रविवार, नवंबर 18, 2012

फ़िर वही ...

वृद्ध नगरसेठ ने महात्माजी के आगे हाथ जोड़कर निवेदन किया, "बाबा, मेरे इकलौते युवा पुत्र को सन्यास की दीक्षा देने की हामी भरकर आपने तो मेरे बुढ़ापे की लाठी छीन ली है। बिनती करता हूँ कि उसे  अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी संभालने की आज्ञा दें।"
महात्माजी कहने लगे, "भगतजी, मैंने तो उसे उतावलेपन में ऐसा निर्णय लेने से बहुत मना किया था लेकिन उसकी रुचि और उसके संस्कार देखकर मुझे उसे दीक्षा देना ही उचित लगा।"
सेठ की आँखों के सामने उसका व्यापार, वैभव निराधार होता दिखा और उसने दूसरा दाँव चला, "आप इतने धर्मज्ञ हैं फ़िर भी आप के हाथों धर्म विरुद्ध कार्य हो रहा है। शास्त्रों में भी लिखा है कि सन्यास तो जीवन के चौथे चरण के लिये उचित है।"
महात्माजी मुस्कुराते हुये कहने लगे, "ठीक कहते हो। एक रास्ता है, सन्यास के लिये तुम्हारी आयु उपयुक्त है। तुम सन्यास लेने को तैयार हो जाओ।  इसी शास्त्रोक्त  युक्ति से तुम्हारे पुत्र को मैं गृहस्थाश्रम में प्रवेश के लिये समझाता हूँ।
सेठजी एकदम से सकपका गये और कहने लगे, "शास्त्रों में जो लिखा है, वो सब कुछ सही थोड़े ही होता है महाराज।"

हम सब उसी नगरसेठ की तरह व्यवहार करते हैं।  

पिछली एक पोस्ट पर आई टिप्पणियों के बाद उचित लगा कि इस बात को थोड़ा और आगे बढ़ाया जाये। कुछ मित्र कर्मफ़ल और जीवन-मरण के  चक्र वाली थ्योरी से सहमत दिखे, कुछ असहमत। अधिकतर मित्रों का यह मानना था कि कर्मों का असर इसी जीवन तक है। अपने अपने विचार रखने को सभी स्वतंत्र है,  राय देने वाले सभी दोस्तों का धन्यवाद। एक आपत्ति जिसकी मुझे सबसे ज्यादा आशंका थी, वो मुखर रूप से किसी की तरफ़ से नहीं आई कि  कर्मफ़ल वाली थ्योरी उसमें विश्वास रखनेवालों को अकर्मण्य बनाने में सहायक होती है। आपको ऐसा लगता हो या नहीं लेकिन मुझे जरूर ऐसा लगता है।

 गरीबी, अपंगता या ऐसे ही किसी अन्य दुर्भाग्य  को दैव मानकर अपना आत्मसम्मान खो देनेवालों की   कमी नही। वहीं दूसरी तरफ़ अमीरी, सुंदरता, शक्ति आदि सुखद परिस्थितियों को अपने अच्छे कर्मों का फ़ल मानकर आगे के लिये  निश्चिंत होने वालों की भी कमी नहीं। मेरी बातें विरोधाभासी लग सकती हैं कि  एक पल में किसी सिद्धाँत को मानने की बात करता हूँ और दूसरे पल उसी की कमी बताने लगता हूँ, लेकिन यह अपनी तरफ़ से सिक्के के दोनों पक्ष देखने जैसी बात है। मन में ऐसे विचार आते रहे  हैं कि जब सब पूर्वनिर्धारित है ही तो फ़िर क्यूँ किसी खटराग में पड़ना? यह विचार एक मार्ग अवरोधक के समान लगता है, जो ठिठक गया वो अटक गया और जो इस अवरोध को पार कर गया वो मंजिल तक देर सवेर पहुँच ही जायेगा। 

शायद यह बाधा ही रही हो जिसने कभी  ’चार्वाक’ विचारधारा को प्रसिद्धि दिलवाई और कभी ’अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम’ जैसे कथन  को अपने करणीय कर्मों से  विमुख होने का साधन बना लिया। ध्यान दें, कभी भी ये विचारधारायें बहुमत की जीवन शैली का पर्याय नहीं बनी बल्कि सुविधानुसार हम लोग इनका उद्घोष करते रहे। 'जो जस कीन्ह सो तस फ़ल चाखा’ और ’उद्यमेन ही सिद्धयंति कार्याणि न मनोरथै’ भी तो हममें से कुछ  ने पढ़े ही हैं।

सिर्फ़ ब्लॉग चर्चा के आधार पर तो नहीं, इससे बाहर के अपने  व्यक्तिगत अनुभव के भी  आधार पर कह सकता हूँ कि  बहुत बार  कर्म को प्रधान मानने वाले  को हम  भाग्यवादी मात्र  मान लेते हैं। ऐसा है नहीं, रणक्षेत्र में अर्जुन को  गीता उपदेश देते समय योगेश्वर कृष्ण ने ’कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फ़लेषु कदाचन:’ की सीख देकर जीवन जीने का एक  रास्ता बताया।  सिखों के पांचवें गुरु अर्जुन देव जी का कहना कि ’तेरा भाणा मीठा लागे’ कर्म से पलायनवाद नहीं बल्कि कर्मशील रहते हुये भी प्रारब्ध को सहजता से स्वीकार करना है वहीं दशम गुरू ने शक्ति रूपा देवी की स्तुति करते हुये  ’शुभ कर्मन ते कभुं न टरूं’ कहा। मेरी अल्प समझ में  यही श्रेष्ठ मार्ग है और यही सर्वश्रेष्ठ। 

हमें सुविधाओं की आदत हो चुकी है और हम शारीरिक श्रम तो क्या थोड़ा सा  मानसिक श्रम भी नहीं करना चाहते। जो चीज हमें रेडीमेड परोस दी जाती है, शुरू  में शौकिया और फ़िर आदत के चलते वो हमारी जिन्दगी का हिस्सा बन जाती है। ज्ञान के साथ भी ऐसा ही है,  खुद मनन पाठन  किये बिना जो परोस दिया गया वही ग्राह्य हो गया। 

हमारे देश की विशालता केवल भौगोलिक नहीं है।  आर्थिक, सामाजिक तथा शिक्षा जैसी  अन्य विविधताओं के आधार पर भी देखें तो जनमानस अलग अलग स्तर पर स्थित दिखता है। एक विशाल स्टेडियम की कल्पना कीजिये, बीच में मैदान है और चारों तरफ़ सीढि़यों पर दर्शक खेल का आनंद लेने के लिये अवस्थित हैं। जो सबसे नीचे की सीढ़ी पर बैठे हैं और जो ऊपर की सीढ़ियों पर अवस्थित हैं, क्या उनको दिखने वाले दृश्य, खेल की बारीकियाँ  और उस पर उनकी प्रतिक्रियायें एक जैसी होती होंगी? मुझे नहीं लगता। शायद ऐसा ही इस दुनिया के साथ है। यहाँ फ़र्क ये है कि हम सब सिर्फ़  दर्शक ही नहीं, खिलाड़ी भी हैं। अन्य विविधताओं के साथ  अब  कालक्रम को और जोड़ देखिये। आज से सौ साल पहले जो स्थितियाँ  थीं, आज एकदम से बदल चुकी हैं तो जबसे मानव सभ्यता का उदगम आप मानें तब से जीवन कितना बदल चुका होगा? 

बौद्धिकता के अलग अलग स्तरों पर जी रहे अलग अलग लोगों के मानने के लिये कितने विकल्प और फ़िर उन्हें अपनाने, नकारने या सुधारने  की कितनी स्वतंत्रता, मुझे गर्व है जैसा भी हूँ आखिर इस संस्कृति का हिस्सा हूँ।   शायद पिछले जन्मों के सुकर्म ही हैं  :)) 

चलिये नारा लगाईये आप भी, ’क्या कुटिल जी,  फ़िर वही संकीर्ण विचारधारा?’ :)


                                                       

67 टिप्‍पणियां:

  1. सबको अपने में समाहित करने वाली विचारधारा संकीर्ण नहीं हो सकती...
    कोई लाख करे चतुराई....चाहे कितना,कुटिल,खल...हो....जरा समझो इसकी सच्चाई रे ...

    जवाब देंहटाएं
  2. @ हमें सुविधाओं की आदत हो चुकी है और हम शारीरिक श्रम तो क्या थोड़ा सा मानसिक श्रम भी नहीं करना चाहते - is bat me sab kuchh hai

    जवाब देंहटाएं
  3. आपकी पोस्ट पढते समय कई बार कुछ-कुछ होने लगता है।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हमें हर बार जाटदेवता की पोस्ट पढ़कर बहुत कुछ होता है।

      हटाएं
  4. .
    .
    .
    @ एक आपत्ति जिसकी मुझे सबसे ज्यादा आशंका थी, वो मुखर रूप से किसी की तरफ़ से नहीं आई कि कर्मफ़ल वाली थ्योरी उसमें विश्वास रखनेवालों को अकर्मण्य बनाने में सहायक होती है। आपको ऐसा लगता हो या नहीं लेकिन मुझे जरूर ऐसा लगता है।

    नहीं सर जी, मैंने कहा था कि 'यह हमारे समाज की सामूहिक नाकामी है, जिसे धर्म कर्मफल जैसी अवधारणा के तले ढकना चाहता है...'

    @ आर्थिक, सामाजिक तथा शिक्षा जैसी अन्य विविधताओं के आधार पर भी देखें तो जनमानस अलग अलग स्तर पर स्थित दिखता है। एक विशाल स्टेडियम की कल्पना कीजिये, बीच में मैदान है और चारों तरफ़ सीढि़यों पर दर्शक खेल का आनंद लेने के लिये अवस्थित हैं। जो सबसे नीचे की सीढ़ी पर बैठे हैं और जो ऊपर की सीढ़ियों पर अवस्थित हैं, क्या उनको दिखने वाले दृश्य, खेल की बारीकियाँ और उस पर उनकी प्रतिक्रियायें एक जैसी होती होंगी? मुझे नहीं लगता। शायद ऐसा ही इस दुनिया के साथ है। यहाँ फ़र्क ये है कि हम सब सिर्फ़ दर्शक ही नहीं, खिलाड़ी भी हैं। अन्य विविधताओं के साथ अब कालक्रम को और जोड़ देखिये। आज से सौ साल पहले जो स्थितियाँ थीं, आज एकदम से बदल चुकी हैं तो जबसे मानव सभ्यता का उदगम आप मानें तब से जीवन कितना बदल चुका होगा?

    झगड़ा इसी बात का तो है सर जी कि आज के इस हाई डेफिनिशन व्यूईंग के इस जमाने में जब आप खिलाड़ी के माथे पर आये पसीने की बूँदों को भी साफ साफ गिन सकते हो, हम में से कुछ सदियों पहले किसी कमजोर नजर वाले के द्वारा देखे और वर्णित खेल को ही जीवन का एकमात्र सच मान लेते हैं।

    @ बौद्धिकता के अलग अलग स्तरों पर जी रहे अलग अलग लोगों के मानने के लिये कितने विकल्प और फ़िर उन्हें अपनाने, नकारने या सुधारने की कितनी स्वतंत्रता, मुझे गर्व है जैसा भी हूँ आखिर इस संस्कृति का हिस्सा हूँ। शायद पिछले जन्मों के सुकर्म ही हैं :))

    यह संस्कृति ऐसे ही नहीं बन गयी, इस सहिष्णुता, इस दरियादिली को बरकरार रखने के लिये बहुत कुछ झेला है लोगों ने... एक नया ट्रेन्ड आ गया है आजकल वह यह है कि संकीर्णता को ही कुछ लोग दरियादिली मान-समझ व कहने भी लगे हैं... :(



    ...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. @ धर्म कर्मफल जैसी अवधारणा के तले ढकना चाहता है...'
      कौन सा धर्म यह सिखाता है प्रवीण जी? नगरसेठ वाली बात यहाँ फ़िट होती है न, सुविधानुसार हम धर्म की बात मानते हैं या नकारते हैं। मेरा धर्म तो कर्म करने की ही शिक्षा देता है, वो भी शुभ कर्म। कमी धर्म की नहीं है, मेरी या हमारी है।

      @ जीवन का एकमात्र सच मान लेते हैं
      सब हाई डाईमेंशन व्यू वाले हों तो आपकी बात से अक्षरश: सहमत। बाकी तो जैसी नजर, वैसे नजारे।

      @ सहिष्णुता\दरियादिली
      सरजी, ये दरियादिली कब तक बरकरार रहेगी? विश्वास है कि आप जरूर मेरे इस ’कब तक’ को जरूर समझेंगे, सहमत बेशक न हों:)

      हटाएं
    2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

      हटाएं
    3. @ यह हमारे समाज की सामूहिक नाकामी है

      -फिर तो प्रजनन सँतानोत्पत्ति मेँ विफलता भी समाज की सामूहिक नाकामी है.... :)

      @ किसी कमजोर नजर वाले के द्वारा देखे और वर्णित खेल को ही जीवन का एकमात्र सच मान लेते हैं।

      -सही है बिलकुल सही!! उसी तरह, इन एक दो सदी मेँ उपजी, अँध आवेशी नजर वालोँ की विचारधाराएँ जो शोषण, अत्याचार, भेदभाव और पक्षपात आदि शब्दोँ द्वारा वर्णित दुर्भावोँ प्रतिशोधोँ को ही समाज का एकमात्र सच मान लेते हैं।

      @ यह संस्कृति ऐसे ही नहीं बन गयी, इस सहिष्णुता, इस दरियादिली को बरकरार रखने के लिये बहुत कुछ झेला है लोगों ने...

      -बेशक सँस्कृति की उत्कृष्ट स्थिति बनाए रखने के लिए दयावानोँ, अहिंसको, धैर्यवानो और् सहनशीलो ने बहुत झेला है उन्ही की सहनशीलता के दम से आज सहिष्णुता अपना अस्तित्व बचा सकी,प्रवर्तमान रह सकी. किंतु उन धैर्यवान लोगो के अवदान का फोकट श्रेय, क्रूर, आवेशी, प्रतिशोध भावना वाले और हिंसक वृत्ति वाले तो बिलकुल नही ले सकते, किंचित भी नही. सहिष्णुता तो दयावानो के पास ही शोभा देती है और करूणावानो के पास ही सुरक्षित रहती है.मनमौज और मनमर्जी रूष्ट या तुष्ट करने वालो के पास तो बिलकुल भी नही.

      हटाएं
  5. समझने और कहने का अंतर हैं
    अगर मेरी माँ अपने कर्म के भरोसे रहती तो मेरी भांजी को विदेश नहीं ले जा सकती थी , आप ने उसे भांजी के पिछले जनम के सुकर्म कहे और मैने अपनी माँ का इस जन्म का पुरुषार्थ . अब आप ने खुद ही अपने कहे को उल्ट विस्तार दिया { या मुझे लगा }

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. यही स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि सिर्फ़ भाग्य को या अकेले कर्म को सब कुछ मान लेना पर्याप्त नहीं है।
      उलट विस्तार नहीं है, तस्वीर का दूसरा पहलू है।

      हटाएं
  6. सिर्फ भाग्यफल के भरोसे बैठे रहना जरुर अकर्मण्य बनाता है . कर्म करो और फल की चिंता छोड़ दो , यही सत्य लगता है !

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बिल्कुल यही कहना चाहता था मैं, धन्यवाद वाणीजी।

      हटाएं
  7. संयोग की बात है कि यह पोस्ट पढने से कुछ घंटे पहले ही एक मित्र से बात हो रही थी जब उन्होंने गीता के १८वे अध्याय के १३वे श्लोक और उसके बाद के कुछ उद्धृत करते हुए कर्म के सांख्य दर्शन में बताये ५ उपकरणों की बात की थी. जहाँ केवल अपने कर्म को ही सब कुछ मानना न तो सच है और न सम्पूर्ण वहीँ हाथ पर हाथ धरे बैठना भी. मुझे तो दृढ विनम्र विवेक और संतुलन का मार्ग ही ठीक दिखता है.

    जवाब देंहटाएं
  8. संस्कृति कर्मशीलता के लिये कटिबद्ध रही है, सदा से ही। काम न करने वाले कोई न कोई तर्क या वाक्य ढूढ़ ही लेते हैं। एक वाक्य दो लोगों पर दो तरह से प्रभाव डालता है।

    जवाब देंहटाएं
  9. जिसे जो जो भावे सो करे -दोनों विचारधाराएँ निर्दोष हैं और समान्तर सनातनकाल से चलती आयी हैं !
    मनुष्य का जीवन अनेक हथियाए गए- छूट गए मौकों ,प्रायिकताओं और संभावनाओं से भरा होता है !
    पुरुषस्य भाग्यम (त्रिया चरित्रं च :-) )देवो न जानपि ! :-)

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. इसमें भी आप पुरुष त्रिया वाला टाईम बम ले आये, धन्य हैं आप:)

      हटाएं
  10. कर्म किये बिना तो भाग्य नही बदल सकता ……वैसे भी कर्म किये बिना मनुष्य एक क्षण भी नही रह सकता तो कर्म से कैसे बच सकता है …………कर्म तो हर हाल मे करना ही पडेगा और जैसा कर्म किया होगा उसी के अनुसार उस कर्म का फ़ल मिल जायेगा अब बच्चा पेपर मे उत्तर पूरा लिखकर ही नही आयेगा तो कैसे पास हो जायेगा? बिना कर्म के भाग्य नही बना करता।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सही कहती हैं आप, कर्म आवश्यक ही नहीं अत्यावश्यक है।

      हटाएं
  11. कर्मफ़ल वाली थ्योरी उसमें विश्वास रखनेवालों को किंचित भी अकर्मण्य बनाने में सहायक नही है। बाकि दुरूपयोग तो कहीँ भी हो सकता है, पूर्व मेँ ऑलरेडी प्रमादी ही इन कुतर्को का सहारा लिया करते है.अन्यथा कर्मफल अवधारणा अपने आप मेँ सुकृत कर्म की प्रेरणा ही है. हाँ बुरे कर्म की मानसिकता वाला भले आलसी बना रहे, पूर्व के अच्छे कर्मो का सुखरूप कर्मफ़ल भोगता रहे एक फायदा तो है कि वह नवीन दुष्कर्म और दुष्फल उपार्जित न करे.

    गरीबी, अपंगता या ऐसे ही किसी अन्य दुर्भाग्य को प्रारब्ध या कर्माधीन मानने से आत्मसम्मान क्षीण नही होता, बल्कि एक सुदृढ ध्येय प्राप्त होता है कि- "बीती ताही बिसार के आगे की सुध लेह" अर्थात दुर्भाग्य अगर मेरे पूर्वकृत कर्मो का प्रतिफल है तो मुझे अधिक सावधान रहना चाहिए और आगे के लिए बुरे कर्मफलादि का सँग्रहण नही करना चाहिए, ऐसा आस्थावान निश्चित ही अच्छे कर्म और पुरूषार्थ मेँ प्रयत्नशील रहेगा. अतः कर्मफल अवधारणा से अकर्मण्य बनने का दूर दूर तक कोई सम्बँध नहीँ.

    महावीर से उनके शिष्य गौतम ने पुछा- "भगवन किस जीव का सोना उचित और किस जीव का जगे रहना उचित?" महावीर ने उत्तर दिया- "दुष्कर्मी का सोते रहना भला और सत्कर्मी का जागे रहना भला." इसलिए कोई बुरे कर्मो से निवृति लेकर अफलद्रुप या निष्फलद्रुप कर्मो के प्रति अकर्मण्य बनता है तो स्वय के साथ ही जगत पर महान उपकार करता है. और सदाचारी व सत्कर्मी सजग रहते हुए सकाम पुरूषार्थ को उद्धत होता है अकर्मण्य बन ही नही सकता.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सही पकड़ा सुज्ञ जी, सहायक की जगह ’हम इसमें अपने अकर्मण्य होने की आड़ ढूंढ लेते हैं’ ऐसा लिखने से ज्यादा स्पष्ट होता।
      किस घटनाक्रम को कौन कैसे स्वीकार-अंगीकार करता है, सबके अपने अपने पैमाने हैं सुज्ञजी। मेरी पिछली पोस्ट में दो भाईयों का उद्धरण और आपकी एक पोस्ट में किसी परीक्षा में अनुत्तीर्ण हुये युवा का यह सोचकर खुश होना कि राज्य में उससे ज्यादा प्रतिभाशाली लोग हैं, इसी के तो उदाहरण हैं।

      हटाएं
  12. @ मन में ऐसे विचार आते रहे हैं कि जब सब पूर्वनिर्धारित है ही तो फ़िर क्यूँ किसी खटराग में पड़ना?

    सब पूर्वनिर्धारित कैसे हो सकता है, अधिक से अधिक आपके कर्मो के समकाल समानान्तर फल निर्धारण होगा, अतः पूर्वनिर्धारण का सवाल ही उत्पन्न नही होता. और फल तो परिपक्व होने पर ही उदय मेँ आएगा. और ऐसा प्रबँधन भी सर्वज्ञ के लिए सहज बोध है साधारण कर्मयोगी जानता ही नही कि उसके प्रारब्ध मेँ क्या निर्धारण है तो वह किस दम पर खटराग मुक्त हो सकता है. और फिर पुरूषार्थ से ही प्रारब्ध का सँयोजन हुआ तो बिना पुरूषार्थ प्रारब्ध आएगा ही नही यह भी निश्चित है. कर्म का पुण्य फल भी पुरूषार्थ के योग से ही प्राप्त होना निर्धारित हो सकता है.काल,स्वभाव, नियति, कर्म और पुरूषार्थ इन पाँचो कारणो मेँ पुरूषार्थ का हिस्सा 80% होता है अतः बिना पुरूषार्थ कर्तव्य निभाए मात्र नियति पर निर्भरता सम्भव ही नही.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. नियति अपनी जगह पुरुषार्थ की अपनी जगह।

      हटाएं
    2. फाईनली आपने यह तो माना कि पिछले जनम का कर्म ही सब कुछ नहीं होता है.

      हटाएं
    3. फाईनली नही, प्रथम से और पिछली चर्चाओँ से कहा जा रहा है कि मात्र नियति या पूर्वजन्म के कर्म ही कारण नही होते... यह कारणो का समुच्य होता है और उन कारणो के समीकरण. कोई कर्म पिछले जन्म के भी तो कोई कर्म वर्तमान जीवन के भी तो कोई कर्म आगामी जन्म मेँ फलित होने के भी हो सकते है. केवल कर्म नही, केवल पुरूषार्थ नही, मात्र समय ही नही, केवल वस्तुओँ का गुण-धर्म ही नही, एक मात्र नियति भी नही. इन सभी का समुचित प्रभाव ही निर्धारित करता है. जैसा आगे सलिल जी ने इस तथ्य को 'अल्टीमेट सच' परमसत्य कहा.

      हटाएं
    4. प्रशांत,
      बेशक पिछली पोस्ट में यह नहीं कहा था या यूँ कहिये नहीं माना था तो वजह यही थी कि वो पोस्ट लिखते समय ज्यादा फ़ोकस ’जिन्दगी मिलेगी दोबारा या न मिलेगी दोबारा’ पर था लेकिन फ़ाईनली मैं यही मानता हूँ(पहले से ही) कि ये एक ongoing process है यानि कि सिर्फ़ पिछले जनम का कर्म ही सब कुछ नहीं होता है।
      अच्छा लगता है जब तुम जैसे नौजवान ’हम सम’ को भी ध्यान से पढ़ते हैं, खुद पर गुमान सा होने लगता है थोड़ा-थोड़ा:)

      हटाएं
  13. यह प्रखर यथार्थ है ज्ञान पर् खुद मनन पाठन किये बिना जो परोस दिया गया वही ग्राह्य हो जाता है। सुविधाभोग की आदत ऐसी कि प्रत्येक सुविधा को धर्म मानने को ललचाए जा रहे है और जहाँ कठिनता हो उस धर्म को मूल से ही उडा देने को उद्धत बन गए है.
    बेशक लोकमान्यता, प्रभुसत्ता, मानवीयता, स्वतंत्रता आदि साथ ही उत्तम संस्कृति का हिस्सा होने का सँयोग निश्चित ही पिछले जन्मों के सुकर्म से ही फलदायी हुए है.

    @ 'क्या कुटिल जी, फ़िर वही संकीर्ण विचारधारा?' :)

    वे भी अपनी अपनी विचारधारा को, चर्चा के माध्यम से प्रचार व प्रसार मेँ लगे है बेचारे, इसीलिए एक पुरानी पोस्ट को चर्चा पर चढाकर'इस्लामी दिशानिर्देश'जारी किए जा रहे. प्रचार प्रसार की कमर्शियल विशालता उन्हे ही मुबारक!! उनके हितोँ की काट कर रहे है इसलिए सलाह ग्राह्य नही हो पा रही.और आप तो हमेशा से स्वय को मो सम कौन कुटिल पर उनका क्या कहा जाय जो मँशाए गोपे रखते है. इतना ही आग्रह किया था न कि-'गैर-मुसलमानों के साथ संबंधों के लिए इस्लाम के अनुसार दिशानिर्देश' हमेँ मँजूर नहीँ.....:(
    भई थोपने दो न दिशानिर्देश, सभी की जैसी मति और जैसी गति!! कर्मो की गत न्यारी!!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. दिशानिर्देश!! ..........चढ़े न दूजो रंग :)

      ऐसे महानुभावों के ऐसे दिशानिर्देश सदैव स्वागत योग्य हैं, आभार है उनका।

      हटाएं
  14. आपकी बातों से सहमत... कुछ लोग कर्मफल के कारण कर्महीन हो जाते हैं... इसका नतीजा फिर से अगले जन्म में भुगतते हैं....
    ये और अगला जन्म सुधरने के लिए तो कर्म करना ही पढेंगे न...
    है कि नहीं....:)

    जवाब देंहटाएं
  15. इस विषय पर आज दो लोगों के उदाहरण प्रस्तुत करना चाहता हूँ.
    /
    १. शेक्सपियेर का नाटक मैकबेथ: इसमें तीन चुडैलों का चरित्र और उनके द्वारा की जानी वाली भविष्यवाणियां और उसके परिणाम से बढ़िया कोई उदाहरण मुझे नहीं मिला.(भगवद्गीता से दीगर).. चुडैलों की सारी भविष्यवाणियां सच हुईं, लेकिन उन्हें सच करने की परिस्थितियाँ मैकबेथ ने जिस प्रकार पैदा कीं वो इस नाटक को एक महान शेक्सपियेरन ट्रेजेडी बनाता है. भाग्य और कर्म की इतनी खूबसूरत ब्लेंडिंग बहुत कम देखने को मिलती है और यही कारण है कि यह नाटक आज भी रेलेवेंट है.
    /
    २. जिन दिनों मैं ज्योतिष का अध्ययन कर रहा था तब मेरे गुरू के अतिरिक्त जिन्होंने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया वो थे डॉक्टर बी. वी. रामन. उन्होंने ज्योतिष, भविष्यवाणियां और इन सबसे परे मनुष्य के कर्मों और उसकी पृष्ठभूमि को इतनी खूबसूरती से समाहित कर जो व्याख्या की है वह बस इस बात को ही साबित करता है कि न सिर्फ भाग्य, न कर्म, न प्रारब्ध ही महत्वपूर्ण हैं, बल्कि इन सबों का एक मिला-जुला प्रभाव जिसे हम ही निर्धारित करते हैं वही अल्टीमेट सच है!!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सलिल भाई,
      दोनों उदाहरणों में एक चीज कॉमन है -परफ़ेक्ट ब्लेंड। सिर्फ़ एक तत्व से कुछ नहीं बनता, आपके बताये अल्टीमेट सच से सहमत।
      ज्योतिष अध्ययन भी? one more reason for envying you:)

      हटाएं
    2. पहले हमारी envy समाप्त हो तो आप भी हमसे कर लेना!! आज कई महीनों के बाद सरिता दी (ब्लॉग - अपनत्व)से फोन पर घंटा भर बात हुई. मगर सबसे "बुरी बात" ये लगी कि वो बार-बार कहती रहीं कि मैं संजय के ब्लॉग-पोस्ट बहुत मिस करती हूँ!! तुमसे बात हो तो मेरी यह बात ज़रूर कहना. मैं भी संजय को मेसेज करूंगी! मगर उनकी मित्र के कारण उन्होंने नेट को त्याग दिया है. अभी झांसी और जयपुर जाने वाली हैं. लौटकर मेसेज करेंगी!!
      तो भैया हमारी तरफ से सर्वश्रेष्ठ ब्लॉग में से एक होने के खिताब की बधाई और दीदी के संदेशवाहक बनने की मिठाई!!
      अब तो सचमुच जलन होने लगी है!!
      /
      पुनश्च: इस पोस्ट से परे अपनी बात कहने का खेद जता रहा हूँ!! वैसे मेरे जैसा लिखने वाले के लिए ENVY जैसा शब्द ही काफी है इस कमेन्ट को प्रासंगिक बनाने के लिए!! :)

      हटाएं
    3. ये ’जलन’ और ’बुरी बात’ बहुत अच्छी है:) मिठाई की आपने अच्छी कही, उसकी तो मैं बारिश कर दूँ..

      हटाएं
  16. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अंत में लगाये गीत सहित इस पोस्ट को समझना भारतीय संस्कृति के सार तत्व को समझना है। जो हम सदैव से सुनते-पढ़ते आ रहे हैं। इसमें संतोष है। जो होना है होकर रहेगा..नीयति पर यकीन है। कर्म करते हैं लेकिन फल के पीछे पागलों की तरह नहीं भागते। इसमें बाह्य वैभव नहीं, आत्मिक संतुष्टि है। ..यह एक विचार धारा है।

      एक दूसरी विचार धारा है..पश्चिम की विचार धारा। भौतिकता वादी विचारधारा। श्रम से संसार खरीदने की विचारधारा..जिस पर चलकर उसने खूब तरक्की करी। वैभव तो पा लिया लेकिन इसकी कीमत यह चुकाई कि अपनी आत्मा को ही खोखला कर दिया। वे जब हताश होते हैं तो भारत के योगियों की ओर ताकते हैं। इसमे मजेदार पेंच यह कि अब तथाकथित भारतीय योगी, करते तो अपने संस्कृति की बातें हैं लेकिन उनकी नज़र पश्चिम के वैभव पर टिकी होती है। वे गर्व का अनुभव करते हैं अपने गुरूओं की बताई बातें सुनाकर अकूत धन इकट्ठा करने में। आम आदमी जब उनके कथनी करनी में भेद देखता है तो उनके साथ-साथ अपनी संस्कृत पर भी अविश्वास करने लगता है।

      हम आज दूसरी विचारधारा पर चल निकले हैं। तरक्की कर रहे हैं। श्रम कर रहे हैं। यह नींद बेचकर खटिया खरीदने जैसा है।

      यह दुनियाँ अचरज से भरी पड़ी है। लगता है इसे समझने में एक जन्म नहीं कई जन्म लेने पड़ेंगे। आप तो अभी..कामी-कुटिल, हम तो अभी लोभी-पापी बैचैन आत्मा हैं। :)

      हटाएं
    2. असीम को पाने की अनंत चाह है यह, योगी भोग की तरफ़ आकर्षित होते हैं और भोग से अघाये हुये योग की तरफ़। यातायात, संचार, तकनीक के नये नये साधनों से सभ्यताओं का ये फ़्यूज़न ऐसे ही गुल खिलाता रहेगा। माया को ऐसे ही महाठगिनी तो नहीं कहते।
      आप तो खैर बेचैन आत्मा हैं ही, हमारी कुटिलता भी जगजाहिर हो ही रही है :)

      हटाएं
    3. @ यह नींद बेचकर खटिया खरीदने जैसा है।

      wah dada ne kya baat kahi hai.........apna haal bilkul aisa
      hi hai............

      bakiya, post ke marm ko sahi-sahi samjh nahi pa rahe.....jaise jaise tippani vistar payega, sayad post bhi usi anupat me samajh me aayega ........

      pranam.

      हटाएं
    4. देवेन्द्र जी, यह कमेन्ट फेसबुक पर होता तो लाईक करके निकल लिया होता.. :)

      हटाएं
    5. 'नींद बेचकर खटिया खरीदना' ..यह बात पहले भी कही जा चुकी है। इसे केवल मैने यहां प्रयोग भर किया है।

      हटाएं
    6. @ नामराशि:
      टिप्पणियों का यही तो मर्म है प्यारे, जो एंगल रह जात हैं वो भी दिखाती हैं। नाराज तो नहीं हो न भाई से? :)

      हटाएं
    7. @ D Dada......ye line bullet ke tarah dimag pe laga....hamne pahli bar suna......aage se ji bharkar prayog karenge.......

      @ aap sum......khud se kaun naraj hota hai veerji..........


      pranam.

      हटाएं
  17. दादा कहीं न कहीं कोई न कोई कभी न कभी किसी मोड़ पर किसी न किसी विचारधारा का आसरा लेता ही रहता है.....बेहतर यही होता है कि कुछ करें...जो कि न करने से तो बेहतर होता है..हालांकि कहा जाता है कि इस संसार में सारे झगडे कुछ न कुछ करने वाले लोगो की वजह से है ..आलसी कभी झगडे का कारण नहीं बने..पर लोगो के आलस्य के कारण समाज में जड़ता भी रहती है जिस कारण किसी दूसरे को ज्यादा परिश्रम करना पड़ता है। यानि हर कुछ सिक्के के दो पहलू की तरह एक दूसरे से जुड़ा हुआ है..हमारे लिए सब कुछ उस क्षितिज के समान है जो दिखता तो है पर हमें कभी मिलता नहीं। इसलिए बेहतर है कि कर्म करने की कोशिश करें तो सहीं...जब तक चलेंगे नहीं तो कहीं पहुंचेंगे नहीं..।

    जवाब देंहटाएं
  18. बाउजी,
    चचा नुसरत की ये क़व्वाली सुनिए:
    उत्थे अमलां ते होने ने नेवेड़े, किसे नी तेरी ज़ात पूछनी........

    अब मेरी ढ़पोरशंखियाँ:

    फल केला मिले या आम!
    नहीं होना चाहिए हराम!

    ज़िन्दगी जीने की कुछ ऐसी कला करिए!
    हो सके तो किसी का भला करिए!

    ढ़ (बाबाजी)
    --
    द स्पिरिचुअल कनेक्ट: ए ट्रिब्यूट टू मम्मी

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. चचा नुसरत ने गाई थी, शायद बुल्ले शाह की काफ़ी है। सोणी है हमारे मंगली मैनेजर की तरह..

      हटाएं
  19. कर्म के सिद्धान्‍त को जो भी भाग्‍यवादी बात मानता है वह इस सिद्धान्‍त को समझता ही नहीं है।

    जवाब देंहटाएं
  20. मेरा एक कजिन है जो अक्सर कहता है कि भाई-साहब , जो लोग ये कहते है की इर्ष्या नहीं रखनी चाहिए तो वो सरासर गलत बात है ! जा इन्सान में इर्ष्या उत्पन्न होगी तभी वह पधोसी से बढ़िया मकान बनाने और बड़ी गाडी खरीदने की सोचेगा !

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मेरा अभिवादन पहुँचायेगा कज़िन तक।

      हटाएं
    2. और जैसी गाड़ियाँ और माकन बन रहे हैं उनसे बेहतर और सस्ते बनाने के लिए ईर्ष्या की कोई ज़रूरत नहीं.

      हटाएं
  21. बहुत कठिन है यह बता पाना की कर्म का पलड़ा भारी है या भाग्य का , एक ही फार्मूला सबके लिए कारगर हो यह संभव कहाँ बन पड़ता है? त्रेता की बात द्वापर में , द्वापर की बातें कलियुग में, और कल की बात आज अपना औचित्य खोती नज़र आती है . मेरी समझ में कर्म और भाग्य का समन्वय इसका सही हल होना चाहिए. यहाँ फिर कम करता है की दृष्टि किसकी है और दृष्टिकोण किसका है? हर युग नहीं शायद हर पल सब कुछ एक दुसरे के सापेक्ष बदलता नज़र आता है तब आपकी बातों से मैं भी पूर्णतः सहमत हूँ.. जीवन को विहंगम दृष्टि देता चेतन पोस्ट .

    जवाब देंहटाएं
  22. पुरुषार्थ ही संचित होकर प्रारब्ध बन जाता है।
    अर्थ वही है, कृत कर्म का फल कभी-न-कभी बूमरैंग की तरह लौटकर आएगा ही।

    जवाब देंहटाएं
  23. कई बार तो लगता है की भाग्य ही बलशाली है मगर बिना कर्म के वो भी शायद कुछ कर पाए। इसलिए कर्मप्रधान होना ज्यादा जरुरी। अच्छी पोस्ट।

    जवाब देंहटाएं
  24. जन्म के साथ ही मिलने वाली शारीरिक अक्षमताएं- विषमतायें ,परिवेश ,आर्थिक- मानसिक स्थितियां सभी के लिए भिन्न क्यों होती होंगी भला?कई बार ऐसे सवाल ,ऐसी जिज्ञासाएं मन को मथ देती हैं. सब प्रकार से संपन्न जातक क्या ईश्वर से किसी विशेष प्रकार के सम्बन्ध रखने वाला होता है और विपन्नताओं (सभी प्रकार की) में जन्मने वाला जातक क्या किसी ईश्वर विरोधी गुट से ताल्लुक रखता होगा भला? फिर जन्मकालीन विषमतायें इतनी अधिक क्यों देखने को मिलती हैं.यह प्रश्न कुछ कुछ मुझे उस प्रश्न से मिलता जुलता लगता है जो एक नादान विद्यार्थी द्वारा रिसल्ट निकलने के बाद पूछा जाता है.
    कम व अधिक अंक हासिल करने का पैमाना वह अध्यापक से निकटता अथवा उसकी व्यक्तिगत चाहत से तोलने लगता है.वह यह नहीं जानता की अध्यापक स्वयं मजबूर है विद्यार्थी द्वारा उत्तरपुस्तिका में लिखे जवाबों के अनुसार अंक देने हेतु.यहाँ अध्यापक की व्यक्तिगत पसंद-नापसंद कोई अर्थ नहीं रखती.रिसल्ट बनाते गुरूजी के लिए सभी एक सामान हैं.अंक अधिक या कम उनका स्वयं के कर्मों का प्रतिफल है. जहाँ तक बात मेरी समझ में आई है वह ये की जीवन में सब कुछ भाग्य से मिलता है और भाग्य कर्मों के अनुसार बनने हेतु बाध्य होता है."
    इसी प्रकार जन्मजात हासिल अवस्थाएं देने हेतु भाग्य के अपने हाथ बंधे हैं,वह बाध्य है हमारे कर्मानुसार हमारा जीवन बनाने के लिए

    जवाब देंहटाएं
  25. आज कल के हालात देख कर तो शक सा होने लगता है कि‍ ये पुराने ग्रंथ लि‍खने वालों की ही संताने हैं हम ?

    जवाब देंहटाएं
  26. कर्म/ भाग्य के मैच में ये गीत बहुत अच्छा लगा। :)

    जवाब देंहटाएं

  27. .
    @ एक आपत्ति जिसकी मुझे
    सबसे ज्यादा आशंका थी, वो मुखर
    रूप से किसी की तरफ़ से नहीं आई
    कि कर्मफ़ल वाली थ्योरी उसमें
    विश्वास रखनेवालों को अकर्मण्य
    बनाने में सहायक होती है।
    आपको ऐसा लगता हो या नहीं लेकि
    न मुझे जरूर ऐसा लगता है।
    ना जी ना ।
    किसीको जवाब देते हुए मैंने भी अपनी टिप्पणी में कहा था कि इस थ्योरी की वजह से अभावग्रस्त या बीमारों को उन्ही के हाल पर छोड़ दिया जाता है।थोडा तरीका अलग था पर मतलब कुल मिलाकर यही था कि इसकी वजह से लोग अपने कर्तव्य से भागते हैं।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. ये मुखर वाली आपत्ति नहीं है न राजन, मुखर वाली तो वैसी होती है कि ... :)

      हटाएं
    2. राजन जी,

      एक 'चर्वाक' और शायद 'आजीवक' दर्शन को छोडकर लगभग सभी भारतीय धर्म-दर्शन 'कर्मफ़ल थ्योरी'में विश्वास करता है. कभी आपने सुना कि कोई समाज या सम्प्रदाय अकर्मण्य होकर अपने अभावग्रस्त या बीमारों को उन्ही के हाल पर छोड़ देता है, या ऐसी कोई विचारधारा विद्यमान है? नहीं कोई नहीं है. अभी तक कोई भी इस भावना के साथ अकर्मण्य नहीं बना. उलट उनकी आस्था होती है कि यह कर्तव्य ना निभाया गया तो फिर उनके लिए भी कर्मफ़ल तैयार है.
      निष्काम कर्म का आग्रह हो सकता है निष्फल कर्म नहीं होते. सविनय

      हटाएं

सिर्फ़ लिंक बिखेरकर जाने वाले महानुभाव कृपया अपना समय बर्बाद न करें। जितनी देर में आप 'बहुत अच्छे' 'शानदार लेख\प्रस्तुति' जैसी टिप्पणी यहाँ पेस्ट करेंगे उतना समय किसी और गुणग्राहक पर लुटायें, आपकी साईट पर विज़िट्स और कमेंट्स बढ़ने के ज्यादा चांस होंगे।