रविवार, जुलाई 29, 2012

हानि-लाभ ....

"जुताई करते करते एक जगह उसका हल जमीन में अटक गया| आसपास खोदने पर पता चला कि कोई कलश गड़ा हुआ है| स्वाभाविक है कि उस कलश में स्वर्ण मुद्राएँ ही थीं| कुछ दिनों के बाद राजा के पास न्याय के लिए एक वाद प्रस्तुत हुआ,  जिस किसान को वो स्वर्ण मुद्राएं मिली थीं, वो उन मुद्राओं को उस व्यक्ति को देना चाह रहा था जिससे कुछ समय पहले उसने जमीन खरीद ली थी| उसका तर्क ये था कि उसने खेती के लिए  जमीन के पैसे दिए हैं, जमीन के नीचे से इस प्रकार मिला अनपेक्षित खजाना उसका नहीं है|  जिस किसान ने जमीन बेची थी, उसका तर्क था कि जमीन के पैसे ले लिए तो वहाँ अब सोना निकले या पत्थर, उसके लिए स्वीकार्य नहीं  हैं|  राजा भी उसी ब्रांड का था, उस खजाने को अपने हवाले करने की बजाय उसने अपने खजाने से कुछ रकम और मिलाई और उस धन से  जनता के लिए एक तालाब का निर्माण करवा दिया|" 

पिछले ज़माने की कोई कहानी है ये, इससे पता चलता है कि विवाद क्या है, ये ज्यादा निर्भर इस बात पर करता है कि साधारण जनता की मानसिकता कैसी है| 
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एक अपना भाई-दोस्त cum दोस्त-भाई है(वे दो भाई हम दो भाईयों के दोस्त हैं तो ये संबोधन दिया है), परसों शाम उसका फोन आया, "भाई साहब, कुछ पैसे एकाऊंट में डालने थे| शाम को आपको दे दूं क्या? मेरा बैंक जाना बच जाएगा|"  मामूली  सा काम था, एक हाँ में अपना काम चल सकता था लेकिन आजकल अपनी आदत हो गई है कि अपने से छोटा कोई मामूली सी बात भी करे तो अपने से सीधा जवाब नहीं दिया जाता| मैंने कहा,  "भरोसा है तो मुझे पैसे पकड़ा दियो|" स्माईली लगाया भी था लेकिन फोन पर दिखा नहीं होगा| खैर, "क्या भाई साहब, आप भी किसी बात करते हैं" वगैरह वगैरह के बाद बात खत्म हो गयी| 

अगले दिन सुबह बैंक के लिए तैयार हो रहा था तो बन्धु आया  और पॉलीथीन से निकालकर  अडतालीस हजार रुपये नकद और तीस हजार का एक बियरर चैक समर्पित करने लगा| जैसे बाबा लोग टाट उठाकर नोट वहाँ रखने का इशारा करते हैं कि हम तो माया को हाथ भी नहीं लगाते, उसी तर्ज पर मैंने भी यही कहा कि यार नोट और चैक पॉलीथीन में ही रहने दे, मैंने हाथ में लेकर  क्या करने हैं?   असल में पॉलीथीन मेरे हिसाब से थी ही बहुत प्यारी|  प्यारी कहने से पॉलीथीन का  उत्पीडन वगैरह होता हो तो इसे  प्यारा भी मान  सकते हैं, आई मीन प्यारा पॉलीथीन|

खैर हमने  विमर्श को भटकने नहीं देना है, इसलिए मुद्दे पर आईये| आजकल प्रायः सभी बैंक, सिवाय वोट बैंक के, ओनलाईन और सेंट्रलाईजड हैं और उस दिन सुबह से नेटवर्क फेल्योर के चलते काम ठप्प था| क्लियरिंग वगैरह  कुछ काम बहुत टाईमबाऊंड रहते हैं, तय किया गया कि कुछ फाईल्स किसी दूसरी ब्रांच से जाकर लाई जाएँ और बहुत जरूरी वाला काम निबटाया जाए| दुल्हन को उसके मायके से लेकर आना हो तो क्या दूल्हा, और क्या दूल्हे के भाई, यार दोस्त सब के सब भाईचारा निभाने को तत्पर रहते हैं लेकिन लेकर आना था फाइल को, काम के ढेर को तो फिर कौन जाएगा? जो बहस से बचता हो, वही न? आप  सब बहुत  समझदार हो  वैसे:)

अपनी ब्रांच में काम ठप्प था और दूसरी ब्रांच में जाना ही था तो सोचा कि भाईदोस्त वाले  पैसे वहीं जमा करवा दूंगा, अब तक पॉलीथीन में रखे थे| उसी पॉलीथीन में कुछ दुसरे जरूरी कागज रखे, पैन ड्राईव डाला और पानी की बोतल रख ली और चल दिए हम अपने दोपहिया वाहन पर| मैंने चैक किया भी कि गौर से देखने पर नोट चमक रहे थे लेकिन फिर सोचा कि कौन इतने गौर से देखेगा? और चीजें थोड़ी है बाहर देखने को, जो मेरी बाईक से टंगी पॉलीथीन को आँखे फाड फाडकर कोई देखेगा?  दूसरी ब्रांच में जाकर पॉलीथीन फिर से अपने साथ ले गया, जहां बैठकर काम कर रहा था अपने सामने ही ज्यादा से ज्यादा एक डेढ़ फुट की दूरी पर टांग  दी| करीब आधा घंटा उस ब्रांच में रहा, वहाँ भी भीड़ बहुत थी और इस बीच मेरी ब्रांच से भी फोन आ चुका था कि  वर्किंग शुरू हो गई है तो सोचा कि अब पैसे अपनी ब्रांच में जाकर ही जमा करवा  दूंगा|

कई बार घटा बढ़ा कर बोलता हूँ, आज नहीं बोलूंगा, पहले की ही तरह नोट भी पॉलीथीन में थे, कुछ दुसरे सरकारी कागज़ भी(बिना किसी फाईल के), पैन ड्राईव भी और पानी की बोतल भी| मैं आकर बाईक पर बैठ गया, स्टार्ट कर दी फिर दिमाग में अचानक ही एक ख्याल आया कि पैसे इस पॉलीथीन में से निकालकर जेब में रख लिए जाएँ तो क्या बुराई है? पता नहीं उस एक हल्की सी सोच में क्या असर था कि मैंने वहीं  बैठे पॉलीथीन के अंदर ही हाथ डालकर नोटों के पैकेट को और चैक को एक कागज़ में लपेटा और उसे शर्ट  के हवाले कर दिया| मेरी ब्रांच के पास वाली लालबत्ती पर पहुँच गया था तो एकदम से कुछ गिरने की आवाज आई, देखा तो पॉलीथीन से पानी की बोतल गिरी है|  जब तक झुककर उसे पकडता वो लुढकती हुई दूर चली गई थी, और इधर ग्रीन लाईट हो गई थी| हाय री दिल्ली की भीड़ भरी सड़कें,  जाने वाली को रोक भी न सका मैं बेचारा| रुकती तो खैर क्या,  बस अपनी तसल्ली  हो जाती कि हमने अपनी कोशिश कर ली :) 

 ब्रांच में आकर देखा तो पॉलीथीन के तले  वाले हिस्से में दिनों किनारे लगभग एक चौथाई तक कटे फटे हुए हैं| प्रथमदृष्टया ये चूहों का काम लगता है, विस्तृत  जांच के लिए फोरेंसिक लैब भेजने की सोच रहा हूँ, ज्यादा शोर शराबा होने पर  कोई आयोग वायोग भी खड़ा किया जा सकता है| 

कुल जमा नुक्सान हुआ है एक पैन ड्राईव, एक पानी की बोतल और हाँ,  वो प्यारा\प्यारी सी पॉलीथीन भी अब किसी काम की नहीं रही| घाटे वाली अर्थव्यवस्था को एक और झटका झेलना पड  गया, उस पर तुर्रा ये कि हमारे गार्ड साहब, सफाईकर्मी, चायवाला और उनके कंधे पर बन्दूक रखके दफ्तर के दूसरे साथी भी जोर डाल रहे हैं कि पार्टी दी जाए| हमारा इत्ता नुकसान हो गया और लोगों को पार्टी की सूझ रही है, कहते हैं कि तीन चार सौ के घाटे को रोने की बजाय अठहत्तर हजार बच गए, उस पर ध्यान देना चाहिए| अगर ऐन  वक्त पर दिल की आवाज  न सुनता और नोट भी पॉलीथीन में ही रहने देता तो होता असली नुक्सान|  वाह जी वाह, अपने दिल की बात क्यों न सुनता? और अगर नोट गिर ही जाते तो सबसे ऊपर लिखी कथा चेप देता दोस्त-भाई के सामने कि देख कैसे कैसे उच्च आदर्श रहे हैं हमारे सामने| पता नहीं मानता या नहीं:)

अब सवाल उठ रहा है कि घाटा हुआ या  इसे फायदा समझूं?  एक साथी हरदम सुनाते रहते थे  कि शेयर मार्केट के चक्कर में डेढ़ लाख का घाटा खा चुके हैं| एक दिन फुर्सत थी, मैं घेरकर बैठ गया| पता चला कि जो शेयर उन्होंने एक लाख में खरीदे थे वो एक लाख पचास हजार में बेचे| मैं  कामर्स का विद्वान  रहा होता तो इस खेल में डेढ़ लाख का घाटा निकाल ही नहीं सकता था, कुरेदने पर साथी ने बताया कि शेयर मार्किट की ऊंचाई के समय में उनके शेयर्स की कीमत ढाई लाख तक पहुँच गई थी लेकिन उन्होंने नहीं बेचे थे, इस तरह से डेढ़ लाख का घाटा होना सिद्ध हुआ|  मजा आता है ये सब देख देखकर, नफ़ा-नुकसान, उपदेश देने-लेने में कैसे पैमाने बदलते हैं| 

कभी आपके साथ भी ऐसा हुआ है  कि अंदर से कुछ आवाज आई हो और ......?


                                                                       

                                                          
                                                   






बुधवार, जुलाई 25, 2012

खिचडी.......


                                                            

(डिसक्लेमर - अपना इस पोस्ट में सिर्फ नमक है, आटा पीढ़ियों का है| कहाँ आटा  है और कहाँ नमक, ये अब मुझे भी नहीं पता|)


एक लड़के  का पेट कुछ गड़बड़ कर रहा था, उसकी मां ने उसे एक वैद्यजी के पास जाने को कहा| वो गया और अपनी समस्या बताई| वैद्यजी ने निरीक्षण करने के बाद उसे कहा कि कोई विशेष बात नहीं है, कुछ खाने पीने में लापरवाही के चलते पेट खराब हुआ है, घर जाकर खिचडी बनवाकर खा लेना, ठीक हो जाओगे| अब वो ठहरा पुराने टाइम का और पुराने स्टाइल का बन्दा, जिसे सिर्फ खाने से मतलब रहता था|  'चूल्हा चौका संभाले घर की औरतें' मानसिकता वाला था तो उसे खिचडी के बारे में कुछ मालूम नहीं था| वैद्य जी से बार बार पूछने लगा तो उन्होंने कहा कि तुम्हारा काम सिर्फ इतना है कि घर जाकर अपनी मां से यह कहना कि खिचडी खानी है, वो समझ जायेगी| 


अब वो चल दिया अपने घर को, और कहीं उस डिश का नाम न भूल जाए इसलिए 'खिचडी-खिचडी' का जाप करता घर को चल दिया| अब रास्ते में पता नहीं उसने शेर देख लिया कि कोई हिरनी, ये कन्फर्म नहीं है लेकिन अब वो खिचडी की जगह 'खाचिडी-खाचिडी'  बोलता जा रहा था| कोई किसान अपनी पकी फसल की रखवाली कर रहा था और ये उसे देखते हुए अपने उसी मंत्र पाठ में जुटा रहा| किसान को आया गुस्सा, उसने सोचा कि मैं तो हलकान हुआ जाता हूँ इन चिड़ियों को भगाते-भगाते और ये उन्हें  'खाचिडी-खाचिडी'  कहकर उकसा रहा है| किसान उकस गया और उस लड़के की छित्तर परेड कर दी| फिर उसे समझाया कि  'खाचिडी-खाचिडी' नहीं बल्कि  'उड़चिडी- उड़चिडी' बोल|  

उसने फिर से रास्ता नापना शुरू किया, अब बोल रहा था   'उड़चिडी- उड़चिडी|'  कुछ आगे गया तो एक बहेलिया जाल बिछाए और दाना गिराये  बैठा था| काफी देर से खाली बैठा था और इसकी 'उड़चिडी- उड़चिडी' सुनकर उसने बोहनी न होने का जिम्मेदार इसे मान लिया|  जाल समेट लिया गया और बालक की फिर से हो गई  छित्तर परेड|  बहेलिये का आज का दिन खराब हो चुका था तो आगे के लिए उसे ऑर्डर मिला कि 'ऐसा दिन कभी न आये' का जाप करना है| 

आज्ञाकारी बालक फिर से चल पडा और आगे चलकर एक और कामेडी-cum- ट्रेजेडी उसका इंतज़ार कर रही थी| किसी अभागे  की घुडचढी हो रही थी, बालक के मुंह से   'ऐसा दिन कभी न आये' सुनकर घोड़ा या दूल्हा या दोनों ही न बिदक जाएँ, इस आशंका से बाराती बिदक गए और बालक के साथ CP once more  हो गई|  नया हुकम हुआ 'ऐसा सबके साथ हो' रटने का|


अगले पड़ाव पर किसी की शमशान यात्रा की तैयारी हो रही थी| बालक-उवाचम श्रवणयन्ति , मुर्दे को वहीं छोड़कर भीड़ ने  उस बेचारे मरीज को अधमरा कर दिया गया|  लंगडाता-कराहता वो घर पहुंचा तो उसकी मां ने सारी कहानी सुनकर उसको तो नहीं पीटा, अपना माथा पीट लिया|

इस कथा से बालक ने ये सबक सीखा कि वैद्य से इलाज करवाना बड़ा कष्टकारक होता है|

लोककथा है, लगभग सभी ने पढ़ सुन रखी होगी| ये जरूर हो सकता है कि अब भूल गए होंगे,  मुझे बहुत पसंद रही  हैं ऐसी कहानियां|  आजकल शायद इनका कथन श्रवण कम हो गया है फिर भी आशा तो कर ही सकते हैं  कि जैसे सबके दिन बहुर रहे हैं, इनके भी बहुरेंगे:)  

ब्लॉग सक्रियता बनाए रखने के लिए आज इस से अच्छी, शानदार, सार्थक  कोई और बात सूझी नहीं और हमने एक साधारण सी कहानी याद करने-कराने  की कोशिश कर ली|  हाजमा ठीक रखियेगा, आपको पसंद आयें न आयें लेकिन  आती रहेंगी ऐसी पोस्ट्स|    इस बहाने अपनी भी तैयारी होती रहेगी, काहे से कि आने वाले समय में नाती-पोता(he+single+single)  को कहानी सुनाने का डिपार्टमेंट  भी अपने ही जिम्मे आएगा:) 

शुक्रवार, जुलाई 20, 2012

lost in the metro...

'Look my princess, these are your private body parts.' मेट्रो स्टेशन के प्लेटफार्म पर लगे टीवी सेट्स में  एक महिला उसके सामने रखी टेबल पर एक रबड़ की गुडिया लिटाये हुए अपनी बच्ची को यह जानकारी दे रही थी|   महिला ने गुडिया के पेट के आसपास की जगह को दबाते हुए डेमोंसट्रेट किया,   'Don't let anybody touch these parts and if anybody does so, don't stay mum, you have to tell it to your mom.'

इस विज्ञापन में सब डूब ही गए थे, विक्रम भी मंत्रमुग्ध होकर उस विज्ञापन को बार बार रिपीट होते  देख रहा था|

'ज्यादा फूलो  मत, उधर देखो' वेताल ने कहकर उसके रंग में भंग डाल दिया| विशाल टीवी सेट के ठीक नीचे एक बीस बाईस साल का  लड़का अपनी हम उम्र लड़की की कमर को दोनों हाथों में भरकर उसे अपने से एकदम सटाकर खडा था|  पीक-ऑवर्स चल रहे थे, भीड़ बढ़ती जा रही थी| लड़का और लड़की इन सबसे एकदम बेखबर थे| बीच बीच में लड़की घूमकर कुछ कहने लगती थी और लड़के के हाथ उसकी कमर को छोडकर कभी उसकी गर्दन पर रेंगने लगते थे और कभी उसके हाथों को सहलाने लगते थे| फिर जल्दी ही वो दोनों अपनी उसी पहले वाली मुद्रा में आ खड़े होते थे| आसपास के माहौल की कोई परवाह नहीं,  भीड़ में से बहुत से लोग खुद उन्हें इग्नोर कर रहे थे, कुछ ललचाई आँखों से और कुछ उन्हें हेय  दृष्टि से देख रहे थे|

टीवी अब भी बदस्तूर चल रहा था लेकिन विक्रम का ध्यान अब उधर नहीं था|

वेताल उसके कानों में फुसफुसाया, 'लड़की की आंखों में क्या दिख रहा है?'  

विक्रम ने बताया, 'भोलापन, सादगी, विश्वास'

'और लड़के की आंखों में?'

'पशुता, मौकापरस्ती'

'विक्रम, जरा गौर से देखो| लड़के के दांत और नाखूनों  की तरफ देखो|' विक्रम ने गौर से देखा, लड़की की अल्हड हरकतों के साथ साथ लड़के के दांत और नाखून धीरे धीरे बढते जा रहे थे| विक्रम के सर में और ज्यादा सांय सांय होने लगी थी|

वेताल ने फिर से विक्रम को उसके कर्तव्य की याद दिलाई, 'चुप मत रहो, अन्याय को होने देने से रोको|' विक्रम के कानों में गूंजती आवाज तेज, और तेज होती जा रही थी|  'सब समझते बूझते भी तुम कुछ नहीं करोगे तो तुम्हारे सर के सौ टुकड़े हो जायेंगे और  मैं फिर से अपने ठिकाने पर लौट जाऊंगा|'

आंखों के सामने दीखते दृश्य और कानों में सीसे की तरह पिघलते शब्द उसे असहनीय लगने लगे थे|  जोर से चीखते हुए उसने वेताल से कहा, 'अब ज़माना बदल रहा है वेताल, इस स्टेज पर हस्तक्षेप करने वाला खुद सौ जूते खायेगा| आधुनिकता के पक्षधरों के सामने पिछडा,  सामंतवादी, प्रेम का दुश्मन  और जाने क्या क्या कहलायेगा|  आजकल इंतज़ार किया जाता है दुर्घटनाओं के होने का, उसके बाद कटघरों में सबको लाया जाएगा| फिर होगा विमर्श और दिए जायेंगे फतवे|   तुझे रुकना है तो रुक नहीं  तो जा अपने खूंटे पर, मैं फिर से तुझे ले आऊँगा|  उस फटीक की तो मुझे आदत है, झेल लूंगा| बल्कि  ले, तू भी क्या याद रखेगा, मैं ही तुझे यहाँ पटक कर जाता हूँ|' कहकर विक्रम ने वेताल को वहीं मेट्रो प्लेटफार्म पर पटका और जल्दी से मेट्रो के बंद होते दरवाजे के भीतर चला गया|  प्लेटफार्म पर गिरे हुए बेताल को हम सबने सुना, विक्रम को भाई बाप की गालियाँ दे रहा था|  भीड़ आ रही थी, जा रही थी|  टीवी पर वही विज्ञापन फिल्म भी रिपीट हो रही थी, ठीक नीचे प्लेटफ़ार्म पर एक कबूतरी लहक लहक कर अब भी बिलाव पर कुर्बान होती दिख रही थी| 

तब से देर रात वाली मेट्रो पकड़ने वाले कई यात्रियों ने गवाही दी है कि वेताल अपने विक्रम को ढूँढता फिर रहा है|

गूढ़ शब्द:

फटीक            -          (वो वाली ऐसी तैसी जो बिना किसी सार्थक उपलब्धि के करवाई जाती है)



मंगलवार, जुलाई 10, 2012

माने उसका भी भला, जो न माने उसका भी भला

दोस्तों,  ब्लॉगजगत में इन दिनों काफी गहमागहमी है जिसकी वजह एक विशेष गुट के लोगों द्वारा महिलाओं और उनमें भी हिंदु महिलाओं की तस्वीरों को गलत सन्दर्भ में अपनी पोस्ट्स के साथ लगाना है| ये काम  बिना उन महिलाओं की  इजाजत के किया गया और विरोध के बाद कहीं से कोई तस्वीर हट गई और कहीं से नहीं| इस काम को सुनियोजित तरीके से किया जा रहा है,  उलटे सीधे तर्क देकर अपनी बात को उचित ठहराने का प्रयास किया जाता है,  चार छह लोग आकर परोक्ष-अपरोक्ष समर्थन कर जाते हैं, धमकी वाली भाषा भी  इस्तेमाल हो रही है|   इस सबसे बहुत से लोगों की भावनाएं आहत हो रही हैं| 

बेमतलब के पोस्ट लेबल्स लगाकर, एक एक पोस्ट को तीन-चार जगह पर शेयर करके,  चर्चाओं में बने रहने के लिए क्या-क्या नहीं किया जा रहा है? दूसरों की गरिमा से खेलने का अधिकार इन्हें किसने दिया?    वहीं दूसरी तरफ ये भी मानकर चलिए कि सिर्फ गूगल में शिकायत कर देना काफी नहीं है| ऐसा नहीं कि गूगल में शिकायत कर दिया और सब ठीक हो गया| 

वैसे मैं अपनी बात कहूँ तो मुझे इस सबसे दुःख जरूर हो रहा है लेकिन  बहुत  हैरत नहीं हो रही|  आदमी के संस्कार उसके आचार व्यवहार की गवाही दे देते हैं| बाह्य दुनिया में जहां हम लोग एक दूसरे के संपर्क में आने पर  बाडी-लैंग्वेज, भाषा, बोलचाल की शैली, रहन सहन, संगति आदि के आधार पर सामने वाले की पहचान करते हैं वहीं अंतरजाल की दुनिया में आपकी टिप्पणियाँ, आपका लेखन आपके संस्कारों व विचारों की पहचान बनता है| भाषा शैली और संगति का महत्त्व भी अनदेखा नहीं किया जा सकता| हम दूसरों को वही दे सकते हैं, जो हमारे पास है|

वर्त्तमान की घटनाओं को  सिर्फ महिलाओं के अपमान के रूप में नहीं  देखना चाहिए और न ही सिर्फ  हिन्दू धर्म पर आघात के रूप में| ये इन दोनों बातों से ज्यादा गंभीर बात है, दोनों को नीचा दिखाने का कुत्सित प्रयास है| |             हिन्दी ब्लोगिंग में सक्रिय महिलाएं  संख्या रूप में  कम नहीं  हैं, मुखर हैं और उनकी प्रतिभा को किसी  प्रमाणपत्र की जरूरत भी नहीं है| 

अपने लेखन पर, अपने विचारों पर, अपनी प्रतिभा पर भरोसा करिये|  असहमति अगर हैं भी  तो असहमति का सम्मान कीजिये| नकारात्मक होने की आवश्यकता नहीं है, सकारात्मकता अपनाइए| देश, समाज, परिवार, दोस्त क्रियाशील लोगों की तरफ बहुत आशा से देखते हैं| हम सबको अपनी जिम्मेदारी पहचाननी चाहिए,  लापरवाही से दुर्घटनाएं ही होती हैं| Ignorance is not an excuse,  मेरी राय में हमें खुद भी समय समय पर आत्मावलोकन करते रहना  चाहिए|  अपने पोस्ट्स पर आने वाले कमेंटस  में और समय समय पर अपनी फोलोवर्स लिस्ट पर    नजर रखिये|  सिर्फ भावनाओं के स्थान पर सतर्कता को भी जीवन का एक हिस्सा  बनाइये| 

आपकी आप जानें, एक सच्चरित्र   विरोधी  और  एक दुश्चरित्र   समर्थक में से एक को चुनना पड़े तो मैं यकीनन विरोधी को पसंद करूँगा| जिनके इरादे ठीक नहीं, उनसे कैसा भी सम्बन्ध बहस का, कमेन्ट का, समर्थन का अपने को नहीं चाहिए|   

मेरी बात पर यकीन करिये, जब  आप में लिखने की क्षमता है तो इंसान पहचानने की क्षमता भी जरूर है| और अपनी क्षमताओं का सही उद्देश्य के लिए इस्तेमाल न करना भी एक अपराध है| हम सब परफेक्ट नहीं हैं, लेकिन कोई भी परफेक्ट नहीं है, इस आधार पर परफेक्शन की तरफ कदम न उठाये जाएँ, ऐसा होना नहीं चाहिए| अपनी भलाई के लिए दूसरों का रास्ता मत देखिये, खुद सही रास्ते पर कदम उठाइये, जिसे आना होगा साथ आ ही  जाएगा और जिन्हें अपनी व्यक्तिगत छवियाँ सामजिक सन्दर्भों से ज्यादा प्रिय हैं, वे बेमन से आ भी गए तो क्या लाभ?   
   
और अंत में ये सब उपाय अपनाने के बाद भी कोई अवमानना करने की कोशिश करता है, अपनी हदें  लांघता है तो  क़ानून का सहारा लीजिए|  मुफ्त के इस प्लेटफार्म का इस्तेमाल दूसरों को बेइज्जत करने, वैमनस्य फैलाने के लिए किया जाना खुद में एक साईबर क्राईम है| अपने पास प्रूफ रखिये और  बेशक ओनलाईन ही सही, उचित जगह पर  शिकायत कीजिये|  अपराधी को सजा मिलनी ही चाहिए|  ये सब मैं आप से इसलिए कह रहा हूँ क्यूंकि जहां सुधरने की उम्मीद होती है, वहीं तो कुछ कहने का लाभ है|

एक स्माईली तो लगा ही दूं न तो आपको  लगेगा कि शायद मेरी  सचिव ने पोस्ट लिख दी है :) 

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