शुक्रवार, दिसंबर 03, 2010

ये ज़िंदगी के मेले....

जैसे जैसे उम्र निकल रही है, एक एक करके मन के सारे वहम धुलने लगे हैं। कितना यकीन था अपने ऊपर कि हमारे बिना यह काम रुक जायेगा, वह काम रुक जायेगा। मिन्नत करेंगे लोगबाग कि श्रीमान, आओ, तुम्हारे बिना  सब ठप्प हो गया है। और हम बारात में रूठे हुये फ़ूफ़ा या जीजा की तरह पहले मान-मनव्वल करवायेंगे और फ़िर निहाल कर देंगे  दुनिया वालों को । मगर न किसी ने मिन्नत की और न ही किसी ने य पूछा कि भाई क्यों नहीं दर्शन दिये आपने? बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फ़िर भी कम निकले।

दिल्ली का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार मेला संपन्न हो गया है।  इसमें क्या नई बात है?  हर साल लगता है,  चौदह नवंबर से और दो सप्ताह तक प्रगति मैदान और आस पास के कई किलोमीटर के दायरे में  कंधे से कंधा टकराती भीड़ का समन्दर लहलहाता रहता है। वैसे तो महीना भर पहले ही कम-ऑन वैल्थ खेल भी संपन्न होकर चुके हैं, लेकिन उनके साथ हमारा कोई इमोशनल अटैचमेंट नहीं था। लेकिन इस बेवफ़ा ट्रेड फ़ेयर को तो हमने अपने खूने-जिगर से पाला पोसा था, इसने इतनी बेमुरव्वत क्यों दिखाई? बिना हमारे गये भी ठीक-ठाक संपन्न हो गया?

ट्रेड फ़ेयर एक ऐसा सब्जैक्ट है हमारे लिये, कि उस पर पूरा महाकाव्य लिख सकते हैं। बहुत छोटे थे तो पिताजी हमें  घुमाने ले जाते थे, उसका अपना अलग चार्म था। कोई चिंता नहीं, कोई फ़िक्र नहीं। देखे जाओ और आनंदित होते रहो। फ़रमाईश करना ही काम होता था, बहुत मजा आता था उस समय। एक दिन एक प्रवचन में ऐसे ही मेले का वर्णन सुनते हुये फ़िर से अपने बचपन में पहुंच गये और एक नया नजरिया पाया। जब हम पिता की  उंगली पकड़कर   मेले में घूम रहे होते हैं, कितनी चीजें हमारा मन मोहती हैं। सजे सजाये पैवेलियन, महंगे और अनदेखे सामान, फ़व्वारे, खाने-पीने का सामान, आकर्षक साज-सज्जा तो मजा तो हमें यही सब देखकर महसूस करके आता लगता है कि इन रंगीनियों, साजो-सामान  में ही जिन्दगी का उल्लास है। ऐसे में अचानक पिता की उंगली छूट जाये तो फ़िर? सब साजो सामान वहीं और वैसे ही, लेकिन आनंद की जगह डर, निराशा, खौफ़ हावी हो जाते हैं। तो असली आनंद जिस चीज में है, उसका महत्व  हम तभी समझते हैं जब वो चीज हमसे छूट जाये।

फ़िर हम हो गये जी जवान।  अपने फ़ैसले खुद लेने लगे।  ग्यारहवीं और बारहवीं में हमारे साथ बहुत अन्याय हुआ था। नखलिस्तान से उठाकर हमें रेगिस्तान में छोड़ दिया गया। कोई फ़ूल नहीं, जिधर देखो कांटे ही कांटे। हम भी हम ही निकले, मिले न फ़ूल तो कांटों से ही दोस्ती कर ली। कायदे के चक्कर में ऐसे बेकायदा हुये कि डीटीसी को आधा घाटा तो हमारे जैसों के कारण ही हुआ। हमारे बापू की मेहनत से कमाई गई रकम में से साढे बारह रुपये ऐडवांस में ले लेते थे डीटीसी वाले, तब जाकर आल रूट पास जारी करते थे। हमने भी कमर कस ली कि पैसे वसूल करके ही छोड़ेंगे। सुबह घर से निकलने की  भी ऐसी हड़बड़ी रहती थी कि पेरेंट्स निहाल होते थे कि देख लो स्कूल जाने का कितना शौक है हमारे लाडले को। लाडला दूसरे कैक्टसों के साथ सारा दिन दिल्ली दर्शन में व्यस्त रहता था, बापू के साढे बारह रुपये जो वसूल करने होते थे।

कोई पार्क, कोई सिनेमा, कोई बाजार, कोई रोड, कोई कालोनी नहीं छोड़ी हमने जिसपर हमारे कदमों की छाप न पड़ी हो। लेकिन थे हम वैजीटेरियन शुरू से ही, फ़ूलों की खुशबू ले लेते थे लेकिन तोड़ते मरोड़ते नहीं थे। ऐसे में पहली बार दोस्तों के साथ  ट्रेड फ़ेयर में गये।

घूमते रहे इरादतन, गैर-इरादतन। जब थक गये तो बैठने  की जगह देखने लगे।   एक पैवेलियन के निकास द्वार के पास  फ़र्श में एक फ़ाल्स स्टेप था, होगा सिर्फ़ दो इंच का। एक लंबा सपाट गलियारा, एक्दम समतल और उसके बाद अचानक ही फ़र्श में थोड़ा सा गैप था। अपनी निगाह तब  ऐसी जगह पर बहुत पड़ती थी, जहां  something happening होने के चांस हों। वहीं अड्डा जमा लिया। यार दोस्तों ने बहुत कहा कि किसी लान में बैठेंगे लेकिन हमने तो वहीं साईड में एक रेलिंग पर बैठने की जिद की और सिर्फ़ पन्द्रह मिनट का समय मांगा कि अगर यहाँ बैठने में मजा न आया तो सबको पार्टी पक्की।

हमारी पिछली इलैक्शन ड्यूटी के दौरान एक साहब आये, आकर रौब से परिचय दिया ’I am observer’      बताओ जी, कैसी बीती होगी हमपर?  हम बचपन से ऑब्जर्वर चले आ रहे हैं और यहाँ हमें ही हूल दे रहे हैं साहब अपने ऑब्जर्वर होने की।    तो साहब, उस दिन रेलिंग पर बैठे बैठे अपनी मंडली  के साथ ऐसी ओब्जर्वेशन कीं कि इसरो वाले भी क्या करते होंगे। पेश है कुछ नमूने-

- जो बुजुर्ग या अनुभवी टाईप के थे, उनमें से एक भी उस जगह पर नहीं लड़खड़ाया। धीरे धीरे सधी चाल से ऊपर नीचे देखकर चलने वाले लोग छोटी मोटी मुसीबतों को पहले ही भाँप लेते हैं।

- जो उच्छृंखल टाईप के नौजवान थे, चलते किधर और देखते किधर थे, उनमें से आधे से ज्यादा वहाँ आकर डगमगा जाते थे – फ़िर अपनी झेंप मिटाने के लिये साथी के साथ धौल धप्पा करने लगते कि तूने धक्का दिया है।

- नौजवानियाँ(गलती शल्ती हो तो झेल लेना जी, भाषा-ज्ञान  हमारा ऐंवे सा ही है) जो अपने स्वाभाविक वेशभूषा में थीं, वे सहज रहीं और जो फ़ैशन के चक्कर में चोला बदलने की कोशिश में थी उनमें से अस्सी प्रतिशत वहाँ आकर झटका खा गईं। इतना जरूर है कि उन्हें संभालने वालों की कोई कमी नहीं थी, मिजाजपुर्सी करने वालों की कोई कमी नहीं थी। क्या बालक, क्या बूढ़े, क्या जवान, क्या कुंवारे और क्या उम्रकैदी – जरा सा स्कोप देखते ही सहारा देने को, संभालने को, मदद करने को तत्पर। और जितने ज्यादा पूछने वाले हों, उतनी ही हाय-हाय ज्यादा।

- जूनियर ब्लॉगर्स की तर्ज पर जो बच्चा दिल वाले गिरू फ़िसलू थे, वे लड़खड़ाते थे तो अगले ही पल सब भूलभालकर फ़िर रंगीनियों में, आपाधापी में खो जाते थे, यथास्थिति फ़ौरन बहाल हो जाती थी उनकी।

लेकिन क्या ऐसा नहीं लगता आपको कि  ये सब चीजें हमारी लाईफ़ में भी घटित होती रहती हैं।  हम अपनों की कदर तभी करते हैं, जब थामी हुई उनकी उंगली छूट जाये। जिन्दगी के सभी सुख मौजूद रहते हुये भी मन उचाट रहता है, फ़िर मालूम चलता है कि असली सुख तो उस सहारे में था न कि इस दुनिया की रंगीनियों में। और  कभी बहुत समय तक समतल रास्ते पर जिन्दगी चलती रहे तो हम लापरवाह हो जाते हैं, थोड़ी सी भी परेशानी आई जैसे फ़र्श में डेढ-दो इंच का गैप, तो लड़खड़ा जाते हैं। अपनी मानसिक स्थिति के अनुसार ही हमारी प्रतिक्रिया होती है। मैंने देखे हैं ऐसे उदाहरण भी कि कोई बड़ी से बड़ी मुसीबत भी हंसकर झेल जाता है और हम जैसे भी हैं कि थोड़ी सी परेशानी भी भारी लगती है। कोई अपनी दूरदृष्टि के चलते आने वाली मुसीबत से बचने का उपाय कर लेता है, कोई गप्पबाजी और बेकार की बातों में व्यस्त रहकर जमीनी सच्चाई को भूले रहता है और फ़िर चोट खा जाता है। कोई बात का बतंगड़ बना लेता है(हम हूँ ना?)    और कई बच्चों की तरह दिमाग की स्लेट से सब पोंछ-पांछ कर फ़िर से तैयार, नये झटके झेलने के लिये।

अब ज्यादा बोर आज ही कर दूंगा तो फ़िर कौन आयेगा जी यहाँ?  ऐसे ही कभी एक रिपोर्ट आपके सामने एक कस्बे की नुमाईश की दी जायेगी, कुछ हमारी सेल्फ़ डेराईव्ड ओबजर्वेशन्स के साथ। फ़िर करियेगा फ़ैसला, बड़े शहर के मेले मस्त होते हैं या छोटी जगह पर होने वाले ऐसे आयोजन ज्यादा अच्छे होते हैं। लेकिन अब पेंडिंग काम बढ़ते जा रहे हैं, इसका भी बोझ दिमाग  पर रहने लगा है। एक नन्हीं सी जान और कितने बोझ, अल्लाह जाने क्या होगा आगे?      अपना तो जी फ़िर वही आखिरी जवाब  है,  देखी जायेगी…..

:) फ़त्तू का छोरा पढ़न खातिर चंडीगढ़ में रहने लगा था। फ़त्तू पहले बार मिलने गया तो छोरा उसे सैक्टर सत्रह की मार्केट में ले गया। वहां जब फ़त्तू ने देखे चलते फ़िरते बुत, रूप के खजाने, हुस्न के लाखों रंग,  तो उसके दीदे फ़टे के फ़टे रह गये।
फ़त्तू छोरे से पूछने लगा, “रे, यो के सैं?”
छोरा,   “लुगाई सैं, और के होंगी?”
फ़त्तू, “यो सारी लुगाई सैं?”
छोरा, “हां बाबू, लुगाई सैं”
फ़त्तू ठंडी सांस भर के बोला, “वाह री म्हारी किस्मत, आज बेरा पटया कि लुगाई ईसी होया करें, म्हारी तो सारी उमर भैंस गेल ही कट गई।”

फ़त्तू गांव लौटकर रूखी सूखी खायेगा और ठंडा पानी पीयेगा।

51 टिप्‍पणियां:

  1. अगर फत्तू भाई का सही में ऐसे किसी रूप के खजाने से पाला पडा, तो समझ जाएगा के भैंस गैल उम्र कट गी सो बढ़िया रही ;)

    वैसे बात सही है, बच्चों की तरह स्लेट पोंछी और तैयार नए झटकों के लिए...बढ़िया सौदा है...पर कमबख्त दिमाग बड़ा हो जाता है, यही तो गलती करता है...और बड़ा हो जाने के बाद बच्चों सा बना रहना कोई बच्चों का काम नहीं...है ना?
    बहर हाल, आपकी ओबजर्वेशन्स बड़ी कमाल की लगी, लगे रहो श्रीमन ;)

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  2. शानदार...... ऐसे लगा हमारी किशोरावस्था ही लिख दी आपने. पर एक बात थी, मैं साडे बारह रुपे का पास भी नहीं बनवाता था.....

    @ मगर न किसी ने मिन्नत की और न ही किसी ने य पूछा कि भाई क्यों नहीं दर्शन दिये आपने?
    दिल से पूछो दोस्त. .......

    बाकि हमरी जान तो फत्तू में ही अटकी है..... फेक्टरी के बाहर सामने से काल सेंटर से निकलती कर्मचारियों को देख कर पश्चिम उत्तर प्रदेश से आये एक ठेठ ग्रामीण की भी यही टीप थी.

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  3. भाई साहब प्रणाम
    आज मूड कुछ चेंज सा लगा आपका, अंकल जी की याद आ रही है क्या।
    आज आप की पोस्ट जीवन का नया दर्शन लिए है, ये पक्तियां जाने क्यो बार बार मन को कचोट रही है।
    हम अपनों की कदर तभी करते हैं, जब थामी हुई उनकी उंगली छूट जाये

    काम का इतना बोझ मत रखिये कि वो दर्द बन जाये , और आपका ही तो कहना है कि हर बात चीज अपने से बडी को स्थान देने के लिए हटती है
    तो फिर टेंसन काहे कि जो होगा देखा जायेगा
    आज फत्तू की बात पर बहुत हंसा हू
    म्हारी तो सारी उमर भैंस गेल ही कट गई।

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  4. लेकिन थे हम वैजीटेरियन शुरू से ही, फ़ूलों की खुशबू ले लेते थे लेकिन तोड़ते मरोड़ते नहीं थे।....vaah...kyaa likhte hai aap....majaa aa gayaa...ek simple se saubject pe itna badhiyaa aap hi likh sakte hai....nice.

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  5. फाजली साहब ने कहा भी है,
    छोटा करके देखिये जीवन का विस्तार,
    आँखों भर आकाश है, भाहों भर संसार.

    आकाश मापने की इच्छा शुरू में सभी की रहती है, फिर धीरे धीरे समझ आती है की कहीं अभी जाओ , आकाश तो वहीँ रहेगा, फिर भी हमें अपनी घर की छत से ही उसका नज़ारा सबसे सुन्दर लगता है

    लिखते रहिये ...

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  6. आप भी ट्वन्‍टी ट्वन्‍टी की तरह क्रिकेट के साथ नृत्‍य दिखाते हो। इतना अच्‍छा रपट मेले की और साथ में फत्तू। अब सब फत्तू के बारे में ही बतियाएंगे देखना। रपट के बारे में कोई नहीं लिखेगा।

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  7. वैजीटेरियन ,something happening ,ऑब्जर्वर ,नौजवानियाँ,उम्रकैदी ,मिजाजपुर्सी,जूनियर ब्लॉगर्स

    ये सब पढ़ने के बाद जो हंसी रुके तो कोई टिप्पणी की जाये | एक पैर छोड़ दिया पढ़ने के लिए ये सब पढ़ने के बाद वो ना तो ठीक से समझ आएगी ना उसका असर होगा | सो बाकि टिप्पणी बाद में |

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  8. तुझ सा कोई नहीं
    तुझ सा कोई नहीं
    तुझ सा कोई नहीं
    तुझ सा कोई नहीं
    तुझ सा कोई नहीं
    तुझ सा कोई नहीं
    तुझ सा कोई नहीं
    तुझ सा कोई नहीं

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  9. पोस्ट टाईटल से लेकर टिप्पणी के टाईटल तक मजा आ गया

    "सिर्फ़ लिंक बिखेरकर जाने वाले महानुभाव कृपया अपना समय बर्बाद न करें। जितनी देर में आप बहुत अच्छे, शानदार लेख, प्रस्तुति जैसी टिप्पणी यहाँ पेस्ट करेंगे उतना समय किसी और गुणग्राहक पर लुटायें, आपकी साईट पर विज़िट्स और कमेंट्स बढ़ने के ज्यादा चांस होंगे।"

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  10. हम अपनों की कदर तभी करते हैं, जब थामी हुई उनकी उंगली छूट जाये।

    प्रणाम स्वीकार करें

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  11. बिना हमारे गये भी ठीक-ठाक संपन्न हो गया?...
    बहुत दुःख हुआ....
    हम अपनों की कदर तभी करते हैं, जब थामी हुई उनकी उंगली छूट जाये..
    बहुत सही ..

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  12. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  13. वाकई सेल्फ़ डेराईव्ड ओबजर्वेशन्स के सामने इसरो वाले फेल खा जायेंगे..नौजवानियाँ ही ज्यादा झटका खाती है और बाद में सम्हालने वाले को ही ज्यादा झटका देती है..

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  14. मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया..

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  15. शुक्रिया सर जी,
    वो इसलिए कि इस साल का पहला और आखिरी मेला घूम आए हम, आपकी बदौलत।
    बचपन में पिताजी की ऊँगली पकड़ के दशहरे के बहुत मेले देखे हैं, फिर खिटिर-पिटिर में मेले छूट ही गए।
    २ साल पहले IITF में गया तो था पर खैर अब मेलेबाज नहीं रह गया शायद, या फिर मेले में सबसे प्यारी चीज पिताजी कि ऊँगली ही हुआ करती होगी।

    आपके इन ओबजर्वेशन्स में से क्या चुना जाए, ये एक संतोषी जीव के लिए कठिन मसला हो सकता है। हम तो "हम ये भी लेंगे, वो भी लेंगे..अब हटो, सब ही लेंगे" वाले अड़ियल हैं, तो सब लिए जा रहा हूँ. :)
    जाने किस कटेगरी का हूँ, काम तो सभी आयेंगे ही।

    फत्तू को संदेसा दीजियेगा, गाँव लौटें तो दो-एक काले चश्मे, एक सफ़ेद बेल्ट, एक ऊँची सफ़ेद कॉलर (सिर्फ कॉलर, कमीज़ नहीं) ले आयें हमारे लिए, पानी के साथ गुड़ की व्यवस्था मेरी हुई।
    गाना हमेशा ही की तरह है ("हमेशा की ही तरह" यदि आपके सौजन्य से हो तो उसका मतलब "शानदार" ही लगाना होगा)।

    "कम-ऑन वैल्थ खेल" पर कॉपीराईट करा लिया?

    फिर से, आभार।
    मेला वाकई बहुत सुकूनदेह था।

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  16. म्हारी तो सारी उमर भैंस गेल ही कट गई।”

    आज दिया मिलाकै फ़त्तू के बाबू नै.:)

    रामराम.

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  17. वाह! यादें ताज़ा हुईं और सच मे आया मज़ा सा!हाँ हम भी कभी जाते से कभी "ट्रेड फ़ेयर"!

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  18. "हमारी पिछली इलैक्शन ड्यूटी के दौरान एक साहब आये, आकर रौब से परिचय दिया ’I am observer’ बताओ जी, कैसी बीती होगी हमपर? हम बचपन से ऑब्जर्वर चले आ रहे हैं और यहाँ हमें ही हूल दे रहे हैं साहब अपने ऑब्जर्वर होने की। तो साहब, उस दिन रेलिंग पर बैठे बैठे अपनी मंडली के साथ ऐसी ओब्जर्वेशन कीं कि इसरो वाले भी क्या करते होंगे। "

    शक की कोई गुंजाइश ही नहीं रहती, संजीव जी :)

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  19. कमेंट तो हम यूं ही लिख देते हैं, चुटकियों में, कई बार सरसरी निगाह डाल कर ही. आपकी पोस्‍ट दुबारा पढ़ा, थोड़ा अटकते-भटकते. हिचकोले खाते. हमें तो मेले के झूले जैसा मजा आया.

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  20. लेकिन क्या ऐसा नहीं लगता आपको कि ये सब चीजें हमारी लाईफ़ में भी घटित होती रहती हैं। हम अपनों की कदर तभी करते हैं, जब थामी हुई उनकी उंगली छूट जाये। जिन्दगी के सभी सुख मौजूद रहते हुये भी मन उचाट रहता है, फ़िर मालूम चलता है कि असली सुख तो उस सहारे में था न कि इस दुनिया की रंगीनियों में।
    Kya baat kah daalee!!

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  21. जिन्दगी वाकई मुठ्ठी में बन्द रेत की तरह है..

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  22. एक जमाना था जब इस मेले मे जाते थे तो अलग सी खुली गाडी में बैठ कर घुमते थे और साथ में एक दो घुमाने वाली भी साथ होती थी

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  23. काहे इतना नीक लिखते हो ........... कि बार बार पढ़ना पढ़े.... संजय जी........ आपकी पोस्ट कई रंग लिए आती है..... और कसम से, एक बार पढ़ने में एक रंग ही दीखता है.

    लगे रहो मुन्ना भाई.

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  24. अब मेरी बात को चाहे जितना हँसी में उड़ाओ... संजय बाऊजी मैं तो असली बात का इंतज़ार कर रहा था.. नज़र का पैनापन तो देख ही रखा है आपका.. लेकिन आज जो दिखाया आपने उसको अपने आसपास न देख पाने का बहुत अफसोस होता है.. पिताजी की उँगली! पता नहीं किस गली में गुम हो गई!
    हाइट कर दी आपने बोरियत की! कम्बख़्त बोरियत भी इतनी इंटेरेस्टिंग होती है, यहाँ आकर पता चला है. और हाँ आजकल बोरियत ही तो गुम होती जा रही है!! तभी इतनी याद आती है!! चश्मेनम के साथ चश्मेबद्दूर! फत्तू और गाना बोरियत के सारे चाँद तोड़ लाया है!!

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  25. चलत चलत चलत चलत
    सब चलता ही रहता है
    रूकता कुछ नहीं
    जो रूक रहा है
    वो भी रूकते हुए
    चल रहा है
    आओ बंधु, गोरी के गांव चलें

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  26. डी टी सी वालों को लाख-लाख धन्यवाद जो साढ़े बारह रूपये महीना में ऐसा 'कुटिल-खल-कामी' बना दिया !!!
    @ लेकिन थे हम वैजीटेरियन शुरू से ही, फ़ूलों की खुशबू ले लेते थे लेकिन तोड़ते मरोड़ते नहीं
    इसे 'टोटे ताड़ना' कहते थे !! साढ़े बारह रूपये में यह भी सीखने को मिलता था.

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  27. @हम अपनों की कदर तभी करते हैं, जब थामी हुई उनकी उंगली छूट जाये।

    संजय जी जमाना बदल गया है जब कमजोर है बच्चे है तभी तक इन थामी हुई उंगलियों की कदर है बड़े या ताकतवर हुए नहीं की फिर किसी की जरुरत नहीं होती जाने वाला जाता है और बड़े दार्शनिक हो कर हम कहते है की किसी के जाने से दुनिया तो नहीं रुकती वो तो चलती रहती है और सब भूल कर अपने काम में लगा जाते है जल्द ही जाने वाले की कदर क्या उसकी यादे भी भूल जाते है | आज आप के फत्तू की कहानी मेरीजुबानी

    फत्तू की पत्नी ने अपनी बेकदरी से परेशान हो कर उसे ताना मारा की जब चली जाउंगी हमेशा के लिए तब मेरी कदर पता चलेगी | फत्तू ने झट से कहा की मै तो तेरी कदर करने के लिए तैयार हु बस एक बार हमेशा के लिए जा कर दिखा | :-)

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  28. .
    .
    .
    कई कई बार पढ़ा...
    और हर बार पहले से ज्यादा मजा आया...

    आभार आपका इस खूबसूरत मेला घुमाई के लिये !


    ...

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  29. ये अनलिमिटेड पास के पैसे आपने हमसे अधिक नहीं वसूले होंगे उसकी गारंटी :) हम इंटर्नशिप पर थे तो एक एक गाँव एक एक झील देख डाली थी. पूरा स्विट्ज़रलैंड. एक दिन भी नहीं छोड़ते थे.
    बाकी रूठे हुये फ़ूफ़ा जीजा की तरह मान-मनव्वल करवाने का ख्याल तो हमें भी आता रहता है :)

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  30. haz se aa gaye miyan..aur aate hi.. fattu se mulakat ho gayi...

    papa papa kahte the, bade maje mein rahte the...baat to sahi kahiye hai..bas itna kahunga

    apna ehsaas dene ko..khushiyan rakhti hain saath gam.

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  31. @ saanjh:
    सही कहती हैं आप, तभी तो फ़त्तू ने गांव लौटने का फ़ैसला किया:)
    thanx.

    @ दीपक डुडेजा:
    भाई, हम तो रहे पवित्र पापी, पाप करते थे पवित्रता के साथ:)

    @ दीपक सैनी,
    नो कन्फ़्यूज़न दीपक, ऑल इज़ वैल। ईश्वर की दया से मेरा सब परिवार एकदम फ़िट है, पिता वाली बात तो एक रिश्तों की अहमियत समझने का नजरिया था। बहरहाल, मेरी बातें याद रखते हो, शुक्रिया।

    @ अरविन्द जी:
    क्रांतिदूत महाराज, हम तो खुद आपकी व्यंग्य शैली के फ़ैन हैं, और दोस्त सिंपल विषय से आगे अपनी रेंज है ही नही:)

    @ मज़ाल साहब:
    सही फ़रमाया साहब, फ़ाज़ली साहब ने भी और आपने भी।

    जवाब देंहटाएं
  32. @ डा. अजीत गुप्ता जी:
    क्या बात कहती हैं मैडम आप, मैं तो बहुत स्लो मोशन वाली पिक्चर हूं। 20-20 भी टैस्ट मैच जितना हो जायेगा, मेरी चले तो। फ़त्तू की ही बात करें जी सब, अपन गुमनाम ही ठीक हैं। आपका बहुत आभारी हूँ, आशीर्वाद मिलता रहता है आपका।

    @ anshumala ji:
    हंस लो आप भी, देख लेंगे:)

    @ अंतर सोहिल:
    अमित प्यारे, मुश्किल से तो यार तुम्हें प्रणाम से राम राम तक लाता हूँ, फ़िर तुम वही प्रणाम। हो पक्के फ़त्तू के गैंग के:)

    जवाब देंहटाएं
  33. @ वाणी गीत:
    शुक्रिया आपका।

    @ अदा जी:
    एक क्लैरिफ़िकेशन:कम-ऑन वैल्थ खेल....:):)Perfect..!!ये जुमला मेरा नहीं है, यहीं किसी ब्लॉग पर पढ़ा था। और चूंकि मैं बहुत कम ब्लॉग्स पर जाता हूँ, मुझे तो लगा था कि शायद आपही के यहां पढ़ा होगा। आप परफ़ैक्ट कह रही हैं तो डाऊट हो रहा है। शायद, ’संवेदना के स्वर’ से या फ़िर ’प्रतुल वशिष्ठ’ के ब्लॉग से हाईजैक किया है ये, सो इसकी तारीफ़ नहीं रखूंगा:)
    बचाओ आंदोलन में शरीक होने की इच्छा तो रहती थी, लेकिन शुरू से ही बैकबेंचर, लेटकमर्स, लाईन में पीछे रहने की आदतों के चलते - मेरी बात रही मेरे मन में - और हम ओब्जर्वर, आलोचक, समीक्षक, निंदक बनकर ही गुबार देखते रहे:)
    आपके कमेंट के लिये ’हमेशा की तरह आभारी।’

    @ साकेत शर्मा:
    धारदार बना दी है मेरी ओब्जर्वेशन तुमने, साकेत। शुक्रिया।

    @ उदय जी:
    धन्यवाद उदय जी,
    इस वाली प्रोफ़ाईल तस्वीर में आप थोड़े से खफ़ा से दिखते हैं, इसलिये पूछा था आपसे, बुरा नहीं मानेंगे आप, ये आशा है।

    @ प्रवीण पाण्डेय जी:
    हमारा तो साथ जिन्दगी निभाती रही है अब तक।

    जवाब देंहटाएं
  34. @ अविनाश:
    इन सबमें से एक भी चीज तुम्हारे काम आ सके, तो अपनी खिटिर पिटिर सार्थक हो जाये दोस्त। प्यार से तो कुछ भी ले जाओ, खुशी ही होगी मुझे। तुम्हारी कैटेगरी बहुत अलहदा, बहुत जुदा है। कहा है न पहले भी कि तुम जैसों के कमेंट बहुत बड़ा ईनाम हैं मेरे लिये, संभाल रहा हूँ, झोली बड़ी कर ली है:)
    @ "कम-ऑन वैल्थ खेल" पर कॉपीराईट करा लिया?
    इसका क्लैरिफ़िकेशन ऊपर अदा जी को दे दिया है, वही पढ़ लेना।
    इतना कुटिल भी नहीं कि दूसरे को मिलने वाला क्रेडिट चुपचाप
    हड़प लूँ। सच बताकर हड़प लूंगा, हा हा हा।

    @ ताऊ रामपुरिया:
    ताऊ, आज गलती कर गया। फ़त्तू की जगह उसके बाबू को क्यूं लपेटते हो?
    रामराम।

    @ ktheLeo:
    सरजी, ये मजा सा बहुत गज़ब है, सच में:)

    @ पी.सी.गोदियाल जी:
    शुक्रिया, थपलियाल जी:)

    @ राहुल सिंह जी:
    दो बार पढ़ा, यानि कि डबल टाईम खोटी? आप तो कामकाज वाले आदमी हैं साहब:)

    जवाब देंहटाएं
  35. 'कीबोर्ड' पर अँगुलियों की मदद से जिंदगी में अँगुलियों के सहारों / भरोसे पे , बेहतर 'इशारा' कर गए आप !

    फत्तू को तो इन 'सहारों' ने ही गलत राह से गुजारा करवा दिया होगा ना :)

    जवाब देंहटाएं
  36. @ kshama ji:
    धन्यवाद महोदया, आपका बहुत शुक्रिया।

    @ भारतीय नागरिक:
    एकदम सही कहा जी आपने, मुट्ठी खोलो तब तक सब रीत चुका होता है।

    @ धीरू सिंह जी:
    एस्कॉर्ट सुविधा शुरू से ही आपके पास:)

    @ दीपक डुडेजा:
    लगे हुये हैं बाबाजी, दयादृष्टि रखिये बस:)

    @ सम्वेदना के स्वर:
    हमें ज्यादा कुछ याद नहीं रहता, एक शेर बघेरा सा सुना था बचपन में, "हंसो आज इतना कि इस शोर में, सदा इन दिलों की सुनाई न दे" वो याद है जी।
    बोरियत की ऐसी की तैसी, चांद को तोड़ने की मत कहिये जी, वैसे ही..।

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  37. @ अविनाश जी:
    क्या कहूँ साहब? :)

    @ prkant:
    कुछ तो बाकी रहने देते प्रोफ़ैसर साहब, आप भी:)

    @ anshumala ji:
    खूब फ़बा जी फ़त्तू आपकी जुबानी, बल्कि ये तो सवा फ़त्तू निकला, हा हा हा।

    @ प्रवीण शाह:
    आभारी तो मैं हूं जी आपका, आपके काम्प्लिमेंट का। काम्प्लिमेंट ही है न वैसे?:)

    @ अभिषेक ओझा:
    मान ली जी गारंटी आपकी। चलिये कहीं तो हमख्याली हुई आपसे। ये रूठे जीजा-फ़ूफ़ा शायद बेसिक इंडियन कैरेक्टर हैं:)

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  38. कन्फयूजन दूर करने के लिए धन्यवाद

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  39. संजय बाऊजी!! राहत साहब का शेर (बघेर)लिखा है आपने...
    ख़ुदा हमको ऐसी ख़ुदाई न दे,
    कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे.

    आपको ख़ुदा दिखे न दिखे, ख़ुदा की इस ख़ुदाई में ख़ुदा के वो बंदे दिख जाते हैं जो किसी को नहीं दिखते...अब चाहे वो गुमशुदा उँगली हो,ठोकर खाकर गिरते लोगों का रिऐक्शन हो या फिर (रंजना जी के ब्लॉग पर देखा)सर्द रातों में ख़ुदा से फरियाद करता वो पागल हो, जिसे आप जंगल में मिले थे... मेरा ख़ुद का एक बघेरा आप पर छोड़े जा रहा हूँ:
    शकल देखी नहीं उसकी जो है आकाश में रहता
    मगर जब याद करता हूँ तो ‘मो सम कौन’ लगता है!

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  40. @ Anand Rathore:
    ये आना भी कोई आना है, हजरत? आते ही फ़त्तू से मुठभेड़!
    सही कहा आनन्द आपने, गम न हों तो खुशियों की ही कहाँ कद्र हो। शुक्रिया दोस्त।

    @ अली साहब:
    रहगुज़र कैसी भी हो,ऐसे सहारों के दम पर ही फ़त्तू जैसों की गुजर बसर है, वरना तो क्या मानुष और क्या मानस की जात।

    @ अमित शर्मा:
    आय हाय, तेरा एस्माईली...।

    @ अनुपमा पाठक:
    धन्यवाद अनुपमा जी।

    @ दीपक सैनी:
    कन्फ़्यूज़न दूर करना जरूरी था दीपक, तुम खुद समझदार हो।

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  41. आज तो आप तब्यत खुश कर दिए जी, ये तो मेरा पसंदीदा गाना है ...

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  42. वाह भई फत्तू तुम सैक्टर 17 न ही जाते तो ही अच्छा होता... सच बहुत कड़वा होता है न

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  43. ये जिन्दगी के मेले...लेकिन ये मेले भी तो मेलियों से ही है. मेली नहीं तो फिर काहे के मेले :)

    एक सुझाव:-
    अगर उचित समझें तो आप ब्लाग का टैम्पलेट बदल लीजिए. ये वाला रंग कुछ अखरता सा है. वैसे कोई जरूरी नहीं कि आपको तथा ओरों को भी ऎसा ही लगता हो. हो सकता है इस रंग से हमें ही कुछ प्राब्लम हो.

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  44. हम अपनों की कदर तभी करते हैं, जब थामी हुई उनकी उंगली छूट जाये। जिन्दगी के सभी सुख मौजूद रहते हुये भी मन उचाट रहता है, फ़िर मालूम चलता है कि असली सुख तो उस सहारे में था न कि इस दुनिया की रंगीनियों मेंशंसी हंसी मे कितनी बडी बात कह दी। हर पोस्ट मे इतनी रोचकता आप ही ला सकते हैं।
    फत्तू अपनी जगह सही है।
    आभार और शुभकामनायें।

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  45. @ चला बिहारी:
    अच्छी दोस्ती निभा रहे हैं जी, ऐसे भारी भरकम बघेरे हम पर छोड़ रहे हैं? मेंढकी को तो चाकू ही काफ़ी है सरकार।

    @ सैल जी:
    धन्यवाद जनाब, पसंद को पसंद करने के लिये।

    @ काजल कुमार जी:
    टाईम खोटा था भाई जी, जाना पड़ा फ़त्तू को ऐसी खतरनाक जगह।

    @ पं. डी.के.शर्मा ’वत्स’ जी:
    मेलियों के बिना कैसे मेले, सही कहा जी।
    टैम्पलेट भी बदलेंगे सरकार, बहुत कुछ बदलना है अभी तो।

    @ निर्मला कपिला जी:
    मैडम जी, आशीर्वाद मिलता रहता है आपका, आभारी तो मैं हूँ।

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  46. भैया गाना अच्‍छा लगाया। हमारी पसंद का है।

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  47. हीहीहीहीहहीहीहीहीही एक ही बिरादरी के हम लोग हैं। साढ़े बारह रुपये के पास को पूरा वसूला है हमने भी। अब तो इत्ता गुमान हो जाता है कि हम किसी भी जगह पर पहुंचते ही लगता है यहां कभी आएं हैं। भले ही वो कलोनी बसी न हो साढे बारह के पास के हमारे वाले समय में। बाकी तो जी हम भी पूरे वैजिटैरियन ही रहे हैं। हां बैंक बैंचर कुई मामलों में न रहे। और कई मामलों में बचाओ आंदोलन के नेता और कार्यकर्त्ता का दोनो रोल निभाने के साथ भाषण भी पैल देते। यानि बचने वाली लाइट मारती जवानियों को रंग बदलते कौवी को (कौवो के लिए तो हंसनियां थी ही जनाब..हम तो तब भी न सुधरे।

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  48. bahoot hi sunder prastuti............gana bilkul schchai bayan karta hua. sunder chayan.

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  49. भाई , इतना ढेर एक बार में ही कैसे लिख डालते हैं आप ! और यह भी नहीं लगता - '' अब ज्यादा बोर आज ही कर दूंगा तो फ़िर कौन आयेगा जी यहाँ? ''

    यह गाना मेरे कुछ प्रिय गानों में एक है ! आभार !

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