रविवार, जून 20, 2010

रुको मत, जाओ...


मेरी आँखें कितना जोर जोर से तुम्हें पुकार रही हैं। मुझे तो लगता है इन आँखों के चीत्कार से धरती-अंबर सब डोल रहे हैं, लेकिन आसपास के लोगों पर तो इनका  कोई असर नहीं दिखाई दे रहा है? ओह, आंखों की जुबान सुनने समझने की फ़ुर्सत किसे है यहां?  ये सब बेचारे तो पहले से ही मसरूफ़ हैं अपनी साड़ी, अपनी कमीज को दूसरों के कपड़ों से ज्यादा सफ़ेद करने में। और ये संभव न हो पाये तो दूसरों पर कीचड़ उछालने में ताकि खुद उजले दिखाई दे सकें।ठीक है, कैफ़ियत मालूम हो गई तो अब झेल लूंगा मैं दूसरों की बेरुखी। इतना यकीन है मुझे कि मेरी पुकार में दम होगा तो तुम सुन लोगी।
मेरी साँसें मेरी रफ़्तार के साथ ही मंद होती जा रही हैं। मैं अब देख तो पा रहा हूं सब, लेकिन प्रतिक्रिया नहीं कर पा रहा हूं।आंखें खुली ही रह गई हैं मेरी, जैसे किसी का रास्ता देख रही हों। पलक झपकने में भी जैसे युगों युग बीत रहे हैं। कोई ध्यान से देखे तो जान सकता है कि मैं अभी जिन्दा हूँ। पर कौन ठिठकेगा यहां?  मैं ही कहाँ किसके लिये रुका था कभी?  कभी अपनी ताकत का गुरूर था और कभी अपनी जवानी का नशा, कभी नौकरी की मजबूरियां और कभी घर की जिम्मेदारियां।  जब मैं ही कन्नी काटकर निकल जाया करता था किसी बेसुध को देखकर, तो किस मुंह से अब किसी और से गिला करूं? अब तो हर आवाज, हर गतिविधि मुझ तक स्लोमोशन में आ रही है।
अरे, ये क्या?  मेरी जलती हुई छाती पर तुम्हारा शीतल स्पर्श!  तो आ पहुँची तुम आखिर।  मुद्दतों पहले मुंद गई थीं मेरी पलकें। अब तुम्हें देखने के लिये जाने कितने दौर और बीत जायेंगे इन पलकों को खुलने में?  तुम्हारा स्पर्श मैं कभी नहीं भूला।  ऐसा नहीं कि कोशिश नहीं की थी, कामयाब नहीं हो पाया था। तो आखिर तुम्हें आना ही पड़ा मेरे नयनों की पुकार सुनकर। आँखें खोलनी ही होंगी अब।  हाँ, तुम्हीं तो हो। और आई भी उसी रूप में हो जैसी मैंने तुम्हें चाहा था।  वसंत की देवी की तरह पीले वस्त्रों में, आभूषण के नाम पर सिर्फ़ कंगन और पायल। वैसे भी तुम्हें आभूषण और प्रसाधन की क्या जरूरत? मेरी आंखों में कोई भाव नहीं बचा और तुम चिरयौवना की आंखों से कोई भाव नहीं बचा जो छलक न रहा हो। प्रेम, त्याग, समर्पण, आमंत्रण, शरारत, शिकायत, आत्मगौरव कुछ नहीं छूटा है तुम्हारी नजर से। मैं बिना भावों का और तुम भावों की सरिता, कहीं कोई मेल नहीं हमारा। फ़िर भी तुमने मेरी मौन पुकार का मान रखा, आईं तुम और मेरे दग्ध हृदय को अपना शीतल स्पर्श दिया। मैं सच में धन्य हो गया। कुछ पाना शेष नहीं रहा अब। जाओ, अब अपनी दुनिया में लौट जाओ, ये मन की प्यास वैसे भी बुझने वाली नहीं है। तुम वापिस चली जाओ अब।
मैं फ़िर से अपनी आंखें मूंदना चाहता हूं, अब कभी न खोलने के लिये। जिन आंखों ने फ़िर से तुम्हारा रूप देख लिया, उन आंखों में अब किसी और नजारे के लिये स्थान है भी नहीं।  मुझे अब कोई गिला, शिकवा नहीं है किसी से, न तुम से और न इस बेदर्द जमाने से। किसी से  नहीं,  किसी से भी नहीं। 
तुम अब रुको मत, जाओ। जाओ तुम। जा…ओ।  जा….










7 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन का सत्‍य लिख दिया है। बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति।

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  2. खुदाया कैसे तूने यह जहाँ सारा बना डाला...

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  5. मैं तो डांस इंडिया डांस के मिथुन दा की तरह से सिर्फ इतना ही कहूँगा ..... क्या बात ...क्या बा..त ........क्या बा....त!

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  6. संजय जी,

    आज का अंदाज तो बिल्कुल अलग है। एकदम अलमस्त।

    बहुत सुंदर।

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  7. नाम छोड़ दिए गए प्रेम-पत्र जैसा, संजीदगी भरा.

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