बुधवार, अप्रैल 25, 2012

कीमत चुकता....

मैंने सीताफल बाईक की डिक्की में रखा और उसे बीस का नोट दिया। उसने नोट को अपनी जेब में डाला और उसके बाद उसी हाथ से  दूसरी तरफ की जेब में से एक का सिक्का निकालने की कोशिश करने लगा। दूसरा हाथ कोहनी के  ऊपर से ही कटा हुआ था। उसका  हाथ को घुमाकर दूरी तरफ ले जाना, फिर जेब से सिक्के को खोजना, वो कुछ पल भी मुझे बहुत भारी लग रहे थे । पता नहीं, तब  मुझे अपना वक्त बहुत कीमती लगता था या फिर एक रुपया छोड़ देने से खुद को हातिमताई की श्रेणी में लाने का मौका नहीं चूकना चाह रहा था, मैंने बाईक को किक्क लगाई और उसे कहा, "रहने दे यार, नहीं है तो कोई बात नहीं।"  देखा है फिल्मों में हीरो  को ऑटो वाले से  कहते हुए, 'कीप द चेंज'  तो एक रुपये में हीरोगिरी सस्ती ही लगी होगी:)   बाईक स्टार्ट होते न होते वो अपनी ठेली का चक्कर लगाकर दौड़ता हुआ मेरे सामने आ खड़ा हुआ और अपनी कटी हुई बाजू मेरी आँखों के सामने लहरा कर कहने लगा, "न बाऊजी, पिछले पता नहीं कौन से जनम के किस पाप की कीमत पहले ही चुका रहा हूँ, अब और नहीं।"  मेरी बाईक बंद हो गयी, एक रुपया वापिस लिया उससे और उसके बाद मैं जब तक उस शहर में रहा, सब्जी खरीदने जाने पर अपना पहला पड़ाव वही ठेली होती थी।

ये किस्सा तो अभी दो तीन साल ही पुराना है, और पीछे चलेंगे?  बैंक ज्वाइन ही किया था, चार दोस्त एक मकान में और एक अन्य दोस्त, जिसे हम राजा कहकर बुलाते थे, ने उसी गली में किसी दुसरे मकान में कमरा किराए पर लिया था। साथ नहीं रहा क्योंकि  उसकी  एलएलबी की परीक्षा होनी थी और साफ़ कहता था,          "तुम्हारे साथ रहने में मजा तो बहुत आएगा लेकिन इस मजे के लिए एलएलबी की कीमत बहुत ज्यादा है, रिस्क नहीं लेना।"

चार पांच महीने हो गए थे ऐसे ही  रहते रहते और जब शाम को घर लौटते तो उसकी जिद होती थी कि पहले मेरे रूम में चलो। प्रलोभन देता था कि जाते ही मकान   मालिक के बच्चे फ्रिज से बर्फ  निकालकर ले आते हैं और ठंडा पानी पीने को मिल जाता है जबकि हम लोगों के डेरे पर बहुत हद हुयी तो मटके का पानी और कभी कभी वो भी नहीं मिलता था। खैर, हम तो ठहरे 'शीततापे समेकृत्वा .....' वाले लेकिन बहुमत का सम्मान करना  ही पड़ता था। जाते ही वही  सब होता जो राजा बताता  था और उस समय उसके चेहरे पर सच में राजसी चमक आ जाती थी। 
इस कथा के साथ एक और कथा चल रही थी,  राजा रोज जब शाम का खाना बनाता था तो मकान मालिक के तीनों बच्चे एक एक करके    उसकी पाक कला की प्रैक्टिकल समीक्षा   करने के लिए आ जाते थे। शुरू में कुछ दिन  तो राजा को अच्छा लगा, तारीफ़ सुननी अच्छी लगती  ही है,  लेकिन जब ये रोज का रूटीन बन गया और खुद उसके लिए सब्जी का टोटा पड़ने लगा तो एक दिन हमारे सामने ही उसने उन बच्चों को डांट दिया कि मैं अकेला आदमी अपने लिए खाना बनाता हूँ और तुम लोगों के चक्कर में मेरे खुद के लिए सब्जी नहीं बचती है तो अमर, अकबर एंथोनी में से शायद दूसरे नंबर वाला था वो भड़क गया और कमर पर हाथ रखकर बोला, "और जो रोज हम बरफ ला कर देते हैं, बाजार से लानी पड़े तो उसकी कीमत कम से कम रोज की दो रूपया तो होगी ही, उसका क्या?" राजा बच्चे की बात सुनकर खिसियाया या गुस्साया लेकिन हमने ये राज पाया कि 'कीमत हर शै की चुकानी पड़ती है।'

अमीर को अपनी अमीरी की,  मशहूर को मशहूरी की, जिम्मेदार को अपनी जिम्मेदारी की, भले को अपनी भलाई की, गरज ये कि  सबको अपने विशिष्ट  होने की कीमत चुकानी ही पड़ती है। कोई इसे टैक्स के रूप में चुकाए या रंगदारी के रूप में,  हंसकर चुकाए या रोकर चुकाए, इससे छुटकारा नहीं है। सच बोलने वाले को भी इसकी कीमत चुकानी पड़ती है, प्रेम करने वालों को भी इसकी कीमत चुकानी पड़ती है, सोये हुओं को जगाने वाले भी इसकी कीमत चुकाते हैं और भूल से नकटों के गाँव में कोई नाक वाला आ जाए तो उसे भी अपनी नाक कटवा कर कीमत चुकानी पड़ती है।  अच्छी बात ये है कि कीमत चुकाने के बाद  खुद को बहुत हल्का महसूस होता होगा,  ऐसा मेरा अनुमान है।

कीमत की बात करेंगे तो इतिहास उठाकर देख लीजिये, सिर्फ जबान की कीमत चुकाने में कई साम्राज्य मिट्टी में मिल गए  लेकिन कीर्ति अमिट कर  गए  और ऐसे भी उदाहरण मिलेंगे कि वफ़ा की  कीमत वसूलने के चक्कर में पुरखों की यशोगाथा मिट्टी में मिला दी| किसी ने जहर का प्याला पी लिया तो कोई सलीब पर चढ़ गया| कोई जलती चिताओं पर बैठ गए और किसी ने  सर कलम करवाना मंजूर किया लेकिन    अपनी जिम्मेदारी की कीमत चुकाई|   

ऐसा भी  नहीं है कि कीमत सिर्फ मशहूर, जिम्मेदार और भलों को ही चुकानी पड़ती है, इससे कोई नहीं बच सकता।  ये प्रकृति का नियम है,  और प्रकृति के नियम समझ आते हो या नहीं  लेकिन लागू सब पर होते हैं, चाहे कोई किसी धर्म का हो या  किसी जाति का, किसी भी लिंग का हो या किसी भी वर्ग का हो, अपने किये की कीमत सबको चुकानी ही पड़ेगी|  इसका ये मतलब नहीं कि कुछ किया ही न जाए, हो सके तो अच्छा किया जाए और बिना अपेक्षा के किया जाए|  फिर जो लिखा है, सो तो होना ही hai

बहुत दिन हो गए कोई होमवर्क नहीं दिया हमने, आज पूछते हैं एक  आसान सा सवाल - लोहे को भी सोना कर देने वाले पारस को पदार्थ के मूल स्वभाव  के साथ छेड़छाड़ करने की कीमत  चुकानी पड़ती होगी क्या? 
विकल्प एक - हाँ.  
विकल्प दो   -  नहीं.

आज हम छुट्टी पर  थे, छुट्टी की कीमत चुका दी|  लिख मारा ये हितोपदेश, ब्लोगोपदेश वगैरह वगैरह| अब आप सब सुधीजन सोचिए कि इस आलेख की कीमत कैसे चुकायेंगे, हम क्या अपने मुंह से कहेंगे कि सहमति, असहमति, घोर असहमति, घनघोर असहमति  जरूर करना?   समझते नहीं हैं  यार !!!

:) फत्तू  ड्रग कंपनी में एरिया मैनेजर बन गया। एक नया मेडिकल प्रतिनिधि रखा जो दूसरे दिन ही पीं बोल गया। आकर रोना रोने लगा कि दुकानदार बेइज्जती   कर देते हैं। फत्तू ने उसे दिलासा देना शुरू किया, "देख दोस्त, मैंने भी शुरुआत तेरे वाली पोस्ट से की थी और  दिक्कत बहुत आई थी मुझे भी। मैं मार्केटिंग के लिए जाता था, लोगों ने मुझे धक्के देकर दूकान से निकाल दिया, गालियाँ दी, मेरा बैग उठाकर बाहर फेंक दिया, लेकिन धंधे की कसम 'बेइज्जती' किसी ने नहीं की।
बेइज्जतीप्रूफ होना बहुत बड़ी नेमत है।
               
आज गाना दिखाते हैं आपको सिंपल सा,
                                                 

मंगलवार, अप्रैल 17, 2012

A syndrome that is called .....(ladies, excuse me please this time) बवाल-ए-बाल


A syndrome that is called ...............................................(ladies, excuse me please this time)
This post contains details about a syndrome that is called 'standing hair syndrome' or 'straight hair syndrome.'   It is quite a common syndrome found almost in every human, but in some cases its intensity is very high and we have confined our study to such cases only. This type of syndrome urges the holder to do one trick or another with a sole intention of trembling the existence of others at any cost. Though this study is at a primary stage uptill now,  but it has capability to gain attention at a higher level in coming future. For further details, please refer to mskpedia(under publication) at some later stage.  In the meantime, this post can be a help.


मास्टरजी ने पूछा, "मिट्टी कितने प्रकार की होती है?" 
सब ने किताबों में पढ़ी बातें दोहराईं काली मिट्टी, पीली मिट्टी, लाल मिट्टी, दोमट मिट्टी वगैरह वगैरह।
फ़त्तू सूनी आँखों से सब देख रहा था। मास्टरजी ने उसे खड़ा किया और ललकारा, "ओ खागड़, सारे ज्ञान बघार रये सैं, तू भी किम्मै बक दे। 
फ़त्तू नरम सी आवाज में बोल्या, "मास्टरजी, यो सब बताण लग रये सैं घोट्या ज्ञान, मैं मेरे तजुरबे से बताऊँ सूँ कि माटी तीन तरह की होई सै इब तक  - खराब माटी, बीरान माटी और रेहरेह माटी।"
सुनकर मास्टरजी ने फ़त्तू की बैकग्राऊंड पे कई लात लगाईं और चौथी प्रकार की माटी ’पलीद माटी’ से भी उसका परिचय करवा दिया।

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बालक के बाल बहुत बड़े हो रहे थे और कटिंग कराते समय गर्दन बहुत हिलाता था| जब कहो कि डर मत तो जवाब मिलता कि डरता नहीं हूँ, गुदगुदी होती है।  छुट्टी के एक दिन उसे लेकर सैलून पर गया और हज्जाम को इशारा कर दिया कि बाल छोटे छोटे कर दे। हिलन डुलन तो पहले की तरह हुई लेकिन दिमाग में एक बात का सुकून था कि अगली बार कुछ ज्यादा दिन के बाद सैलून लाना होगा। घर लौटे तो मालूम चला कि तीन दिन के बाद ही रिश्तेदारी में एक फ़ंक्शन है और सपरिवार जाना जरूरी है। बाकी सब दिक्कतों के अलावा एक दिक्कत उसके खड़े बालों को लेकर भी आई तो टीवी में देखा एक विज्ञापन याद आया और हेयर जैल लाकर खड़े बालों की समस्या का इलाज किया गया। MTV   या fashion TV पर कभी नजर जाती तो अब ध्यान जाता कि इसी जैल का इस्तेमाल करके नई पीढ़ी बाल खड़े भी कर लेती है। अब हमारा दिमाग ठहरा खाली और खाली दिमाग को बताया गया है ’शैतान का घर’ तो इसी सब्जैक्ट पर पुरानी कोई बात और कोई बंदा याद आ गया, झेलो अब।

यूँ तो हर नई कक्षा में पहुँचते पहुँचते हम कई रेज़ोल्यूशन लेते थे (जैसे नये नये विधायक, सांसद गोपनीयता, पद और पता नहीं काहे काहे की शपथ लेते हैं) और जल्दी ही हर रेज़ोल्यूशन को अगले साल के लिये मुल्तवी कर देते थे लेकिन इस बार बात कुछ अलग ही थी। दसवीं के बाद स्कूल वालों ने बढ़िया सा कैरेक्टर सर्टिफ़िकेट इशू करके हमें बिना डोली के नये घर की ओर रवाना कर दिया था, तो इस बार सुधार के इरादे थोड़े पक्की टाईप के थे। नया स्कूल, सब नये चेहरे और नया एडमिशन सिर्फ़ एक - ये खाकसार। पहले दिन खूब रैगिंग हुई और हमने भी जमकर मजा दिया + लिया। धीरे धीरे अपन भी रम गये उन्हीं अनजान चेहरों में जो अब जाने पहचाने लगने लगे थे। क्लास में हंगामे होते ही रहते थे और गौर किया तो हर हंगामे में एक कॉमन फ़ैक्टर होता था जिसे सब ’खबा’ कहकर बुलाते थे। ’खबा’ अजीब सा नाम था, कुछ दिन के बाद इस बारे में दरियाफ़्त की तो बताया गया कि खबा बोले तो ’खड़ा बाल।’

आपको यकीन नहीं होगा लेकिन यह उपाधि सुन तो रखी थी लेकिन इसका मतलब नहीं मालूम था। जब साथियों से पूछा तो सब बहुत हँसे लेकिन किसी ने बताया नहीं। यही कहा कि कुछ दिन इस बंदे के कारनामे देखता रह, समझ आ जायेगा। अब करते हैं ’खबा’ की बात। भावहीन, सपाट चेहरा, और बोलता भी बहुत कम था। ये अलग बात है कि क्लास में रोज कम से कम दो छात्रों की डांट फ़टकार होती, पहला कोई भी हो सकता था लेकिन दूसरा हमेशा ’खबा’ ही होता था। टीचर पढ़ा रहे होते और वो चुपचाप बैंच के नीचे झुककर किसी के जूतों के तस्मे आपस में बाँध देता, किसी की कुर्सी खींच लेता। किसी की कोई किताब किसी दूसरे के बैग में पहुँच जाती, कोई सवाल जवाब के लिये सीट से उठता तो बैठने से पहले उसकी सीट पर पेन, कंपास या कोई संतरा, अंगूर जैसी रस छोड़ने वाली चीज रख देता। कितना ही सावधान रह लिया जाये, वो कमजोर कड़ी ढूँढ ही लेता। और फ़िर रोज वही ड्रामा, टीचर के सामने डांट फ़टकार और बाद में मुक्का लात, अगले दिन से या कहिये कई बार अगले पीरियड से ही फ़िर वो किसी कर्मयोगी की तरह अपने काम में मनोयोग से जुट जाता।

एक क्लास में थे तो कई बार एक ही बस में सवार भी होना पड़ता। अपना ध्यान इसी बात में लगा रहता कि वो क्या करेगा और उसने हमारा अंदाजा कभी गलत होने भी नहीं दिया। सवारियों में ही किसी का रुमाल निकालकर जूते साफ़ करके उसे लौटा देता तो कभी और भी हाई(लो) क्लास की हरकत। एक बार हम लोगों ने उसे प्रस्ताव दिया कि तू एक दिन क्लास में किसी स्टुडेंट से शरारत न कर, छुट्टी के बाद आज हमारी तरफ़ से कचौड़ी की दावत तो कुछ नहीं बोला। हाँ, एकाऊंट्स के मास्साब जब बोर्ड पर कुछ लिख रहे थे तो चॉक के तीन टुकड़े दनादन उनके सिर पर जाकर ऐसे लगे जैसे अमेरीका द्रोन हमले करता है। मास्साब भी पुराने थे, और किसी से पूछा ही नहीं, सीधे उसे क्लास से बाहर का आर्डर दिया। खड़ा होकर बोला, "मैंने मारा तो मेरी तो सजा बनती ही है लेकिन जिसने शर्त लगाकर उकसाया था, उसे भी बाहर कीजिये।" नतीजतन दोनों जनों को बाहर जाकर कचौड़ी पर विमर्श करना पड़ा कि कचौड़ी पर हक बनता है कि नहीं। उसका कथन था कि किसी स्टूडेंट को तो कुछ नहीं कहा, मतलब साफ़ था कि ’अ’ को कुछ कहने से समझाया\सुझाया जायेगा तो वो ’ब’ को निशाना बनायेगा। छह महीने के अंदर अंदर मुझे ’खबा’ के ’खबा’ होने का और इस एब्रिवियेशन का मतलब समझ आ गया।

इतना जरूर हुआ कि जिससे परेशान होकर कभी लोग पूछते थे कि ’खबा’ है क्या?’ हमारे सौजन्य से  अब उसे यूँ कहा जाने लगा कि इनसे मिलिये, ये इस स्कूल के ’खबा’ हैं:)

एक बार कहने लगा कि उसके पडौस में एक हास्य कवि सम्मेलन है, सबको चलना होगा। गर्मियों का समय था, प्रोग्राम बन गया। रात का कार्यक्रम था, पहुँच गई हमारी टोली। आयोजन स्थल एक मंडी में था और फ़्री का तमाशा देखना यूँ भी हम हिन्दुस्तानियों का पुराना शगल है तो बहुत से रिक्शा ठेली वाले भी भीड़ में खड़े होकर कविता पाठ का नजारा ले रहे थे। ’खबा’ को पता नहीं क्या सूझी, हमें लेकर पास की ही एक नाई की दुकान पर ले गया। फ़व्वारा लेकर पहले तो सबके सिर ठंडे किये, बाल सैट किये और फ़िर नाई से कहने लगा, "ताऊ, एक पुराना ब्लेड दे दे।" ताऊ ने भी सोचा कि सस्ते में मुसीबत टल रही है, खुश होकर दे दिया। हम सब हैरान थे कि ब्लेड से किसकी जेब काटेगा? पूछो तो कुछ बताना यूँ भी उसका स्वभाव नहीं था। आदमी उसूलों वाला था, work more talk less. भीड़ में जाकर खड़े हो गये और श्रद्धानुसार दृष्य-श्रव्य आनंद लेने लगे कि एकदम से नजदीक में कुछ हलचल हुई, देखा तो एक आदमी जो बनियान और पायजामें में था वो अपना पायजाम संभाल रहा था जोकि घुटनों तक गिर चुका था। भीड़ हंस रही थी और वो सकपका रहा था कि "ससुर नाड़ा टूट गवा"।  दो ही मिनट बाद ’खबा’ कवर प्वाईंट से फ़ाईन लेग पर पहुँच गया और अगले ही पल एक और का "ससुर नाड़ा टूट गवा" ।   जगह बदलती रही और पायजामे गिरते उठते रहे। हाथ में वो सफ़ाई थी कि जेबतराशी के धंधे में जाता तो बंदा छा ही जाता।

एक उसका पड़ौसी लड़का भी हम लोगों के साथ था, उसने बताया कि रविवार को जब टीवी पर रामायण आती है तो सारी दुनिया टीवी देखती है और ये हजरत उस समय पतंग उड़ाते हैं। मैंने लॉजिक पूछा तो उसने बताया कि पतंग उड़ायेगा तभी तो किसी के एरियल में फ़ँसेगी। मैं सोच रहा था कि कितनी मेहनत का काम करता है बेचारा, पतंग उड़ायेगा, उसे झोंका देकर किसी के एरियल में उल्झायेगा फ़िर एरियल को जोर जोर से हिलायेगा तब कहीं जाकर संबंधित टीवी में तस्वीर हिलेंगी। धन्य हो प्रभु।

स्कूल छूटा, साथ छूटा। कभी कभार उसके बारे में खबर मिलती रही कि पढ़ाई छोड़ दी उसने, कभी ये काम कर रहा है तो कभी वो काम। हम सब जिन्हें वो परेशान करता था और जिनका मनोरंजन भी करता था, सब कहीं न कहीं सैट हो गये और वो अपनी आदत के चलते अपनी ही दुनिया में मगन रहा। कहाँ समझ पाया कि आज उस की हरकतों से हँसने वाले हम जैसे बहुत खुदगर्ज लोग हैं, मतलब निकालेंगे और निकल लेंगे। और तो और, ये न हों तो दूसरों को अच्छा कौन कहेगा? यूँ भी कोई शहद से मरता हो तो उसे जहर कौन देता है? हाँ में हाँ मिलाये जाओ और दूसरों को टार्गेट बनवाये जाओ।

एक बात और, औरों की तरह उसकी भी शादी हुयी और कुछ दिनों के बाद पता चला कि शायद छत्तीस गुण मिलाकर ही रिश्ता हुआ होगा, वो उससे भी इक्कीस निकली। वो निकल ली और ये फ़िर भी नहीं बदला। पहले  शायद वो शौक से शरारतें करता होगा, अब फ़ितरत हो चुकी होगी।

देखा जाये तो ऐसी फ़ितरत वाले लोग हर जगह मौजूद हैं, इल्मी दुनिया हो या फ़िल्मी दुनिया, ये दुनिया यो वो दुनिया। दूर क्यों जाया जाये, अपने आसपास ही देख लीजिये, कई मिल जायेंगे। गिनती में बेशक कम हों लेकिन अपनी सशक्त मौजूदगी दर्ज कराते हुये।  और लोग ही क्यों कई ग्रुप, संगठन, राष्ट्र भी इसी मानसिकता से पीडि़त हैं। जरूरत है तो ये  बात समझने  की कि ये ऐसा करते क्यूँ हैं? और हम कैसे रिएक्ट करते हैं? एक बात सबको समझ लेनी चाहिए कि किसी को पसंद करना ना करना अपने अख्तियार हो भी सकता है लेकिन असहमति सभ्य तरीके से भी दी जा सकती है। अब असहमति वाले नाराज न हो जाएँ, इसलिए अभिव्यक्ति वालों को भी सलाह दी जा सकती है कि अभिव्यक्ति भी सभ्य, शालीन तरीके से की जा सकती है। हो सकता है कि दोनों तरह के लोग समझ जाएँ, और ये भी हो सकता है कि दोनों तरह के लोग बिगड़ जाएँ, इसलिए इस सलाह को  हम अपना नजरिया बताये दे रहे हैं।  किसी को बुरी लगे हमारी बात तो हमें माफ़ कर दे और दो रोटी ज्यादा खा ले,  कित्ता सिंपल फार्मूला बता दिया है, है न?


सकारात्मक विचार आ रहे हों तो हम भी ये सोच लेते हैं कि ऐसे दो चार न होते तो हमारी जिंदगी कितनी नीरस हो गई होती और नकारात्मक विचार आ रहे हों तो हम सोचते हैं कि सारी लाईमलाईट तो ये ले गये:)   अब देखिये न, पिछले दिनों ब्लॉगजगत में इत्ती हॉट वेव्स चल रही थीं और हमारा नेट ही मौके पर धोखा दे गया, हम रह गये वैसे ही ठंडे के ठंडे,  अब आये हैं तो कारवां गुजर गया, गुबार भी देखने  को नहीं मिल रहा है। कोइ पोस्ट डिलीट हो गयी, कोई अदल गयी तो कोई बदल गयी :(        कोई बात नहीं,  यहाँ के ’खबा’ लोगों पर अपने को पूरा भरोसा है। बाल-बवाल खड़ा करना कौन सा कुंभ का मेला है जो बारह साल बाद आयेगा, थोड़े दिन इस गर्दो गुबार को बैठे हुये होंगे कि फ़िर से कोई खड़ा हो जायेगा, तब देख लेंगे।   

खैर, कुछ हमने खोया तो कुछ आपने भी खोया है। इत्ती महंगाई में पहली बार ए.सी. खरीदा है, माईक्रोवेव खरीदा है, एक इस्त्री(इस्त्री ही पढ़ा जाये, कहीं कोई एलोवैरा वाली से कन्फ़्यूज़ न हो जाये ) खरीदी है, एक फ़ूड प्रोसेसर भी खरीदा है और इन सब के साथ अलग अलग कोण से फ़ोटो खिंचवाकर ब्लॉग में लगाने का इरादा था लेकिन मेरी बात रही मेरे मन में। वैसे अपने को पूरा यकीन है है कि आप सबने जो खोया, उसके लिये अफ़सोस जरूर हो रहा होगा।   बहरहाल, चिंता की कोई बात नहीं, अंडरवियर खरीदने का प्रोग्राम बना रिया हूँ, तब सही। अंडरवियर के साथ अपनी तस्वीर आपको पेश करूँगा क्योंकि थोड़ी बहुत बोल्डनेस तो आ ही चुकी है और अगर किसी सज्जन या .....  को एतराज हो तो पहले बता दे, हम दूसरे विकल्प(बिना ....)  पर विचार कर लेंगे, क्योंकि हमारा स्वभाव तो आप जानते  ही  हो, भुरभुरा सा है।

आपकी शुभेच्छाओं का अभिलाषी - मो सम कौन कुटिल खल कामी..

p.s - फ़त्तू को प्रोमोट करके पोस्ट के ऊपर ले आये हैं। कोई हमारी कैटेगरी का विद्वान इस बात पर टोक सकता है कि पोस्ट बालों पर तो फ़त्तू को काहे माटी में लपेट रखा है तो उसका जवाब ये है कि बालों से संबंधित बात भी कही जा सकती थी लेकिन अभी इतनी भी बोल्डनैस नहीं आई है, थोड़ी सी शर्म बची हुई है आँखों में..

सुनिए हमारा एक पसंदीदा गाना,  ना  प्रेम गीत और ना नफरत गीत