मंगलवार, सितंबर 28, 2010

पोस्ट-इफ़ैक्ट्स ऑफ़ ’यादों के जंगल से’

’अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना’,  यह कथन आपने जरूर सुना होगा और इसका अर्थ भी जानते होंगे।  हम आपको जो बताने जा रहे हैं, वो उदाहरण है ’कुल्हाड़ी पर पैर मारने का।’  जैसे दुख तो अपना साथी है और मौत महबूबा है अपनी टाईप बातें होती हैं, इस तरह के  पंगे और अपना चोली दामन का साथ है।  जिन्दगी थोड़े दिन सीधे रास्ते पर चल दे तो अंदर से ही कुछ खटकना शुरू हो जाता है कि यार, बहुत दिन हो गये कोई नया पंगा नहीं हुआ। फ़िर जब कुछ हो जाता है तो तसल्ली होती है कि अभी ऊपर वाले ने हमें  नजरअंदाज नहीं किया है।
लेटेस्ट घटना जुड़ी है अपनी पोस्ट ’यादों के जंगल से’ के बाद हुई प्रगति(नकारात्मक प्रगति) से। बॉलीवुड वाले ऑफ़बीट फ़िल्में  बना दें तो कोई बात नहीं।  युवराज, भज्जी जैसे खेलना छोड़कर रियलटी शोज़ में या रैंप पर आ जायें तो कोई बात नहीं, एक और युवराज हैं वो जहाज से ट्रेन में और महलों से गरीब के झोंपड़े में आ जायें तो कोई बात नहीं लेकिन हमने  थोड़ा सा एक प्रयोग क्या किया, हमारे गले का हड्डा बन गया है।
बाजपेयी जी की सरकार ने जब परमाणु परीक्षण किया था तो अमेरिका ने भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिये थे। हमने प्रेम परीक्षण किया तो हमपर हमारी सरकार ने जैविक, दैहिक और भौतिक सभी तरह के प्रतिबंध लगा दिये हैं। रफ़्तार भारत की भी नहीं रुकी, इस भारत कुमार की भी नहीं रुकेगी, अब और कितना धीरे चलें भाई? राजे महाराजे हमारी उम्र तक पहुंचते पहुंचते हरम के हरम खड़े कर लेते थे, हम से एकवचन से द्विवचन न सीखा गया अभी तक।  और धीरे चलते तो जो थोड़ी बहुत घास गिर रही है सामने, वो भी न गिरती।
ऊपर ही लिख दिया था (एक कहानी),
लेकिन उसने मेरी एक न मानी
मैंने दौड़ाये थे कल्पना के घोड़े,
वो इसको सच्चाई जानी।
मैंने दी भी बहुत सफ़ाई,
पर न मानी, तो न मानी।
ऊपर वाले के फ़ज़ल से रैपुटेशन में कोई कमी नहीं है अपनी। न देखी हो तो ’वैलकम’ फ़िल्म देखियेगा और नाना पाटेकर का डायलाग ’भगवान का दिया सब कुछ है, नाम, इज्जत, शोहरत….’ सुनियेगा। हमारा गॄह मंत्रालय हमारी काबिलियत पर इतना विश्वास करता है कि एक्दम स्थानीय बातों से लेकर गली, मोहल्ला, शहर, देश, महाद्वीप, पृथ्वी और यहाँ तक कि आकाशगंगा में होने वाली किसी भी गड़बड़ी का क्रेडिट हमें दे दिया जाता है। अफ़ज़ल गुरू, कसाब सरकारी जमाई बनकर सेवा करवा रहे हैं,  सरकार ने ’साध्वी प्रज्ञा और कैप्टेन पुरोहित’ को भी लपेट लिया कि अब कम से कम भेदभाव का आरोप तो नहीं लगेगा।  इसी नीति के तहत हमारा भी सर्वेलैंस चल रहा था पिछले कई दिन से। इधर उधर ताक-झांक कर रहे थे थुरूर साहब, तिवारी जी, शाहिद कपूर, जैसे  बड़के बड़के लोग, धर लिये गये हम ताकि भेदभाव का आरोप न लग जाये।  
जैसे चालाक से चालाक अपराधी कोई न कोई सुबूत छोड़ देता है, हमसे भी चूक ओ गई। ताव ताव में एक पोस्ट लिख मारी, ये दिखाने के लिये कि सिर्फ़ हल्की फ़ुल्की बातों का सत्यानाश नहीं कर सकते, हमें मौका मिले तो भारी भारी यादों का, आई मीन बातों का भी सवा सत्यानाश कर सकते हैं। इधर पोस्ट छपी, उधर बाहर अखबार वाला पैसे लेने आ गया। मैं भी उन दिनों छुट्टी पर चल रहा था, मगजमारी करने लगा उससे। अपना तर्क ये था कि ब्लॉगिंग में या नैट पर विज्ञापन देखने के पैसे मिलते हैं, हम पूरा महीना भर तुम्हारी अखबार देखते हैं, बिल तो हमें वसूल करना चाहिये तुमसे। जब अखबार वाले को ये पता चला कि हम भी ब्लॉग लिखते हैं तो उसने बड़ी तरस खाती नजर से देखा हमें। 
"अबे, क्या बुझते चिराग से दिख रहे हैं क्या हम, जो ऐसी करूणामयी दॄष्टि से देख रहा है?"
वो कहने लगा, "सरजी फ़िर त्वाडा कोई कसूर नहीं है। मैंनूं पहले ही लगदा सी कि कोई गड़बड़ है।"
"चल यार, तू ये ले पैसे और जा अब।"
वो चला गया और मैं अंदर आ गया। आ क्या गया जी, अंगारों पर आ गिरा सीधा।  कारवां गुजर गया था और गुबार हम अब तक देख रहे हैं।
वैसे हमारी इस शानदार छवि बनाने में आप सबका योगदान भी कम नहीं है। किसी ने मजाक में तो किसी ने सीरियस होकर इस अफ़वाह को बढ़ाबा दिया है कि सारी दाल काली है। एक ने भी झूठे से नहीं कहा कि लिखा बहुत अच्छा है। किसी ने कहा भी तो ऐसे कहा कि आप कहते हैं कि कहानी है तो मान लेते हैं। ना, और कैसे जताओगे कि वैसे नहीं मानने वाले थे कि कहानी है। ले लो मजे, आयेगा हमारा भी टाईम।  फ़िलहाल तो हमारे ऊपर सेंसरशिप चालू आहे…।  उस पोस्ट को कहानी न मानकर संसमरण माने जाने का नोटिस जारी हो चुका है। इसे हमारा इकबाले जुर्म मान लिया गया है। अब तो खुश हो सारे?  जिस तरह से अफ़ज़ल गुरू और कसाब जैसों की खातिरदारी में कमी नहीं होती और हिसाब बराबर करने के लिये सरकार ने ’भगवा आतंकवाद’ का मुद्दा बना दिया है ताकि यह दिखाया जा सके कि आतंकवादी किसी एक धर्म, मजहब के नहीं या वो अकेले कसूरवार नहीं हैं, हमारे कंट्रोल मंत्री ने भी अपनी वक्र दॄष्टि हम पर डाल दी है। नारको, मारको सभी प्रकार के टैस्ट्स से होकर गुजरना पड़ रहा है। सवाल पर सवाल दागे जा रहे हैं, 
"कौन है?"
हम बोले,  "कोई नहीं है।"
"अच्छा है नहीं,  इसका मतलब थी तो जरूर?"
"अब होने को क्या दुनिया से लड़कियां खत्म हो गई थीं क्या? होगी कोई हमें क्या?"
"अच्छा, अब पकड़े गये तो हमें क्या, नहीं तो बड़े गिफ़्ट दिये जा रहे थे? हमें तो कभी हैप्पी बर्थ डे भी नहीं कहा।"
"अरे, उस समय तुम्हें ही सामने रखकर रचना के बारे में सोचा था।"
"अच्छा, तो रचना था नाम?  अब समझ आई कि कल क्यों बालों में कलर लगवाकर आये हो। आजकल हर दूसरे दिन शेव भी हो रही है।"
"अरे भागवान, जब ऐसे रहता था तो कहती थी कि शक न करे कोई इसलिये ऐसे फ़कीरों की तरह रहते हो।"
"तो ठीक कहते थे हम तब भी। और अब हम क्या झूठ कह रहे हैं, ये देखो पढ़ो जरा कमेंट्स, पार्ट टू और पार्ट थ्री, और यहीं क्यों रुको, गिनती तो और भी आती ही होगी।"
अब ज्यादा लिखूं तो एक इलज़ाम और आयेगा कि मेरी कीमत तुम्हारी एक पोस्ट जितनी ही है। कैसे यकीन दिलाऊँ उसे कि उसकी कीमत क्या है और कितनी है?  जानता हूँ ज्यादा समय तक नाराज नहीं रहा जायेगा उससे, लेकिन जो समय बीत गया नाराजगी में, वो लम्हे लौट आयेंगे क्या? और फ़िर रानी रूठेगी तो अपना सुहाग लेगी। ले ले,  देखी जायेगी…….
:) मुश्किल समय में फ़त्तू ने एक नये नये धनवान बने सेठ के यहाँ नौकरी शुरू की। सेठ के मुछ मेहमान आ रहे थे, इम्प्रेशन जमाने के किये फ़त्तू को अग्रिम प्रशिक्षण दिया गया। 
मेहमान आये, सेठ जी ने फ़त्तू को आवाज लगाई, :अरे भाई, कुछ पीने के लिये ले आ।” 
फ़त्तू, “क्या लाऊँ जी, जूस ले आऊँ, पैप्सी ले आऊँ या फ़िर बियर, व्हिस्की वगैरह कुछ लाऊँ?” 
सेठ जी, “यार, प्यास तो पानी से ही बुझेगी, पानी ले आ।” 
कुछ देर बाद चाय की फ़रमाईश हुई। अबकी बार सीखे सिखाये फ़त्तू ने पूछा, “चायपत्ती कौन सी चलेगी जी, आसाम वाली, दार्जिलिंग वाली या श्रीलंका वाली।” सही रंग जम रहा था।  
कुछ देर के बाद मेहमानों की इच्छा पर सेठ जी ने फ़िर से आवाज लगाई, “यार, जरा पिताजी को तो ला जरा।” 
फ़त्तू,”जी, कौन से वाले पिताजी को लाऊँ, बगल वाले गुप्ता जी को ले आऊँ, सामने वाले सिंह साहब को ले आऊँ, २९ नंबर वाले शर्मा जी को लाऊँ या जो बुड्डा सारे दिन खों खों करता रहता है घर में, उसे लाऊँ?”
अब ऐसा है जी, बदनाम तो हो ही गये हैं अपनी ओ जी के सामने(जैसे पहले तो बड़े पदमश्री, भारत रत्न से नवाजे जाते थे), आज थोड़ा सा  नया गाना सुन लो, रोमांटिक सा।  अच्छा लगे तो अपना लो, बुरा लगे तो जाने दो…

शनिवार, सितंबर 25, 2010

बिछड़े सभी बारी बारी-५






भाग-१भाग-२,  भाग-३भाग-4 और  अब आगे झेलिये

सुबह के लगभग आठ बज गये थे और हम झिलमिल गुफ़ा के बाहर बने खोखों में चाय पी रहे थे और साथ में कुछ खा भी रहे थे जिन्हें दुकानदार पकौड़े बता रहा था। आगे का चार्ज अब भोला को सौंप दिया गया था। भोला ने दुकानदार से वापिस जाने के  रास्ते के बारे में पूछा। दुकानदार बोला, “यहाँ से ऋषिकेश जाने के दो रास्ते हैं।” भोला बीच में ही बोला, “ओ यार, दो रंग ते दो रस्ते प्यार दे  पता है सानूं, ओ रस्ता बता जिसदे आसपास तीन चार किलोमीटर तक कोई मन्दिर न हो, इन बंदों का पता ठिकाना नहीं कुछ।” फ़िर जैसा कि पता चला, एक रास्ता तो वही था जिसपर चलकर हम पहुंचे थे, दूसरा एक कच्चा रास्ता था जो जंगल में से होते हुये गंगा बैराज के पास निकलता था। उसी lesstrodden रास्ते पर चलने का फ़ैसला करके हम चल पड़े।
वापिसी में और भी कई टोलियाँ मिलीं, थे लगभग सारे ही छड़े। ये सारा रास्ता उतराई का था तो मुझे लग रहा था कि वापिसी में कोई दिक्कत नहीं आयेगी। अब जो हालत हो रही थी तो विजय सिंह की वो गज़ल याद आ रही थी, ’कल जो पी थी अजी ये तो उसका नशा है, तुम्हारी कसम आज पी ही नहीं’।  पिछली सारी रात जो पहाड़ों में चलते रहे थे, अंधेरी रात, ठंडी हवायें, कोई इंसानी कोलाहल नहीं, और मंजिल तक पहुंचने का रोमांच और सबसे बड़ी बात ये कि भीड़ का हिस्सा न बनकर कुछ अलग चलने और अलग से कुछ करने का थ्रिल, उस समय तो कुछ महसूस नहीं हो रहा था लेकिन अब उतराई में भी पैर कहीं रखते थे और पैर कहीं पड़ता था।  भोला रूट इंचार्ज तो बन गया था लेकिन इस परेड में हमारी पोजीशनिंग वही थी पुराने वाली। भोला कहने लगा, संजय बाऊ दे मैं अग्गे नहीं चल सकदा और लोक दे पीछे नहीं रैणा। मतलब, हरावल दस्ते में मैं, बीच में भोला और कवर अप देते हुये आलोक, असली बात उसका ये  डर था कि कोई जानवर कहीं आकर हमला न कर दें। अपन आगे इसीलिये थे कि काश इसका सोचा सच हो ही जाये और खुदा की कसम मजा आ ही जाये। खैर एक्दम पथरीला रास्ता था, ऊबड़ खाबड़। जंगल कुछ घना नहीं था लेकिन फ़िर भी माहौल तो अच्छा सा था ही। एक जगह पर आये तो देखा कम से कम तीस चालीस लड़के इकट्ठे होकर रुके हुये हैं एक जगह।  पास जाकर देखा तो रास्ते को घेर कर लंगूरों का एक जत्था बैठा था जैसे हर दूसरे तीसरे दिन हमारे देश में  चक्का जाम होता रहता है।  अब लड़के तो लड़के, कोई हुश्श शुश्श करता तो उधर से वो काले मुंह वाले भी दांत पीसते। एक लड़के ने एक पेड़ की टूटी हुई टहनी  उठाई और जैसे ही उस झुंड की तरफ़ फ़ेकंने लगा, भोला ने बहुत गुस्से से उसे डांटा और फ़िर हमुमान चालीसा पढ़ने लगा। सच कहूँ, तो मुझे खुद अजीब सा लग रहा था लेकिन उसमें श्रद्धा बहुत है, और हर धर्म और हर देवी देवता के  बारे में। लड़कों को समझाया कि शरारत न करें और पांच सात मिनट बाद रास्ता क्लियर हुआ।
अब पहाड़ी रास्ता लगभग खत्म हो गया था, ढलान भर रह गई थी। दोनों तरफ़ ऊंची ऊंची घास, इतनी ऊंची की  छोटा मोटा हाथी  तो दिखे भी नहीं, इसीलिये शायद हाथीघास कहते हैं उसे। अब हमारी व्यूह संरचना छिन्न-भिन्न हो गई थी, क्योंकि दिन निकल आया था अच्छी तरह और जंगली जानवरों का खतरा अपेक्षाकॄत कम हो गया था। ऐसा ही तो होता है हम अबके साथ, किसी आसन्न संकट के समय हम चौकन्ने होते हैं, और संकटकाल के बाद या शान्त समय में लापरवाह और हमारी इसी गफ़लत का फ़ायदा शरारती लोग उठा जाते हैं। खैर, अब हम लोग थके हुये थे, हंसी-मजाक वगैरह भी न के बराबर हो रहा था और रास्ता बहुत लंबा लग रहा था। कोई थक जाता तो बिना किसी से कुछ कहे थोड़ा सा सुस्ता लेता और फ़िर जो आगे निकल जाता वो इंतज़ार करता और इस बहाने सुस्ता लेता। ऐसे ही एक समय में भोला पीछे रह गया, एक मोड़ पर मैं और आलोक खड़े उसे देख रहे थे। कुछ देर में वो दूर से तेज तेज कदमों से  आता दिखाई दिया।  आलोक ने मुझे इशारा किया और हम थोड़ा सा घास में होकर खड़े हो गये। भोला ने मोड़ पार किया, आगे दूर दूर तक कोई नहीं दिखा और भोला ने एकदम से फ़र्राटा भरा और भाग लिया। अच्छी से अच्छी मेक की गाड़ी फ़ेल हो जाती उसकी एक्सेलेरेशन देखकर।  जब तक हम घास से बाहर निकल कर उसे पुकारते, तब तक हमारा देसी ’ओसान बैल्ट’  सीमा रेखा से बाहर पहुंच चुका था।
अपनी वो पेट दर्द और पीछे पुलिस वाली पोस्ट तो याद ही होगी आपको, कुछ वैसा ही सीन था। मैं और आलोक अब आराम से चलते हुये बैराज की तरफ़ बढ़े और सोच रहे थे कि हमारा स्वागत किस अंदाज में होगा। लो जी, शिव-शंभू, शिव-शंभू करते हमारा रास्ता खत्म हुआ, गंगा के किनारे एक स्टाल बना हुआ था, जिसकी हालत पिछली शाम से देखी गई सभी दुकानों से बेहतर थी और हमारा भगौड़ा भोला   ब्रैड पकौड़े खा रहा था। हमने उससे पूछा कि भागा क्यों, तो हमीं पर इल्जाम लगा दिया कि हम उसे अकेले को छोड़कर भागे थे और वो हमें पकड़ने के लिये भागा था और फ़िर उसने ब्रैड-पकौड़े की कड़ाही के पास ही आकर दम लिया था। मैंने कहा, फ़िर खाना भी यहीं खा लेते हैं, टाईम तो हो ही रहा है, लेकिन उसने वीटो लगा दिया कि इस दे कोल भरथा नहीं हैगा। अब साहब,एक बेगुणी चीज के लिये ऐसे गुणीजन को नाराज करना हमारे भुरभुरे स्वभाव के विरुद्ध था। उसे लेकर बाजार में आये, एक ढाबे से उसकी पसंदीदा डिश के साथ खाना खिलाया। कुछ देर आराम करके हरिद्वार को वापिसी, और रात में ट्रेन पकड़ी और लौट के …………..।
मैं फ़ोन या दूसरे संपर्क  के मामले में बहुत आलसी, चूज़ी और जो जो नैगेटिव गुण हो सकते हैं, उनसे लबरेज हूँ। मैं नहीं करता फ़ोन, लेकिन उसका फ़ोन अब भी हर दस पन्द्र्ह दिन बाद आ जाता है, ’कदों चलना है दुबारा?”  शेर के बच्चे ने पेंशन ऑप्शन नहीं दिया ’कौन करेगा जी हर महीने बैंक वालों के दर्शन?’इक्को वार पी.एफ़. लैके चले जाना है।” पी.एफ़. में अभी तक नोमिनेशन नहीं किया किसी का। सनझाता था मैं तो आखिर में इस बात पर तैयार हुआ कि मेरा नाम लिखवा देता है, अब मैं मुकर गया। जिम्मेदारी से मुकरने में वैसे ही बड़ा नाम है अपना। फ़ोन पर एक और ताकीद हर बार करता है, “बच्चों पर गुस्सा न करना।”  अपने बच्चों को प्यार भी नहीं कर सकता और दूसरों को सीख देता है। आखिर में फ़िर वही सवाल, “कदों चलना है हरिद्वार दुबारा?”  उसे तो झूठमूठ कह देता हूँ हर बार कि आ रहा हूँ अगले महीने, छुट्टियां बचा कर रखे और वो यकीन भी कर लेता है लेकिन मैं ही कहाँ निकल पाता हूँ अब?
लेकिन जाना जरूर  है एक अनजाने और लंबे  सफ़र पर, जिसकी कोई मंजिल  नहीं  और हर अनछुई और अनजानी जगह मंजिल हो, देखते हैं कब निकलना होगा। अपनी डैडलाईन  ज्यादा से ज्यादा २०१५ तक तय है, बाकी तो देखी जायेगी।
अगर आप सबको घुमक्कड़ी का शौक है या यात्रा संस्मरण अच्छे लगते हैं तो इस ब्लॉग, मुसाफ़िर हूँ यारों  पर नजर जरूर डालियेगा। बंदा एक मौलिक घुमक्कड़ है, सिंपल, जमीन का आदमी, मस्त। मुझ सहित कुछ लोग इसे घुमक्कड़ी का ब्रांड एम्बैसेडर कहते हैं और अगर आप इन महाराज की सारी पोस्ट्स पढ़ लें, तो शायद आप भी मान जायेंगे। एकदम सादगी से, बिना लाऊड हुये कहीं भी और किधर भी चल देना, मेरी नजर में तो परफ़ैक्ट घुमक्कड़ है।
पहले सिर्फ़ महिला ब्लॉगर्स से माफ़ी मांगी है, आज हिन्दी-ब्लॉगर्स से अग्रिम माफ़ी का अभिलाषी हूँ।
:) सफ़र में फ़त्तू महाराज को रात हो गई। एक मकान दिखाई दिया तो दरवाजा खटखटाने पर मालकिन जी बाहर आईं। सारी बात सुनने के बाद उन्होंने सहानुभूति तो दिखाई लेकिन साथ ही कहा कि इनके पति घर में नहीं हैं, कमरा एक ही है  और वे अकेली हैं। चरित्र पर इस तरह से शक किये जाना  फ़त्तू को बहुत नागवार गुजरा। उसने महिला से कहा, “देखिये जी, मैं एक हिन्दी-ब्लॉगर हूँ।  आप सबको एक नजर से मत देखिये। मैं एक शरीफ़, इज्जतदार इंसान हूँ, कोई ऐरा गैरा नहीं। पिछले लगभग दो साल से मैं हिन्दी ब्लॉगिंग कर रहा हूँ। मेरे देश विदेश में इतने फ़ॉलोअर्स हैं, इतने कमेंट मुझे मिलते हैं, ऐसा और वैसा।” इतना सुना दिया अपने हिन्दी ब्लॉगर होने पर कि महिला को उन्हें शरण देनी ही पड़ी। बातचीत चलने पर महिला ने बताया कि छोटी जगह है, ज्यादा खर्चे हैं नहीं, एक छोटा सा पौल्ट्री फ़ार्म है, गुजारे लायक कमाई वहाँ से हो ही जाती है। खैर, फ़त्तू अग्निपरीक्षा से सकुशल पार हुआ और  सुबह जाते समय फ़त्तू ने पौल्ट्री फ़ार्म पर नजर डाली तो मुर्गे और मुर्गियों की लगभग बराबर संख्या देखकर महिला से कहा, “ मेरी जानकारी के हिसाब से इतनी मुर्गियों के साथ इतने मुर्गे पालना बेकार है। एक मुर्गा रहने पर भी आपका इस साईज का पौल्ट्री फ़ार्म बखूबी चलेगा। महिला बोलीं, “जी,आप ठीक कहते हैं, लेकिन आप को गलती लगी है। इनमें से मुर्गा तो एक ही है, बाकी सारे तो हिन्दी-ब्लॉगर्स ही हैं।”
बहुत हो गई जी कुक्क्ड़-कूं, आज के लिये इतना बहुत है। गाना सुनिये सीनियर बर्मन साहब की आवाज में, हम करते हैं सफ़र की तैयारी।

बुधवार, सितंबर 22, 2010

यादों के जंगल से----------

                                                              (एक कहानी)

तुम्हारा वास्ता पड़ा है कभी यादों के जंगल से? नहीं न? अच्छा है। गुम जाने के हजार रास्ते हैं इसमें और बाहर निकलने का कोई नहीं। हर बात गुम होने का नया जरिया, नई पगडंडी।  आज भी अस्पताल गया था, रिपोर्ट लेने का इंतज़ार कर रहा था कि एक और मरीज अपना फ़ीडबैक दे रहा था। जब उसने अपनी जन्मतिथि बताई,  एक और बीहड़ राह खुल गई मुझे भटकाने को। याद आया  तुम्हारे जन्मदिन पर मेरा पहली बार फ़ोन करना, उस दिन मुझे छुट्टी रहना पड़ गया था अचानक और मैंने ऑफ़िस में करमबीर से कहा था कि तुम आओगी तो मेरी बात कराना। तुम्हारा नंबर था मेरे पास, लेकिन जुआ खेला था। अगर तुम्हारा आना हुआ तो विश कर दूंगा नहीं तो जैसे और बहुत बार चुप रह गया उस बार भी चुप रह जाता। लेकिन यकीन था कि बात होगी। और जब तुम्हारे फ़ोन आने पर मैंने हैप्पी बर्थ डे कहा था, तुम्हारी आवाज बंद हो गई थी। "सर, आपको कैसे मालूम?"  आवाज थरथराई हुई थी, खुशी से, इतना तो मैं सुन लेता था तब। मैंने फ़िर कहा था, "हैप्पी बर्थ डे" और तुम खुशी से जैसे नाच उठी थी। मेरी हिम्मत बढ़ गई और मैंने पार्टी भी मांगी और तुम्हारे गिफ़्ट की बात भी की थी। तुमने सिर्फ़ इतना कहा था कि आप आईये तो सही। 
और फ़िर, मैं आया तो तुम नहीं आई महीना भर। तुम्हारा गिफ़्ट रखे रखे धूल खा रहा था और मेरे दिमाग पर बोझ बढ़ता जा रहा था। महीने भर बाद तुम आईं लेकिन वो आना तो नहीं था, जाने की शुरूआत थी। उसी दिन से मुझे अवायड करना शुरू किया था तुमने। कितने जमाने बीत गये उसके बाद, तुम आती भी तो गैरों की तरह। फ़िर उस दिन किसी जरूरी काम से मैंने फ़ोन किया और बात करने के बाद कहा भी था कि बेहद जरूरी काम था, इसीलिये तुम्हें परेशान किया है। मेरे ’सॉरी फ़ॉर डिस्टर्बेंस’, कहने पर तुम रोने लगी थीं। मैं बदनाम हूँ हर्ट करने के लिये, हा हा हा, शराफ़त भी हर्ट करती है। उसके बाद तुमने  खुद ही सब वजहात बताये मुझसे दूर रहने के और सब जायज थे। ये समाज, ये रस्मो-रिवाज, ये रवायतें। हमसे तो आदिवासी अच्छे हैं। मैंने पूछा  था, "क्या तुम्हें मुझपर भरोसा नहीं रहा कि मैं तुमसे कुछ नाजायज न माँग बैठूँ।" कुछ सोचकर तुमने कहा था, "सर, मुझे खुदपर भरोसा नहीं है।"  और फ़िर ये भी बताया था, "मैं सोच रही हूँ कि मैं यहाँ से रिज़ाईन करके कहीं और ज्वॉयन कर लूँ।" तुम्हें पहली बार और आखिरी बार डाँटकर मैंने फ़ोन काट दिया था। उसी एक पल में मेरा भविष्य तय हो गया था। मेरे कारण तुम चली जाओगी?
शनिवार को रिलीव होकर चला आया था दूसरे ऑफ़िस में, और उस दिन भी तुम्हारा जन्मदिन ही था। सोमवार को तुम्हारी कम से कम पाँच साथी  मुझसे मिलने आईं थीं और कितना गुस्सा किया था उन सबने कि बताया नहीं उन्हें। कैसे ट्रांसफ़र होता, वो देख लेतीं। उनके गुस्से में प्यार था, कैसे कहता उन सबसे कि मैंने खुद कहकर ट्रांसफ़र करवाया था उस जन्नत से जहाँ तुम सरीखी अप्सरा थी। मुश्किल से समझाया कि जब जरूरत होगी मैं खुद बता दूंगा। मुझे ........ ने बता दिया था कि आज तुम स्टाफ़ रूम में बहुत रोती रही हो। पागल लड़की!  मैं रुलाने में एक्सपर्ट हूँ, रुला देता हूँ न चाहते हुये भी।  तुम मिली फ़िर मुझे दो दिन बाद, मैं स्टेशन से अपने ऑफ़िस  जा रहा था और तुम अचानक सामने से रिक्शा में बैठकर आ रही थी अपनी ड्यूटी पर जाने के लिये। अचानक देखकर जैसे तुमने हाथ के इशारे से पूछा था कि चले गये हो? नहीं भूलती तुम्हारी वो भंगिमा, और ये भी नहीं भूल पाता मैं कि तुम्हारा चेहरा सबसे ज्यादा खुश उसी दिन देखा था मैंने। जो रिश्ते तुम्हारे दुख के कारण बन सकते हों, उन्हें तोड़ देने का मेरा फ़ैसला भारी बहुत था मुझपर, आज तक बोझ उठा रहा हूँ उनका लेकिन खुशी है कि तुम्हें भी अहसास हो गया कि तुम दुनिया से अलग हो तो इस दुनिया का मैं भी नहीं हूँ। तुम्हारा जन्मदिन अब भी फ़ोन में सेव है, याद तो मैं ही करवाता रहता हूँ फ़ोन को कि भूल न जाना मुझे याद करवाना। फ़ोन नहीं किया कभी तुम्हें, लेकिन तुम्हारा हर  जन्मदिन  मैं अकेला ही सैलीब्रेट करता हूँ - हैप्पी बर्थडे टू यू।  रात को सोने से पहले तुम्हें रोज जो हिचकी आती है न, उसका सबब शायद तुम न जानो, मैं जानता हूँ। रोज रात को सोने से पहले भगवान को याद करता हूँ और उसके बाद तुम्हारे खुश रहने की दुआ मांगता हूँ। भटकना मेरा मुकद्दर है तो रहे, तुम जहां रहो हर खुशी तुम्हारे कदमों में बिछी रहे। और तो कुछ लिया नहीं तुमने मुझसे, इसे कैसे मना करोगी? तुम्हें तो ये भी नहीं मालूम कि मैं लिखता हूँ थोड़ा बहुत और फ़िर पता चल भी गया तो क्या,  इससे ज्यादा अब और क्या होना है? 
वैसे  कैक्टस फ़ूल होता है या पौधा? बॉटनी ही था न सब्जैक्ट तुम्हारा?
:) फ़त्तू फ़िर से पकड़ा गया एक और चोरी के चक्कर में। पिछले अनुभव से सबक सीखकर थानेदार साहब ने हुकम दिया, "इसनै गरम तवे पर बैठाओ, आप कबूलैगा चोरी।" जब सिपाही उसे लेकर बड़े से तवे के पास गया तो फ़त्तू ने कहा, "भाई, डट जा एक मिनट।" और अपनी धोती उतार कर एक और रख दी। "अब चल।"
थानेदार ने पूछा, "यो के फ़ंड सै रै? धोती क्यूँ उतार दी?" 
फ़त्तू बोला, "बात नूँ सै जी, चाम जल गई तो फ़ेर आ जाओगी पर यो धोती जल गई तो यो दोबारा नईं आन की।"
थानेदार साहब ने फ़त्तू  को वापिस भेज दिया और आगे के लिये दस नंबरियों में से उसका नाम काट दिया। आप भी अपनी अपनी लिस्ट में से फ़त्तू का नाम काट दो जी।

सोमवार, सितंबर 20, 2010

बिछड़े सभी बारी बारी-४


भाग-१भाग-२ और भाग-३,  अब आगे झेलिये -


लड़ते-भिड़ते, हंसते-हंसाते, नहाते-धोते और खाते-पीते शाम तक का समय हमने बिता दिया। आलोक के अनुसार अगर नीलकंठ यात्रा पैदल करनी है तो शाम को निकलना ठीक रहेगा। शाम छह बजे एक बार फ़िर से गंगाजी में डुबकी लगाई और हम दोनों निकर-टीशर्ट में और भोला अपनी फ़ोर्मल ड्रेस में चल पड़े, नीलकंठ महादेव के दर्शन को। लगभग सात बज गये थे और अंधेरा छाने लगा था। आलोक शायद बहुत ज्यादा अनुभवी होने के कारण ही काफ़ी सहज लेकिन सीरियस लग रहा था और भोला सामान्य से ज्यादा चंचल। दोपहर से कई बार कह चुका था कि रात को चढ़ाई करने का क्या मतलब?  पहले पता होता तो कोई अच्छी सी टार्च और कोई न कोई हथियार साथ में रखना चाहिये था।  मुझे लग रहा था कि कहीं अंदर वो कुछ घबराया सा है। आलोक हंसता,  “अबे तीर्थयात्रा पर आया है कि खजाना ढूंढने?”  
राम झूला से नीलकंठ मंदिर की दूरी बारह या तेरह किलोमीर है। सावन के महीने का पहला रविवार था और आलोक के प्लान के मुताबिक जब तक हमने मंदिर पहुंचना था सोमवार शुरू हो जाना था।  यात्रा मार्ग पर पहुंचे तो इधर उधर से यात्रियों के झुंड के झुंड आकर कारवां का हिस्सा बन रहे थे। भीड़ देखकर भोला का मूड ठीक होने लगा था। वैसे तो हमने जब भी वैष्णो देवी की यात्रा की, रात में ही चलना ठीक लगता है। रात में मौसम अपेक्षाकृत ठंडा रहता है और पसीना वगैरह कम निकलता है। चढ़ाई यहां की भी वैष्णो देवी के जैसी ही है, बस आधारभूत सुविधायें इधर बहुत कम हैं या कहें तो न के बराबर। लेकिन अपने को ये जगह, ये यात्रा ज्यादा बेहतर लगी। हम सुविधाभोगी लोग हैं, हमारे दादा बताया करते थे कि पहले जब लोग चारधाम या ऐसी यात्रा पर जाते थे तो अपने परिजनों, विवाहित बहन बेटियों से भेंट मुलाकात करके जाते थे कि इतनी कठिन यात्रा पर जा रहे हैं फ़िर पता नहीं मेल मुलाकात हो या नहीं। और आज हम इन दुर्गम तीर्थस्थलों पर भी जाते हैं तो सुविधाओं के चलते ऐसा लगता है कि पिकनिक पर जा रहे हैं। इंसान के दुख के समय भगवान को याद करने की आदत के चलते ही शायद हमारे देवी देवता इन दुर्गम पहाड़ों में बसते रहे कि कष्टों के चलते कम से कम भक्त लोग यात्रा करते समय ईश्वर को याद करते चलेंगे। 
लगे हाथों एक अलग  अनुभव से भी सांझा करवाता हूँ आपको। हमारे एक परिचित परिवार के एक बुजुर्ग थे, वो  जब भी खाना  खाते तो आखिरी रोटी रूखी खाते थे। सामान्य चलन से अलग लगती थी ये बात, हम तो आखिरी रोटी घी और बूरा, गुड़ या शक्कर के साथ खाते थे। एक बार उनसे इस बाबत पूछा तो कहने लगे, “काके, जब पाकिस्तान बना और हम यहाँ आये तो जिंदगी एकदम से बदल गयी थी। हम अपने घरों में अच्छा खा पी रहे थे और यहाँ आकर एक बार तो दाने दाने को मोहताज हो गये थे। बड़ा मुश्किल समय था वो।  आज ऊपरवाले ने फ़िर मेहरबानी की है, लेकिन इतनी समझ आ गई है कि अच्छे से बुरे समय में जाना पड़े तो बहुत तकलीफ़ होती है।  आदत खराब न हो, इसलिये बाकी रोटी तो बच्चे जैसी देते हैं वैसी खा लेता हूँ. आखिरी रोटी हर बार वक्त की ताकत की याद दिलाती रहती है।” बहुत ज्यादा सुविधाओं के आदी होकर सच में हम इनके गुलाम हो जाते हैं।
तो जी, शुरू हुआ हमारा सामूहिक अभियान। रास्ते में सरकार की तरफ़ से रोशनी का भी कोई इंतजाम नहीं था। पहाड़ों में वैसे ही अंधेरा जल्दी हो जाता है, चारों तरफ़ स्याह अंधेरा और बीच बीच में श्रद्धालुओं के यदा कदा चमकते मोबाईल या टार्च के जलने से पैदा हुई रोशनी माहौल को एक अलग ही रंग दे रहे थे। आलोक बताने लगा कि सावन के महीने में श्रद्धालुओं की तादाद बढ़ जाती है नहीं तो इस समय तो चढ़ाई करने की सोच भी नहीं सकते थे। मैं खुद भीड़ से कतराने वाला आदमी हूँ लेकिन जानता हूं कई हालात में आसपास लोगों का होना भी सुकून देता है। भोला बीच बीच में कुनमुनाता था, “बंदेयां दी तरह दिन दे टैम नीं आ सकदे सी? ना जी, रात दे टैम चढ़ाई करनी है।” हम हंसते कि चल हम तो बंदे नहीं हैं ये जो इतने सारे दूसरे लोग हैं, जिनमें औरते भी हैं, बुजुर्ग भी है और बच्चे भी हैं, इनका क्या? भोला कहता, “साड्डा सारी दुनिया दा ठेका नहीं है, असी  वादा कीता है त्वाडा ध्यान रखन दा। रात दे टैम कोई चोट वोट लग गई ते असी किवें मुंह दिखांगे मां-पिताजी नूं।”  मैं कई बार कहता, “तू यार मेरे से कागज पर लिखवा ले कि मैंने भोला की सलाह नहीं मानी, अपनी मर्जी चलाई है, कुछ नुकसान हो गया तो इसका जिम्मेदार मैं ही हूं। डाक्टर भी तो ऑपरेशन करने से पहले लिखवा लेते हैं ऐसा कुछ।” आलोक भी उसे छेड़ता, “तू तो यार वादा करके फ़ंस गया, कितना जिम्मेदार बंदा है तू।” 
चलते चलते एक डेढ़ किलोमीटर का रास्ता हो गया था और सामने एक जगह एक अस्थायी दुकान  सी बनी हुई थी। मूंगफ़ली, चने, चाय, बिस्कुट और इस तरह का सामान था| भोला के फ़ेवरेट सामान तो नहीं थे लेकिन दिन के बने हुये पकौड़े थे, उसने वही खाये। नीलकंठ मंदिर तक तो ऐसे ही हमारा सफ़र पूरा हो गया। दर्शन करने में एक डेढ़ घंटा तो लाईन में लग ही गया। पीछे लाईन बढ़ती ही जा रही थी। जब शिवलिंग वाले हाल में पहुंचे तो वालंटियर्स के रूप में जितने भी लड़के दिखे, सभी बाडी बिल्डर्स थे। काम उनका भीड़ को कंट्रोल करना और किसी को ज्यादा देर वहां न रुकने देना था। अपनी जगह वे ठीक भी थे कि पीछे लाईन सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही जा रही थी। आया अपना भी नंबर,  शिव शंभु के सामने हाथ जोड़े और जल चढ़ाया ही था कि पहलवान जी ने आगे बढ़ा दिया(दिया तो धक्का ही था, पर आखिर इज्जत भी कोई चीज होती है)। अपन भी हल्के से सर नवा कर बढ़ गये। भोला का नंबर आया तो उसने पूरी श्रद्धा से हाथ जोड़कर एकाध मंत्र पढ़ा और दंडवत प्रणाम करने के लिये पैंट ऊपर चढ़ाकर नीचे लेट ही रहा था कि दोनों तरफ़ से दो पहलवानों ने आकर उठाया और जैसे हंस कछुए को उड़ाकर ले गये थे एक कहानी में, हवा में उठाये उठाये ही भोले को शिव भोले के केबिन से बाहर कर दिया। भोला ने बहुतेरा शोर भी मचाया, “असी दिल्ली तों आये हां, दर्शन तो कर लैन दो ढंग नाल, असी मिनिस्ट्री लेवल दे बंदे हैगे, छड्डो मैनूं’  पर उन शेरों ने छोड़ा तो शिवलिंग वाले कक्ष से बाहर ही छोड़ा। भोला बेचारे का भी और हमारा भी मन अपसैट हो गया। 
खैर, जब जूते वगैरह पहन रहे थे तो ऊपर की तरफ़ नजर गई और दूर कहीं एक लाईट जलती दिखी। मुझे उधर देखते हुये पाकर आलोक ने बताया कि पार्वती देवी का मंदिर है। मैंने पूछा कि कितनी दूर है? आलोक बोला, “होगा तीन चार किलोमीटर, गया मैं भी नहीं कभी क्योंकि कभी साथ ही नहीं बना। जो भी साथ आया, यहीं से लौट गया। बहुत कम लोग जाते हैं वहां। बोलो गुरू, चलोगे?” मैंने हां भर दी, "चलेंगे, हम बीच में साथ नहीं छोड़ेंगे, जरूर चलेंगे।"  अब भोला रूठ गया। एक को मनाओ तो दूजा, रूठ जाता है। सब को राजी नहीं रख सकता भगवान भी। "रात के दो बजे, न लाईट न सड़कें वापिस चलो या यहीं सो जाओ, सवेरे देखांगे।" पर दो-तिहाई बहुमत के आगे झुकना पड़ा उसे, पैकेज जरूर लिया उसने अलगाववादियों की तरह, रोटी खानी है कढ़ी के साथ। हमने भी हाँ भर दी, कुछ खाने को ही माङा है बेचारे ने, अलग देश-प्रदेश थोड़े ही माँग रहा है। दो बजे उसे रोटी खिलवाई जी कढ़ी के साथ और अगला सफ़र शुरू हो गया। 
प्रतिशत निकालें तो नीलकंठ आने वाले लोगों में से २-३ % ही होंगे जो इस मंदिर तक जाते हैं। हम चल दिये, भोला बीच में, आगे पीछे आलोक और मैं।उसे बीच में रखा था क्योंकि  उसे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास था कि 1411 में से कम से कम एक शेर या उसके किसी पारिवारिक सदस्य ने आज हमारा मांस खाना है। चल पड़े जी हम थ्री इडियट्स, अपने सफ़र पर। इक्का दुक्का लोग ही दिखाई दिये हमें ऊपर जाते हुये, अंधेरी रात में पहाड़ों के बीच कच्चे रास्तों पर चलना, वो मंजर सारी उम्र नहीं भूल सकते। भोला को ज्यादा गुस्सा तो मुझपर आ रहा था, लेकिन निकाल रहा था आलोक पर। ’लोक, तू चंगा नईं कीता’ और मैं और आलोक उसके ब्रैकिट ओपन एंड ब्रैकिट क्लोज़ बने हुये उसकी बातें सुनते रहे और हंसते रहे और आगे बढ़ते रहे कि चलना ही ज़िन्दगी है। पहुंच गये पार्वती देवी के मन्दिर में, शायद सुबह के साढे तीन या चार बजे होंगे। दर्शन किये, प्रशाद चढ़ाया, मैंने मन ही मन पुजारी को सुरूर में होने के लिये निरामिष सी गाली दी जिसे आलोक ने महसूस भी किया। 
बाहर आकर चाय पीने लगे। भोला सोने की जगह तलाश रहा था और हम कुछ और। आलोक को कुछ आईडिया था, उसने चाय वाले से पूछा कि झिलमिल गुफ़ा कितनी दूर है। उसके बताने से पहले ही भोला ने गुस्से में चाय का गिलास नीचे पटका और उस पर आरोप लगाया कि वो आगे से और आगे के प्रोग्राम बनाकर हमें तिब्बत लेजाकर छोड़ना चाहता है। साथ ही उसने टंकी पर चढ़ने की घोषणा भी कर दी यानि कि आगे हमारे साथ नहीं जायेगा और हमें भी नहीं जाने देगा। लेकिन यार मेरा मान भी जल्दी जाता था, बस कुछ नमकीन खिला दो उसे। चाय वाले से मट्ठी सेंक कर खिलाने के लिये कहा, पेश की उसके सामने और जब वो खाने लगा तो याद दिलाया कि अब नमक खाया है उसने सरदार का।  भोला मान गया। दस पन्द्रह मिनट आराम करके चल दिये हम झिलमिल गुफ़ा की तरफ़। घुप्प अंधेरा था, लेकिन थोड़ी देर के बाद दिन निकलने लगा। एक छोटा सा पहाड़ी गांव था, जहां से हम होकर गुजर रहे थे उस समय। क्या नजारा था, अद्भुत। खेतों में से होकर(देशा फ़ारिग भी वहीं हुये खुले में), छोटी छोटी पगडंडियों पर चलते हुये हम सात बजे के करीब झिलमिल गुफ़ा पहुंचे। नाम ही बहुत अजीब सा खिंचाव वाला था। आसपास के सभी पहाड़ों से अलग, वह गुफ़ा वाली पहाड़ी कुछ सफ़ेद कुछ सलेटी रंग की थी और देखने में ऐसा लगता था जैसे रुई का भुरभुरा सा पहाड़ हो। विशाल गुफ़ा थी, निर्माण कुछ ऐसा जैसे ग्राऊंड फ़्लोर और फ़र्स्ट फ़्लोर प्राकृतिक रूप से ही बने हों और सबसे अजीब बात कि गुफ़ा की छत के बीचोंबीच एक बड़ा सा छेद था जैसे ओज़ोन परत के छेद के बारे में बताते हैं। गुफ़ा के अंदर से देखें तो छत पर एक टुकड़ा भर आसमान दिखता था। शायद रात में यहां आते तो तारे झिलमिलाते हुये दिख जाते और किस्मत वाले होते तो शायद चांद भी झिलमिला उठता, इसीलिये तो झिलमिल गुफ़ा नाम रखा होगा इसका। धूनी रमा रखी थी बाबा लोगों ने, सिर्फ़ एक चादर कमर में बांध रखी थी और बीच बीच में बुलंद आवाज में अलख निरंजन का उदघोष, मुझ नास्तिक को भी मस्त कर गया। धूनी में से ही बीच बीच में चिलम सुलगा लेते बाबा और कश मारते ही गूंजता अलख निरंजन। भोला ने पहाड़ी के रंग, ओज़ोन छिद्र, चिलमी बाबा की लाल आंखें देखकर अपनी श्रद्धानुसार जो भी करना था चौथे गेयर में निबटाया और हमें लगभग खींचकर सेफ़ ज़ोन में ले आया। बाहर दुकान से आकर चाय पी गई और पकौड़े भी खाये गये। हमारा भोला मीठा बिल्कुल नहीं खाता, कहता था शूगर थोड़े करवानी है? आलोक हंसता, “अच्छा, इतना खाकर और हर बार   इतनी मिर्चें खाकर  बवासीर करवा लेनी है?” भोला कहता, “तू अपना ध्यान रख, साड्डी फ़िकर न कर। तुसी खाया पिया करो, किदे नीमा न लगवाना पै जाये।”  आलोक मेरी तरफ़ देखकर पूछने लगा, “नीमा?” मैंने बताया कि ये कह रहा है, “कुछ खाया पिया करो नहीं तो अनीमा लगवाना पड़ेगा।’ आलोक बहुत हँसा और मुझसे कहने लगा, “यार, कैसे कैसे चेले हैं तुम्हारे? गज़ब।” उधर भोला भी कह रहा था, “किद्दां दे बंदेयां नाल यारी है तुहाड्डी?” सुनाओ सालों, सब मुझे ही सुनाओ। मैं भी सुना ही देता था, “ठाकुर ने ……. की फ़ौज तैयार की  है, हा हा हा।” सच भी है(था) ये, दो साल पहले तक अपने ग्रुप में सारे वही शामिल होते थे, जो बाकी समाज में मिसफ़िट होते थे। कई ऐसे थे जिन्हें कोई ठौर नहीं, अपन ऐसे जिसे कोई और नहीं।  अब हालात बदल गये हैं, अब अपन आप जैसे  सुधीजनों की फ़ौज में शामिल हैं। खुद को हमेशा सरदारी  की पोज़ीशन में रखना भी ठीक नहीं, समय के साथ धीरे धीरे ही सही कुछ सीख तो रहा ही हूँ।
भोला से मैंने पूछा, “अगला प्रोग्राम?” भोला हंसा, “हाँ, हुण तक तां जिवें सारे मेरे ही प्रोग्राम चले हैगे।” मैंने फ़िर  पूछा तो बोला, :हुण, बैंगण दा भरथा खाना है।” और हम तीनों जोरों से हँस रहे थे, और करते भी क्या….।
अगली बार वापिस ले आयेंगे जी सबको,  तब तक गाना सुनिये।
:) फ़त्तू अपने आँगन में बैठा हुक्का गुड़्गुड़ा रहा था, बड़ी तेज तेज। एक राही आया और रामराम करके कहने लगा. “चौधरी साहब, सुबह से  खाली पेट सफ़र करना पड़ रहा है, चार रोटी खिला दो।”
फ़त्तू,          “हाँ हाँ, पर टिक्कड़ क्यूँ, खीर खा लै, हलवा खा लै और नहीं तो चूरमा तो खा ही लै।”
अतिथि,    “कित सै खीर, हलवा, चूरमा? दीखते तो नहीं।”
फ़त्तू,          “तो बावली बूच, रोटी कित दीख गई तन्नै?  मैं आप सवेर से खाली पेट हुक्का गुड़्गुड़ान लाग रया सूँ, तू मेरे ते ही टिक्कड़ माँगे सै।”
भाई लोग, म्हारे धोरे भी एकला हुक्का सै, बाकी समझ ही गये होगे। टाइम पास हो सकै बस थारा, सीखने को  न सै कुछ मिलने वाला, कदे बाद में दोष देयो मन्नै।

गुरुवार, सितंबर 16, 2010

आखिर पड़ौसी ही पड़ौसी के काम आता है

"दो महीने में दीवालिया हो जायेगा पाकिस्तान, सैलरी को भी नहीं पैसे"

1. ये मैं नहीं कहता जी, वहाँ के वित्त मंत्री अब्दुल हाफ़िज़ शेख ने कहा है। और मुझसे नहीं कहा है, ये आज के   दैनिक भास्कर के एक समाचार का शीर्षक है। खबर में वही बढ़ता रक्षा खर्च और उसी अनुपात में बढ़ता कर्ज, आई.एस.आई. को दी जाने वाली भारी सरकारी मदद, भीषण बाढ़, राहत सामग्री का खुले बाजार में बिकना, कर्ज का पाकी जी.डी.पी. का आधे से अधिक होना और अंत में यह घोषणा कि हालात ऐसे ही रहे तो दो महीने के बाद  पाकिस्तान के पास कर्मचारियों को तनख्वाह देने के पैसे नहीं रहेंगे।
                                                                                   .............
2. शुरू में खल वंदना हो गई, अब सुनो एक छोटा सा पुराना और बासी चुटकुला। अखबार में एक मशहूर बदमाश ने विज्ञापन दिया, "बीबी चाहिये।" तीन दिन में ही उसके पास तीन हजार से ज्यादा मेल आ गये, "हमारी वाली ले जा।"

आर्थिक परिदॄश्य पर आजकल मर्जर का जमाना है। बेशक हम अति साधारण इंसान हों, इरादे बहुत बुलंद हैं हमारे। हम भी मर्जर करेंगे, भले ही पोस्ट के स्तर पर। शेख साहब इतना तो जानते ही होंगे कि उनके देश की ये हालत क्यों हुई।  कोई बात नहीं,  आखिर पड़ौसी ही पड़ौसी के काम आता है। आपकी चिट्ठी को हम तार समझते हैं, और इस खबर को विज्ञापन, तो पैरा संख्या 1 और 2 का मर्जर करते हुये हमारी पेशकश है कि "हमारी वाली ले जा"  मतलब हमारे वाले प्रधानजी को ले जा। बहुत शरीफ़, कर्मठ, ईमानदार, फ़र्माबरदार है।   जहाँ तक हमारा अंदाजा है जरूरी काम करने से पहले भी "मैडम, मे आई गो टू......?" की आज्ञा ले लेते  हैं। आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ और जी.डी.पी. के माहिर हैं। जब हालात सुधर जायें तो भेज देना वापिस, तब तक हमारी तो देखी जायेगी।
p.s. - पुरानी कहावत है, भैंस तो गई सो गई, काटड़ू को साथ ले गई - नया जमाना है तो काटड़ू के साथ भैंस भी लेकर जानी पड़ेगी नहीं तो वांछित परिणाम मिलने की कोई गारंटी नहीं है।

:) मेरे एक प्रिय ब्लॉगर सतीश पंचम जी ने एक पात्र परिचय करवाया था - जाहिली जी। उसी से प्रेरणा लेकर आज की डोज़।
एक चोरी के मामले में फ़त्तू धरा गया। पहली से तीसरी डिग्री तक सब फ़ेल हो गये, लेकिन फ़त्तू ने जुर्म नहीं कबूला।  थानेदार ने रोटी पानी सब बंद कर दियाकि भूखा मरता तो कबूलेगा ही। तीसरे दिन तक तो फ़त्तू झेल गया, फ़िर गुहार लगाई कि मर जाऊंगा, कुछ दे दो खाने को, मैं कबूल कर लेता हूं। कस्टडी का एक दिन ही बचा था, थानेदार ने खुश होकर चाय-बिस्कुट खिलवाये। छककर खाकर जब फ़त्तू उठा तो थानेदार ने कहा कि चल अब कबूल कर चोरी तूने की थी। 
फ़त्तू:         कुण सी चोरी जी?
थानेदार:  अबे साले, पांच दिन पहले की थी तूने, इब पूछै सै कुण सी चोरी? तेरे तो अच्छे भी कबूलेंगे।
फ़त्तू:         थानेदार साहब, एक दिन और सूँ थारे धोरे, फ़ेर तो जमानत हो ही जायेगी।  पन्द्रह मिनट पहले जो   चाय-बिस्कुट खिलाये थे, वो तो कबूल करा लै पहलां, फ़ेर करियो पांच दिन पुरानी चोरी की बात। बड़े आये कबूल करवाने वाले......




गाना सुनो अज्ज पंजाबी दा, सुरजीत बिन्दरखिया दी अवाज विच्च

शुक्रवार, सितंबर 03, 2010

बिछड़े सभी बारी बारी-३

तो साहब लोगों, भोले को जब थोड़ा सा कंट्रोल करना होता, उसे हरिद्वार का सपना याद दिला देता मैं और वो कंट्रोल में रहता। उस समय तक नहीं पता था कि हंसी हंसी में हसनगढ़ कैसे बन सकता है। देखते देखते गर्मियों का मौसम आया और वो रोज मेरे सर पर सवार हो जाता, “कदों चलना है?”
अगस्त का महीना था और मैं था किसी बात पर किसी से खफ़ा वाले मूड में, बना लिया प्रोग्राम। खाली बैठकर उधेड़बुन करने से बेहतर है कि खुद को किसी काम में झोंक दें चाहे रस्सी कूदना ही हो।   भोला कहता कि बस में चलेंगे और मैं कहता ट्रेन में चलेंगे। उसके दिमाग में ट्रेन के वही सफ़र थे जो फ़ौज की नौकरी में छुट्टी आते समय उसने किये थे, मैंने उसे रिज़र्वेशन वाली यात्रा के फ़ायदे बताकर बहुत मुश्किल से  ट्रेन पर चलने के लिये मनाया। डेली पैसेंजरी करते समय एक नया मित्र बना था आलोक, वो तब तक १७ बार कांवड़ ला चुका था और कई बार कह चुका था कि एक बार  इकट्ठे घूमने जरूर जाना है। लगे हाथों उसे कहा और वो भी तैयार हो गया। एक पुराना खिलाड़ी, एक निपट अनाड़ी और बीच में फ़ंसा मैं,  कई बार पूछता था खुद से  गब्बर स्टाईल में, “तेरा क्या होगा कालिया?” और खुद ही जवाब देता था, “देखी जायेगी, सरकार।” कल ही एक पोस्ट देखी थी यहाँ, अपनी ही पोस्ट पर पहली छ: टिप्पणियां खुद ही दे रखी थीं, नहीं मानते? अभी लिंक लेकर आता हूँ।.... नहीं मिली जी वो पोस्ट, शायद मैंने सपना देखा होगा। खैर, हम तो खुद ही सवाल जवाब कर लिया करते थे शुरू से ही। जब ओखली में सर दे ही दिया तो अब मूसलों से क्या डरना?
ट्रेन थी रात दस बजे, शाम को बैंक से भोला को साथ लेकर घर आया। बता चुका हूँ कि किसी के भी घर के सदस्यों के सामने उसका व्यवहार बहुत ही उम्दा रहता था। रात का खाना खा रहे थे तो माँ-पिताजी समझाने लगे कि ध्यान से जाना। अब हम कितने ही KKK क्यों न हो, मां~-बाप के लिये तो हमेशा मासूम ही रहेंगे। भोला फ़ट से बोला, “मैं कया, तुसी चिंता ई न करो जी। मैं हैगा ना नाल, मैं पूरा ध्यान रखूँगा।” आलोक धीरे से बोला, “तू साथ है, असली चिंता तो इसी बात की है।” सब हंसने लगे। साथ के लिये परांठे बंधवा लिये बहुत सारे। अब ये परांठे ऐसी चीज हैं जी कि एक बार को यमराज भी आ जाये तो पंजाबी उससे १५ मिनट का ग्रेस ले लेंगे कि भगवन, जरा रास्ते के लिये परांठे बन जायें, फ़िर ले चलना। हम भी चल दिये स्टेशन की तरफ़।
गाड़ी दिल्ली से ही बनकर चलती थी, तीनों बर्थ संभाल लीं। रात का सफ़र था, हम शुरू से ही इस मामले में उल्लू रहे(रात्रि जागरण) और वैसे भी अपने साथ वालों की सुख सुविधा का ध्यान रखना हमारा परम कर्तव्य था, पहल भोले को दे गई कि अपनी पसंद की सीट चुन ले। जैसी की उम्मीद थी, अपर बर्थ की हाँ कर दी उसने। थोड़ी देर हमने ताश खेली, फ़िर उसे भूख लग गई। "अजीब आदमी है यार" आलोक बुदबुदा रहा था, "अभी इतना हैवी खाना खाया है और इसे फ़िर से भूख लग गई।" उस समय हुई बात फ़िर से याद आ गई आज। मैंने उससे एक बात पूछी, “गर्मियों में जब सभी प्राणी  बेहाल होकर अपना स्वास्थ्य खो बैठते हैं, गधा उन दिनों में तगड़ा दिखाई देता है और सर्दियों में भी इसी तरह समस्त प्राणी जगत से विपरीत उसका  स्वास्थ्य गिरा हुआ दिखता है। वजह जानते हो?  दरअसल, गर्मियों में जब कहीं घास नहीं दिखती तो गर्दभ महाशय सोचते हैं कि आज तो मैंने सारा मैदान साफ़ कर दिया और सर्दियों में कितना भी चर ले, जब आंख उठाकर देखता है हर तरफ़ घास ही घास दिखती है। अब वो बेचारा इस गम में दुबला हो जाता है कि कुछ खाया ही नहीं। बिना दिमाग को तकलीफ़ दिये सिर्फ़ मन के भरोसे चलने वाले ऐसे ही होते हैं।” आलोक जोरों से हंस पड़ा और भोला कहने लगा, “हाँ, मुझे भूख तभी लगती है जब सामने खाना होता है। और ये अच्छा ही है।”
एक दो बाजी ताश की फ़िर से लगाईं, आलोक को नींद आ रही थी तो सब अपनी अपनी जगह पर पहुंच गये। भोला सबसे ऊपर वाली बर्थ पर, आलोक बीच वाली बर्थ पर और अपन तो थल्ले थल्ले वाले ही हैं, यारों की बल्ले बल्ले होती रहे बस। सामने वाले से भोला ने पूछा, “भाई साब, हरिद्वार किन्ने वजे पहुंचदी है गड्डी?” जवाब आया, “सो जाओ, सोकर उठोगे तो हरिद्वार ही होवोगे।” सो गये जी सारे अपनी तरफ़ से।  आधा घंटा नहीं हुआ था, शायद गाज़ियाबाद स्टेशन पर गाड़ी पहुंची थी  कि भोला ने मुझे उठा दिया।  
"हाँ बोल?"        
"मैन्नू उतली सीट ते नींद नईं आंदी। ओ सीट हिलदी है।"
"ओ यारा, गड्डी चलेगी तो हिलेगी ही, इसमें नया क्या है? तब तो कूद के चढ़ गया था बंदर की तरह।"
"हुण उतर वी गयां न। तुसी चढ़ जाओ आदमियां दी तरह। ओ चा वाले, ल्या चा दे दो तीन। लोक, ओय लोक, उठ जा चा पी लै। ओ उठ जा यार।"
अब आलोक बिचारा कुनमुनाता रहा नींद में और ये कभी उसके कान में गुदगुदी करे कभी बगल में। चालीस पैंतालीस साल के बंदों को ऐसी बच्चों वाली हरकतें करते देखा भी है कभी? खुद तो खैर क्या करेंगे हम लोग, अब हम बड़े हो गये हैं – बच्चे नहीं रहे, है न? आखिर में उसे उठाकर चाय पिलाई जबरदस्ती और नये स्लीपिंग अरेंजमेंट के हिसाब से टिक गये अपनी बर्थों के ऊपर। आधा घंटा भर और हुआ होगा कि भोला ने फ़िर से हड़कंप मचा दिया। "उठो ओय उठो, हरिद्वार आ गया।" 
मैं तो अभी सोया ही नहीं था। ऊपर से ही डपटा उसे, “तेरा दिमाग सही है कि नहीं?” 
"थल्ले आके देखो तो सही, सामने पढ़या भी जा रहा है थोड़ा थोड़ा, जल्दी आओ।"   पहले चढ़ा देते हैं मुझे फ़िर नीचे खींच लेते हैं यार लोग, कोई बात नहीं। नीचे आकर देखा तो हापुड़ स्टेशन था। गुस्सा भी आ रहा था और हंसी भी। "ओये चाचा, हापुड़ आया है।"
"अच्छा,  काफ़ी ऐत्थे दी ही कह रये सी न तुसी, बड़ी मशहूर है? आओ लै के आईये।"
"तू ले आ यार, मैं यहीं बैठा हूँ।"
"न जी, कल्ले नईं छडना है त्वानूं, मैं वादा करके आया हूं मां पिताजी नाल। जल्दी करो, गड्डी चल पयेगी।"     जाना पड़ा जी, कॉफ़ी भी लाये तीन कप और छोले कुल्चे भी वो सिर्फ़ भोले के लिये। आकर फ़िर से उसने आलोक को ’ओय लोक ओये लोक, कॉफ़ी पी लै’   कह कहकर ऐसे उठाया जिसे पंजाबी में कहते हैं पट्ट पट्ट के उठाना। आलोक तो दुखी हो गया, "सोने दो यार, मुझे नहीं पीनी काफ़ी।" मुझे कहने लगा,  "भाई, हद है यार तुम्हारे बंदे की, कैसे झेलते हो।"
"गल्ल सुन लै, असी कल्ले नईं खांदे पींदे कुछ वी।" मैं  और मेरा भोला हंस रहे थे। आलोक सो गया फ़िर से और मैं भोला से दो चार बातें करके फ़िर चढ़ गया टंकी पर, सॉरी अपर बर्थ पर। जैसे आधे घंटे का  ऑटो अलार्म लगा हुआ हो, फ़िर से मुझे झकझोरकर उठा दिया उसने। देखा तो चेहरा फ़क्क, पसीना टपटप बह रहा था। एक बार तो मुझे लगा कि गाड़ी में कहीं आग लग गई है या डाकू आ गये हैं, पूछा उससे, "क्या हुआ, जल्दी बता?"
"वो आ गया है, चैकर। तुसी सो रहे हो आराम नाल।"
"अबे यार, चैकर आ गया है कि कोई तूफ़ान आ गया है? कहाँ है?"    
"वोSS रहा।"    
"ओ मामा, हम क्या बिना टिकट हैं? अभी आधा घंटा लगेगा उसे यहाँ तक आने में। अपने आप उठायेगा वो, सोजा और सोने दे।"
" नईं जी, पहले इसनूं जा लैन दो।" बैठना पड़ा जी बीस पच्चीस मिनट और। इसके बाद भी दो तीन बार शेर ने फ़िर उठाया मुझे भी और आलोक को।
सुबह जब उठने का टाईम हुआ तो आलोक की आंखें लाल हुई पड़ी थीं, लेकिन वो समझ चुका था कि झेलना ही है इसे तीन दिन तो अब मजे लेने लगा वो भी इसकी बातों से।
हरिद्वार पहुंच कर दोपहर तक हम कम से कम दस बार गंगा में नहाये बल्कि दो ही काम थे, नहाना और ऊपर बाजार में जाकर कुछ खाना। फ़िर नहाना फ़िर खाना। अकेला कभी जाता नहीं था, हर बार वही अपना वादा याद दिला देता कि त्वानूं अकेला नईं छोड़ना। आलोक हंसता कि वादा निभाना तो कोई इससे सीखे। आलोक को अनुभव ज्यादा होने के कारण वो था प्लानर की भूमिका में, बंदा कार्यपालिका का रोल निभा रहा था और हमारा भोला था जनता जनार्दन के रोल में, जिसे तीन दिन तक खुश रखकर पूरे एक साल तक उंगलियों पर नचाना था कार्यपालिका ने, जैसे एक बार बेवकूफ़ बनाकर अगले पांच साल तक…।
ट्रेन के परिचय के दौरान आलोक ने नीलकंठ चढ़ाई के बारे में इतना ज्यादा बता रखा था कि अपना तो मेन मकसद ही पैदल नीलकंठ मंदिर तक जाना था, भोला खुद एक पहाड़ी और फ़ौजी होने के कारण बहुत उत्साहित था। आलोक के बताये प्लान के मुताबिक हमें दोपहर में ऋषिकेश के लिये निकल लेना था। मालूम किया कि हरिद्वार से लोकल टैंपो भी ऋषिकेश जाया करते हैं, बीस रुपये सवारी की दर से। अब भोला महाराज ने एक फ़च्चर ये बो दिया कि पूरा टैंपो हायर किया जाये हम तीन जनों के लिये। आलोक ने बहुत समझाया कि ये फ़िज़ूलखर्ची है, लेकिन वो नहीं मान रहा था। हमें ही वीटो लगानी पड़ी। कई साल से मेरे साथ था भोला, उसके मन की नहीं समझूंगा तो कैसे उसे किसी बात के लिये कन्विंस कर पाऊंगा। मैंने उससे पूछा कि अगर उसे पांच सौ रुपये दिये जायें तो क्या वो अपनी जान के लिये खतरा मोल ले लेगा, जबकि वो एकदम अकेला है? 
बोला, "नहीं इतनी सस्ती नहीं है मेरी जान।"
"तो बस, तुझे जो ये डर है कि ओवरलोड होने के कारण टैंपो उलट न जाये तो ये बेबुनियाद है। पहली बात तो हरिद्वार से ऋषिकेश कोई पहाड़ी रास्ता ही नहीं है और दूसरे टैंपो वाला और हम सब भी तो उसी टैंपो में होंगे। जानबूझकर दो तीन सौ रुपये के लिये कोई भी रिस्क नहीं लेगा।"  समझ गया तो मान भी गया। यही होता है कि हम लोग दूसरे के मन की समझते नहीं और अपनी थोपते हैं। और हर कोई खुद को अच्छे से हर जगह अभिव्यक्त भी नहीं कर पाता, कहीं सुपीरियरिटी कांपलेक्स तो कहीं इनफ़ीरियर्टी कांपलेक्स।
मैं खुद महसूस कर रहा हूँ कि ये पोस्ट कोई बहुत मजेदार नहीं बन पा रही है, लेकिन मजेदार ही कहना सबकुछ नहीं है। ये एक पर्सनल डायरी की तरह है।  इस ब्लॉगजगत में बहुत कुछ मसालेदार आलरेडी मौजूद है, ये तो एक प्रयास है अपने एक बिछड़े साथी को याद करने का। उसकी जेब में जब पैसे होते तो कंट्रोल का बटन नहीं होता था। खाने का मामला हो या पीने का, उस समय वो हो जाता था ’लिव लाईफ़ किंगसाईज़’ थ्योरी का मानने वाला, उसके बाद फ़िर कुछ दिन चार्वाक सिद्धांत पर चलता  और फ़िर उसके बाद कंट्रोल का बटन तो था ही। इसे हैंडल करने का तरीका कुछ अलग ही होता था अपना। 
अब जब ऋषिकेश पहुंचे तो लक्ष्मण झूला पहली बार ही देखा था उसने। नीचे विराट जलराशि और ऊपर हिलता हुआ पुल, देखकर हैरान बहुत हुआ। बचपन चूंकि पहाड़ों में बिताया था उसने, चाल अच्छी तेज थी उसकी। मैं और आलोक आगे के कार्यक्रम की बात कर रहे थे और वो पुल के बीच में पहुंच गया था। जब तक हम पुल के बीच में पहुंचे, एक फ़ोटोग्राफ़र उसे घेर चुका था। भोला फ़टी आंखों से नीचे गंगा के विशाल पाट को और तेज प्रवाह को देखकर सम्मोहित सा खड़ा था और नजदीक ही था कि फ़ोटोग्राफ़र की हां में हां मिला दे। आलोक ने बीच में आकर फ़ोटोग्राफ़र को टालना चाहा लेकिन भोला, वो तो फ़ोटो खिंचवाने का वैसे ही बहुत शौकीन था। दोनों आपस में ही उलझ गये, आलोक कहता था कि रुक जा अभी, मैं खुद फ़ोटो खिंचवा दूंगा और भोला की जेब में नोट कुलबुला रहे थे। बात बढ़ते देख मैंने भोला का ध्यान पुल की रेलिंग की तरफ़ दिलाया।      
"देख, सरकार कितनी लापरवाह है, इतने लोग आते जाते हैं और इस पुल की मरम्मत तक ढंग से नहीं करवाती। देख ये रिपट बाहर निकल रहा है, एक मुक्का मारूं इसके तो अभी सब जायेंगे नीचे, देख मुक्का मार कर दिखाता हूं"   मेरे मुक्का मारने का एक्शन करते ही भोला भागा वहां से, फ़ोटोग्राफ़र भी आवाज लगाता रहा और मैं भी, "ओय सुन तो, रुक तो जरा, ओ भाईसाहब .."  और आलोक इतनी जोर से हंस रहा था कि पूछिये मत। फ़ोटोग्राफ़र बेचारा मुंह लटकाये कभी हमें देख रहा था और कभी दूर भागते भोला की पीठ को। जब हम हंसते हुये पुल के पार पहुंचे तो भोला सबकुछ भूलकर अपने फ़ेवरेट काम में व्यस्त था, छोले-कुल्चे खाने में। आलोक फ़िर से एक बार ठठाकर हंस पड़ा।                  ………. अगली बार – नीलकंठ और…..और…..।