगड्ड है।

अपनी कालोनी का नाम डुबाने के बाद हमारा अगला पयाम था, हमारा कालेज। ऊपर वाले के करम से और मास्टरों की मदद से हम कालेज में भी पहुंच गये। अब पीछे मुड़कर देखते हैं तो लगता है कि कल की बात है और याद करना शुरू करते हैं तो ऐसा लगता है कि हमने कई जन्म उन तीन सालों में बिता दिये। सारे किस्से फ़िर कभी सुनायेंगे, जब फ़ुर्सत होगी आपको, अभी तो एकाध उदाहरण दे देते हैं कि कैसे यारों ने हमें झूठा बदनाम कर रखा है। एक बार हमारे हाथों एक मुर्गा दिसी तरह ओबलाईज़ हो गया। अहसान उतारने के लिये उसने हमारे ग्रुप को एक फ़्री पार्टी की हां कर दी, जिसे हमारे ग्रुप के मेंबर्स ने लपक लिया और उसे यह अभयदान भी दे दिया कि पार्टी के बाद हिसाब बराबर मान लिया जायेगा। अब ये हमारी कमजोरी कह लो या हमारे दोस्तों की ताकत कि जब कुछ कर दिखाने का टाईम आता तो हमें ग्रुप हैड बताते और बनाते और जब फ़ल खाने का समय आता तो हमें गीता के पता नहीं कौन-२ से श्लोक,(जो हमसे ही उन्होंने सुने थे) सुनाकर हमें बताते योगी और खुद बेचारे दुनियावी प्राणी बनकर रहते, जैसेहमारे ख…ख…खान भाई जैसे और दूसरे महान अभिनेता स्टंट सीन जैसे मामूली काम स्टंटमैन से करवाकर हीरोईन के साथ वाले कठिन सीन खुद करने हाजिर रहते हैं कि भाई ये शाट मुश्किल है, तुझसे नहीं होगा, हम कर लेते हैं। तो जी शाम को मंडली झाड़ पोंछकर, इश्टाइलिश कपड़े डालकर, इत्र-फ़ुलेल उंडेलकर तय समय से घंटा भर बाद रेस्त्रां में पहुंचे। हम समय के पाबंद अकेले वहां समय पर पहुंच कर आर्डर वगैरह दे चुके थे। अब सारे के सारे मित्र पूरे दिन के खाली पेट लिये वहां पहुंचे तो खाना तैय़ार। अबे, ऐसी भी क्या जल्दी थी, आर्डर हम आकर दे देते। अर्ज किया कि भाई समय बचाना था इसलिये…। और फ़िर हमारा मुर्गा जल्दी में था इसलिये आर्डर नोट करवा कर और एडवांस में बिल पे कर चला गया है। अब हम ठहरे खाने-पीने में पूरे वेजीटेरियन(डिस्क्लेमर- ये वेजीटेरियन केवल खाने और पीने के मामले में समझा जाये, बाकी मामलों में हम पूरा मौकाटेरियन है। ऐसे चुगद भी नहीं है, कर दिया न पहले से ही क्लियर), तो आर्डर भी वैसा ही दिया था। ये दिन भर के भूखे-प्यासे, मन ही मन अरिस्टोक्रेट की बोतलें खाली करके, मरे हुये मुर्गों की बोटी-बोटी निचोड़ने, झंझोड़ने के ख्वाब देखे हुये देवताओं(हैं तो राक्षस, पर कल को कोई सा ये सब पढ़ भी सकता है, ये संभावना देखते हुये देवता ही ठीक हैं) ने जब सामने रखा सामान देखा तो प्राणी जगत के स्थान पर वनस्पति जगत दिखाई दिया। अब हमें श्राप तो क्या देते, यही विशेषण दे मारा, “तूने तो पंजाबियों का नाम डुबो दिया। अबे, जब पंजाबी ही चिकन-शिकन, मीट-शीट नहीं पाड़ेंगे तो इस साली लाईफ़ साईकिल का क्या होगा?” अब हम कैसे समझाते कि ये सरदर्दी ऊपर वाले पर ही रहने दो, चुपचाप ले लिया सारा इल्जाम एक पूरी कौम का नाम डुबाने का।

अब जी आगे चलकर हमारी नौकरी लग गई एक कचहरी में। महीना दो महीने ठीक ठाक बीते होंगे कि हमारी सीट बदल कर एक हाट सीट पर बैठा दिया गया। बंदे ने पहले तो कोशिश की कि भईया हम सूखी सीट पर ही ठीक हैं, फ़्रिक्शन सा बना रहेगा। फ़िसलेंगे भी नहीं और फ़िर पब्लिक के साथ ऐसा अत्याचार कहां तक ठीक है कि सदियों में जाकर अब कुछ आदत सी पड़ी है सरकारी तरीको से काम करवाने की, और फ़िर आदत बदलने में उन्हें परेशानी होगी। हमारी पहले कौन सी कहीं सुनी गई जो अब सुनी जाती, सीट बन गई हॉट सीट और साथ में हमारी किस्मत से रश्क किये गये, ये अंदाज भी लगवाये गये कि साहब से किसी की सिफ़ारिश लगवाकर यहां बैठने को मिल रहा है, नहीं तो लोग बाग तो इस सीट की तमन्ना लिये हुये पूरी नौकरी काट देते हैं, ये कल के आये हुये इन्हें मलाई खाने को मिल रही है तो नखरे दिखा रहे है, वगैरह,वगैरह। तो जी हमें बहुत जल्दी ही उस हॉट सीट पर बैठने से सर्द-गरम हो गई। अब पब्लिक धक्के से पैसे पकड़ाये, हम हाथ जोड़-जोड़ कर पैसे वापिस करें। पब्लिक घूस की मात्रा बढ़ाकर धक्केशाही करे और हमें भी धक्कामुक्की शुरू करनी पड़ी। एक बार तो एक बूढ़े के कागज लेकर रख लिये कि जाओ बाबा, अगले हफ़्ते तक तुम्हारा काम हो जायेगा। बाबा ने कई बार धीरे से बात करनी चाही, हम दूसरे काम में लगे रहे। करीब दो घंटे बाद देखा तो बाबा वहीं एक बेंच पर विराजमान। हमने हमारे ऑफ़िस के चपड़ासी से कहा कि यार, ये बाबा से कहो कि जाये, उसका काम हो जायेगा। वो जाकर आया और कहने लगा कि बाबा कह रहा है कि जब तक फ़ीस अपने हाथ से नहीं दे देगा, उसे यकीन नहीं हो सकता कि काम हो जायेगा। शाम तक बाबा वहीं बैठा रहा और हमारे जाने के बाद उसी चपड़ासी ने बाबा की इच्छा का मान रखा और अगले दिन हमें पर बता दिया कि बाबा की तसल्ली कर दी थी। मैं माथा पकड़ कर बैठ गया और उससे वो पैसे वापिस मांगे। अब चील के घोंसले में से मांस कभी वापिस मिल सकता है? आगे के लिय उसे अच्छी तरह से समझा दिया कि भैया, मेरे नाम पर या मेरी सीट के काम से किसी से बात भी नहीं करना। शाम को बाबा के घर जाकर उसके पैसे वापिस दिये। गलती ये कर दी किअगले दिन ऑफ़िस में आकर ये बात बता दी(यानि कि टिप्पणी का क्रेज़ तब भी था हमें, देख लो कितने पुराने ब्लॉगर हैं हम विचारों से)। कचहरी के स्टाफ़ से लेकर चाय कैंटीन वाले तक ने कहा, “तुमने कचहरी का नाम डुबो दिया।” झेल गये यह वार भी। शंकर तो भगवान थे, गरल पी गये और कंठ में रोककर नीलकंठ कहलाये और जन-जन के आराध्य बन गये, हम जैसे नश्वर प्राणी के लिये तो इतना ही काफ़ी है(वो भी तभी संभव है कि जब ईश्वर की कृपा रहे) कि पीना पड़े तो घूंट भर लें और कहीं साईड में उंडेल दे। हम तो जी यहीं उंडेलेंगे, इससे बढ़िया जगह और कहां होगी।

हरि कथा की तरह ये व्यथा कथा भी बेअंत है।

5 टिप्‍पणियां:

  1. वाह बडे दिलचस्प अम्दाज मे चल रही आपबीती. बहुत ही रोचकता से बढ रही है. इस अनंत हरिकथा को जारी रखिये.

    रामराम.

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  3. नाराज तो होंगे ही

    सिर्फ सैंकड़ों आने हैं

    हम तो सोच रहे हैं

    कि हजारों लाखों आयेंगे।

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  4. "...............ऑफ़िस में आकर ये बात बता दी(यानि कि टिप्पणी का क्रेज़ तब भी था हमें, देख लो कितने पुराने ब्लॉगर हैं हम विचारों से)। "

    बहुत गजब. बहुत मजेदार पोस्ट है संजय जी. वाह!

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  5. सही किया जो बैंक में आ गए वरना जान खतरे में थी ;)

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