बुधवार, अप्रैल 28, 2010

मैं देर करता नहीं

आज हम अपना पिछला जेंटलमैन प्रॉमिस पूरा कर रहे हैं जी, दस मिनट बनाम दो घंटे वाला। तो साहब, हुआ ये कि मैं अपनी बाईक उठाकर बाज़ार की ओर चल दिया। बाजार के रास्ते में एक तिराहा आता है, जिसका नाम मैंने बारामूडा ट्राईएंगल रखा है। पता है जी कि तिराहे और ट्राईएंगल में फ़र्क होता है, हमने भी अंग्रेजी पढ़ी है(हिंदी माध्यम से), पर ति, TRI से मतलब तीन का ही होता है, इसलिये हमारा रखा नाम बिल्कुल ठीक है। इत्ता बड़ा नाम इसलिये रखा है कि उस तिराहे से निकलते समय हमेशा कुछ न कुछ होने का चांस रहता है, हमारे साथ।

खैर, उस दिन वहां पहुंचे तो सोचा कि यार आज कुछ घटना न घटे, पर सुन रखा था कि ’जहां शेर का डर होता है, वहीं सांझ होती है’। ऐन तिराहे के बीच में अलग अलग रास्तों से आते हुये स्टील के घोड़ों पर सवार दो रण बांकुरे ऐसी मुद्रा में खड़े थे कि तीनों तरफ़ का रास्ता जाम। अब भाई साहब, ये आजकल के मुंडे, सारे के सारे जैज़ी-बी से कम नहीं दिखते। हेयर स्टाईल, दाढ़ी और आभूषण सब एकदम झक्कास। कानों में मुंदरे, हाथों में कड़े, कमीज के बटन खुले। दोनों ने अपनी अपनी बाईक नजदीक करी और ऐसे गले मिले जैसे कुंभ के मेले में बिछड़े हुये दो भाई बरसों के बाद अचानक मिले हों। ये भरत मिलाप देखकर हमारा मनवा तो कश्मीर की कली से गोभी का फ़ूल बन गया कि देखो आज के नफ़रत भरे माहौल में भी कितना प्यार है। काश, ये ब्लॉगर होते!

पूछ ही बैठे पंजाबी में, ’की गल बई, कई सालां बाद मिले हो’?

जवाब आया, “नई जी, रोज मिलदे हां, कट्ठे कॉलेज विच पढ़दे हां। घंटा पहले ही अलग होये सी।”

मैंने कहा, “यार, तुसी तां ऐदां जफ़्फ़ियां पांदे हो जिवें मनमोहन देसाई दी फ़िल्म दे हीरो हो, कब के बिछड़े आज यहां आके मिले।” सुनकर एक जैज़ी बी ने मोटर साईकिल स्टैंड पर लगाई, मेरे पास आया और फ़ूलों की वर्षा शुरू कर दी, “ओये अंकल, थोड़ा ध्यान नाल बोल। sssssss, तू जानदा नहीं सानूं।”

यार, ये पंजाबी भाषा भी कितनी समृद्ध है, फ़िर मुझे चौदह सितंबर को लिया प्रण याद आ गया और राजभाषा का प्रचार प्रसार करने के लिये पंजाबी से हिंदी वाला स्विच ऑन कर दिया। मैंने कहा, “श्रीमान जी, मैंने तो आपसे कुछ भी असंगत नहीं कहा है। आपको मिलना है तो साईड में गाड़ी लगाकर आराम से चाहे हाथ मिलाओ या फ़िर गले मिलो या फ़िर ….., अब तो वैसे भी कोर्ट ने आजादी दे ही दी है, ’मां का लाडला बिगड़ गया’। कम से कम बाकी लोग तो यहां से आराम से गुजर सकें।”

राजभाषा सुनकर जैज़ी बी नं. दो भी आ गया, “अंकल, बाहर दा लगदा है, कुछ बोलन तो पहले देख लिया कर”। और इशारा किया अपनी बाईक की पीछे वाली नं. प्लेट की तरफ़। अब साहब देखा तो दो तलवारें बनी हुई हैं टकराती हुई, और साथ में लिखा है ‘ANYTIME ANYWHERE’| यानी कि, यानी कि ?

मैंने कहा, “मेरी बाईक के पीछे भी देख ले, क्या लिखा है”?

वो घूमकर गया और बोला कि कुछ भी नहीं।

मैंने कहा, “अच्छा,मैंने भी EVERREADY लिखवाया था,मिट गया होगा।यार,तुम ब्लॉगर तो नहीं हो?"(anytime anywhere तो हमारे ब्लॉगजगत की निशानी है, तलवारें तनी ही रहती हैं। ये धर्म-वो धर्म, ये गुट-वो गुट। टिप्पणी कर दी तो क्यूं करी, टिप्पणी नहीं आती तो क्यूं नहीं आती) और हम ठहरे नये-नये ब्लॉगर, सो बात बात पर ब्लॉगिंग-ब्लॉगिंग पुकारते हैं।

इस बीच दूसरे लोगों ने आकर कुछ उन्हें समझाया, हम तो खैर पहले से ही समझ से भरपूर थे, मामला टल गया। चल दिये अपने अपने रस्ते| अब थोड़ी दूर गये तो दिमाग फ़िर हिल गया कि यार एक सूरमे का पिछवाड़ा मतलब उसकी बाईक का पिछवाड़ा तो देख लिया, पर दूसरा तो रह ही गया। अब उस बेचारे ने कितनी मेहनत से सोच समझ कर नम्बर प्लेट पर कुछ लिखवाया होगा, और हमने गौर भी नहीं किया। अब हमारा तो है जी भुरभुरा स्वभाव, लगा दी मोटर साईकिल उसकी मोटर साईकिल के पीछे।पीछा करते करते ये आपका देशी जेम्स बांड पहुंच गया शहर के बाहर, साथ के एक गांव में। अब बीच में ट्रैफ़िक और कोई नहीं था। पंजाबी में हाथ तंग होने के कारण उसकी पीछे वाली नं.प्लेट पर लिखा पंजाबी का डायलाग पढ़ने में एक लीटर पेट्रोल, आधा किलो खून, पाव भर नेत्रों की ज्योति जलाने के बाद जो पढ़ा, उसका हिंदी लिप्यांतरण ये था: “ओखे वेले यार खड़दे, काम्म आंदी नहीं सुणखियां नारां”(मतलब कि मुश्किल समय में यार ही साथ खड़े होते हैं, अच्छे नैन नक्शे वाली नारियां काम नहीं आती)।

वाह बेट्टे, तैने तो वारिस शाह, गालिब, ज़ौक. गुल्ज़ार तक सारे धो दिये। कहां भटक रहा है गांव की गलियों में? तेरी तो जरूरत यहां है, इस ब्लॉग जगत में। फ़िर देख रंग, एक पोस्ट लिख दे इसी शीर्षक की, फ़िर देख तमाशा लकड़ी का, मेरा मतलब लड़्की का, मतलब लैंगिक समानता और स्वतंत्रता का। मैंने उसको ओवरटेक किया और रुकने का इशारा किया। वो भी हैरानी से देख रहा था कि अजीब आदमी से पाला पड़ा है, पीछा ही नहीं छोड़ रहा है। मैंने उसे समझाना शुरू किया कि भाई, ये जो तूने लिखवा रखा है, ये पढ़ने में तो बहुत अच्छा है लेकिन तर्कसंगत नहीं है। भाई, ये जो तूने लिखवा रखा है सुणखियां नारां वाली बात, हमें कुछ जम सी नहीं रही है। काहे से, कि, ये सुणखियां नारां से बच जाओ तो औखे वेले से खुद ही बचे रहोगे, फ़िर यारों ने खड़े होकर क्या करना है, बैठा ही रहन दो बेचारों को। हमारा जैज़ी-बी हंस पड़ा और कहने लगा कि अंकल जी, बात तो सही है आपकी। तो जी, शॉर्टकट में बात ये है कि बंदे को पटाकर वादा ले लिया उससे कि हमारे ब्लॉग पर आकर टिप्पणी जरूर करेगा। इसी सारे झंझट में दस मिनट के काम में दो घंटे लग गये थे, पर कोई अफ़सोस नहीं है हमें। हम हैं ’सुखदुखे समेकृत्वा’ टाईप के जीव।

एक टाईम था, जब कोई नंबर पूछता था तो घर का नंबर बताते थे, फ़िर टेलीफ़ोन पर आये और फ़िर मोबाईल नंबर बताने लगे। आज की तारीख में आलम ये है कि उस दिन अपायंटमेंट लेकर एक डाक्टर के यहां गये, रिसेप्शन पर बैठी सुणखी नार ने पूछा, “सर, आपका नंबर?” हमारे मुंह से सीधा अपने ब्लॉग का एड्रैस निकल गया। आय हाय, किस नजर से देखा जालिम ने, जैसे कोई ऐलियन देख लिया हो। अब मंजर ये हुआ पड़ा है कि रिक्शे वाले, पान वाले, सैलून वाले, दूध वाले गरज ये कि जिसने भी राम राम कर ली, हम तो उससे टिप्पणी का वादा ले लेते हैं, तभी जान छोड़ते हैं। अब तो इतनी दहशत होती जा रही है अपनी कि सड़क पर आते हैं तो सड़क जान पहचान वालों से सुनसान हो जाती है, कि कहीं टिप्पणी पुराण न शुरू हो जाये।

क्या से क्या हो गया, यार मैं भी। आये थे बनने बड़े ब्लॉगर, रह गये मंगते बनकर। मुझे याद आ रहा है वो छोटा सा शिकारा।

:) फ़त्तू ने ट्रेन पकड़नी थी, स्टेशन पहुंचा तो ट्रेन रफ़्तार पकड़ चुकी थी। फ़िम्मत करके फ़त्तू आखिरी डिब्बे में लटक गया। अंदर गया तो पता चला कि एक विवाह पार्टी का रिज़र्व कोच है। बैठ गया, एक सीट के कोने पर अपनी तशरीफ़ का टोकरा थोड़ा सा टिकाकर। थोड़ी देर में बारातियों में से कोई पूरी, कचौड़ी बांटता हुआ आया और फ़त्तू को छोड़कर सबको परोस कर चला गया। कुछ देर बाद लड्डू बंटे, फ़त्तू के अलावा सबको बंटे। इसी तरह इमरती बंटीं और बाहरी आदमी होने के कारण फ़त्तू फ़िर छूट गया। फ़त्तू ने जोर जोर से ऊपर वाले से प्रार्थना करनी शुरू की, “हे भगवान, इस डिब्बे का डिरेलमेंट हो जाये, इस डिब्बे में बम फ़ट जाये, ये भी न हो तो इस डिब्बे में आग लग जाये, आदि आदि।” एक बूढ़ा बाराती बोला, “बावले, ये सब हो गया तो तू बच जायेगा?” फ़तू बड़े कान्फ़ीडेन्स से बोला, “हां।” बूढ़े ने पूछा, “तू अकेला क्यूंकर बच जायेगा।” फ़त्तू ने कहा, “क्यों, जब यहां पूरी, कचौड़ी, लड्डू, जलेबी बंटे थीं, तब नी बच ग्या था, न्यूंऐ बच जांगा।”

वाई बात सै जी, बांट ल्यो थम सारै आपस में टिप्पणियां, मैं बच रया सूं, काल नै जद गूगल महाराज ने सारे ब्लॉग बंद कर दिये न, मैं फ़ेर बच जांगा, मानते हो? नहीं मानते तो लगे रहो ऐसे ही, अपना क्या है, बाकी भी ऐसे ही कट जायेगी।

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शनिवार, अप्रैल 24, 2010

एक फ़रमाईश........!

अभी कुछ दिन पहले ही एक मित्र(वैसे तो मेरे इमीडियेट बॉस हैं, पर मुझे मित्र कहना और मुझसे मित्र कहलाना ज्यादा पसंद करते हैं) ने बातों-बातों में शिव बटालवी की एक रचना का जिक्र किया। इत्तफ़ाकन अगले दिन से ही मुझे सप्ताह भर के लिये कम्प्यूटर, टी.वी. से दूर रहना था। अब ये साली आदत जब पक जाती हैं तो बहुत दुखी करती हैं। पहले किताबों की आदत थी, वो छूटी तो नेट से लगाव बनाया। अब ये भी दुर्लभ हो जाये तो बची अखबार, अब अखबार में भी बंदा क्या क्या पढ़ लेगा? वही घिसी पिटी खबरें, बस रोज थोड़ा सा नाम और तारीख बदल कर डाल दीं, हो गया काम। उन से कहा कि शिव की कोई किताब हो तो हमें दे दो। उन्होंने कहा कि किताब तो नहीं है, पर डायरी में कुछ नज़्में उतार रखी हैं, वो दे देंगे। भले आदमी ने अपनी तरफ़ से पूरी मेहनत करते हुये एक कागज पर शिव बटालवी की एक कालजयी रचना ’मैंनूं तेरा शबाब लै बैठा’ उतार कर अगले दिन अलसुबह ही हम तक पहुंचा दी। एक कागज देखकर मैं भी कुछ मायूस हो गया पर फ़िर सोचा ये भी न होती तो क्या कर लेता? कुछ समय के बाद जब कागज खोल कर देखा तो गीत गुरूमुखी भाषा में ही लिखा हुआ था। अब जोड़-तोड़ कर पढ़्नी शुरू की तो हर पंक्ति में कोई न कोई ऐसा अक्षर आ जाता कि उदगारों के कई ऑप्शन नजर आने लगते। ग्यारह वर्षीय छोटे बेटे को पटाया और दिक्कत वाले शब्द उससे क्लियर करवाये(आखिर वो पिछले दो साल से पंजाबी विषय पढ़ रहा है)। अब वो शब्द पढ़ दे और हमसे उनका मतलब पूछे, अजीब मुसीबत रही। आखिर शाम तक हमारा वो एक पेज पढ़ पाना मुकम्मिल हुआ। जब रात में एक बार वो पूरा गीत पढ़ा तो यकीन मानिये, पूरे दिन की मेहनत वसूल हो गई। कितनी पीड़ा सही होगी, शिव तुमने? फ़र्ज पूरे करने की अपेक्षायें, मजबूरियां, नाकामियां, बेरुखी क्या क्या नहीं झेला होगा? मेरा एक पूरा सप्ताह इस रचना को पढ़्ने, समझने में लग गया और मैंने यह फ़ैसला पहले दिन ही कर लिया था कि बस इस गीत के बाद शिव का कोई गीत, रचना नहीं पढ़ूंगा। या फ़िर शायद पढ़ ही नहीं पाऊंगा। लौटने के बाद हालांकि नेट पर जगजीत सिंह की आवाज में और कहीं से जुगाड़ करके आसा सिंह मस्ताना की आवाज में भी यह सुनी, पर पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि शिव के साथ न्याय नहीं हो पाया। वो कागज तो इतनी बार मेरे हाथ से खुला और मोड़ा गया कि लगभग फ़ट सा गया है, मैंने घर लौटते ही इस गीत को पहले पंजाबी में कम्प्यूटर में सेव किया और फ़िर रोमन में उसे सुरक्षित किया। पढ़ना चाहेंगे क्या शिव के दर्द को? क्या दर्द की कोई सीमा हो सकती है? क्या हाल रहा होगा उसका जब वो सिर्फ़ गम पर ही भरोसा कर रहा था और वहां से भी जवाब मिल गया!!

मैनूं तेरा शबाब लै बैठा,

रंग गोरा गुलाब लै बैठा,

मैनूं तेरा शबाब लै बैठा|

किन्नी बीत गयी ते किन्नी बाकी है,

किन्नी बीत गयी ते किन्नी बाकी है,

मैनूं ऐहो हिसाब लै बैठा|

वेहल जद वी मिली है फ़र्जां तों,

वेहल जद वी मिली है फ़र्जां तों,

तेरे मुख दी किताब लै बैठा,

मैनूं तेरा शबाब लै बैठा|

मैनूं जद वी तुसी हो याद आये,

मैनूं जद वी तुसी हो याद आये,

दिन दिहाड़े शराब लै बैठा,

मैनूं तेरा शबाब लै बैठा|

शिव नूं एक गम ते ही तां भरोसा सी,

शिव नूं एक गम ते ही तां भरोसा सी,

गम तो कोरा हिसाब लै बैठा,

मैनूं तेरा शबाब लै बैठा|

मैनूं तेरा शबाब लै बैठा|

रंग गोरा गुलाब लै बैठा,

मैनूं तेरा शबाब लै बैठा|

(शिव बटालवी)

बताते हैं कि शिव बहुत छोटी उम्र में ही इस दुनिया से चले गये थे। शिव ही क्यों, गुलेरी जी, जिनकी सिर्फ़ तीन कहानियां उपलब्ध हैं(हालांकि सिर्फ़ ’उसने कहा था’ अकेली ही इनकी संवेदनशीलता दर्शाने को पर्याप्त थी), और फ़िर भी जिनका शुमार हिंदी के अमर कहानीकारों में किया जाता है, अल्पायु में ही चले गये थे। ऐसे प्रतिभाशाली लोगों की सूची बहुत लंबी है, गुरुदत्त, मीना कुमारी, मधुबाला, मर्लिन मुनरो और अनंत ऐसे ही और भी। आयु भले ही कम रही हो इन सबकी, लेकिन जो इन्होंने रच दिया, जो कर दिखाया वह अकल्पनीय है। ऐसा नहीं है कि जिनको लंबी आयु मिली, वो प्रतिभाशाली नहीं हैं, पर जो जल्दी चले गये हैं, वो बहुत शिद्दत से याद आते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि ज्यादा संवेदनशील होने के कारण ही वो इतना सृजन कर सके और इस दुनिया की वास्तविकता से तारतम्य नहीं बिठा सके? क्या इन्हें भान था कि प्रारब्ध ने कितनी सांसे इनके खाते में लिख रखी हैं?

गुलेरी जी की दो-दो पंक्तियां और देखें:

1. मुझ तरू को इस भरी बसंत में ही झरना था,

मुझको इस चढ़ते यौवन में ही मरना था।

2. जीवन का है अंत, प्रेम का अंत नहीं,

इस कल्पतरू के लिये शिशिर, हेमंत नहीं।


शिव, मुझे तुम्हारा ये कलाम सुनना है, और तुमसे ही।

मेरी फ़रमाईश पूरी करोगे न?

मुझे मालूम है कि करोगे, क्योंकि ये उम्र के फ़ासले, अमीरी-गरीबी के भेद, औरत-मर्द के अंतर, धर्म-जाति के बंधन ये सब जगह थोड़े ही होते हैं, सिर्फ़ इस दुनिया तक ही तो हैं।

लोग दिल का रोना रोते हैं, दिमाग स्साला साफ़ बच निकल जाता है। हमारे जैसा एकाध हिला हुआ हांक लगा भी दे तो लोग हंसते हैं कि ’दिमाग की फ़ार्मैटिंग’ क्या बात कह दी यार। ठीक है भैय्ये, हंस लो - हमारा क्या है? कट जायेगी।

p.s. - आदरंणीया घुघूती बासूती जी, आपका आभार प्रकट करना चाहता हूं। लिखा तो बहुत कुछ था, पर आपकी कोई मेल आई.डी. उपलब्ध न होने के कारण सब मिटा दिया था। अब सिर्फ़ आभार स्वीकार करें।

मंगलवार, अप्रैल 20, 2010

खेद सहित!

क्लोरमिंट वाली पोस्ट में मैंने ज़िक्र किया था कि बाज़ार में दस मिनट के काम में दो घंटे लग गये थे। सोचा था कि आज इस मिस्ट्री(बारामूडा ट्राईएंगल से भी ज्यादा बड़ी) पर से पर्दा उठा दूं, पर अभी रहने देते हैं। और भी कई जरूरी बातें हो गई हैं, पहले उन्हें झेल लो।

दो तीन दिन पहले benamee साहब ने एक पोस्ट लिखी थी जिसमें उन्होंने ये अनुरोध किया था कि हम सबको कम से कम एक ढंग का अंग्रेजी भाषा का एक ब्लॉग रोज़ाना पढ़ना चाहिये। आगे बढ़ने से पहले स्पष्ट कर दूं कि मैं बेनामी जी की पुरानी पोस्ट्स से भी सहमत रहा होऊं या नहीं, पर उनके द्वारा उठाये गये विषयों पर और उनके प्रयासों का प्रशंसक हूं(मूक समर्थक ही सही)। ताजा पोस्ट में उन्होंने एक लिस्ट दी है चिट्ठाकारों की, जिनके बारे में उनकी राय कुछ ऐसी थी कि इन लेखकों/लेखिकाओं में संभावना दिखाई देती है। हालांकि उन्होंने खुद ही कह दिया कि ये लिस्ट संपूर्ण नहीं है। इस सबसे यह पता चल जाता है कि कितना स्पेडवर्क इन साहब को करना पड़ा होगा, वो भी बिना किसी स्वार्थ के। इस खाकसार का नाम भी उस लिस्ट में शामिल है, और बाकी नाम देखकर मुझे ऐसा लगा जैसे कि मैराथन में धुरंधर धावकों के बीच में किसी ऐसे को भेड़ दिया जाये जो अभी चलना भी नहीं जानता। कोई और होता तो कृतज्ञ होता, पर हमने तो बैनर में ही डिस्कलेमर लगा रखा है कि ’मो सम कौन?(कुटिल, खल, कामी)’, इसलिये अपने सात खून भी माफ़ होने चाहियें जी।

अब बात ये है साहब, कि मैं तो सही मायने में कुछ भूलने के लिये यहां आया हूं, सीखने के लिये नहीं। और पहले अंग्रेजी के ब्लॉग्स ही देखे, पढ़े थे लेकिन एक बार हिंदी ब्लॉग्स देखे तो यहीं के होकर रह गये। अपनी प्रकृति से मेल खाते हुये, टांग खिंचाई, रोमांच, मनोरंजन, तूतूमैंमैं, टंगड़ी मारना, खेमेबंदी, मोर्चाबंदी, घात-प्रतिघात, राई का पहाड़ बनाना, धर्म, कर्म, शर्म, मर्म जैसे सदगुणों से युक्त इस ’स्वर्गादपि गरीयसी’ संसार को तजकर जाना हमें मंजूर नहीं है। और फ़िर, आजकल अपना आज्ञापालन वाला स्विच ऑफ़ है। दूसरों की इच्छाओं का सम्मान करते करते अपच सी हो गई थी। कुछ दिन के लिये स्वभाव परिवर्तन कर रखा है। है ये मेरी बदकिस्मती ही. कि इतनी नेक सलाह ऐसे समय में आई है जब मैं इसे मान नहीं पा रहा हूं। अजीब सी बात है, पर ऐसा ही है कुछ।

एक बार एक आदमी झोंक-झोंक में नारियल के पेड़ पर चढ़ गया। अब नीचे ध्यान गया तो धरती मीलों दूर दिखाई दी। वृक्ष देवता की मनौती मांगी कि ठीक ठाक नीचे उतर गया तो एक सौ एक रूपये का प्रशाद चढ़ायेगा। धीरे धीरे नीचे उतरना शुरू किया, जमीन से दूरी आधी रहने पर मनौती की रकम इक्यावन तक आ गई। थोड़ा और नीचे आने पर इक्कीस, और फ़िर ग्यारह और जब धरती पांच छ: फ़ुट दूर रह गई तो फ़िरौती(मनौती) राशि पांच रूपये रह गई। उसने पेड़ से छलांग लगाई, टटोल कर देखा कि कोई चोट वोट तो नहीं लगी और निश्चिंत होकर वृक्ष के तने को सादर नमस्कार किया और बोला, “महाराज, न चढ़ेंगे अब और न चढ़ायेंगे”।

बेनामी महोदय, पूर्ण विनम्रता से आपका आभार व्यक्त कर रहा हूं कि मुझे आपने नोटिस किया। प्रतिक्रिया अपनी वही है, “महाराज, न चढ़ेंगे अब और न चढ़ायेंगे”। मैं कोई ऐसा सपना नहीं पाल कर आया हूं कि मुझे बड़ा भारी साहित्यकार बनना है(अपनी क्षमता का भान है मुझे), सिर्फ़ हल्की फ़ुल्की मौज लेने का उद्देश्य है। दूसरों की अपेक्षाओं पर पूरा उतरने की कूव्वत नहीं है मुझमें। आशा है कि आप तक अगर यह बात पहुंचेगी तो अन्यथा नहीं लेंगे। मैं आपका प्रशंसक हूं, और रहूंगा। मेरी कोई बात कभी भी अनुचित लगे तो बेझिझक आदेश दे सकते हैं, अनुरोध छोटों को शोभा देता है।

दो और ब्लागर्स के प्रति कृतज्ञता(???)प्रदर्शित करनी है, पर सोचता हूं कि सबको एक साथ नाराज कर दूं तो कैसे चलेगा? मिलते हैं फ़िर ब्रेक के बाद – लेकिन उससे पहले अपने नए मित्र महफ़ूज़ का आभार प्रकट करना चाहूंगा कि फ़त्तू पसंद आया उन्हें(यार लोग चढ़ा ही देते हैं मुझे, और मैं भी ऐसा हूं कि बस्स्स्स…………..)

:) फ़त्तू की सास का आई.क्यू. तो पता चल ही चुका है, आज ससुर का भी आई.क्यू. देख लीजिये। फ़त्तू अपनी ससुराल गया तो घर में केवल उसका ससुर ही था। थोड़ी देर के बाद फ़त्तू, जोकि अभी अभी कुछ महीने लखनऊ में बिताकर आया था, अपने ससुर से बोला, “जी, अब आप इजाजत दे दो तो मैं जाऊं वापिस”। ससुर के होश गायब कि ये पता नहीं क्या मांग रहा है। बात घुमाते हुये उसे कहने लगा कि यार ये खेती का काम ऐसे और वैसे। फ़त्तू ने फ़िर इजाजत मांगी। ससुर ने फ़िर गांव जवार की बात फ़ैलाई। फ़त्तू ने फ़िर इजाजत मांगी, ससुर का गुस्सा अब फ़तू की सास पर बढ़ने लगा कि मुझे बताकर नहीं गई ये इजाजत नाम की बला के बारे में। इतने में फ़तू की सास आ गई और जब फ़त्तू ने इजाजत मांगी तो उसने अपनी कुर्ती की जेब से पांच का नोट निकाला, न्यौछावर किया और फ़त्तू को सौंप दिया। जब वो चलने लगा तो ससुर बोला, “अबे ओ, बावली बूच, इजाजत इजाजत मांग के मेरा खून पी लिया तैने, तन्नै पांच रुपल्ली चाहिये थे तो सीधे-सीधे न कह सके था कि पांच रुपये दे दो।”



शुक्रवार, अप्रैल 16, 2010

हम क्लोरमिंट क्यूं खाते हैं?

वैसे तो जी हमारी किस्मत में अब टी.वी. देखना है नहीं, पर जब कभी बिल्ली के हाथों छींका टूट जाता है तो क्लोरमिंट वाला विज्ञापन देखना बहुत अच्छा लगता है। कितनी मासूमियत से प्रश्न पूछा जाता है, “पर हम क्लोरमिंट क्यूं खाते हैं?” उतनी ही मासूमियत से झन्नाटेदार हाथ पड़ता है, “दुबारा मत पूछना।” माई-बाप, पूछेंगे नहीं तो आपकी मासूमियत का कैसे पता चलेगा?

हम जैसों को तो विज्ञापन ही सबसे रोचक लगते हैं और ज्ञानवर्द्धक भी। ट्रेंड पता चल जाता है जी आजकल टोईंग क्या है, मैको किसे कहते हैं, बिना टिकट यात्रा करनी हो तो कौन सा डियोडेरेंट प्रयोग करना चाहिये आदि आदि। वैसे भी पहले कार्यक्रमों के बीच विज्ञापन आते थे, अब विज्ञापनों के बीच फ़िलर्स के रूप में कार्यक्रम आते हैं। और फ़िर जो कार्यक्रम आते भी हैं तो जैसे हमें नीचा दिखाने के लिये ही सभी चरित्र मेकअप-शेकअप करके, डेंटिंग-पेंटिंग करवाके एक दूसरे से होड़ कर रहे हैं कि इस बंदे को नीचा दिखाना ही हमारे जीवन का उद्देश्य है।

टी.वी. की दुनिया की मानें तो दुनिया में नारी शक्ति का राज आ चुका है। ये जो घरों में काम करती बाईयां, निर्माण स्थल पर मजदूरी करती औरतें, सड़कों पर कूड़ा बीनते बच्चे और औरतें, चंद रुपयों के लिये पता नहीं क्या-क्या सहने के लिये मजबूर सी दिखती औरतें – ये सब शायद माया है, असली सच तो वही है जो चैनल्स पर धारावाहिकों और विज्ञापनों में दिख रहा है।सभी धारावाहिकों में देखेंगे तो सिच्युएशन कंट्रोल पूरी तरह से स्त्रियों के हाथ में है। डिज़ाईनर ज्वैलरी, साडि़यों से लदी, कान्फ़ीडेंस के इत्र से सरोबार पात्रायें जब डिलीवरी पर उतारू होती है(अमां डायलाग्स डिलीवरी की बात कह रहे हैं) तो कयामत जैसे आ ही जाती है, “हम ये कभी बर्दाश्त नहीं कर सकते”, “हम सब संभाल लेंगे”, “अब वही होगा जो हम चाहेंगी” वगैरह वगैरह। हम स्क्रीन के इधर बैठे हुये भी सूखे पत्तों की तरह कांपने लगते हैं। बात बात पर पर्स से चैक निकालकर दो करोड़, पांच करोड, बीस करोड़ यहां तक कि सौ करोड़ भी भरते हैं और ब्लैकमेलर या जिसको कुछ कीमत देनी हो, उसके मुंह पर मारती हैं। दस बीस लाख के चैक तो गिफ़्ट में ही या शोपिंग के लिये ही लुटा दिये जाते हैं। हम ये हिसाब लगाते रहते हैं कि कितनी ज़ीरो लिखी जाती होंगी इतनी रकम में।

एक दिन तो गजब ही हो गया, एक मॉड-मॉम ने शायद बेटी के बर्थडे पर दस लाख का चेक पकड़ाया तो हमारा छोटा साहबजादा, जिसे कार्टून चैनल्स देखते रहने पर हमारी मासूमियत से दो चार होना पड़ता है, पूछने लगा, “पापा, आपकी सेलरी कितनी है”? हम तो सन्न रह गये। झूठ बोलें तो कौए के काटने का डर और सच बोलें तो इज्जत के सेन्सेक्स की तरह गोता खाने का अंदेशा। उठे, मोटरसाईकिल की चाबी उठाई और उससे कहा कि अभी आता हूं। गये बाजार, खाने पीने का सामान खरीदा(रिश्वत ली नहीं है, पर देनी पड़ती है बहुत बार) और दो घंटे के बाद घर लौटे। अब इतने से काम में दो घंटे कैसे लग गये, ये कहानी फ़िर सही – मेरे साथ ऐसा पता नहीं क्यूं होता है, जाना होता है और कहीं, कहीं ओर चला जाता हूं।

खैर, लौटा तो उसकी आईसक्रीम उसे दिखाकर फ़्रिज़ में रखी और सामने बिठाकर उससे कहा, “अब बोल”।

बेटे ने मासूमियत से पूछा, “पापा, आपकी सेलरी कितनी है”?

मैंने जेब से क्लोरमिंट निकालीं, अपने मुंह में डाली और अपनी मासूमियत जाहिर करी और फ़िर कहा, “दुबारा मत पूछना”।

अब पता था कि रोयेगा, इसीलिये तो आईसक्रीम पहले ही ला कर रख दी थी।

बड़े-बड़े चैनल्स के प्रोड्यूसर्स, डायरेक्टर्स, प्रोग्राम मैनेजर और दूसरे जिम्मेदार लोगों, हमारी तरफ़ से तुम्हें पूरी छूट है कि हमारे जैसों के लिये कोई ढंग का कार्यक्रम बनाने के कठोर फ़ैसले लेकर अपनी अंतरात्मा को कष्ट न दो।

इजाजत है तुम्हें कि फ़ैलाते रहो जितनी गन्दगी फ़ैलानी है। तुम्हारे लिये जरूरी है कि अपना लाभ देखो और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का फ़ायदा उठाओ।

हमारा क्या है, हमारी तो कट ही जायेगी जैसे-तैसे।


:) फ़त्तू पहली बार अपनी ससुराल गया था। चाय नाश्ता करने के बाद उसने जेब से पचास का नोट निकाला और अपने छोटे साले से कहा, "जाकर बाईस का बीड़ी का बंडल और सत्ताईस की माचिस ले आ"। सासू ने सुना तो सोच उठी कि जमाई तो बहुत पैसे लुटाने वाला है। हैरान होकर पूछने लगी, "इत्ते इत्ते रूपये तुम फ़ूंक देते हो, बीड़ी वीड़ी में"? फ़त्तू के मौका हाथ आ गया, बढ़ाई चढ़ाई का, बोला, "सासू मां, ये तो ससुराल हल्की मिल गई हमें जो बाईस सत्ताईस से काम चला रहे हैं, न तो हम तो 501 या 502 से कम की बीड़ी फ़ूंका ही नहीं करते थे कभी भी"।

मंगलवार, अप्रैल 13, 2010

मेरी असली पहचान?

मैं दलित, वंचित या पिछड़ा नहीं हूं,

मैं तय मापदंड से नीचे के आय वर्ग से भी नहीं हूं,

इसके अतिरिक्त मैं अल्पसंख्यक भी नहीं हूं,

और तो और मैं नारी भी नहीं हूं।


तो यह तय रहा कि मैं शोषक अगड़ा हूं,

मैं खून चूसने वाले पूंजीवादी वर्ग से हूं,

इसके अतिरिक्त बहुसंख्यक होने के कारण देश की सांप्रदायिक विषमताओं से मुझे कोई डर नहीं है,

और मैं नारी उत्पीड़न गिरोह का सक्रिय सदस्य हूं।


क्या मेरे इतने अपराध कम हैं मुझे सज़ा देने के लिये?

आखिर सदियों से मेरे मर्द पुरखों ने अपनी शक्ति का दुरूपयोग किया है,

मैं अभिशप्त हूं कि आरोप सहूं और सज़ा भुगतूं

खुद भी और अपने आश्रितों को भी घुटते हुये जीते देखूं

आखिर सदियों से…..


मेरे दुख झूठे हैं क्योंकि मैं हंसता दिखता हूं,

मेरा प्रलाप व्यर्थ है क्योंकि ये दिखावा है,

मुझे सज़ा मिलना ठीक ही है,

जिसे दुख होता है, वो हंस थोड़े ही सकता है।


ये किसने कहा था मुझसे मेरे बचपन में ही?

कि मर्द को दर्द नहीं होता।

ओह, तभी मुझे दर्द नहीं होता है,

या जो होता है वो दर्द नहीं कुछ और है।


बेशक मैं अपने आप को एक भारतीय मानता होऊं,

मेरी असली पहचान तो यही है कि

मैं एक अगड़ी जाति का, मध्यम आय वर्ग का मर्द हूं।


शनिवार, अप्रैल 10, 2010

हिसाब चुकता!

आज के दिन ब्लॉग पर आपको हिट होने की लालसा है तो सबसे सहज, सरल और सुलभ फ़ार्मूला है कि विवादास्पद लिखा जाये। कविता, गजल, कहानी, सामाजिक विषयों पर लिखना दिमाग वालों का काम है। हम जैसों को तो वैसे काम पसंद हैं कि जिनमें सामने वाला ये कहकर उकसाये कि ’इसमें भी कोई दिमाग लगता है क्या’। तो जी हमने सोचा था कि कभी किसी विवाद में नहीं फ़ंसेंगे, पर मन का सोचा होता है कहीं? उंगलियां टूट गईं, आंखों से धुंधला दिखने लगा, घर के सदस्य नाराज रहने लगे, बिजली का बिल और इंटरनेट का खर्चा बढ़ गया है पर मजाल है किसी का दिल पसीजा हो। जब टिप्पणियां नहीं आनी थीं तो नहीं आईं बस। अब हमने भी सोच लिया है कि थोड़े दिन और देखेंगे, न सुधरे लोग बाग तो हमीं बिगड़ जायेंगे और फ़िर कुछ ऐसा लिखेंगे कि न चाहते हुये भी लोग आयेंगे और टिप्पणियों से नवाज कर जायेंगे। बेशक गाली देकर जायें, पर कुछ न कुछ देकर ही तो जायेंगे।

अब योजना बनानी शुरू की तो पहला प्रश्न था कि विषय कैसा होगा? ले देकर अपनी रेंज में दो विषय आते दिखाई दिये – दोनों इतने ही प्राचीन और सनातन हैं कि जितनी ये धरती और इतने नये भी हैं कि कभी बासी नहीं होते। एक विषय था, नारी स्वतंत्रता और दूसरा था ’मेरा धर्म महान’। पहले विषय के बारे में सोचते ही पसीने छूटने लगे। गर्मी बहुत है यारों, पहले ’यूरेका’ हो जाता अपने राम को तो मौसम ठीक था उस समय, आजकल तो ये सोचने में ही पसीने छूट रहे हैं। अब कोई ये न समझ ले कि हम किसी से डर गये हैं, बस मूड नहीं बन रहा है, फ़िर देखेंगे। गृहमंत्री बड़े सख्त मूड में हैं और हम इस समय में परेशानी बढ़ाना नहीं चाहते हैं किसी की भी। ये सर्दी का मौसम बहुत देर से आता है वैसे।

अब ये पक्का इरादा कर लिया कि दूसरे विषय पर कोई समझौता नहीं करना है। जिधर देखो, प्रवचन हो रहे हैं, ज्ञान बंट रहा है, चैलेंज लिये दिये जा रहे हैं। इमोशनल, सेंसेशनल, टेंशेसनल पोस्ट्स धड़ाधड़ छप रही हैं। आसान काम है जी, कुछ भी लिख दो। कौन आ रहा है हिसाब मांगने। चेले आ आकर टिप्पणी पे टिप्पणी मारेंगे, धरम का धरम हो गया और करम का करम। इहलोक भी सुधर गया और परलोक भी। यहां भी नाम हो गया और वहां भी हूरें रिज़र्व हो गईं। भाई लोगों, तुम्हारा धर्म वाकई महान है और शायद तुम से ज्यादा हम ये बात मानते हों, पर क्या पड़ी है तुम्हें औरों को सुधारने की। काहे जी हलकान करते हो, अपना भी और दूसरों का भी। हम तो जब रेल में भी जाते हैं तो यही दुआ मांगते हैं कि ज्यादा भीड़ न हो, कहीं सीट शेयर न करनी पड़े। और एक तुम हो, पता नहीं किन किन चीजों में अपना हिस्सा औरों के साथ बांटने के लिये उतावले हो रहे हो। वाकई, तुम सबसे महान हो। कोई देश, समाज, धर्म या जाति ऐसी नहीं है जिसमें अच्छाईयां और बुराईयां न हों। सुधारने का इतना ही बीड़ा उठा रखा है तो पहले अपने आसपास ये अभियान चलाओ। सफ़ल होने के बाद अपना दायरा फ़ैलाओ। ये क्या बात हुई कि जहां कुछ स्कोप देखा, लग गये ऑफ़र बांटने।

एक बात याद आ गई, आओ बांट लें।

जैसे फ़ोर्स्ड बैचलर होते हैं, दो फ़ोर्स्ड ट्रैवलर्स थे जिन्हें रात के समय एक जंगल से होकर गुजरना था। विचारधारा मिलती नहीं थी, जैसे आपकी और दूसरी पार्टी की नहीं मिलती है और रास्ता एक था, जिसपर चल कर मंजिल तक पहुंचना था। ठीक वैसे ही, जैसे हमें इसी देश में साथ साथ रहकर जीवन बिताना है। खैर, दोनों चल रहे थे और कुछ दूर चलकर एक को शौच की आवशयकता महसूस हुई। उसने अपने हमराही से कहा कि तुम यहीं खड़े रहो, मैं निपट कर आता हूं। दूसरे के मन में डर कुछ ज्यादा ही था, रात का समय, शेर का डर, साथी से दूरी मंजर को और खतरनाक बना रहे थे। वो बोला, यार मुझे भी कुछ हाजत महसूस हो रही है, मैं भी निपट लूंगा। दोनों बैठने लगे। दूसरे ने बात बनाई, “यार सावधान तो रहना ही चाहिये, तुम उधर मुंह करके बैठो और मैं इधर मुंह करके बैठूंगा। शेर किसी भी तरफ़ से आयेगा तो पता चल जायेगा।” बैठ गये साहब, पीठ से पीठ जोड़कर। अंधेरे में झींगुर की आवाज भी शेर की आवाज लग रही थी। पहले ने दूसरे को ढांढस बंधाया कि यार डर मत। दूसरा अपनी हेठी कैसे झेलता, बोला, “डरता कौन है यहां?” पहले ने समझाया कि भाई डरता नहीं है तो अपनी धो ले, मेरी क्यों धो रहा है?

दुहाई है महाराज, समझ लेओ समझ में आये तो, सब एक ही जहाज के सवार हैं। जहाज डूबेगा तो कोई भगवान सारे हिंदुओं को, और कोई खुदा सारे मुसलमानों को बचाने नहीं आने वाला है। बचेंगे तो सारे और डूबेंगे तो सारे। खुद सुधर जाओ, और सारे अपना अपना घर सुधार लो, तो बहुत है। तुम्हारी भी जय-जय और हमारी भी जय-जय, बहुत दुश्वार है क्या?

कुछ दिन पहले विचार शून्य वाले दीप महाशय ने हम पर अपनीVICHAAR SHOONYA एक पोस्ट अर्पित कर दी थी। बताओ, कैसे कैसे तो लोग हैं और कैसी कैसी पसंद है लोगों की? पर ये बहुत पुरानी बीमारी है हमारी कि उधारी बाकी नहीं रखते। वैसे तो हम बहुत बदल गये हैं पहले से पर कभी कभी पुराने मर्ज उभर कर आ जाते हैं। ले लो भईया वापिस, जो प्यार तुमने मुझको दिया था, वो प्यार तेरा मैं लौटा रहा हूं। कर दी तुम पर अर्पित।

डिस्क्लेमर:- किसी भी जड़ चेतन की भावनायें आहत करने का उद्देश्य नहीं है, सिर्फ़ एक प्रलाप समझा जाये।

सोमवार, अप्रैल 05, 2010

बाल बाल बचे।

हे परम पुरख परमात्मा, वाहेगुरू, खुदा, गॉड तेरा लाख-लाख शुक्र है। उम्मीद है कि नाम क्रम को प्रेस्टीज इश्यू नहीं बनाओगे, आखिर तो किसी का नाम पहले आना ही था। फ़िर हम बेशक इन सब नामों में फ़र्क मानते हों, और अपने अपने आराध्य को दूसरे के आराध्य से श्रेष्ठतर मानते हों, हो तो तुम एक ही शक्ति। तो हमारा शुक्राना सब को एक साथ।

पटरी बदल हो गई जी बहुत, और इस बात पर चर्चा, परिचर्चा, वाद, विवाद करने वाले और बहुत से पढ़े लिखे, आलिम फ़ाजिल बैठे हैं, हम किसी खेत की मूली नहीं हैं। मूली तो फ़िर बड़ी होती है, हम तो टमाटर भी नहीं है और इस बात का ज्ञान अपने को है। लेकिन आज वाहेगुरू का शुक्रिया जरूर अदा करते हैं नहीं तो हम से बड़ा कृतघ्न शायद कोई और नहीं होगा। बात समझने के लिये ये चित्र देखना पड़ेगा।

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(चित्र साभार दैनिक भास्कर)

कल एक बहुत बड़ा हादसा होते होते बच गया। कबड्डी कप के एक मैच के दौरान एक पूरे सात फ़ुट का मानव रहित विमान मैदान में गिरा। मुख्य अतिथि महोदय विमान गिरने की जगह से महज सत्तर मीटर की दूरी पर विराजमान थे। इसे कहते हैं ’बाल बाल बचना’(बोल्डनेस के आने तक इसी उदाहरण से काम चलाना पड़ेगा)।

लोग कहते हैं कि मैं पत्थरदिल इंसान हूं। मैंने तो जब से यह अखबार में पढ़ी है, मेरे दिल का चैन और सुकून सा छिन गया है। और क्या सुबूत चाहिये लोगों को मेरी संवेदनशीलता का?

आज पूरे एक दिन की छुट्टी लेकर घटनास्थल का दौरा भी किया। वहां जाने पर पता चला कि कुछ सिपाहियों को चोटें भी लगीं। कोई बात नहीं, पुलिस और फ़ौज वालों को चोट लग भी जाये तो क्या है, हैं किसलिये? यहां तो शहीद होने के बाद भी पता नहीं बाकी घरवालों को क्या क्या झेलना पड़ता है। हमने अपने स्टिंग आपरेशन के दौरान स्थानीय निवासियों से बात करनी चाही तो वहां खड़े एक स्थानीय बंदे ने एक बात और बताई कि कुछ दिन पहले भी एक मिलती जुलती भीषण घटना हो चुकी है। विवरण नीचे पढ़े:-

कुछ दिन पहले एक टू सीटर हैलीकॉप्टर दुर्घटनाग्रस्त होकर साथ के एक गांव के कब्रिस्तान में गिर गया। जैसा कि हमारे देशवासियों की खासियत है, साधारण समय में ’डिवाईडिड वी फ़ाल’ संकट के समय सभी मतभेद भुलाकर ’युनाईटिड वी स्टैंड’ हो जाते हैं। गांव के लोग सारे काम छोड़कर दुर्घटनास्थल की और भागे और राहत कार्य में जुट गये। पुलिस हमेशा की तरह वारदात के लगभग डेढ़ घंटे के बाद वहां पर पहुंची तब तक गांववासियों ने संकटस्थिति में विकट साहस, सूझबूझ दिखाते हुये हालात पर लगभग काबू पा लिया था। तब तक घटनास्थल(कब्रिस्तान) से लगभग 138 शव बरामद किये जा चुके थे और राहत कार्य जारी थे।

अब भी अगर कोई यह कहे कि अखबार में छपी हुई इस खबर के लिये ईश्वर को शुक्रिया कहकर तंग करने की कोई जरूरत नहीं थी तो पत्थरदिल वही है। अब कितनी लाशें बरामद होतीं यदि यह महज सत्तर मीटर का फ़ासला न होता? हमारी तो रूह कांप रही है जी यह सोच सोच कर।

वैसे ये खंभा नं. चार बहुत ताकतवर है और हम बहुत आशावादी हैं। आयेगा वो दिन भी जब ऐसी घटना किसी भी नागरिक के साथ होगी और सभी राष्ट्रीय स्तर के अखबार इस खबर को प्रमुखता से छापेंगे।

’हम होंगे कामयाब, हम होंगे कामयाब।

हमको है विश्वास, पूरा है विश्वास,

हम होंगे कामयाब एक दिन॥’

“जाने भी दो यारो” संभालो तुम वड्डे लोगों को, हमारी तो देखी जायेगी। हमारे ऊपर से रोज इत्ते बड़े बड़े जहाज गुजर जाते हैं, हमारी तो किसी ने न खबर छापी।

रिपोर्ट द्वारा:- खंभा सं. 90,46, 37,420वां(1970 में शायद जनसंख्या इसके आसपास ही रही होगी| नंदन नीलकेनी साहब से अनुरोध करेंगे कि यही हमारा यूनीक आईडेंटीफ़िकेशन नंबर अलाट किया जाये)।

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शनिवार, अप्रैल 03, 2010

नया शिगूफ़ा

घटनास्थल: दिल्ली का एक स्टेशन

समय: सुबह के सवा आठ(हापुड़ पैसेंजर के आने का समय)

घोषणा की गई कि हापुड़ से चलकर वाया गाजियाबाद तिलक ब्रिज जानेवाली हापुड़ पैसेंजर लगभग चालीस मिनट लेट आयेगी, रेलवे की इस घोषणा के जवाब में भीड़ में से कुछ लोगों ने मंत्रीजी के साथ(वाया उनकी माताजी व बहनजी) रिश्तेदारी स्थापित करने की घोषणा की, ताश पार्टी पूरी मुस्तैदी से अपने कर्म निष्पादन में जुट गई, अर्थलोभी शेयर बाजार की ऐसी तैसी करने लगे, भंवरे कलियों पर मंडराने लगे, खेल प्रेमी खेल समीक्षा में और फ़िल्म प्रेमी फ़िल्म समीक्षा में पूरी तन्मयता से लग गये। ये देश है वीर जवानों का, अलबेलों का मस्तानों का। ऐसे ऐसे लोग भी जिनसे अपना घर भी नहीं संभलता, बाजपेयी जीको कोसने लगे। कहने का तात्पर्य ये है कि एक छोटे से स्टेशन पर जैसे सारी ब्रह्मांड अपनी सारी विविधताओं के साथ सिमट आया था(स्नैप शाट शायद इसी को कहते हैं)। अब जी सारे अपने अपने कामों में तल्लीन थे, और हम भीड़ के बीच अकेले खड़े रेल की पटरियों को देख रहे थे। कितना लंबा साथ है इनका, लेकिन दूरी हमेशा बराबर, साथ साथ चलते रहो पर जहां मिल लिये समझो डिरेलमेंट होना पक्का है।

अचानक ध्यान साथ के बैंच पर गया। एक देहाती प्रौढ़ ने जेब से बीड़ी का बंडल निकाला, एक एक करके तीन चार बीड़ी निकाल कर कुछ जांच की और एक बीड़ी जलई ली, जिगर मां बड़ी आग है।

मैंने कहा, “भाई साहब, ये तो सारी आपकी ही हैं, फ़िर छांटने की क्या जरूरत थी? आंख मीच कर भी कोई एक बीड़ी निकाल सकते हैं।”

जवाब मिला, “कोई कोई बीड़ी निरी फ़ोकी होती है, स्वाद नहीं आता।”

मैंने फ़िर छेड़ा, “तो फ़िर वापिस क्यूं रख ली, फ़ेंक देते।”

वो बोला, "भैया, तुम ठहरे सिगरेट पीने वाले, तुम क्या समझोगे। सिगरेट वाला हो सकता है कि शर्म के कारण दूसरे से न मांगे, पर बीड़ी पीने वाला जरूरत होने पर दूसरे हमकश से बीड़ी मांग लेता है और वो भी ऐसे जैसे हफ़्ता वसूल रहा हो। तो ये जो हल्की बीड़ी है, ये उनके लिये रख लेते हैं।”

हमने कहा, “भाई जी, आप तो बहुत समझदार हैं।

इतने में साथ बैठे एक सूटेड-बूटेड सज्जन बोले(जरूर बैंक वाले रहे होंगे), “ये बीड़ी बंद करो।” और लगे हाथों मुझे भी कड़वा-कड़वा देखने लगे।

अब हमारा बीड़ीबाज बोला, "क्यूं बुझा दें यह बीड़ी?"

"धुंआ आ रहा है।"

इतने में उसने एक कश और भरा और मुंह दूसरी तरफ़ करके धुंआ छोड़ दिया और बोला, "ले भाई, इब न आयेगा धुंआ तेरी तरफ़।"

साहब बोले, "धुंआ क्या तेरा नौकर है जो तेरी बात मानेगा? देख फ़िर इधर आ रहा है, तूने बीड़ी पीनी है तो परे जाकर पी ले।"

जवाब आया, "तुझे धुंयें से परेसानी है तो तू परे चला जा। और मैं क्या तेरा नौकर हूं जो तेरी बात मानूं?

अब साहब ने नये नये बने धुम्रपान कानून का सहारा लेकर धमकाने की कोशिश की, “अभी सामने जी.आर.पी. की चौकी में जाकर रपट लिखवा दी तो फ़िर सजा मिलेगी। चल मेरे साथ।

देहाती भी खड़ा हो गया, "चल दिलवा सजा।"

अब हमारे जैसे बहुत से तमाशबीन आसपास इकट्ठे हो गये थे। थोड़ी सी गरमा गरमी के बाद दोनों सूरमे चल दिये जी आर पी चौकी में। सामने दूसरे प्लेटफ़ार्म पर चौकी थी। हम सोचने लगे कि एक की बीड़ी और दोनों की गाड़ी अब छूटी ही छूटी। अब साहब दोनों चौकी में घुसे और उल्टे पांव वापिस आ गये। लौटने पर मैंने साहब से पूछा, "क्या हुआ, रिपोर्ट नहीं लिखी उन्होंने?" वो बोले, मैंने विचार बदल दिया। बात ये है कि गया था बीड़ी की शिकायत लिखवाने, वो अंदर बैठे सिगरेट पी रहे हैं। मुझे समझ नहीं आता सरकार ऐसे कानून बनाती ही क्यूं है?"

एक अप्रैल से सभी के लिये अनिवार्य शिक्षा का कानून बनाकर सरकार ने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली है। प्रजातंत्र में सरकार प्रजा से दूरी बनाकर कैसे रह सकती है, आखिर fore, buy and off the people का मोटो कैसे भूल सकती है। पब्लिक रोयेगी तो सरकार भी रोयेगी, पब्लिक हंसेगी तो सरकार भी हंसेगी। पब्लिक अप्रैल फ़ूल खेलेगी तो सरकार इतनी निर्मोही थोड़े ही न है कि अप्रैल फ़ूल-अप्रैल फ़ूल नहीं खिलायेगी। खिला दिया एक और अप्रैल फ़ूल। कागजों में कानून भी बन गये और देख लेना थोड़े ही दिनों में कैसी साक्षरता की महक फ़िज़ाओं में खिलेगी। और यदि असर अपेक्षानुसार न हुये तो नये उपाय, नई कमेटियां, नये पद सृजित होंगे, रोजगार के नये अवसर बढ़ेंगे(सेवानिवृत्त ब्यूरोक्रेट्स के लिये) और क्या बच्चे की जान लोगे? सरकार तो उन्नति, प्रगति, विकास करना चाहती है पर कोई करने भी दे।

हमारे गांव का एक बूढ़ा सारी उमर गांव में काटकर एक महीना दिल्ली में अपने लड़के के पास रहने गया। लौटकर आया तो एक नई आदत देखने को मिली। अब वो खड़े होकर पेशाब करता (मि. परफ़ेक्शनिस्ट की भाषा में बोले तो मूत्र विसर्जन)। गांव देहात में ये बात अच्छी नहीं समझी जाती तो लोगों ने उसे टोकना शुरू कर दिया। अब ताऊ(डिस्क्लेमर:- ये अपने वाला ताऊ बिल्कुल नहीं है, अच्छी तरह से जान लीजिये) बोला, "सुसरो, मैं तो थारे गाम नै दिल्ली बनाना चाहूं था पर कोई बनन भी दे।"

सरकार के इरादे बिल्कुल ठीक हैं जी, हमीं गलत थे, हैं और रहेंगे।

झेलो अब

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