शनिवार, अप्रैल 24, 2010

एक फ़रमाईश........!

अभी कुछ दिन पहले ही एक मित्र(वैसे तो मेरे इमीडियेट बॉस हैं, पर मुझे मित्र कहना और मुझसे मित्र कहलाना ज्यादा पसंद करते हैं) ने बातों-बातों में शिव बटालवी की एक रचना का जिक्र किया। इत्तफ़ाकन अगले दिन से ही मुझे सप्ताह भर के लिये कम्प्यूटर, टी.वी. से दूर रहना था। अब ये साली आदत जब पक जाती हैं तो बहुत दुखी करती हैं। पहले किताबों की आदत थी, वो छूटी तो नेट से लगाव बनाया। अब ये भी दुर्लभ हो जाये तो बची अखबार, अब अखबार में भी बंदा क्या क्या पढ़ लेगा? वही घिसी पिटी खबरें, बस रोज थोड़ा सा नाम और तारीख बदल कर डाल दीं, हो गया काम। उन से कहा कि शिव की कोई किताब हो तो हमें दे दो। उन्होंने कहा कि किताब तो नहीं है, पर डायरी में कुछ नज़्में उतार रखी हैं, वो दे देंगे। भले आदमी ने अपनी तरफ़ से पूरी मेहनत करते हुये एक कागज पर शिव बटालवी की एक कालजयी रचना ’मैंनूं तेरा शबाब लै बैठा’ उतार कर अगले दिन अलसुबह ही हम तक पहुंचा दी। एक कागज देखकर मैं भी कुछ मायूस हो गया पर फ़िर सोचा ये भी न होती तो क्या कर लेता? कुछ समय के बाद जब कागज खोल कर देखा तो गीत गुरूमुखी भाषा में ही लिखा हुआ था। अब जोड़-तोड़ कर पढ़्नी शुरू की तो हर पंक्ति में कोई न कोई ऐसा अक्षर आ जाता कि उदगारों के कई ऑप्शन नजर आने लगते। ग्यारह वर्षीय छोटे बेटे को पटाया और दिक्कत वाले शब्द उससे क्लियर करवाये(आखिर वो पिछले दो साल से पंजाबी विषय पढ़ रहा है)। अब वो शब्द पढ़ दे और हमसे उनका मतलब पूछे, अजीब मुसीबत रही। आखिर शाम तक हमारा वो एक पेज पढ़ पाना मुकम्मिल हुआ। जब रात में एक बार वो पूरा गीत पढ़ा तो यकीन मानिये, पूरे दिन की मेहनत वसूल हो गई। कितनी पीड़ा सही होगी, शिव तुमने? फ़र्ज पूरे करने की अपेक्षायें, मजबूरियां, नाकामियां, बेरुखी क्या क्या नहीं झेला होगा? मेरा एक पूरा सप्ताह इस रचना को पढ़्ने, समझने में लग गया और मैंने यह फ़ैसला पहले दिन ही कर लिया था कि बस इस गीत के बाद शिव का कोई गीत, रचना नहीं पढ़ूंगा। या फ़िर शायद पढ़ ही नहीं पाऊंगा। लौटने के बाद हालांकि नेट पर जगजीत सिंह की आवाज में और कहीं से जुगाड़ करके आसा सिंह मस्ताना की आवाज में भी यह सुनी, पर पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि शिव के साथ न्याय नहीं हो पाया। वो कागज तो इतनी बार मेरे हाथ से खुला और मोड़ा गया कि लगभग फ़ट सा गया है, मैंने घर लौटते ही इस गीत को पहले पंजाबी में कम्प्यूटर में सेव किया और फ़िर रोमन में उसे सुरक्षित किया। पढ़ना चाहेंगे क्या शिव के दर्द को? क्या दर्द की कोई सीमा हो सकती है? क्या हाल रहा होगा उसका जब वो सिर्फ़ गम पर ही भरोसा कर रहा था और वहां से भी जवाब मिल गया!!

मैनूं तेरा शबाब लै बैठा,

रंग गोरा गुलाब लै बैठा,

मैनूं तेरा शबाब लै बैठा|

किन्नी बीत गयी ते किन्नी बाकी है,

किन्नी बीत गयी ते किन्नी बाकी है,

मैनूं ऐहो हिसाब लै बैठा|

वेहल जद वी मिली है फ़र्जां तों,

वेहल जद वी मिली है फ़र्जां तों,

तेरे मुख दी किताब लै बैठा,

मैनूं तेरा शबाब लै बैठा|

मैनूं जद वी तुसी हो याद आये,

मैनूं जद वी तुसी हो याद आये,

दिन दिहाड़े शराब लै बैठा,

मैनूं तेरा शबाब लै बैठा|

शिव नूं एक गम ते ही तां भरोसा सी,

शिव नूं एक गम ते ही तां भरोसा सी,

गम तो कोरा हिसाब लै बैठा,

मैनूं तेरा शबाब लै बैठा|

मैनूं तेरा शबाब लै बैठा|

रंग गोरा गुलाब लै बैठा,

मैनूं तेरा शबाब लै बैठा|

(शिव बटालवी)

बताते हैं कि शिव बहुत छोटी उम्र में ही इस दुनिया से चले गये थे। शिव ही क्यों, गुलेरी जी, जिनकी सिर्फ़ तीन कहानियां उपलब्ध हैं(हालांकि सिर्फ़ ’उसने कहा था’ अकेली ही इनकी संवेदनशीलता दर्शाने को पर्याप्त थी), और फ़िर भी जिनका शुमार हिंदी के अमर कहानीकारों में किया जाता है, अल्पायु में ही चले गये थे। ऐसे प्रतिभाशाली लोगों की सूची बहुत लंबी है, गुरुदत्त, मीना कुमारी, मधुबाला, मर्लिन मुनरो और अनंत ऐसे ही और भी। आयु भले ही कम रही हो इन सबकी, लेकिन जो इन्होंने रच दिया, जो कर दिखाया वह अकल्पनीय है। ऐसा नहीं है कि जिनको लंबी आयु मिली, वो प्रतिभाशाली नहीं हैं, पर जो जल्दी चले गये हैं, वो बहुत शिद्दत से याद आते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि ज्यादा संवेदनशील होने के कारण ही वो इतना सृजन कर सके और इस दुनिया की वास्तविकता से तारतम्य नहीं बिठा सके? क्या इन्हें भान था कि प्रारब्ध ने कितनी सांसे इनके खाते में लिख रखी हैं?

गुलेरी जी की दो-दो पंक्तियां और देखें:

1. मुझ तरू को इस भरी बसंत में ही झरना था,

मुझको इस चढ़ते यौवन में ही मरना था।

2. जीवन का है अंत, प्रेम का अंत नहीं,

इस कल्पतरू के लिये शिशिर, हेमंत नहीं।


शिव, मुझे तुम्हारा ये कलाम सुनना है, और तुमसे ही।

मेरी फ़रमाईश पूरी करोगे न?

मुझे मालूम है कि करोगे, क्योंकि ये उम्र के फ़ासले, अमीरी-गरीबी के भेद, औरत-मर्द के अंतर, धर्म-जाति के बंधन ये सब जगह थोड़े ही होते हैं, सिर्फ़ इस दुनिया तक ही तो हैं।

लोग दिल का रोना रोते हैं, दिमाग स्साला साफ़ बच निकल जाता है। हमारे जैसा एकाध हिला हुआ हांक लगा भी दे तो लोग हंसते हैं कि ’दिमाग की फ़ार्मैटिंग’ क्या बात कह दी यार। ठीक है भैय्ये, हंस लो - हमारा क्या है? कट जायेगी।

p.s. - आदरंणीया घुघूती बासूती जी, आपका आभार प्रकट करना चाहता हूं। लिखा तो बहुत कुछ था, पर आपकी कोई मेल आई.डी. उपलब्ध न होने के कारण सब मिटा दिया था। अब सिर्फ़ आभार स्वीकार करें।

15 टिप्‍पणियां:

  1. पंजाबी भाषा समझ तो नहीं आती है , पर फिर भी एक दो पंक्ति समझ में आ ही गई ... बहुत अच्छा लगा ...

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  2. Bhasha samajh aayi aur tees dilki gahrayion me utar gayi...

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  3. बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।

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  4. Salam Shiv Ko,pahle bhI padhi Thi,par fir bhI vohi maza de gayi ye kamaal ki rachna Shiv Batalvi ki!Thanks for posting it!

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  5. किन्नी बीत गयी ते किन्नी बाकी है,

    किन्नी बीत गयी ते किन्नी बाकी है,

    मैनूं ऐहो हिसाब लै बैठा|
    ...
    मस्त एकदम मस्त, जी सा आ गया शिवजी पर।

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  6. शिव नूं एक गम ते ही तां भरोसा सी,
    गम तो कोरा हिसाब लै बैठा...
    ---वाकई बहुत दर्द है इस गीत में। शिव बटालवी का गीत पढ़ाने के लिए आभार। जब कोई कविता या कहानी दिल को छू लेती है तो पूरा दिन क्या पूरी ज़िंदगी गुफ्तगूँ करती है।

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  7. बहुत बढ़िया पोस्ट! जगजीत सिंह जी की आवाज़ में न जाने कितनी बार सुनता हूँ. मेरी सबसे फेवरिट ग़ज़लों में से एक ग़ज़ल. अद्भुत टैलेंट होगा. कम उम्र में इस संसार से चले जाने वाले लोगों में दुष्यंत कुमार जी भी हैं. और वे भी क्या खूब प्रतिभा के धनी थे.

    इस ग़ज़ल ने आपको कितना प्रभावित किया है उसे कुछ-कुछ महसूस किया जा सकता है.दिल की गहराई से लिखी गई है यह पोस्ट, इतना समझ में आता है.

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  8. संजय जी,
    शिव बटालवी की ग़ज़ल पढवाने के लिए धन्यवाद .

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  9. इस गज़ल को लिखकर उपकार किया आपने ! शिव जी पर कुछ पढ़ना प्रीतिकर है !
    यह गज़ल तो जगजीत जी ने गाकर बहुतों तक पहुँचा दी है !

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  10. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  11. Navee-navee panjabbi seekhee hai!
    Ehi keh sakda kee chakke fat ditte!
    Mainu tera shawab le baitha!!!
    Asi te aje vee ankhiyaan udeeke baithe han!!!
    Ha ha ha.....

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  12. इस गीत को बहुत बार सुना है शिव बटालवी का लिखा लाजवाब गीत है ... पूरी पोस्ट लजवाब आयी आपकी ...

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  13. शिव बटालवी जी को पढ़ने की कवायद और उसका अन्‍दाजे-बयां भी कम नहीं.

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  14. wahhh....bohot bohot bohot kamaal ki ghazal hai ye...awesome!!!!!!!!!

    thanks sirji, padhaane ke liye...too good

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  15. हुकुम !

    "किन्नी बीत गयी ते किन्नी बाकी है,

    मैनूं ऐहो हिसाब लै बैठा| "

    अहा……… सुना बहुत था बटालवी जी के बारे में । एक हमारे अज़ीज हैं "भाई विजेन्द्र शर्मा BSF वाले" वो अक्सर उनके विडियो शेयर किया करते हैं पर ये वाली मैने नहीं सुनी थी कभी…

    आपने अनुज को कृतार्थ किया :)

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