शुक्रवार, फ़रवरी 25, 2011

मैं और मेरी.......


पता नहीं कौन से संत कवि हुये थे कबीर जी या रहीम जी या कोई और,  उचार गये अपनी मौज में आकर कि जीवन भर घास पात खाकर गुजारा करने वाली बकरी का भी गला छुरी से रेता जाता है क्योंकि वह जब भी मिमियाती है तो ’मैं….मैं..’ की ध्वनि निकालती है।   ’जिस देश में गंगा बहती है’  नाम की फ़िल्म में प्राण साहब डाकू बने थे और शायद उस डाकू के दिमाग में अपने भविष्य के बारे में जो फ़ोबिया बना हुआ था उसी के चलते पूरी फ़िल्म में अपनी गर्दन पर हाथ फ़ेरते रहते थे, गोया फ़ाँसी की रस्सी को अपनी गर्दन पर कसा जाता महसूस कर रहे हों।

कई दिन हो गये मैं भी अपनी गर्दन पर हाथ फ़ेरता रहता हूँ, चाहे छुरी फ़िरे या फ़ाँसी, गर्दन को तैयार रहना चाहिये। सोचकर एक बार तो झुरझुरी सी उठती है, लेकिन और कोई उपाय है भी नहीं। इस ’मैं’ और ’मेरी’ ने कहीं का नहीं रखा। हर युग में, हर काल में ज्ञानी लोग अपने तरीके से समझाते रहे है कि ’मैं’ रूपी अहंकार को सर मत उठाने दो, लेकिन किसी का बिना मांगे दिया ज्ञान हम ऐसे मानने लगे तो हो गया काम। हम जैसे न हों तो कौन इन्हें ज्ञानी मानेगा?

अपनी भी लगभग हर पोस्ट में मैं ऐसा,  मैं वैसा, मैंने ये किया और वो किया जैसे कंटेंट मिलेंगे। अलबेला खत्री जी की एक पोस्ट पढ़ी थी जिसमें उन्होंने बताया था कि एक समुदाय विशेष के द्वारा आयोजित कार्यक्र्म में जब वो गये तो सामने भीड़ देखकर उन्होंने चुटकुलों का केन्द्र बिन्दु बदल कर सुदूर दक्षिण कर दिया  कि कहीं पब्लिक नाराज न हो जाये, और अभी शुरू किया ही था कि भीड़ में से एक ने खड़े होकर धमका दिया, “ओये,  पैसा  असी खरच कीता है,  कार्यक्रम साड्डा,  तुसी चुटकुले  दूजेयां दे सुनाओगे?”  तो हास्य कवि को अपनी प्रस्तुति बदलनी पड़ी थी।  उन्होंने नहीं कहा कि हमारी बात मानो, इसलिये हमने मान ली। ब्लॉग हमारा, पी.सी, नैट बिजली का खर्चा हमारा, उंगलियां हम तोड़ें, दिमाग के स्कूटर बाईक(घोड़े आऊटडेटिड चीज हो चुके हैं) हम दौड़ायें और पोस्ट मैं और मेरी पर न लिखकर औरों पर लिखें, ऐसे भी सिरफ़िरे अभी नहीं हुये। 

अपनी नजर में नायक, महानायक, खलनायक, सहनायक  हम ही हैं। मेरी दुनिया ’मैं’ से शुरू होकर ’मैं’ पर ही सिमटती है, बहुत विस्तार हुआ तो”हम’ तक। असली बात ये है कि किसी सीनियर ब्लॉगर के बारे में लिखेंगे तो लोग कहेंगे फ़लां गुट में पैठ बनाना चाह  रहा है,  अपने से जूनियर के बारे में लिखा तो कहेंगे कि टिप्पणी पाने के लिये लिख रहा है| इसलिये अपना तो ये फ़ार्मूला ’मैं और मेरी’ वाला जारी रहेगा। वैसे भी आप सबने छूट दे ही रखी है, बल्कि हमने इमोशनल करके ले रखी है। तारीफ़ करनी होगी, गुण बखानने होंगे तो अपने ही बखानेंगे और मजाक उड़ाना होगा, बुरा भला कहना होगा तो भी खुद को ही कहेंगे। दूसरों की कमी निकालनी भी पड़ी कभी तो या तो प्रधानमंत्री की निकालेंगे या किसी मंत्री टाईप बंदे की। जवाब दे तो उसकी हेठी और   न दे तो हमारी वाहवाही कि देखो पंगा लिया भी तो किससे? अपने आसपास के किसी की आलोचना करेंगे तो रोटी. रोजी,  या टिप्पणी पर खतरा मंडरा सकता है और आने वाले दो दशक तक  रोटी, एक दशक तक रोजी और एक महीने तक टिप्पणी को खतरे में डालने का रिस्क हम लेना नहीं चाहते:)

वैसे ’मैं’ हमेशा बुरी नहीं होती। यूँ भी हम कभी दावा नहीं करते कि हम कोई साधु सन्यासी हैं, आम आदमी हैं तो आम आदमी के गुण दोष तो रहेंगे ही।  बादशाह शाहजहाँ के बारे में एक बात मशहूर है कि जब आखिरी दिनों में उन्हें कैद कर दिया गया था तो एक दिन प्यास लगने पर कुयें से खुद ही पानी खींच रहे थे, उनका सिर ऊपर चर्खी से टकराया तो खुदा का शुक्र करने लगे। नजदीक खड़े पहरेदार ने पूछ ही लिया, “आपके सिर में चोट लगी और आप खुदा का शुक्र कर रहे हैं?” जवाब मिला, “मैं, जिसे कुँये से पानी भी निकालने की तमीज और तहजीब नहीं, इतने सालों तक हिन्द का बादशाह रहा, खुदा का शुक्र न करूँ तो क्या करूँ?”

कबीर साहब के पास बलख-बुखारे का शहजादा शिष्य बनने के लिये आया था और बारह साल तक उनकी शागिर्दी करता रहा। गृह मंत्रालय ने नरम पड़ते हुये कबीर साहब से निवेदन किया कि अब इसे गुरू-मंत्र दे दीजिये। उसके बाद हुआ ऐसा कि शहजादा गली से निकल रहा था तो ऊपर से कूड़ा ऐसे गिराया गया कि शहजादा उसमें लथपथ हो गया। कुछ नहीं कहा,  बस ऊपर की ओर देखा और बोला, “न हुआ बलख बुखारा, नहीं तो….।”  बारह साल और वैसे ही गुजारने पड़े, फ़िर इतिहास की पुनरावृत्ति हुई। इस बार कूड़ा कर्कट सिर पर गिरा तो शहजादा बोला, “ऐसा करने वाले, तेरा भला हो। मैं नाचीज़ था ही इस काबिल।” इस बार परीक्षा में पास हो गया शहजादा।

इस्तेमाल तो मैं का ही किया था न शाहजहाँ ने भी और शहजादे ने भी। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि अपनी  भी मैं और मेरी अभी प्राईमरी स्टेज पर हो?  जब तक इस दुनिया की नजर में महापुरुष कहलाने के लायक नहीं हो जाते,  ये ’मैं और मेरी’ चलती रहेगी।  

कोशिश की है वैसे हमने, एक पूरा दिन ये सोचकर बिताया कि आज मैं नहीं बोलना(जा),  मैं को तू से   और मेरी को तेरी से रिप्लेस कर देना है। करके देखा, मुश्किल भी बहुत आई, लेकिन मजा भी बहुत आया।  थोड़ी बहुत गड़बड़ भी हुई, वो तो खैर होनी ही थी।  हमारे होते हुये भी न होती,  तब फ़िक्र की बात थी। उस दिन सुबह सुबह ही हीर-रांझा के किस्से पर नजर पड़ गई, हीर अपनी सहेलियॊ से कह रही होती है कि

’आओ नी मैन्नू रांझा सद्दो, हीर न आखो कोई’( आओ री, मुझे रांझा कहकर बुलाओ, कोई मुझे हीर मत कहो)’
बुल्ले शाह के बारे में सर्च किया तो उनका कलाम दिखाई दिया जिसमें वो कहते हैं कि जो मुझे सैय्यद(जिस उच्च जाति\उपजाति में वो जन्मे थे)  कहेगा वो दोज़ख में जायेगा और जो मुझे मेरे   पीरो-मुर्शिद साईं ईनायत शाह की वजह से  अराईं(सामाजिक ढांचे के हिसाब से अपेक्षाकृत कुछ दोयम स्तर की जाति\उपजाति) कहेगा वो बहिश्त में पींगे डालेगा। वो थी प्रेम की इंतिहा, हम ठहरे इक्कीसवीं सदी के ब्लॉगर। इतनी शिद्दत अपने में   होनी बहुत मुश्किल है, सो  बीसवीं सदी के कुछ गाने मन ही मन सोचे और कोशिश-वोशिश की औपचरिकता पूरी कर ली।   रिप्लेस्ड एंड एडिटिड वर्ज़न कुछ इस तरह से थे -

१.  तू तेरे प्यार में पागल

 २. तू न भूलेगा, तू न भूलेगी

 ३. तुम्हें तुमसे प्यार कितना

४. तू ये सोच कर तेरे दर से उठा था

५. तू बेनाम हो गया(इसपे सबसे ज्यादा वाहवाही के चांस हैं:))

 उस दिन बहुत सारे सोचे थे, आज इतने ही याद आते हैं। आप भी  कभी वेल्ले टाईम में सोच सकते हैं लेकिन अपने रिस्क पर।     मोटी सी बात ये है कि बात जमी नहीं। ’मैं’ को जहाँ होना चाहिये, वहीं है अभी तो। अगर गई भी तो जाते-जाते ही जायेगी, फ़ोर्टी ईयर्स का साथ है:)   वैसे कहते हैं   कि ’लाईफ़ बिगिन्स @ 40,  सो कोशिश जारी रहेगी।   किसी को ऐतराज हो तो बता दे नहीं तो हम समझेंगे कि पंचों की सहमति है कि बंदा अभी बिगड़ा ही रहे।

अब ये गाना सुन देख लो,  निवेदन है कि इसके साथ पंगा नहीं लेना। काहे से कि अपने को ये वाला बहुत पसंद है और मेरी चीज के साथ छेड़खानी करूंगा तो मैं ही, सिर्फ़ मैं:) 

देख लो जी, ये ’मैं’  भी काफ़िर छूटती नहीं है मुंह से लगी हुई।

रविवार, फ़रवरी 20, 2011

डिफ़रेंट बैंड्स - समापन कड़ी


पिछला भाग

पता नहीं, ध्यान नहीं दिया साथी लोगों ने या फ़िर इग्नोर कर दिया, मैं थोड़ा दूर था, सुना तो मैंने भी और नागवार भी गुजरा। फ़िर उसने दो तीन बार वही जनाना-मर्दाना वाली बात की और कहता ही रहा। जीतू को  जोश आ गया, “आ जा कौन सा खेल खेलेगा, फ़्लैश? आ जा।”

लो जी उतर गया राकेश कुर्सी से और बाकी सब हट गये पीछे। अब वो फ़िर से बिदक गया। “दो लोगों में क्या मजा आयेगा? चाल बढ़ाने वाला कम से कम एक तो और हो।” कोई नहीं माना।  मैं थोड़ा दूर जरूर था लेकिन जब जीतू ने भी कहा कि हां, चाल बढ़ाने वाला तो चाहिये कोई, एक है तो सही लेकिन पता नहीं किसके ख्यालों में खोया हुआ है, तो उठना ही पड़ा। वैसे भी जिसे याद करने की कोशिश कर रहा था, उसका नाम ही स्साला याद नहीं आ रहा था:)  यूँ भी किसी क्षेत्र विशेष के हारे हुये जुये में बहुत लक्की होते हैं,  और यहां तो मर्दानगी का सर्टिफ़िकेट भी अग्रिम में मिल रहा था। अपनी जीत पक्की।

“ले प्यारे, चाल बढ़े न बढ़े, ताल से ताल जरूर मिलेगी।” जीतू के साथ अपना वैसे भी ताल से ताल मिला वाला पुराना आंकड़ा था। नई नई नौकरी थी, पचास पैसे प्वाईंट फ़िक्स करके खेल शुरू कर दिया, स्टैंडर्ड इतना ही था जी हमारा तब(अब उतना भी नहीं रहा)।  बिल्लियों की लड़ाई में बंदर वाली बात करते हुये लगे हाथ एक ओर्डानेंस पास कर दिया हमने कि जीती गई रकम से आज का डिनर और उससे पहले और बाद के सब कार्य संपन्न किये जायेंगे। इस बहाने से सबके स्वास्थ्यवर्धन का हीला भी बनाया गया। पैदल चलने से पुट्ठे पुष्ट हो जायेंगे और बाहर की हवा से फ़ेफ़ड़े खुश हो जायेंगे। बाकी सब बोनस….।  सारे हैप्पी हैप्पी हो गये जी, दर्शक भी और तब के खिलाड़ी भी।

शुरू में बहुत जीता बिहारी बाबू, कह सकते हैं जिताया गया।  जीत्तू हमारा एकदम टिपिकल हिन्दी फ़िल्मों के हीरो की तरह  पहले पिटता रहा, फ़िर जो धुनाई शुरू की तो बस पूछिये मत।  साईड  हीरो तो हम थे ही,  या यूं कहिये मुख्य गायक के साथ संगत देने वाले।  राकेश  जितने जीता था, वो हारा सो हारा,   पल्ले से ढाई सौ रुपये और गंवा बैठा। हमारी उस समय की सैलरी का लगभग पन्द्रह प्रतिशत!   राकेश का चेहरा देखकर दया आने लगी थी और बाकी सब फ़ोकट में तमाशा देख रहे थे।   सब उसकी ऊंची ऊंची बातों से और हर बात में नखरे दिखाने की आदत से  भरे बैठे थे। कोई अमीर है तो किसी को खाने को नहीं देता।    जीतू ने पूछा राकेश से, “देख ले भाई अपनी जेब की गुंजाईश, तुझे तो अभी तनख्वाह भी नहीं मिली है।”  राकेश के आंय बांय करने पर उसने पत्ते पैक कर लिये और डिक्लेयर कर दिया पैक-अप और कंपनी को मार्च करने का आर्डर मिल गया।
लो साहब, चल दी टोली अपनी रोज की आवारगी पर।  शहर में पहुंच गये तो डिनर से पहले का कोर्स पूरा करने को सूप वगैरह की कोई रेहड़ी तो थी नहीं, जूस वाले के पास जाकर जूस का आर्डर किया। पेमेंट की बात आई तो राकेश बाबू कहने लगे कि अभी आप कर दीजिये पेमेंट, फ़िर हिसाब करते हैं। अपने को तो खैर कोई दिक्कत नहीं थी इसमें, काहे कि रैपूटेशन बहुत शानदार थी अपनी। घर से निकलते तो पान वाला,   किराने वाला, सब्जी वाला, फ़ल वाला, जूस वाला, हलवाई, धोबी, नाई कहिये तो हर तबके के लोगों से नमस्ते मिलनी शुरू हो जाती थी(सबके पैसे दाब रखे थे:))     और पिछली वसूली करने के लिये अगली उधारी नहीं बंद होनी चाहिये, हमरी न मानो तो मनमोहना से पूछो। विश्व बैंक, मुद्रा-कोष सब जगह ऐही फ़ार्मूला चलदा है। पिछला कर्जा वापिस लेना है तो नया खाता चालू करो।

तो जी हम उस समय कुटिल नहीं थे, हम तो लिखवा ही देते अपने खाते में, लेकिन जीतू अड़ गया। आखिर आधा घंटा पहले ही मर्द होने का अवार्ड मिला था उसे। राशन पानी लेकर चढ़ गया राकेश पर, दोस्तों में जो नहीं कहना चाहिये वो तक कहने लगा। राकेश का पहला बहाना था, हम आने से पहले कपड़े नहीं बदल पाये, पैसे दूसरे कपड़ों में रह गये हैं। जवाब मिला, “ये तेरी सरदर्दी थी, तुझे देखना था। अब जाकर ले आता हूं मैं। तुम सब यहीं रुको।”  राकेश ने रोक लिया,  “अभी हैं भी नहीं इतने पैसे, सेलरी मिली नहीं है न अभी।”  जवाब मिला, “बात तय करने से पहले सोचनी थी अपनी गुंजाईश। क्यों खेला इतना दाँव?”   राकेश बोला, “हम तो मजाक कर रहे थे।”    जीतू के साथ राजा भी कूद पड़ा, “अब हम मजाक करेंगे। तेरा कुर्ता  उतारकर इस जूस वाले के पास रखा जायेगा। पायजामा ढाबे वाले के पास। बनियान पान वाले के पास और फ़िर किसी की कुछ मीठा खाने की इच्छा हुई तो हलवाई के पास भी….।”   फ़ौजी भाई भी अपने पिक्यूलियर नाश्ते की इतनी आलोचना सुन चुका था कि इस योजना को मूक समर्थन दे रहा था। लगे हाथों वो भी कह उठा, “कल नाश्ता भी तू बनाईयो और बंक में ले जाण खातिर रोटी टिक्कड़ की भी तेरी जिम्मेदारी।” 

सबको सीरियस देखकर राकेश गिड़गिड़ाने लगा, “भूल हुई हमसे, इस बार बात जाने दीजिये।”  सबका एकमत से फ़ैसला था, “नो रिलैक्सेशन।” वो रोने को हो आया। हो हुज्जत देखकर बगल के पी.सी.ओ. का मालिक आ गया, चिंटू। हमसे तीन चार साल छोटा था, लेकिन बैडमिंटन खेलता था हमारे साथ और अपना खास बंदा था एस.टी.डी. के चक्कर में:)  सब देखकर मुझसे कहने लगा, “भाई साहब, जान छुड़वा दो बेचारे की। गरीब आदमी है।” हम थोड़ा सा मौका-ए-वारदात से अलग होकर बात कर रहे थे,  मैंने कहा, “वाह बेटे, मोहब्बत हमसे और हिमायत इसकी? ये गरीब दिखा तुझे, जानता नहीं तू इसको। बड़े तगड़े घर से है, आढ़त,  ठेकेदारी, प्रिंटिंग प्रैस, बाग-बगीचे हैं इनके। सिनेमाहाल में भी हिस्सेदारी है इसकी।”  चिंटू बोला, “भाईसाहब, बाकी सब मैं नहीं जानता। हाँ, सिनेमा हाल वाली बात के बारे में जानता हूँ कि इसके पापा वहाँ गेटकीपर हैं। मेरे यहाँ से फ़ोन करता रहता है, इसलिये जानता हूँ।” मैं गया, उसे  घेरे से निकालकर लाया और चिंटू के सामने उससे पूछा, “उस सिनेमा हाल का नाम बताओ जिसमें  तुम्हारे परिवार की हिस्सेदारी है।”  वो फ़ूट फ़ूटकर रोया, “मैं सब बता दूँगा साफ़-साफ़, अभी मुझे इन से बचाईये।” कह दिया जी हमने अपनी टोली से कि इसका बाकी मुकदमा अड्डे पर लौटकर, अब कोई कुछ नहीं कहेगा। मुश्किल से आज मौका हाथ आया था सबके, मन मसोसकर रह गये थे सब। असंतोष था साथियों के मन में, आपस में बातचीत न के बराबर हुई।  उस दिन जैसा बेस्वाद खाना हमने कभी नहीं खाया। सिगरेट भी एकदम मीठी लगी उस दिन, बेस्वाद।

लौटकर फ़िर से वही पैसों के हिसाब किताब की बात छेड़ी जीतू-राजा ने और अब मुझे चुप रहने की हिदायत देकर सारे कपड़े और बैग झाड़ा उसका, चिल्लर वगैरह मिलाकर एक सौ सत्तर-अस्सी रुपये निकले। बकाया रकम के बराबर की जली कटी सुनाई गई और वो आंसू टपकाता रहा। सुबह ऑफ़िस के लिये निकले तो अपना इकलौता बैग उसके कंधे पर था। लंच से पहले उसके पैसे उसे लौटा दिये मेरे दोस्तों ने, दिल के बुरे नहीं थे|    दोस्तों में अपना इतना कहना काफ़ी था कि बहुत हो गया ड्रामा अब इसके पैसे इसे लौटा दो, नहीं तो मैं अपने पास से दे दूंगा। सबक सिखाना जरूरी भी था और आज तक उन सबको ये नहीं मालूम कि उसके घर के असली हालात क्या थे। राकेश ने आंख नहीं मिलाई लेकिन पैसे ले लिये। अपनी तरफ़ से भाषण दे दिया उसे कि झूठी शान कभी कभी महंगी पड़ जाती है। और जुए जैसी चीज तो जो न करवा दे वो थोड़ा।

दोस्तों में  किसी को याद भी नहीं होगी अब उसकी, हफ़्ते दस दिन के लिये ही आया था हमारी जिन्दगी में।  बाई चांस कुछ दिन में ही उसका ट्रांसफ़र हमारे हैड आफ़िस से एक ब्रांच में हो गया था तो रोजाना का इंटरैक्शन भी खत्म हो गया। मेरे पास कभी कभी फ़ोन जरूर आ  जाता था। उस ब्रांच से जब कोई स्टाफ़ आता था तो अपने बिहारी बाबू का हालचाल जरूर पूछते थे हम। और जब सामने वाला बताता था कि यार, है तो वो बहुत तगड़े घर से, आढ़त,  ठेकेदारी,  प्रिंटिंग प्रैस,  बाग-बगीचे , ट्रांसपोर्ट और पता नहीं क्या-क्या  हैं उसके परिवारवालों के, सिनेमाहाल में भी हिस्सेदारी है  बस हरकतें टुच्ची सी हैं उसकी,      तो मेरे यार बहुत हँसते थे। अच्छा! ट्रांसपोर्ट भी खोल ली उसने?      मैं शायद उदास हो जाता था(बहाना भी तो चाहिये होता है गमजदा होने या दिखने के लिये:) ),   हम दुनिया वालों ने ही सिखाया होगा न उसे कि खुद को एक ब्रांड की तरह न दिखाये तो उसकी कदर नहीं होगी।  

ये सब लिखने का मतलब राकेश या उस जैसे लोगों की आलोचना नहीं, सबके अपने सच हैं और अपने विश्वास। और अपना तो यही मानना है कि वो आसानी से बदलते भी नहीं।  सबको अपने अपने सच, अपने यकीन, अपने मूल्य और अपनी मान्यतायें मुबारक। मैं लिख रहा हूँ तो अपने नजरिये से लिखा मैंने, राकेश बाबू कहीं लिख रहे होंगे तो अपने नजरिये से हमें बेवकूफ़ बनाने के किस्से लिख रहे होंगे या सुना रहे होंगे।

खैर, हमारा साथी तो नहीं ही बदला लेकिन मैं बदल गया। आजकल जमीन से थोड़ा ऊपर होकर चलता हूँ,  बात-वात करने का अहसान तो कर देता हूं दूसरों पर,  कोई  पास आने की कोशिश करे या हँसी-मज़ाक करने की कोशिश करे तो वहीं हूल दे देता हूँ उसे – ओये,  होस में रहकर बात कर। जानता नहीं है किससे मजाक कर रिया है? अब हम पैले वाली नईं रै गये, अब हम से बड्डे बड्डे नैसनल, इंटरनैसनल लैवल के बिलॉगर,  धरम करम वाले, लाज शरम वाले,  दवा-मरहम वाले  मजे लेते हैं:))  

चलो जी हटाओ ये सब, आज सुनो एक और फ़ेवरेट गज़ल

मंगलवार, फ़रवरी 15, 2011

डिफ़रेंट बैंड्स - एक


आज ऐंवे सी ही कोई याद:))

हमारे से दो तीन महीने के बाद उसने ज्वॉयन किया था। था तो हमारे ही बैच का, लेकिन मैडिकल ग्राऊंड्स पर एक्स्टैंशन ले ली थी। नाम बताया उसने राकेश कुमार,  बढि़या पर्सनैलिटी, क्वलिफ़िकेशन भी हम लोगों से ज्यादा ही थी। बड़े हिसाब से बोला करता था, सभ्य लोगों की तरह, ऐसा नहीं कि हमारी तरह अबे तबे करता हो। पारिवारिक पृष्ठभूमि बहुत शानदार बताई उसने अपनी, साथ ही यह भी कह गया कि बैंक की नौकरी तो इसलिये पकड़ी है ताकि शादी अच्छे से हो जाये। हम कम से कम डेढ़ दर्जन जगह पर इसलिये रिजैक्ट हो गये कि अच्छी भली नौकरी छोड़कर बैंक में नौकरी करने चला गया है और ये साहब कहते हैं कि अच्छी जगह शादी हो इसलिये बैंक की नौकरी करना मंजूर किया है, नहीं तो कोई जरूरत ही नहीं थी काम धंधा करने की। अपने को बात खटकी, दिख गया कि फ़्रीक्वैंसी लेवल तो दूर की बात है, बैंड भी अलग अलग है मीडियम वेव और शार्ट वेव की तरह।  लेकिन  नया नया होने के कारण जब तक उसका कहीं कमरे का इंतजाम नहीं होता, तब तक हम छड़ों के वेहड़े में ही रहेगा, ऐसी इच्छा उसने प्रकट की थी तो अपने भुरभुरे स्वभाव के कारण अपने से मना नहीं किया गया।

यू.पी., हरियाणा, राजस्थान और दिल्ली के प्रतिनिधि हम पहले से ही थे, ये बिहारी बाबू भी आ विराजे हमारे अड्डे पर। पहले दिन तो परिचय वगैरह में ही शाम रात गुजर गई, अगले दिन सुबह हमारा फ़ौजी भाई जुट गया नाश्ता तैयार करने में, हम सब अपनी अपनी नौटंकियों में व्यस्त थे और राकेश बाबू ने नहा धोकर झक्क सफ़ेद कुर्ता पायजामा पहनकर अखबार हाथ में लिया और बाहर गली में चलते चलते अखबार बांचने लगे। राजा बोला, “यार, ये अखबार पढ़ने का कौन सा स्टाईल है? हमें तो हिंदी का अखबार भी पढ़ना हो तो बैठकर पढ़ते हैं, इसने आज सुबह अखबार वाले से अंग्रेजी का अखबार भी लिया है और कल से रोज आयेगा, ऐसा भी कह दिया है। ये कोई परमानेंट हिसाब बनाने के चक्कर में तो नहीं?  कल से लगा हुआ है हमें इम्प्रैस करने के चक्कर में, अब लग रहा है अपनी सैटिंग बैठनी नहीं है इससे। अब ये गली में घूम घूमकर अखबार पढ़ रहा है।”    हमने भी अपना ज्ञान बघारा, “ये अखबार नहीं पढ़ रहा है, कल हमें इम्प्रैस किया है और आज गली वालों को इम्प्रैस कर रहा है। कोई बात नहीं, कर लेने दे।”

इतने में फ़ौजी ने आवाज लगाई कि नाश्ता तैयार है और सारे कैदी अपनी अपनी थाली गिलास लेकर हाजिर। जीतू ने कहा कि यार कोई उस अंग्रेज साहब को भी बुला लो तो राकेश बाबू को भी बुला लिया गया। फ़िल्मी हीरोईनों की सी चाल चलता हुआ आ गया वो भी, नाश्ता देखकर वैसे ही नाम भौं सिकोड़े जैसे हमारी बातचीत सुनकर कल से कई बार कर चुका था। “दूध-परांठा? ये कईसा नास्ता है भाई, भैरी पिक्यूलियर। हम तो पहली बार देखे हैं ये नास्ता।”      समझाया उसे कि हमने भी पहली बार ही देखा था यहाँ जब फ़ौजी भाई ने मैस संभाली थी, लेकिन जब बिना किये धरे पेट भरने को मिल रहा हो तो नखरे नहीं दिखाने चाहियें। अब यही नाश्ता हमें अच्छा लगने लगा है। ये क्या कम है कि फ़ौजी सुबह सुबह पडौस के गांव से अपनी आंखों के सामने दूध निकलवा कर लाता है फ़िर ये मोटे मोटे परांठे सेंककर खिलाता है?  लेकिन राकेश बाबू का नखरा दिखाना कम नहीं हुआ। जैसे तैसे गले से नीचे उतारा उसने वो नायाब नाश्ता। राजा मुझे घूर रहा था, बाद में कहा भी उसने कि एकाध बार ना भी कह दिया कर। क्या जरूरत थी इस भूत को घर लाने की?     लेकिन ग्रुप में रहते जो एक ने कह दिया, वो मानते सभी थे और यही दोस्ती की पहचान थी। आपस में एक दूसरे को संभालना भी और सुधारना भी, लेकिन एक दूसरे के फ़ैसले का सम्मान भी करना।

कई  दिन बीत चले, न वो हमारे बीच रमा और न ही कहीं अपने लिये कमरा देखने की कभी बात करता। गाहे बेगाहे इतना सुना देता कि उसे तो अलग ही रहना है, हाँ और कुछ नहीं बदला। उसके आने से पहले हम लोगों में काम के बंटवारे को या पैसों के मामले में या और भी किसी बात पर कभी कोई मतभेद नहीं हुआ था, लेकिन अब उसकी टोकाटाकी सबको नागवार गुजरने लगी थी।   बाकी लोगों के मूड़ को देखते हुये मैंने अकेले में कई बार उसे इशारा किया भी कि जल्दी से जल्दी अपने कमरे का इंतजाम कर ले, वो बात पलट जाता और किसी  किसी बात पर मेरी तारीफ़ करने लगता। वो तो बाद में पता चलता कि मजाक करता था और मैं सीरियसली ले लेता था:)

वैसे हम सब   इकट्ठे ही ऑफ़िस जाते और एक साथ ही लौटते, बस यूँ समझिये साढे तेईस घंटे का साथ तो था ही। दिन में कई बार उस पिक्यूलियर नाश्ते की बात  सुनाई जाती। लौटकर रोज का रुटीन फ़िर से शुरू, वही धौलधप्पा, शरारतें, गाने, गालियाँ वगैरह वगैरह। राकेश बाबू अब भी सबसे अलग दिखने के पूरे प्रयास में थे। मानो किसी मजबूरी में बेचारे हम जैसे लोगों के साथ दिन काटने को मजबूर हों और ये सब करते हुये हम पर एक अहसान कर रहे हों। उस दिन जब ऑफ़िस से लौटे तो कुछ देर के बाद जीतू का ध्यान ताश पर चला गया, “अबे, कितने दिन हो गये इसे हाथ ही नहीं लगाया। चलो रे, तैयार हो जाओ सब, आज दहला पकड़ खेलेंगे। सालो, इतनी मुश्किल से सिखाया था तुम्हें, फ़िर से भूल जाओगे।” अपना दिल टूट गया जी, इसका मतलब अगले पन्द्रह घंटे तक बाहर की ताजी हवा नहीं ले पायेंगे। ताश लेकर बैठ गये तो फ़िर हो गया नगर भ्रमण और स्टेशन भ्रमण। वो प्लेटफ़ार्म, वो बेंचे, पश्चिम एक्सप्रेस – ये सब क्या समझेंगे हमें,  बेवफ़ा ही न?  ले भाई जीतू, अब तैने कर ही दिया फ़ैसला तो आज की पदयात्रा की छुट्टी।

हमने तकिया चादर ली और टैलीपैथी के अभ्यास में लग गये और बाकी मंडली ताश लेकर दहला दबोचने के चक्कर में। राकेश बाबू आज थोड़े से उत्साहित दिखे, “क्या खेल रहे हैं,  ये कौन सा खेल है?”   बताया किसी ने उसे, आज बैठ गया पास आकर उनके। लेकिन बाकी सब जमीन पर जमे थे वो अब भी कुर्सी लेकर बैठा। दो चार बार उसने टोकाटाकी भी की, तो उसे सलाह दी गई कि देखे चुपचाप, समझ आ जायेगा। लेकिन आदत जो पक जाती है, इतनी आसानी से जाती नहीं। खुद को सुपीरियर दिखाने की आदत जाती नहीं थी उसकी। बोला, “हटाईये ये सब, कुछ और खेलते हैं, हम भी खेलेंगे।” बाकी सबको उसी में रस आ रहा था, कोई नहीं माना। उधर हमारी टैलीपैथी साधना चल रही थी, बीच बीच में उनकी आपस की बातचीत भी। मजे की बात ये कि बाकी सब का आपस में जोर जोर से हंसना, लड़ना भी कानों को बुरा नहीं लग रहा था और राकेश बाबू का बीच बीच में बोला जाने वाला एकाध वाक्य ध्यान भंग किये जाता था, शायद मैं भी अब तक उससे बायस्ड हो चुका था। जब उसने कई बार खेल बदलने को कहा और साथी लोगों ने ध्यान नहीं दिया तो कह उठा, “जाने ई जनाना खेल में का मजा आता है आपसब को? अरे खेलना ही है तो मर्द लोगों वाला खेल खेलिये न, फ़्लैश जैसा कुछ।”

.......जारी......


गुरुवार, फ़रवरी 10, 2011

बात एक और मायने दो...


एक गज़ल लगाई थी कभी अपनी एक पोस्ट में, ’चमकते चाँद को टूटा  हुआ तारा बना डाला,’  फ़िल्म थी आवारगी और गाने वाले थे गुलाम अली साहब। चाँद, टूटा-फ़ूटा, आवारगी और गुलाम अली, इन चारों में अपनी पसंद के हिसाब से रैंकिंग देनी हो तो चारों संयुक्त विजेता सिद्ध हो जायें। चारों एक से बढ़कर एक पसंदीदा चीजें हैं अपनी।  यही वजह थी कि गज़ल बहुत पसंद थी, है और रहेगी। एक लाईन है इसमें, ’मैं इस दुनिया को अक्सर देखकर हैरान होता हूँ’  - ये जी हमारी पर्सनैल्टी का बड़ा अहम हिस्सा है। देखना और हैरान होते रहना, न देखने से हटते हैं और न हैरान होने से बचते हैं।

पौने तीन साल पहले जब यहाँ आया था तो शायद शुरू के दूसरे तीसरे दिन ही बैंक में एक ग्राहक आया, छ; फ़ुटा बंदा, खड़ी मूंछें,  भरी-भरी दाढ़ी,  भव्य पर्सनैल्टी और जो भी दूसरा ग्राहक आता, ’बाई जी, सत श्री अकाल’  कहकर अभिवादन कर बुलाता  उसे।  हो गये जी हम हैरान कि भाई ये कैसी\कैसा बाईजी?    इससे पहले बाईजी से अपना वास्ता या तो कोठों पर पड़ा था, मेरा मतलब है जी कि इस शब्द से अपना परिचय फ़िल्मों, उपन्यासों में दिखाये गये कोठों की मालकिन को संबोधित किये जाने तक से संबंधित था। समझाया खुद को कि जमाना बदल रहा है, हो सकता है ……। दुनिया इतने में कहाँ रुकने वाली थी, थोड़े दिन में  कोई बंदा  हमें भी बाई जी कहकर बुला गया।   धरे रह गये सारे चरित्र प्रमाणपत्र, शराफ़त का ये अंजाम?  हमें डेली पैसेंजर साथी संजय भाई साहब या संजय भैया कहकर बुलाया करते थे, हमारा प्रेमी स्टाफ़ भोला हमें संजय बाऊ कहकर बुलाया करता था लेकिन ’बाईजी’ ?    लेकिन क्या  कर सकते हैं जी, कहते हैं कि कोई मार पीट कर रहा हो उसका हाथ पकड़ा जा सकता है लेकिन बोलने वाले की जबान नहीं पकड़ी जा सकती। वैसे भी बापू ने बुरा न देखने, सुनने और बोलने के अलावा ऐसा भी कहा बताते हैं कि ’ग्राहक भगवान होता है।’   ठीक है भगवान, बना दो जो बनाना है तुम।  हमारा क्या है, हमने कौन सा यहाँ परमानेंट लंगर डालना है, चले ही जाना है यहाँ से तीन साल बाद।

लेकिन बात खटक तो गई ही थी, शाम को हमारे गार्ड साहब से जिक्र चला। हथियार वाले बंदों से अपनी सैटिंग हमेशा से सही बैठा करती है। जब उनसे बात की तो वो हँस दिये, “साबजी, मैं फ़ौज विच नौकरी दे दौरान राजस्थान रया सी, उत्थे मैं वी इस ’बाईजी’ दे चक्कर विच बड़ा परेशान रया। अलग अलग जगह ते एक ही शब्द दे अलग अलग मायने होंदे ने।” उन्होंने बताया कि पंजाब के इस इलाके में बाई जी, या बाई, या बई अपने से बड़े भाई को कहते हैं। आदरसूचक शब्द है, इसलिये चिंता की कोई बात नहीं।  कुहासा छंट गया, अब याद आया कि एक गाना देखा था ’जी नईं जान नूं करदा रंगली दुनिया तों’ और उसके गायक का नाम लिखा हुआ आता था पम्मी बाई। लो जी,  खुश हो गये हम। हमें खुश या दुखी होने के लिये बहुत बड़ी बातों की दरकार कभी रही भी नहीं, जरा जरा सी बात पर हो जाया करते हैं, हा हा हा।

अब आपको इसीसे संबंधित एक मजेदार बात बताते हैं। पच्चीस छब्बीस साल का जमींदारों का एक लड़का है इसी गांव का, मस्तमौला सा,।  स्वभाव ऐसा सरल है उसका कि कुछ पूछिये नहीं। न उसे किसी की जाति बिरादरी से मतलब है, न किसी की माली हैसियत से।   यारों का यार और स्वभाव वही कि ’दिलबर के लिये दिलदार हैं हम  और दुश्मन के लिये  तलवार हैं हम।  अपनी सही जमने लगी थी उससे।   सारे गांव के जितने छंटे हुये, उभरे और उभरते सितारे, उम्र में चाहे उससे पन्द्रह बीस साल बड़े ही क्यों न हों, उसे बाईजी ही कहकर बुलाते हैं।  तो हमारे इस बाईजी के बापू एक दिन कहीं जा रहे थे और सड़क के दूसरी तरफ़ एक दुकान पर अड्डा जमाये तीन चार क्रीमी लेयर के बंदे  कुछ प्रोग्राम बना रहे थे। प्रोग्राम में बाईजी की शिरकत जरूरी थी, सामने से उसके बापू को आते देखकर एक ने आवाज लगाई, “ओ रूपे......., बाईजी कित्थे है, घर हैगा या खेत ते?”   अब बापू ने बोलना शुरू किया, “भैण दे यारों, इधर आओ तुसी। मैं दसदा हां त्वानूं(मैं बताता हूं तुम्हें),  मुंडे नूं कैंदे ओ बाईजी ते उसदे बापू नूं बुलांदे हो, ओये रूपे?(लड़के को कहते हो बाईजी और उसके बाप को बुलाते हो ओये रूपे?)     

मैं लेट हो गया यारों, मेरा  ब्लॉग बनाने से पहले ही बाईजी चला गया है दूसरे मुल्क।  न तो एक और फ़ौजी आ गया होता अपनी साईड:))

एक और पेंशनर है हमारा,  जब भी पेंशन लेने आता है तो अपनी एंबैसेडर कार में आता है। हर बार कह्ता था, कभी जरूरत हो गाड़ी की तो मुझे फ़ोन कर देना। एक बार सरकारी काम से स्टाफ़ को कहीं जाना था और उस दिन शादियों का मुहूर्त होने के कारण कोई टैक्सी नहीं मिल रही थी, मुझे उसकी याद आई। मैंने कहा कि उस बाई को  फ़ोन कर देता हूँ, वो जरूर आ जायेगा। स्टाफ़वाले बिदक गये,  “न जी, उसकी गाड़ी में कौन बैठे? दिखता तो है नहीं उसे।”  मैंने कहा, “यार, हर महीने तो गाड़ी लेकर आता है वो। अगर दिखाई न देता हो तो कैसे इतने दिन हो गये और कोई एक्सीडेंट वगैरह की बात नहीं सुनी?”  बताया गया कि बचपन से इसी गांव में रहा है तो एक एक रास्ता उसका नापा हुआ है, रही बात सड़क पर चलने वालों की, तो जहाँ दूर से उसकी एंबैसैडर दिखाई देती है, शोर मच जाता है ’आ गई बाई दी गड्डी’ और लोग बाग खुद ही दौड़ कर और भाग कर रास्ते ऑल-क्लियर कर देते हैं।” 

मैं सोचने लगा और महसूस करने लगा वो नजारा और सुगबुगाहटे – एंबैसैडर का घर्घर नाद सुनो,     सड़कें खाली करो कि बाई की एंबैसैडर आती है।  रैप्युटेशन और गुडविल कितनी मुश्किल से बनती है? कितनी मेहनत लगी होगी बाई को अपनी दहशत कायम करने में, शायद बहुत ज्यादा। अगली पेंशन लेने आयेगा तो करूंगा रिक्वेस्ट कि बाई, मेरा फ़ालोवर बन जा न यार। थोड़ा सा संगति का असर हो जाये मुझपर भी कि दूर से कहीं पोस्ट आती दिखे तो शोर सा मच जाये ’आ गई संजय बाई दी पोस्ट, आ गई।’  मेरी गुडविल बन जायेगी और संभावित मठाधीशी की तरफ़ एक कदम और उठ जायेगा:))

शनिवार, फ़रवरी 05, 2011

इक फ़रियाद


एक बहुत पुरानी कहानी पढ़ी थी, न कहानी का नाम ध्यान है और न लेखक का, लेकिन बहुत पसंद है अपने को। उस समय यदि मालूम होता कि किसी को कभी बताने की नौबत आयेगी या कोई हमारी लिखी बात को पढ़ेगा भी, तो  याद भी रखते। खैर, कथासार बताते हैं आपको, लेखक महोदय को हृदय से क्षमा सहित धन्यवाद पहुंचे।

कहानी थी एक डाकिया जी की, जो दीन के पाबंद और पांच वक्त के नमाजी थे। वेशभूषा से,  चेहरे पर छोड़ी दाढ़ी से मानो नूर बरसता था।     उम्र अभी छोटी ही थी, लेकिन ध्यान इधर उधर न बिखरा होकर हर वक्त ऊपरवाले की इबादत में मशगूल रहता था। जहाँ रहते थे, जहाँ काम करते थे और जिस इलाके में डाक बांटने का काम करते थे, उन साहब की खासी इज्जत थी। मस्जिद की तामीर होनी हो, कोई और मजहब का काम हो, इंतजामिया कमेटी में उनका शामिल होना इस बात की तसदीक थी कि सब कुछ सही हाथों में है। कहानी की शुरुआत में दिखाया गया कि उनका डाक बांटने का इलाका बदल दिया जाता है और वो डाक विभाग के आला अधिकारी जोकि एक अंग्रेज था, के सामने पेश होकर उनसे वो तबादला रद्द करने की गुजारिश कर रहे हैं। नया इलाका चूँकि ’हुस्न का बाजार’ था, डाकिया बाबू को अपना दीन बिगड़ने का डर था, और इसी वजह से वो तबादला रद्द करवाना चाहते थे। लेकिन कहते हैं कि बेदर्द हाकिम के आगे फ़रियाद का कोई फ़ायदा नहीं होता, उन्हें भी नहीं हुआ। यही सुनने को मिला कि एक बार जाकर काम संभालिये, मौका लगते ही तबादला निरस्त कर दिया जायेगा। अब हमारे नायक ठहरे खुदा के बंदे, और कोई मजहब या धर्म रिज़क और रोजी से नमकहरामी नहीं सिखाता, वे भी बेमन से ही सही अपने काम को संवारने में जुट गये। पुराना डाकिया उन्हें साथ लेजाकर उस बाजार की सारी बसावट की जानकारी देता है, खास खास ठिकानों का खास परिचय देता है और अगले दिन से वे अपने काम में लग गये। बात पुराने जमाने की है, सच की और  सच्चे आदमी की भी इज्जत होती थी। कुछ समय बीतते न बीतते उस इलाके के चुनिंदा अड्डों में उनकी खासी पैठ हो गई।  भीतर तक पहुंच हुई, खतो-किताबत में मदद करते करते नौबत यहाँ तक पहुंची कि खास दावत वगैरह की रसोई की सुपुर्दगारी तक और खास महफ़िलों के इंतजामात तक   उनके हाथ आ गये।  और तो और, घरेलु और बाजारू मुद्दों पर उनकी अहम राय की कदर होने लगी और वक्त दौडने लगा।  कहानी के अंत में वही हाकिम का दफ़्तर, और वही फ़रियादी – साल भर पहले जो  गुहार लगाई थी तबादला निरस्त करने की, वो मंजूर हो चुकी थी।   तो साहब लोगों, वही हाकिम और वही फ़रियादी, हाकिम वैसा ही बेदर्द था जैसा पहले था और फ़रियादी का हुलिया बदला हुआ था। सफ़ाचट चेहरा, कपड़े इत्र से महकते हुये और तुर्रा ये कि इस बार भी  फ़रियाद वही पुरानी  थी कि हुज़ूर मेहरबानी करें और इलाका न बदलें, यहीं रहने दें। जनाब रच बस गये थे रंगीनियों में।

अब आप को मजा बेशक न आया हो, हमने  जब कहानी पढ़ी तो बहुत मजा आया था। लाईव फ़िल्म देखने का, कहानी या उपन्यास पढ़ने का जो मजा आता है वो समीक्षा में नहीं आता। कोई फ़िल्म देखे, साहित्य पढ़े एक जमाना बीत गया है। शहर में ले देकर एक सिनेमाघर है और कोई लाईब्रेरी नहीं। बच्चों को डीवीडी ला देते हैं, लेकिन हमारे लिये सिनेमा के पर्दे का मुकाबला ये इक्कीस इंच की स्क्रीन क्या करेगी?  अपना तो वही पुराना रवैया कायम है, या तो ’नो डिमांड    या   फ़िर नो लिमिट’ ,     बेशक  भूखे मर रहे हैं लेकिन घास नहीं खा रहे।     अकेला सहारा अखबार थे और अब तो अर्सा हो गया अखबार देखने का भी मन नहीं करता।  ये अखबार क्या खाकर हमारे ब्लॉगजगत का मुकाबला करेंगे?  ’कहीं दंगल वीर जवानों के, कहीं करतब तीर कमानों के’ वाले स्टायल में गुटबाजी, पहलवानी, राजनीति के अखाड़े  सक्रिय हैं। भोजन के छहों रस, भाव के नौ रंग, सोलह कलायें, छत्तीस श्रॄंगार, छप्पन भोज का आनंद यहाँ विद्यमान है तो ’कौन जाये ऐ जौक,  इन गलियों को छोड़कर।’

घर से दूर का तीन साल का स्टे पूरा होने में लगभग चार महीने बचे हैं, बच्चों का शिक्षा-सत्र समाप्त होने में लगभग एक से डेढ़ महीना। फ़िलहाल की प्लानिंग के अनुसार तब अपन  दो तीन महीने अकेले रहेंगे और बच्चा पार्टी(समेत उनकी मम्मी)  अपने दादा-दादी  और चाचा-चाची के पास। हमारा पी.सी. कश्मीर हुआ पड़ा है, दूसरी पार्टी कहती है हमारा है और हम कहते हैं ये हमारी जान है। वक्त से बड़ा कोई नहीं, देखते हैं किसके हक में फ़ैसला होता है। हमने खुद को नियंत्रित करना शुरू कर दिया है, पिछली कुछ पोस्ट्स से पांच दिन में एक पोस्ट के व्रत का पालन कर रहे हैं।  कहीं ऊपर बताई कहानी के नायक वाला हाल न हो जाये कि बेदर्द हाकिम के आगे फ़रियाद करते दिखाई दें कि तबादला निरस्त कर दो, अब तो मजा आना शुरू हुआ था।

ऐसा नहीं कि will नहीं है, है जरूर है, लेकिन way नहीं दिखता है।  साईबर कैफ़े में जाकर लिख सकते हैं, पढ़ सकते हैं और कमेंट भी कर सकते हैं लेकिन साल भर पहले लुधियाना में एक साईबर कैफ़े में पड़े एक छापे की याद आ जाती है तो पसीने छूट जाते हैं। पार्टीशंड केबिन बने हुये थे, शायद फ़ी घंटा दो सौ से ढाई सौ रुपया चार्ज करते थे। ज्यादा लग रहा है? है ही ज्यादा, ठगी कर रहे थे जी क्योंकि जब छापा पड़ा तो पता चला उस साईबर कैफ़े में पी.सी. ही नहीं थे। अब चढ़ते बुढापे में ढाई सौ रुपया घंटा खर्च भी करें और पी.सी. भी न बरामद हो वहाँ छापे के दौरान तो क्या मुंह दिखायेंगे?

एक दूसरा हाईवे और सूझा था कि शोले फ़िल्म की तर्ज पर कोई सूरमा भोपाली टाईप का जीव पट जाये तो हमारे बड़े भाई साहब सतीश सक्सेना जी की इनाम वाली घोषणा का फ़ायदा उठा लें। बेनामी, छद्मनामी होने का आरोप हम पर लगाकर कोई कर दे केस दर्ज, बड़े भाई तो जबान दे ही चुके हैं फ़ी पेशी पांच हजार का ईनाम।  उनकी मुहिम सफ़ल हो जायेगी, हमें नाम और दाम मिल जायेंगे, ले आवेंगे एक सैकंड हैंड कम्प्यूटर। तो जी, तलाश जारी है, इच्छुक आरोपकर्ता हमारी मेल आई.डी. पर संपर्क कर सकता है, एग्रीमेंट साईन  करना होगा। इनाम सारा हमारा और इकराम उसका जो हमें पकड़वायेगा।

आखिर में वो शेर जो एक कस्बे की नुमाईश में हलवाई की दुकान पर लिखा देखा था.

’लिखा परदेस किस्मत में, वतन को याद क्या करना,
जहाँ बेदर्द हाकिम हो, वहाँ फ़रियाद क्या करना।”

और हम ठहरे एक नंबर के येड़े, फ़िर भी फ़रियाद करते ही जाते हैं कि हुज़ूर, फ़ैसला बदल लो हमारे तबादले का, अभी तो मजा आना शुरू हुआ था:))