सोमवार, सितंबर 20, 2010

बिछड़े सभी बारी बारी-४


भाग-१भाग-२ और भाग-३,  अब आगे झेलिये -


लड़ते-भिड़ते, हंसते-हंसाते, नहाते-धोते और खाते-पीते शाम तक का समय हमने बिता दिया। आलोक के अनुसार अगर नीलकंठ यात्रा पैदल करनी है तो शाम को निकलना ठीक रहेगा। शाम छह बजे एक बार फ़िर से गंगाजी में डुबकी लगाई और हम दोनों निकर-टीशर्ट में और भोला अपनी फ़ोर्मल ड्रेस में चल पड़े, नीलकंठ महादेव के दर्शन को। लगभग सात बज गये थे और अंधेरा छाने लगा था। आलोक शायद बहुत ज्यादा अनुभवी होने के कारण ही काफ़ी सहज लेकिन सीरियस लग रहा था और भोला सामान्य से ज्यादा चंचल। दोपहर से कई बार कह चुका था कि रात को चढ़ाई करने का क्या मतलब?  पहले पता होता तो कोई अच्छी सी टार्च और कोई न कोई हथियार साथ में रखना चाहिये था।  मुझे लग रहा था कि कहीं अंदर वो कुछ घबराया सा है। आलोक हंसता,  “अबे तीर्थयात्रा पर आया है कि खजाना ढूंढने?”  
राम झूला से नीलकंठ मंदिर की दूरी बारह या तेरह किलोमीर है। सावन के महीने का पहला रविवार था और आलोक के प्लान के मुताबिक जब तक हमने मंदिर पहुंचना था सोमवार शुरू हो जाना था।  यात्रा मार्ग पर पहुंचे तो इधर उधर से यात्रियों के झुंड के झुंड आकर कारवां का हिस्सा बन रहे थे। भीड़ देखकर भोला का मूड ठीक होने लगा था। वैसे तो हमने जब भी वैष्णो देवी की यात्रा की, रात में ही चलना ठीक लगता है। रात में मौसम अपेक्षाकृत ठंडा रहता है और पसीना वगैरह कम निकलता है। चढ़ाई यहां की भी वैष्णो देवी के जैसी ही है, बस आधारभूत सुविधायें इधर बहुत कम हैं या कहें तो न के बराबर। लेकिन अपने को ये जगह, ये यात्रा ज्यादा बेहतर लगी। हम सुविधाभोगी लोग हैं, हमारे दादा बताया करते थे कि पहले जब लोग चारधाम या ऐसी यात्रा पर जाते थे तो अपने परिजनों, विवाहित बहन बेटियों से भेंट मुलाकात करके जाते थे कि इतनी कठिन यात्रा पर जा रहे हैं फ़िर पता नहीं मेल मुलाकात हो या नहीं। और आज हम इन दुर्गम तीर्थस्थलों पर भी जाते हैं तो सुविधाओं के चलते ऐसा लगता है कि पिकनिक पर जा रहे हैं। इंसान के दुख के समय भगवान को याद करने की आदत के चलते ही शायद हमारे देवी देवता इन दुर्गम पहाड़ों में बसते रहे कि कष्टों के चलते कम से कम भक्त लोग यात्रा करते समय ईश्वर को याद करते चलेंगे। 
लगे हाथों एक अलग  अनुभव से भी सांझा करवाता हूँ आपको। हमारे एक परिचित परिवार के एक बुजुर्ग थे, वो  जब भी खाना  खाते तो आखिरी रोटी रूखी खाते थे। सामान्य चलन से अलग लगती थी ये बात, हम तो आखिरी रोटी घी और बूरा, गुड़ या शक्कर के साथ खाते थे। एक बार उनसे इस बाबत पूछा तो कहने लगे, “काके, जब पाकिस्तान बना और हम यहाँ आये तो जिंदगी एकदम से बदल गयी थी। हम अपने घरों में अच्छा खा पी रहे थे और यहाँ आकर एक बार तो दाने दाने को मोहताज हो गये थे। बड़ा मुश्किल समय था वो।  आज ऊपरवाले ने फ़िर मेहरबानी की है, लेकिन इतनी समझ आ गई है कि अच्छे से बुरे समय में जाना पड़े तो बहुत तकलीफ़ होती है।  आदत खराब न हो, इसलिये बाकी रोटी तो बच्चे जैसी देते हैं वैसी खा लेता हूँ. आखिरी रोटी हर बार वक्त की ताकत की याद दिलाती रहती है।” बहुत ज्यादा सुविधाओं के आदी होकर सच में हम इनके गुलाम हो जाते हैं।
तो जी, शुरू हुआ हमारा सामूहिक अभियान। रास्ते में सरकार की तरफ़ से रोशनी का भी कोई इंतजाम नहीं था। पहाड़ों में वैसे ही अंधेरा जल्दी हो जाता है, चारों तरफ़ स्याह अंधेरा और बीच बीच में श्रद्धालुओं के यदा कदा चमकते मोबाईल या टार्च के जलने से पैदा हुई रोशनी माहौल को एक अलग ही रंग दे रहे थे। आलोक बताने लगा कि सावन के महीने में श्रद्धालुओं की तादाद बढ़ जाती है नहीं तो इस समय तो चढ़ाई करने की सोच भी नहीं सकते थे। मैं खुद भीड़ से कतराने वाला आदमी हूँ लेकिन जानता हूं कई हालात में आसपास लोगों का होना भी सुकून देता है। भोला बीच बीच में कुनमुनाता था, “बंदेयां दी तरह दिन दे टैम नीं आ सकदे सी? ना जी, रात दे टैम चढ़ाई करनी है।” हम हंसते कि चल हम तो बंदे नहीं हैं ये जो इतने सारे दूसरे लोग हैं, जिनमें औरते भी हैं, बुजुर्ग भी है और बच्चे भी हैं, इनका क्या? भोला कहता, “साड्डा सारी दुनिया दा ठेका नहीं है, असी  वादा कीता है त्वाडा ध्यान रखन दा। रात दे टैम कोई चोट वोट लग गई ते असी किवें मुंह दिखांगे मां-पिताजी नूं।”  मैं कई बार कहता, “तू यार मेरे से कागज पर लिखवा ले कि मैंने भोला की सलाह नहीं मानी, अपनी मर्जी चलाई है, कुछ नुकसान हो गया तो इसका जिम्मेदार मैं ही हूं। डाक्टर भी तो ऑपरेशन करने से पहले लिखवा लेते हैं ऐसा कुछ।” आलोक भी उसे छेड़ता, “तू तो यार वादा करके फ़ंस गया, कितना जिम्मेदार बंदा है तू।” 
चलते चलते एक डेढ़ किलोमीटर का रास्ता हो गया था और सामने एक जगह एक अस्थायी दुकान  सी बनी हुई थी। मूंगफ़ली, चने, चाय, बिस्कुट और इस तरह का सामान था| भोला के फ़ेवरेट सामान तो नहीं थे लेकिन दिन के बने हुये पकौड़े थे, उसने वही खाये। नीलकंठ मंदिर तक तो ऐसे ही हमारा सफ़र पूरा हो गया। दर्शन करने में एक डेढ़ घंटा तो लाईन में लग ही गया। पीछे लाईन बढ़ती ही जा रही थी। जब शिवलिंग वाले हाल में पहुंचे तो वालंटियर्स के रूप में जितने भी लड़के दिखे, सभी बाडी बिल्डर्स थे। काम उनका भीड़ को कंट्रोल करना और किसी को ज्यादा देर वहां न रुकने देना था। अपनी जगह वे ठीक भी थे कि पीछे लाईन सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही जा रही थी। आया अपना भी नंबर,  शिव शंभु के सामने हाथ जोड़े और जल चढ़ाया ही था कि पहलवान जी ने आगे बढ़ा दिया(दिया तो धक्का ही था, पर आखिर इज्जत भी कोई चीज होती है)। अपन भी हल्के से सर नवा कर बढ़ गये। भोला का नंबर आया तो उसने पूरी श्रद्धा से हाथ जोड़कर एकाध मंत्र पढ़ा और दंडवत प्रणाम करने के लिये पैंट ऊपर चढ़ाकर नीचे लेट ही रहा था कि दोनों तरफ़ से दो पहलवानों ने आकर उठाया और जैसे हंस कछुए को उड़ाकर ले गये थे एक कहानी में, हवा में उठाये उठाये ही भोले को शिव भोले के केबिन से बाहर कर दिया। भोला ने बहुतेरा शोर भी मचाया, “असी दिल्ली तों आये हां, दर्शन तो कर लैन दो ढंग नाल, असी मिनिस्ट्री लेवल दे बंदे हैगे, छड्डो मैनूं’  पर उन शेरों ने छोड़ा तो शिवलिंग वाले कक्ष से बाहर ही छोड़ा। भोला बेचारे का भी और हमारा भी मन अपसैट हो गया। 
खैर, जब जूते वगैरह पहन रहे थे तो ऊपर की तरफ़ नजर गई और दूर कहीं एक लाईट जलती दिखी। मुझे उधर देखते हुये पाकर आलोक ने बताया कि पार्वती देवी का मंदिर है। मैंने पूछा कि कितनी दूर है? आलोक बोला, “होगा तीन चार किलोमीटर, गया मैं भी नहीं कभी क्योंकि कभी साथ ही नहीं बना। जो भी साथ आया, यहीं से लौट गया। बहुत कम लोग जाते हैं वहां। बोलो गुरू, चलोगे?” मैंने हां भर दी, "चलेंगे, हम बीच में साथ नहीं छोड़ेंगे, जरूर चलेंगे।"  अब भोला रूठ गया। एक को मनाओ तो दूजा, रूठ जाता है। सब को राजी नहीं रख सकता भगवान भी। "रात के दो बजे, न लाईट न सड़कें वापिस चलो या यहीं सो जाओ, सवेरे देखांगे।" पर दो-तिहाई बहुमत के आगे झुकना पड़ा उसे, पैकेज जरूर लिया उसने अलगाववादियों की तरह, रोटी खानी है कढ़ी के साथ। हमने भी हाँ भर दी, कुछ खाने को ही माङा है बेचारे ने, अलग देश-प्रदेश थोड़े ही माँग रहा है। दो बजे उसे रोटी खिलवाई जी कढ़ी के साथ और अगला सफ़र शुरू हो गया। 
प्रतिशत निकालें तो नीलकंठ आने वाले लोगों में से २-३ % ही होंगे जो इस मंदिर तक जाते हैं। हम चल दिये, भोला बीच में, आगे पीछे आलोक और मैं।उसे बीच में रखा था क्योंकि  उसे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास था कि 1411 में से कम से कम एक शेर या उसके किसी पारिवारिक सदस्य ने आज हमारा मांस खाना है। चल पड़े जी हम थ्री इडियट्स, अपने सफ़र पर। इक्का दुक्का लोग ही दिखाई दिये हमें ऊपर जाते हुये, अंधेरी रात में पहाड़ों के बीच कच्चे रास्तों पर चलना, वो मंजर सारी उम्र नहीं भूल सकते। भोला को ज्यादा गुस्सा तो मुझपर आ रहा था, लेकिन निकाल रहा था आलोक पर। ’लोक, तू चंगा नईं कीता’ और मैं और आलोक उसके ब्रैकिट ओपन एंड ब्रैकिट क्लोज़ बने हुये उसकी बातें सुनते रहे और हंसते रहे और आगे बढ़ते रहे कि चलना ही ज़िन्दगी है। पहुंच गये पार्वती देवी के मन्दिर में, शायद सुबह के साढे तीन या चार बजे होंगे। दर्शन किये, प्रशाद चढ़ाया, मैंने मन ही मन पुजारी को सुरूर में होने के लिये निरामिष सी गाली दी जिसे आलोक ने महसूस भी किया। 
बाहर आकर चाय पीने लगे। भोला सोने की जगह तलाश रहा था और हम कुछ और। आलोक को कुछ आईडिया था, उसने चाय वाले से पूछा कि झिलमिल गुफ़ा कितनी दूर है। उसके बताने से पहले ही भोला ने गुस्से में चाय का गिलास नीचे पटका और उस पर आरोप लगाया कि वो आगे से और आगे के प्रोग्राम बनाकर हमें तिब्बत लेजाकर छोड़ना चाहता है। साथ ही उसने टंकी पर चढ़ने की घोषणा भी कर दी यानि कि आगे हमारे साथ नहीं जायेगा और हमें भी नहीं जाने देगा। लेकिन यार मेरा मान भी जल्दी जाता था, बस कुछ नमकीन खिला दो उसे। चाय वाले से मट्ठी सेंक कर खिलाने के लिये कहा, पेश की उसके सामने और जब वो खाने लगा तो याद दिलाया कि अब नमक खाया है उसने सरदार का।  भोला मान गया। दस पन्द्रह मिनट आराम करके चल दिये हम झिलमिल गुफ़ा की तरफ़। घुप्प अंधेरा था, लेकिन थोड़ी देर के बाद दिन निकलने लगा। एक छोटा सा पहाड़ी गांव था, जहां से हम होकर गुजर रहे थे उस समय। क्या नजारा था, अद्भुत। खेतों में से होकर(देशा फ़ारिग भी वहीं हुये खुले में), छोटी छोटी पगडंडियों पर चलते हुये हम सात बजे के करीब झिलमिल गुफ़ा पहुंचे। नाम ही बहुत अजीब सा खिंचाव वाला था। आसपास के सभी पहाड़ों से अलग, वह गुफ़ा वाली पहाड़ी कुछ सफ़ेद कुछ सलेटी रंग की थी और देखने में ऐसा लगता था जैसे रुई का भुरभुरा सा पहाड़ हो। विशाल गुफ़ा थी, निर्माण कुछ ऐसा जैसे ग्राऊंड फ़्लोर और फ़र्स्ट फ़्लोर प्राकृतिक रूप से ही बने हों और सबसे अजीब बात कि गुफ़ा की छत के बीचोंबीच एक बड़ा सा छेद था जैसे ओज़ोन परत के छेद के बारे में बताते हैं। गुफ़ा के अंदर से देखें तो छत पर एक टुकड़ा भर आसमान दिखता था। शायद रात में यहां आते तो तारे झिलमिलाते हुये दिख जाते और किस्मत वाले होते तो शायद चांद भी झिलमिला उठता, इसीलिये तो झिलमिल गुफ़ा नाम रखा होगा इसका। धूनी रमा रखी थी बाबा लोगों ने, सिर्फ़ एक चादर कमर में बांध रखी थी और बीच बीच में बुलंद आवाज में अलख निरंजन का उदघोष, मुझ नास्तिक को भी मस्त कर गया। धूनी में से ही बीच बीच में चिलम सुलगा लेते बाबा और कश मारते ही गूंजता अलख निरंजन। भोला ने पहाड़ी के रंग, ओज़ोन छिद्र, चिलमी बाबा की लाल आंखें देखकर अपनी श्रद्धानुसार जो भी करना था चौथे गेयर में निबटाया और हमें लगभग खींचकर सेफ़ ज़ोन में ले आया। बाहर दुकान से आकर चाय पी गई और पकौड़े भी खाये गये। हमारा भोला मीठा बिल्कुल नहीं खाता, कहता था शूगर थोड़े करवानी है? आलोक हंसता, “अच्छा, इतना खाकर और हर बार   इतनी मिर्चें खाकर  बवासीर करवा लेनी है?” भोला कहता, “तू अपना ध्यान रख, साड्डी फ़िकर न कर। तुसी खाया पिया करो, किदे नीमा न लगवाना पै जाये।”  आलोक मेरी तरफ़ देखकर पूछने लगा, “नीमा?” मैंने बताया कि ये कह रहा है, “कुछ खाया पिया करो नहीं तो अनीमा लगवाना पड़ेगा।’ आलोक बहुत हँसा और मुझसे कहने लगा, “यार, कैसे कैसे चेले हैं तुम्हारे? गज़ब।” उधर भोला भी कह रहा था, “किद्दां दे बंदेयां नाल यारी है तुहाड्डी?” सुनाओ सालों, सब मुझे ही सुनाओ। मैं भी सुना ही देता था, “ठाकुर ने ……. की फ़ौज तैयार की  है, हा हा हा।” सच भी है(था) ये, दो साल पहले तक अपने ग्रुप में सारे वही शामिल होते थे, जो बाकी समाज में मिसफ़िट होते थे। कई ऐसे थे जिन्हें कोई ठौर नहीं, अपन ऐसे जिसे कोई और नहीं।  अब हालात बदल गये हैं, अब अपन आप जैसे  सुधीजनों की फ़ौज में शामिल हैं। खुद को हमेशा सरदारी  की पोज़ीशन में रखना भी ठीक नहीं, समय के साथ धीरे धीरे ही सही कुछ सीख तो रहा ही हूँ।
भोला से मैंने पूछा, “अगला प्रोग्राम?” भोला हंसा, “हाँ, हुण तक तां जिवें सारे मेरे ही प्रोग्राम चले हैगे।” मैंने फ़िर  पूछा तो बोला, :हुण, बैंगण दा भरथा खाना है।” और हम तीनों जोरों से हँस रहे थे, और करते भी क्या….।
अगली बार वापिस ले आयेंगे जी सबको,  तब तक गाना सुनिये।
:) फ़त्तू अपने आँगन में बैठा हुक्का गुड़्गुड़ा रहा था, बड़ी तेज तेज। एक राही आया और रामराम करके कहने लगा. “चौधरी साहब, सुबह से  खाली पेट सफ़र करना पड़ रहा है, चार रोटी खिला दो।”
फ़त्तू,          “हाँ हाँ, पर टिक्कड़ क्यूँ, खीर खा लै, हलवा खा लै और नहीं तो चूरमा तो खा ही लै।”
अतिथि,    “कित सै खीर, हलवा, चूरमा? दीखते तो नहीं।”
फ़त्तू,          “तो बावली बूच, रोटी कित दीख गई तन्नै?  मैं आप सवेर से खाली पेट हुक्का गुड़्गुड़ान लाग रया सूँ, तू मेरे ते ही टिक्कड़ माँगे सै।”
भाई लोग, म्हारे धोरे भी एकला हुक्का सै, बाकी समझ ही गये होगे। टाइम पास हो सकै बस थारा, सीखने को  न सै कुछ मिलने वाला, कदे बाद में दोष देयो मन्नै।

46 टिप्‍पणियां:

  1. पहाड़ों में तो बगल के मोड़ पर भी खड़ा आदमी नहीं दिखता है। वहाँ हमारी मैदानी दृष्टि काम नहीं आती है।

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  2. क्या जादूगरी से झिलमिल गुफा तक पहुँचाया है आपने,........... गजब साहेब गजब !! ............ भाप्ड़े भोला को बैगण का भडिता भी खिला देते आप, तो तिब्बत के नज़ारों की सैर कर रहे होते हम भी................... अर ये फत्तू भाई भूखे क्यों मर रहें है............. बींदणी पीर गयी क्या >>

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  3. "दिया तो धक्का ही था, पर आखिर इज्जत भी कोई चीज होती है"

    संजय भाई मैं भी इसी सावन में धक्का खा कर आया हूँ. ?????
    बहुत ही मस्ती.........

    एक ताऊ जी मिले थे उतरते टाइम......... था मैं हुक्का भी था..... शायद फत्तू के पापा होंगे...........

    कहीं भी बैठ कर हुक्का तैयार कर देते और बोलते "आ जाओ रे बालको ........ थोडा दम लगा लो"

    बहुत ही आनंददायक यात्रा थी.

    और हाँ.....
    दुबारा जाओ - तो हम भी साथ होंगे..........

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  4. एक तो भयानक करेक्शन नज़र आ गयी.
    कृपया
    उतरते टाइम......... था मैं """"""""
    " उतरते टाइम साथ में" पढ़ें

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  5. अब तो लगता है पिछले सारे पार्ट पढने होंगे
    अभी तो फत्तू के किस्सा पढ़ कर काम चला लेता हूँ :)

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  6. संजय जी,
    बहुत ख़ूबसूरती से लिखा है आपने ये लेख....आभार।

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  7. ज्ञान तै दुनिया बांटती फिरै सै, हमतो नूयें टाईम पास करन और योए पढन आवां सां आडै जो थमनै लिख दिया।

    जै भोले नाथ की

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  8. दूसरे वाले के हो न हो, एक भोलेनाथ के तो आपने साक्षात दर्शन करवा ही दियें है already ... भाई के पेट देख कर कौन कह सकता है की 'असली वाले भोलेनाथ' गणेशजी के सौतेले बाप थे ...

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  9. संस्मरण पढकर ये ख्याल ज़रुर आया कि रात्रि मार्च के लिये आपकी तैयारियां सही नहीं थीं और ये भी कि झिलमिल गुफा में एक दो सुट्टे मारकर अलख निरंजन भी नहीं बोले आप लोग ! वो तो भोला शरीफ आदमी था जो कढी रोटी पर मान गया :)

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  10. बस लिकडते-बडते थारे हुक्के म्है सै एक-आध घूंट मिलती रही तै म्हारी भी साँस चालती रहवैगी।

    भोला नै बैंगण का भरथा इस्से पोस्ट मै खवा देते तो थारा के बिगड जाता। 3 बाज गये मन्नै भी लंच ना करया सै।

    राम-राम

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  11. यह संस्‍मरण मन को स्‍फूर्तिमय बना गया । बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!

    और समय ठहर गया!, ज्ञान चंद्र ‘मर्मज्ञ’, द्वारा “मनोज” पर, पढिए!

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  12. जिस तरह लोग नीलकंठ के दर्शन करके चले आते है पार्वती जी के मंदिर नहीं जाते है उसी तरह वैष्णो देवी जाने वाले लोग भैरव नाथ नहीं जाते है जो वैष्णो देवी मंदिर के उपर है | ऋषिकेश तो गई हु पर कभी नीलकंठ मंदिर नहीं गई चलिए आपने दर्शन करावा दिया धन्यवाद् जी |

    ज्ञान बाटने और देशा समाज की समस्याको के लिए और ब्लॉग तो है ही हम तो यहाँ आते ही है कुछ इस तरह का इंट्रेस्टिंग पढ़ने के लिए | किसी भी आम बात को मनोरंजक तरीके से लिखने की आप की कला अच्छी लगती है |

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  13. किसी भी साधारण सी घटना को आप अपनी किस्सागोई कि विलक्षण शैली द्वारा असाधारण बना डालते हैं. तो इसलिए अब मैं आपकी उसमे ...... उसमे.....मतलब समझ रहे हैं ना...उसमे ....उर्दू के शब्द आ नहीं रहे... बस भावनाओं को समझ लें ...तो मैं एक शेर छोड़ने जा रहा हूँ बस सावधान हो जाएँ.....



    मानता हूँ कि ब्लोग्गेर्स हैं यहाँ कई तगड़े.

    मगर "मो सम कौन" का है अंदाजे बयान बहुत जोर...



    ओह हाँ याद आया आपकी शान में ये शेर छोड़ा था......

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  14. देर से पढ पाई आपका संस्मरण बुकमार्क कर के रखा था आज समय मिला। बहुत रोचक लगा। अपकी शैली प्रभावित करती है।धन्यवाद।

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  15. तीर्थस्थलों में यही बहुत अखरता है कि इतना समय लगाकर जान झोखिम में डाल कर पहुँचो और ढंग से दर्शन भी ना कर सकें ...
    नीलकंठ महादेव का रोचक शैली में वर्णन अच्छा लगा ...

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  16. @ प्रवीण पाण्डेय जी:
    सर, जो आँख के सामने है वो दिखता है क्या?

    @ अमित शर्मा:
    फ़तू कह रहा है कि बींदणी जाती ही तो नहीं है, काश...।

    @ दीपक जी:
    ठीक है जी, अबके बरस सावन में...।

    @ गौरव:
    भाई, कल्लो टाईम खोटी, नहीं मानते तो। (ईमेल तक तो लिखा नहीं है प्रोफ़ाईल में। कुछ कहना सुनना हो तो?)

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  17. बहुत ही सुंदर और रोचक वृतांत, फ़त्तू जी तो हमेशा की तरियां चाल्हे पाड के बैठ्या सै.:)

    रामराम.

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  18. @ zeal:
    पसंद आया आपको, शुक्रिया।

    @ अंतर सोहिल:
    म्हारे धोरे किमै था भी नहीं, जो बिगड़ जाता। अगली पोस्ट ताईं भी तो किम्मै मैटीरियल चाईये के न? रोटी टैम से खा लया कर भाई।

    @ मज़ाल साहब:
    बंदे का पेट सच में ऐसा ही था जी, खाने पर आये तो दस बारह रोटी परांठे खाजाये, और सुभीता न हो तो पूरे दिन खाली पेट।

    @ अली साहब:
    आप भी ठीक ही कह रहे हैं अली साहब, बाकी सब शरीफ़ हैं वो तो हमीं हैं अकेले जो सबके सींग मारते फ़िरते हैं:)

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  19. @ मनोज कुमार जी:
    आपका बहुत बहुत धन्यवाद, सर।

    @ अंशुमाला जी:
    हम तो जी जब भी गये, भैरों मंदिर होकर ही आये।
    आप दोबारा कभी ॠषिकेश जायें तो नीलकंठ भी जाईयेगा और आगे झिलमिल गुफ़ा भी। प्रकृति का नया ही रंग दिखेगा। धन्यवाद।

    @ विचार शून्य:
    बन्धु, आई-फ़्लू कैसा है? और शेर उधार रह गया, तुम्हारी आन-बान-शान में शेर बघेरा हम भी छोड़ेंगे जरूर।

    @ निर्मला कपिला जी:
    आशीर्वाद बनाये रखें जी आप।

    @ वाणी जी:
    आभारी हूं जी आपका।

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  20. पता नहीं क्यूँ मंदिरों में ऐसा ही होता है. नील कंठ से पार्वती देवी का मंदिर ...फिर झिलमिल गुफा...ऐसा ही जैसा किसी शायर ने फ़रमाया है:
    जिंदगी एक मुसलसल सफ़र है
    जो मंजिल पे पहुंचा तो मंजिल बढ़ा दी
    संस्मरण पढ़ कर मजा आया!

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  21. संजय जी,
    जैसे बिना पैराग्राफ बदले आप पहली लाईन से आख़िरी लाइन तक आ जाते हैं, बस वैसे ही लगा इस विकट यात्रा पर आपके साथ चलकर... रोमांस ऐसा कि पूछिए मत (मेरे एक मित्र एक दिन क्रिकेट का 20 20 मैच देखकर आए और पत्रकारों वाली भाषा में बोले, “यार कल का मैच तो इतना रोमांटिक हो गया था कि पूछो मत.” अब आप ये मत समझना कि मैंने जो कोष्ठक के बाहर रोमांस शब्द लिखा है वो टाइपिंग कि अशुद्धि है.) लगा जैसे कि बस आपके साथ साथ ही चला रहा हूँ. और पोस्ट की लम्बाई देखकर मुँह से निकला, “मोगैम्बो ख़ुश हुआ.” 
    गाना लाजवाब है क़ैफी साहब और मदनमोहन की यादगार कृति.

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  22. यात्रा वर्णन काफी रोचक है। भोला न होता तो ऊब जाते...यात्रा में भी, लेख में भी..एक बात समझ में नहीं आती कि भोला जैसे पात्रों की कितनी जरूरत होती है जिंदगी में लेकिन हम हैं कि उसका माखौल उड़ाते रहते हैं।
    यात्रा के बीच में 'सूखी रोटी' साझा करने के लिए आभार।

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  23. हमारी भी यात्रा करवा दी आपने .वह भी मज़ेदार और बिना थके .
    बुजुर्ग की बात मे दम है . और फ़त्तू हमेशा की तरह भोला ही है

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  24. @ ताऊ रामपुरिया:
    ताऊ, थारे ब्लॉग पर लगी फ़ोटो....हा हा हा
    रामराम।

    @ SKT:
    त्यागी साहब, टैलीपैथी पर यकीन करते हैं आप? कई दिनों के बाद आज दोपहर आपके ब्लॉग पर गया था, और कमेंट करने से पहले पिछली रह गई पोस्ट्स पढ़ने में लग गया था। और आज आप भी यहाँ, शुक्रिया।

    @ सम्वेदना के स्वर:
    चैतन्य सर, रोमांटिक में टाईपिंग मिस्टेक नहीं समझूँगा, बल्कि ’साथ साथ ही चला रहा हूँ’ में भी टाईपिंग मिस्टेक नहीं मानूँगा :) बुरा मत मानियेगा, मज़ाक कर लेता हूँ। आपका आभारी हूँ।

    @ बेचैन आत्मा:
    देवेन्द्र जी, भोला जैसे पात्र हमारे जीवन का एक अहम हिस्सा है, लेकिन अगर इस पोस्ट में आपको ऐसा लगा कि उसका मखौल बनाया है तो मेरी लिखने में कमी है। कोशिश तो यही दिखाने की थी कि एकदम अभाव में रहने वाले आदमी की मानसिकता कैसी होती है। आपका आभार कि अपनी बहुमूल्य राय से अवगत कराया।

    @ धीरू सिंह जी:
    धन्यवाद जी, आपने भी तो अयोध्या घुमाया और रामलला के दर्शन करवाये।

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  25. हा हा हा!!! ये मुगैम्बो वाली हँसी नहीं है..खिसियानी हँसी है, जो चला रहा के कारण पैदा हुई है...अच्छा मज़ाक कर लेते हो..(हाँ नहीं तो, नहीं कहूँगा..इसका जुमला हुकूक मेरे पास नहीं है)..

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  26. फिलहाल अभी बहुत बड़े इमोशनल ट्रौमा से बाहर निकला हूँ.... मैं इत्मीनान से पढ़ता हूँ... इसे सुबह... कई बार नेग्लिजेंस आपको बहुत परेशान कर देती है.... मैं कल पढ़ता हूँ इसे... सुबह सुबह ....फ्रेश माइंड से... ..

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  27. हाहाहाहा गजब यार। नीलकंठ महादेव तक तो हम भी गए थे पर झिलमिल गुफा का नाम नहीं सुना था। साथ में बुआ जी थी और दो दिन बाद ऑफिस .....खैर अबकी बारिश निकल जाए तो फिर जाते हैं। वैष्णों देवी माता के मंदिर के साथ भैरों बाबा के हर बार दर्शन किए हैं। भाया भोला जैसा पात्र जो साथ निभाए मिलना भी आसान नहीं है। दोस्त कैसे भी हों दोस्त होते हैं। आपने जो जैसा है वैसा लिखने का प्रयास किया है बेहद ही अच्छा और खूबसूरत है।

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  28. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  29. एक श्ब्द में कहें तो गजब!

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  30. @ ktheLeo:
    मजा आया आपको, शुक्रिया सर।

    @ सम्वेदना के स्वर:
    ना सरजी, हमें तो वही मोगैम्बो वाली हँसी चाहिये, मजाक था तो मजाक में ही लीजिये। रही बात जुमला हुकूक वाली तो हमने बहुत पहले संबंधित ब्लॉग पर एक कमेंट में चेतावनी दे दी थी कि कॉपीराईट\पेटेंट करवा लें जल्दी से, नहीं मानता कोई तो न माने, अपनी फ़र्ज़अदायगी का फ़र्ज़ पूरा है। कहिये आप भी, मिलकर मुकदमा झेल लेंगे(हमपेशा तो हैं, हममुकादम(हा हा हा, पता नहीं सही शब्द है या नहीं) भी बन जायेंगे।

    @ महफ़ूज़ अली:
    क्या बात हो गई महफ़ूज़ भाई? कुछ अपने लायक हो तो बताना, वैसे यकीन है तुम पर कि सक्षम हो।

    @ boletobindas:
    शुक्रिया रोहित जी। मेरा ख्याल है अगले साल दिल्ली से एक बस भरके ब्लॉगर्स चल सकेंगे। तब तक अपन भी शायद पहुँच ही जायें दिल्ली।

    @ अदा जी:
    लगभग सही पहचाना है जी आपने, दर्दनाक को दर्दकान कर लें बस, हाँ नहीं तो..!!

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  31. भोला अपनी फ़ोर्मल ड्रेस में चल पड़े, नीलकंठ महादेव के दर्शन को... जय भोला महाराज की :)
    बहुत ज्यादा सुविधाओं के आदी होकर सच में हम इनके गुलाम हो जाते हैं।....सच कहा, खरा खरा और ये सच मीठा भी है.
    कछुए की तरह उठाया भोला साहब को, ये सही था :)

    आपकी सेना अच्छी है संजय जी.
    फत्तू साहब को आज शुक्रिया, कुछ गुर सीखा गए आज तो :)

    आज तो मन निकुंज-निकुंज हो गया :), गाना मेरा all time favorite है. :)

    पर संजय जी एक सवाल है छोटा सा, नाराज़ हैं आप? ३ लाइना कमेन्ट में ३ बार आप/आपका लिख गए. कल तक तो मैं तुम/अविनाश/प्रिय अविनाश ही हुआ करता था न :)
    कुछ नहीं लिखते तो भी चलता...
    माफी वाफी माँगने में बहुत तेज हूँ मैं, शिकायत दर्ज करिए, कान खींचने हो तो वो भी हाज़िर हैं... :)

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  32. बाउजी कमाल कर दित्ता तुसी...नीलकंठ पार्वती मंदिर ते झिलमिल गुफा दी यात्रा कर के स्वाद आ गया...त्वाडे लेखन दा जवाब नहीं...पामोलिव तो वि वधिया है...इक अद्धी फोटो शोटो वि ला देंदे तो मज़ा दुगना हो जाना सी...कोई गल नहीं अगली वारि सही...

    नीरज

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  33. पिछड़े सभी बारी-बारी.
    जितने भी ब्लोगर-महात्माओं के तम्बू गड़े हैं.
    सबसे ज्यादा भीड़ आप समेटने लगे हैं.
    लगता है ब्लोगर्स को सबसे कम्फर्टेबल यहाँ लगता है.
    संस्मरण-सभा तो हो ही रही है.
    फत्तू-फेन [पंखे] भी काफी तेज़ हवा देता है.
    पुराने सदाबहार नगमों के रिकोर्ड की भी बेहतरीन व्यवस्था की हुई है.
    मन कहीं और भागे तो भागे कैसे?

    ऐसे हालात में मेहनतकाश ब्लोगर्स के तम्बू खाली हुए जा रहे हैं.
    पिछड़े सभी बारी-बारी.

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  34. कुछ फंसा हुआ हूँ भाई जी.. बाद में आके सब पढ़ता हूँ.. पता है आप नाराज़ नहीं होंगे.. :)

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  35. भाई साहब, आपके भोला की जय हो!
    क्या-क्या वाकये हैं जी. वाह ही वाह.
    और गाना, ये मेरा बहुत ही फेवरिट गाना है. तलत साहब के बाद जो लाइन मन्ना दा गाते हैं...ओये होए होए.
    संजय भाई जिंदाबाद

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  36. @ Udan Tashtari:
    समीर सर, आपका शुक्रिया।

    @ राजभाषा हिन्दी:
    मेरा योगदान? अच्छा जी..!!

    @ अविनाश चन्द्र:
    ओये निक्के भाई, मैं सुधरना चाहूँ थोड़ा सा तो तुम जैसे नहीं होने देते। जा, नहीं सुधरेंगे - अब तो खुश?

    @ नीरज गोस्वामी जी:
    नीरज साहब, ऐ गल्ल है जी चार-पंज साल पुरानी, उस टैम असी ऐ कम्प्यूट्र, मोबाईल जई बीमारियां तों बचे होये सी। बड़ा लुत्फ़ सी जी उस टम विच्च। मेहरबानी त्वाडी, संभालदे रहंदे हो साड्डे ज्यां नूं।

    @ प्रतुल जी:
    ठीक है जी, वायदे के अनुसार आपने पुल बांध दिया। अब मौका देखकर मैं आपके कसीदे काढ़्ता हूँ किसी दिन। यार इतना भी मत चढ़ाओ, मैं चढ़ ही जाऊंगा फ़िर।

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  37. @ दीपक मशाल:
    क्या बात है यार, उधर महफ़ूज़ कहीं उलझे हैं, इधर तुम कहीं फ़ंसे हो। लगता है अपना मिडास टच अभी फ़ेल नहीं हुआ। नाराजगी कमेंट के कारण नहीं होगी, अगर अपने लायक कुछ हो और नहीं बताओगे तो नाराज होने का पूरा हक रखता हूँ।

    @ शिव कुमार मिश्र जी:
    शिव भैया, सब ठीक है जो आपने लिखा है, बस आखिरी लाईन पर ऐतराज है। आपको ठीक भर लग जाये, बहुत

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  38. बन्दे को तिब्बत ले जाते तो सारे चीनी भाग गये होते!

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  39. vilakshan aur asadharan lekhan shailee ........
    its a real pleasure to read your post......
    Amazing.......charecterization.........

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  40. आख़ि‍री रोटी याद रखने वाले वि‍रले ही होते हैं

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  41. बहुत सुन्दर.आनंददायक. समझ तो पहले से थी परन्तु यह कटु सत्य है कि "बहुत ज्यादा सुविधाओं के आदी होकर सच में हम इनके गुलाम हो जाते हैं"

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  42. धीरे धीरे पूरी कहानी पढ़ ही गया ..शाबाश बांधे रखने को !!

    यह भोला आजकल कहाँ है , जबरदस्त करेक्टर है !
    शुभकामनायें !

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  43. आठ साल बाद अपनी भी हाजिरी लग गई है... झिलमिल गुफा का एक परोगराम और बनाइए ना...

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