शुक्रवार, जून 24, 2011

प्रार्थी का निवेदन..


बड़ी पुरानी गल्ल है जी,  हमारी पहली नौकरी के टाईम की। पहली नौकरी का महत्व आप सब जानते ही होंगे, पहली मोहब्बत आदमी एक बार को भुला सकता है लेकिन पहली नौकरी की यादें नहीं। कोई जरूरी नोटिस सर्व किये जाने थे और जिस कर्मचारी की नोटिस सर्व करने की ड्यूटी थी. वो  बिना सूचना के दो दिन से ऑफ़िस नहीं आ रहा था। शाम के समय बॉस काफ़ी गुस्से में थे और कहने लगे कि इसे सबक सिखाया जायेगा।  शाम को मैं ढूँढते-ढाँढते उनके घर पहुँचा। मालूम चला कि उनकी तबियत कुछ  खराब थी। कम से कम ऑफ़िस में जानकारी देने की सीख देकर और बॉस के गुस्से की बात बताकर अपने घर लौट आया।

ओम प्रकाश नाम था उनका, उम्र में मुझसे काफ़ी बड़े थे तो मैं उन्हें चाचा कहकर बुलाया करता था। अगले दिन सुबह ड्यूटी पर पहुँचा तो चाचा पहले से मौजूद थे, घबराये हुये तो थे ही। बॉस थे भी अभी  नये नये, एकदम यंग, डाईनैमिक और चूँकि बहुत बड़ा पेपर पास करके आये थे तो रौब दाब तो था ही उनका। चाचा मुझसे पूछने लगे कि क्या किया जाये। था तो मैं बॉस से भी यंगर लेकिन डाईनैमिक भी नहीं था और पेपर भी तो छोटे वाला ही पास करके भर्ती हुआ था, तो इतनी तो अपनी चलती नहीं थी कि सीधे सिफ़ारिश कर दें, लेकिन मौके पर पहुँचकर थोड़ी सी जेनुईननेस तो बता ही सकता था, यही सलाह दी। ओम प्रकाश जी से कहा कि झूठ मूठ कुछ कहने की बजाय जो सच है, उसे अपनी प्रार्थनापत्र में लिखकर साहब के सामने पेश हो जाओ, पीछे-पीछे मैं आकर  जो संभव होगा, सिफ़ारिश कर दूँगा। यही जून- जुलाई के दिन थे , चाचा के पसीने तो टपाटप आ ही रहे थे, फ़ट से कागज कलम लेकर अर्जी लिखी और काँपते कदमों से साहब के केबिन की तरफ़ कूच किया। जाते जाते मुझसे कह गये कि देर न करूँ, जल्दी से आ जाऊँ।

केबिन के दरवाजे तक मैं साथ गया और उन्हें अंदर भेजकर वहीं साईड में खड़ा हो गया। उनकी साहब को नमस्ते करने की आवाज सुनाई दी और अगले मिनट के बाद मैं भी केबिन में जाकर अभिवादन करके खड़ा हो गया। तब तक ओम प्रकाश जी अपनी अर्जी पेश कर चुके थे और साहब उसे पढ़ रहे थे। दम साधे हम दोनों खड़े थे कि एकदम से साहब के चेहरे पर मुस्कान आ गई, चेहरा ऊपर उठाकर ओम प्रकाश जी से बोले, “जाओ, आगे से ध्यान रखना।” चाचा की साँस में साँस आई और बड़ी सी नमस्ते करके वो बाहर भागे। बॉस ने अर्जी मेरी तरफ़ बढ़ा दी, चेहरे पर मुस्कान दबाये नहीं दबती थी। अपना ट्रांसमीटर एसीपी प्रद्युम्न की तरह  सिग्नल दे रहा था, ’कुछ तो है।’ बाहर आकर अर्जी पढ़ी तो जोरों से हँसी आ गई। बड़े जहाँ मुस्कान में भी कँजूसी बरतने पर मजबूर होते हैं, छोटे वहाँ खिलखिला कर हँस सकते हैं, बिना इस बात की परवाह किये कि इसे फ़ूहड़ता समझ लिया जायेगा। और ये वो हासिलात है जो छोटों को बड़ों से भी बड़ा कर देते हैं, अगर कोई समझे तो।

अब रोल बदल गये थे, अब चाचा मुझसे पूछ रहे थे कि हँस क्यों रहे हो? साहब भी हँस रहे थे, कुछ गलत लिखा है क्या?”

मैं क्या बताता, बता ही नहीं पा रहा था। हँसी रुके तो कुछ बोलता। बॉस द्वारा अंडरलाईन की गई लाईन चाचा को पढ़ा दी, आप भी पढ़ लीजिये -

“प्रार्थी के नीचे दो फ़ोड़े निकल आये थे, जिस कारण प्रार्थी दो दिन ऑफ़िस नहीं आ सका।”

आपको आये न आये लेकिन उस समय मेरा हँस हँसकर बुरा हाल था। चाचा पहले तो शर्मिंदा से हुये फ़िर मुझपर ही नाराज होने लगे, “तुमने ही तो कहा था कि सच सच लिख दूँ अर्जी में।”

“सच कहता  है चाचा, कसूर तो मेरा ही था, है और रहेगा।”

वो अर्जी फ़ाड़कर दोबारा लिखवाई, साहब से स्वीकृत करवाकर लाया। उस दिन के बाद साहब ने और मैंने हमेशा ओम प्रकाश जी को प्रार्थी कहकर बुलाया, ऑफ़िस वाले इस बात को कभी समझ ही नहीं सके।
इतने सालों के बाद ये बात अब जाकर क्यों याद आई? पिछले ढाई महीने से दोपहर में खाना खाने रूम पर आता हूँ। तीन चार दिन से मोटर साईकिल पर बैठते ही जान निकल जाती है। इस प्रार्थी के नीचे कोई फ़ोड़ा-वोड़ा नहीं निकला है,  धूप में खड़ी मोटर साईकिल इतनी गर्म हो चुकी होती है कि ये हालत हो जाती है। अब ध्यान आ रहा है कि  जसवंत,  हमारे ऑफ़िस में काम करने वाला सफ़ाई कर्मचारी  रोज बिना नागा  बारह-साढे बारह बजे मेरी  सीट पर आता था, “साब, चाबी।” जब उसने पहली बार चाबी माँगी तो मैंने सोचा था कि इसे कहीं जाना होगा, फ़िर धीरे धीरे बात इतनी साधारण हो गई कि इस पर गौर ही नहीं जाता था। सूरज महाराज के स्थिति बदलने के अनुसार वो मोटर साईकिल सड़क के उस पार से इस पार लाकर खड़ी कर देता था, हमें पता ही नहीं चलता था कि उसके ये करने से हमें कितना सुख मिल रहा है।   आजकल वो नहीं है तो प्रार्थी को पता चल रहा है कि कैसे होती है शेर की सवारी:)

 जसवंत जैसे  और कितने ही हमसे जूनियर हैं  जो हमारा ध्यान रखते हैं,  मदद करते हैं।  हमारे सुख-दुख में  साथ   रहते हैं,जरूरत पड़ने पर   हमें काम भी  सिखाते  हैं।  जब पुरानी ब्रांच में था और  ऑफ़िस से घर के लिये निकलने लगता था तो अपना भोला रोज कहता था, “अच्छा, ध्यान से जाईयो घर।” मैं हंसता था, “पागल, मैं मोर्चे पर जा रहा हूँ क्या?”  वो फ़िर भी रोज ऐसा ही कहता। कल भी फ़ोन आया था उसका, “कब आना है वापिस? हरिद्वार नहीं चलना?” कोई जवाब नहीं सूझता, टरका देता हूँ उसे भी:)

किस किस का नाम लें, कितने ही हैं जो छोटे छोटे कामों से, छोटी-छोटी बातों से  हमें अपने से बड़ा बनाते हैं।  कहाँ किसी का आभार व्यक्त किया? जो ये करते रहे, उसे उनकी ड्यूटी मानकर    taken for granted लेना अपनी  आदत भी बन गई है और फ़ैशन भी।  यूँ भी ये जसवंत, भोला, नत्थू , ओम प्रकाश जैसे आकर मेरी कमेंट संख्या थोड़े ही बढ़ा देने वाले हैं।    खैर, आभार तो हमने ऊपर वाले का नहीं माना तो ये क्या चीजें हैं? जब उससे  नमकहरामी कर सकते हैं तो जसवंत, भोला और दूसरे क्या मायना रखते हैं?  अपना नाम ’मो सम कौन कुटिल… ऐवें ही थोड़े है:)     चार छह कदरदान द्रवित होकर वाह-वाह कर जायेंगे, कुछ छेड़ जायेंगे, हो गया  अपना टार्गेट पूरा। हींग लगी न फ़िटकरी, हो गई हिन्दी की सेवा:)

और कल्लो बात..... अब तो हमसे ही सवाल भी किये जाने लगे हैं।  भैय्ये हाथ जुड़वा लो, बड़े वाले सवाल मत पूछो अपने से। अभी न अपने पास  बीवी है, न टीवी।   जब होंगे तब पूछ लेना, तब का बहाना तब सही:) इससे तो बेहतर है कि मैं ही सवाल पूछ लिया करूँ। ये रहा आज का होमवर्क -

’प्रार्थी को कितने दिन का अवकाश लेना चाहिये था कि साहब को गुस्सा न आता?’

संकेत: १. ’मेरे हाथों मे नौ-नौ चूडि़याँ हैं…मेरे पीछे पड़े हैं आठ-दस लड़के’

ऐसे पूछते हैं सवाल:)

अब चूड़ियों की बात आ ही गई है तो लगें हाथों……..


मंगलवार, जून 21, 2011

संतरे के बीज...


आज अपनी  एक पुरानी पोस्ट देखी,  सोच रहा था कि क्या समय था वो भी, कैसी कैसी बातें होती थीं और हम थे कि मजे चुरा ही लेते थे। एक बार तो सोचा कि उसे ही धो-पोंछकर लगा देते हैं फ़िर से, लेकिन इरादा बदल दिया। आज सुनाते हैं आपको एक और किस्सा  - जवानी का एक अन-रोमांटिक किस्सा:)

वो कॉलेज में हमारे साथ पढ़ता था। बहुत कम बोलने वाला, और जब बोलता भी तो इतने नपे तुले और सॉफ़्ट तरीके से कि  ऐसा लगता था मुँह से फ़ूल झड़ रहे हों। मेरे ग्रुप के दो लड़कों का स्कूल टाईम का साथी था, यकीनन वो उसके बारे में मुझसे ज्यादा जानते थे। उन्होंने  इतना बता रखा था कि बंदा है बहुत ऑब्जर्वर टाईप का। हर चीज को हर उपलब्ध एंगल से जाँचकर कुछ फ़ैसला लेता है।

खैर, यूँ ही वक्त गुजर रहा था कि एक दिन वो मेरे घर आया। अपने को शुरू से ही पढ़ाई करने के लिये एक कमरा छत पर अलग मिला हुआ था,  खाने के लिये फ़्रूट वगैरह लेकर बड़ी श्रद्धा से हाथ-मुँह धोकर हम उसमें प्रवेश किया करते थे। बिना  तैयारी के हम कुछ नहीं करते थे,  घर भर में ढिंढोरा पिट जाता था कि पढ़ाई करने जा रहे हैं और यही हमारा मुख्य उद्देश्य होता था। रेडियो सुनो, टेप रिकार्डर सुनो, डायरी लिखो, कुछ प्लानिंग करो – कोई डिस्टर्ब नहीं करने आता था। तो हमारा मित्र आया और बैठ गया। थोड़ी बहुत बात चीत करते रहे और संतरे खाते रहे।

कुछ देर बाद वो कहने लगा, “यार, एक बात बता। मैं देख रहा हूँ कि जबसे हम संतरे खा रहे हैं, तूने इनके बीज बाहर नहीं फ़ेंके?” 

बताया न कि बहुत तगड़ा ऑबजर्वर था, पकड़ ली मेरी आदत। जब से कहानी पढ़ी थी   ’seventeen oranges’ मैं भी ट्राई करता रहता था कि कभी वैसी  नौबत आने पर मैं कैसे रियैक्ट करूँगा।  अब आदत पड़ गई थी और उससे   कैसे कहता कि कसैली चीजें और उनके साथ खेलना मुझे अच्छा लगता है? ये आदत तो अब मेरी बन ही चुकी थी  कि मैं संतरे के बीज बहुत देर तक मुँह में रखता था, चुभलाता रहता था। अपनी कमी को छुपाने के लिये वही फ़ार्मूला अपनाया जो यहाँ भी चलता है, सामने वाले पर फ़ायरिंग चालू कर दो:)
मैंने उससे हैरान होकर पूछा, “तू फ़ेंक देता है?”
“और क्या करूँगा?”
“अबे, तेरे घर में कोई रोकता टोकता नहीं?”
“क्यों रोकेंगे भाई?”
“कैसे आदमी हो यार तुम?

संतरे की बीजों के चिकित्सीय गुणों पर एक अच्छा सा भाषण पिलाया, जिसमें जातिवाद\प्रांतवाद जैसे मुद्दे भी मिक्स कर दिये। दस मिनट के भाषण के बाद उसको समझ आ गई कि उसके परिवार के सदस्यों के रंग दबे होने के पीछे, कद-सेहत आदि हमारे मुकाबले उन्नीस होने की एक ही वजह है कि उन्हें संतरे के बीजों के गुण नहीं मालूम और वो मलयगिरी के भीलों की तरह चंदन का मूल्य न समझने वाला काम कर रहे हैं। उसे बताया कि सीज़न न रहने पर हम तो पंसारी के यहाँ से संतरे के बीज  खरीद कर भी लाते हैं। इफ़ैक्ट लाने के लिये खरबूजे के मगज़, तरबूज के मगज़  की याद दिलाई और वो मान भी गया कि ये सब तो वो भी खरीद कर लाते रहे हैं।

अगले दिन कॉलेज में उसके पहुँचने से पहले मैंने अपने दोस्तों को वैसे ही ये बात बता दी। उसके पुराने सहपाठी कहने लगे, वो तेरी बातों पर यकीन ही नहीं करेगा। वो आया, और थोड़ी देर बाद अतुल को लेकर साईड में चला गया। लौटा तो अतुल ने आँख मारी, ’देखा, कन्फ़र्म कर रहा था।’ एक एक करके  जितने पंजाबी पुत्तर थे, उसने सबसे पूछा और सबने अपने अपने तरीके से उल्टे उसे ही धमकाया, "कैसी बेहूदा बात पूछ रहा है, तुझे ये भी नहीं मालूम?"

उस दोपहर मैं तो जरूरी काम होने के कारण घर को खिसक लिया, बाकी मुस्टंडे उसे लेकर बाजार गये। पांच-छह पंसारियों के पास जाकर उसे आगे कर देते थे, “ढाई सौ ग्राम संतरे के बीज देना।” अगले दिन बता रहे थे कि जिस नजर से दुकानदार देख रहे थे, बस कल्पना ही कर सकते हैं।

बाद में जब कभी  इस बात का जिक्र छिड़ता तो भी  वो हौले से मुस्कुरा देता था। दो तीन कंपीटिशन के एग्ज़ाम देने हम साथ साथ गये थे, मैं पास हो जाता था और वो रह जाता था। मुझे सच में तकलीफ़ होती थी, उसने भूले से भी कभी इस बात का  अफ़सोस नहीं जताया जबकि उसे नौकरी की मुझसे ज्यादा जरूरत थी और वो ज्यादा तैयारी भी करता था।  अपनी तरफ़ से उसकी मदद भी की, लेकिन सरकारी नौकरी नहीं मिलनी थी तो नहीं ही मिली। 

अतुल, जिसका जिक्र ऊपर किया वो प्राईवेट जॉब में ही था लेकिन जगह उसकी प्रभावशाली थी। उसके पीछे पड़ा रहा मैं भी और वो खुद भी इसका कुछ करना चाहता था,अतुल ने उसे  एक फ़ाईव-स्टार होटल में एकाऊंट्स के काम के लिये लगवा दिया था। उसके घर उसे बताने गये थे हम दोनों, कहकर उसकी बहन से चाय बनवाई और बाहर जाकर उससे पैसे निकलवाकर देवानंद बने, वो तो एकदम सूफ़ी था – सच में बहुत खुश थे हम दोनों उस दिन और वो  वैसा ही, मंद मंद मुस्कुराता हुआ। दो तीन दिन रोज उसके ऑफ़िस के हाल पूछने उसके घर जाते थे कि कोई दिक्कत तो नहीं है? बताता था, "कुछ काम तो है नहीं, घंटा भर ऑफ़िस में बैठना होता है फ़िर निकल जाता हूँ कभी स्विमिंग पूल की तरफ़ और कभी किसी और तरफ़।"  और हम हँसते थे कि अच्छे से ऑब्जर्व करने का, आँखें सेंकने का  मौका मिला है तुझे।    हफ़्ते भर बाद पता चला कि उसने नौकरी छोड़ दी है। सिर पीट कर रह गया अतुल भी, "कोई दिक्कत थी तो बताता तो सही?"
और वो वैसे ही  हौले से बोला, “क्या बताता? ऐसी कोई दिक्कत थी ही नहीं, मन घुटा घूटा सा रहता था वहाँ, अनकम्फ़र्टेबल सा लगता था।”  ठीक है भाई, रह ले अपने कम्फ़र्ट एरिया में।

कुछ साल पहले ट्रेन में मिला मुझे, कहीं प्राईवेट जॉब ही कर रहा है। पिछली बातें छेड़ीं तो अपने अंदाज में मुस्कुराता रहा, बिल्कुल नहीं बदला है। उसी नौकरी में खुश है, इतना तो अब मैं भी जान ही चुका हूँ कि असली सुख पैसे, नौकरी,पद,  सत्ता में नहीं है। जो सरल है, सहज है  वही प्रसन्न भी रह सकता है।  मैंने संतरे वाली  बात के लिये सॉरी बोली, तो वो हँसने लगा कि ये तो साधारण सी बात थी बल्कि और बातों के लिये मुझे धन्यवाद कहने लगा।      कह रहा था कि अपने बीबी बच्चों को भी बता चुका है ये किस्सा, उसके घर जाऊँगा कभी तो उसकी बीबी  पहचान लेगी मुझे।  

“अबे जा,   मुझे पहले मैं तो पहचान जाऊँ। आता हूँ किसी दिन”….. :) मेरा सारा  अपराध बोध खत्म हो गया था। सुख दुख मन की अवस्थायें ही हैं, वही चीज कभी सुख देने  लगती है तो कभी दुख।

ठीक कह रहा हूँ, मान लो। इत्ता उपदेश तो झेलना ही पड़ेगा:)

बुधवार, जून 15, 2011

आधे अधूरे......


उस दिन ऑफ़िस में कनैक्टिविटी नहीं थी और काम बीच में फ़ँसा हुआ था। मैं और बॉस, हम दोनों ही ऑफ़िस में रुके थे और बाकी स्टाफ़ चला गया था।  कहते हैं कि पिछले कई साल में एक बार अमेरिका में बिजली गई थी, और बहुत से लोग ऐसे थे जिन्हें तब जाकर याद आया कि आसमान की तरफ़ देखे हुये उन्हें एक जमाना गुजर चुका था। जरूरत ही नहीं पड़ती थी।  हम भी तो उन्हीं नक्शे कदम पर हैं। यातायत और संचार के साधन इतने तेज हो चुके हैं और हमें अपनों से यूँ ही कुछ  बात करने का मौका नहीं मिलता। और खुद अपने से बात करने की तो फ़ुर्सत ही किसे है?

वो दिन शायद ऐसा ही था जब खुद अपने से बात होनी थी।    एकदम से बॉस कहने लगे, “संजय जी, एक बात बताओ, क्या इस दुनिया में कोई पूरा है, कम्पलीट?” 

अचानक ये सवाल सुनकर मैं भी हैरान रह गया। मेरे अपने ही सवालों का हल नहीं ढूँढ पाता और ये साहब मुझसे ही पूछ रहे हैं। उन्होंने फ़िर से अपना सवाल दोहराया। मैंने अब उनसे ही पूछा, “सरजी,  किसी की मृत्यु होनेपर पंजाबी में क्या कहते हैं?”

उन्होंने बताया, “फ़लाँ पूरा हो गया है, ऐसा बोलते हैं।”   

“सरजी, मेरे हिसाब से तो इसीमें आपके सवाल का जवाब है। हम सब अधूरे हैं, एकदम अधूरे और अपने अधूरेपन में ही मस्त हैं। गाफ़िल हैं इस सच्चाई से कि इस दुनिया में संपूर्ण कोई नहीं। कूछ हैं, जिन्हें इस बात का अंदाजा है और वो अपने  अधूरेपन की लहर को किसी समंदर में मिलाने की कोशिश भी करते हैं। और उनमें से भी विरले हैं, जो ये कर पाते हैं और अपनी कोशिश में कामयाब होते हैं।”   

बॉस कहने लगे, “तो इसका मतलब ये हुआ कि इस दुनिया में कोई तो होंगे ही ऐसे जो संपूर्णता को प्राप्त हुये?”

मैंने कहा, “मैं शायद अच्छे से बात स्पष्ट कर नहीं पाया, सरजी, जो संपूर्ण हो गया फ़िर वो इस दुनिया से ही गया। पंजाबी में कहते हैं न, फ़लाँ पूरा हो गया।”

सरजी हमारे पता नहीं सच में पूछ रहे थे कि आपकी तरह मजे ले रहे थे लेकिन अपने को सोचने को मुद्दा दे गये। कई  बार कहा करते हैं, “त्वाडी हिम्मत है यार, अकेले रहते हो। मैं तो सच में इसीलिये गाँव में रहने से डर गया था कि  तुम्हारा ट्रांसफ़र हो गया तो अकेला रह जाऊँगा। टाईम कैसे बीतेगा, ये सोचकर भी डर जाता हूँ।” 

मैं सोचता हूँ कि आदमी अकेलेपन से क्यों डरता है? क्यों अकेलेपन से तारतम्य बैठाना इतना मुश्किल लगता है? मेरी संवेदनायें शायद काम करना बंद कर रही हैं, मुझे क्यों भीड़भाड़ से दिक्कत और अकेलेपन में सहज लगता है?   आधा अधूरा रहना ही अपनी नियति है, ऊपर से ये गाना क्या सुन लिया, समय का मालूम ही नहीं चलता  कि कैसे बीत गया। गाने के बोलों से इत्तेफ़ाक न रखते हुये भी एक मासूम दिल के सवाल कोंचते तो हैं। कभी दुख भी होता है और कभी हँसी भी आती है जब पूछा जाता है कि ’की खट्टया(कमाया) मैं तेरी हीर बनके।’   कमाने के लिये प्यार किया था?   पागल न हो तो ….  आधे अधूरे ही रह लो जब तक इस दुनिया में रहना है,  पूरे हो गये तो हो जाना है हैप्पी बड्डे:)

शुक्रवार, जून 10, 2011

Banks of Bharat(Bharat that is India) क्षोभास्य:)


बैंकों का मुख्य काम(कागजों में)  जनता का पैसा जमा के रूप में स्वीकार करना और उसी पैसे को वैध तरीके से अर्थव्यवस्था के विकास के लिये ऋण के रूप में वितरित करना होता है। ये अलग बात है कि कहीं कहीं कुछ समझदार लोग  ’बिट्वीन द लाईंस’ का मतलब समझकर  फ़ॉड, गबन आदि वीरोचित  कार्य भी कर दिखाते हैं।   पिछले कुछ सालों में महाराष्ट्र(अकेला प्रदेश नहीं है, लेकिन अग्रणी है)  में सहकारी संस्थाओं\बैंकों के जरिये ऐसे सफ़ल प्रयोग हुये हैं और जिस प्रकार हर सफ़ल पुरुष के पीछे कम से कम एक स्त्री का होना बताया जाता है, उसी प्रकार प्राय: इन धोखाधड़ियों के पीछे कम से कम एक कैबिनेट मंत्री या ऐसे ही किसी प्रभावशाली का होना बताया जाता है। 

सरकार अपनी तरफ़ से हर कोशिश करती है कि जी.डी.पी. बढ़ती रहे, अर्थव्यवस्था सुचारू रूप से चलती रहे और इसके लिये बैंकों का इस्तेमाल एक औजार के रूप में किया जाता है। जब सही लगा था, तब राष्ट्रीयकरण किया  गया और जब सही लगा तो निजीकरण किया जा रहा है। सरल शब्दों में सरकार\सत्ता जो भी करती है, उसे सही मान लेना चाहिये इससे  दिन का चैन और रातों की नींद नहीं उड़ती है। यूँ भी हम लोग सरकार के गुलाम हैं, बैंगन के नहीं।(अकबर-बीरबल से साभार)

इसके अतिरिक्त भी सरकार  आवश्यकतानुसार(चुनाव के समय को ध्यान में रखकर)  कर्जमाफ़ी, ब्याज सब्सिडी वगैरह के माध्यम से जनता को राहत पहुँचाती रहती है और    जनता का सद्चरित्र रहना   सुनिश्चित करती है।(वोट डलने तक)

हमें चाहिये कि सरकार के प्रयासों को सही परिपेक्ष्य में लें और  ख्वामख्वाह की चिल्ल-पौं न मचायें। अगर किसी ने मचाई तो हमारा तो कुछ नहीं जायेगा लेकिन  उसपर कट्टरवादी, तमाशेबाज, मजमेबाज, ठग, धोखेबाज आदि होने का आरोप न सिर्फ़ मढ़ा जायेगा बल्कि साबित भी कर दिया जायेगा। और यदि कहीं चिल्ल्पौं(er)  भगवा या मिलते जुलते रंग के कपड़ों से सुसज्जित पाया गया तो उसे भगवा आतंकवादी भी मान लिया जायेगा, फ़िर न कहना कि चेताया नहीं।


DISCLAIMERS:
1.    बैंक में नौकरी करता हूँ, सो बैंक के बारे में लिखा है। सीधे सीधे बोलो तो पायजामे में रहने की कोशिश की है। आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि (हर) किसी को मिर्चें नहीं लगेंगी।
2.     भारत का रहने वाला हूँ, इसलिये सिर्फ़ भारतीय बैंकों की बात की है। इसका(और मेरा भी) स्विस बैंकों, कालाधन आदि आदि से कुछ लेना देना नहीं है।
3.     इस लेख की और लेखक(मेरी)  की विश्वसनीयता बिल्कुल भी असंदिग्ध नहीं है, क्योंकि अर्थव्यवस्था में अपना योगदान तीस तारीख से पहले थैला भरकर तनख्वाह लेने और साल छह महीने में एकाध हड़ताल करने तक सीमित है।