सोमवार, फ़रवरी 04, 2013

पहचान

बात पुरानी ही है, हजारों साल पुरानी न सही लेकिन हजारों दिन पुरानी तो होगी ही। हमारे एक बॉस हुआ करते थे, अभी तो रिटायर्ड लाईफ़ बिता रहे हैं। दिल के बहुत वड्डे, कर्मठ, उत्साही, जुगाड़ी। बॉसपना छूकर नहीं गया था उन्हें, सब सहकर्मियों के साथ  मित्रवत व्यवहार ही रखते थे । स्वभाव की बात करें तो अपने से एकदम उलट थे, हम न मदद लेने में यकीन रखने वाले न मदद देने में और वो आधी रात को भी कोई साथी फ़ोन कर देता तो कैसी भी मदद करने को तैयार। इसी तरह से जरूरत पड़ने पर मदद मांगने में भी नहीं हिचकते थे। बैक की नौकरी के अलावा पार्टटाईम में प्रापर्टी का काम भी कर लेते थे, उस पुराने जमाने में कमाई का एक अच्छा जरिया एस.टी.डी. कनैक्शन भी किसी के नाम से ले रखा था। दूसरों को भी पैसे कमाने के नुस्खे बिना फ़ीस लिये बताते रहते थे।
एक पियन साथी को एक दिन कहने लगे कि यहाँ से छुट्टी होते ही गांव भाग जाता है, क्या करता है वहाँ?  
वो बताने लगा, "करणा के सै जी, जाके हाथ मुंह धोके चार भाईयां गेल बोल बतला ले सैं, हुक्का-पानी पी ले सैं, बस।"
"तो शाम को दो तीन घंटे सब्जी की रेहड़ी लगा लिया कर, सौ-पचास रोज के बन जाया करेंगे बाहर बाहर ही।"
अब हरियाणा के आदमी को आप जानो ही हो, उधार नहीं रखता अपने सिर। वो बोला, "आप एक काम करो जी, एक  झोटा बांध लो। दिन में एकाध भैंस भी नई होण तईं ल्याओगा कोई तो सौ पचास आपके भी बन जायेंगे बाहर बाहर से।"
बॉस हमारे बुरा नहीं मानते थे, जानते थे दुनिया ऐसी ही है। इसके बाद भी स्कीमें बनाते रहते थे, बताते रहते थे। हमें भी दो चार स्कीमें बताईं लेकिन हम तो टालते रहे। उन दिनों वो अपने बच्चों को सैट करने के लिये एक गैस्ट हाऊस बनाने के प्रोजैक्ट में जुटे हुए थे। बड़ा प्रोजैक्ट था, खूब पैसा लग रहा था।
उन्हीं दिनों की बात है,एक दिन कहने लगे कि सरसों का सीज़न है। कुछ पैसा उधर लगाया जाये तो अच्छा फ़ायदा होगा। अभी खरीद लेते हैं, दो चार महीने बाद मुनाफ़े पर बेच देंगे। उनके पैतृक शहर में कई आढ़ती उनके जानकार थे, क्वालिटी पहचानने न पहचानने की कोई समस्या नहीं और न ही खरीदने-बेचने के समय मंडी जाने की समस्या। अपनी ही प्रोपर्टी में सरसों रख दी जायेगी, किराया भाड़ा भी कुछ नहीं। पहले उसी बाहर बाहर वाले साथी को तैयार करने का जुगाड़ किया। उस भले आदमी ने गेंद मेरी तरफ़ सरका दी कि संजय भी व्यापार में शामिल हो तो वो भी थोड़ी घणी पूँजी लगा देगा। सच बात तो ये है कि उस सरसों खरीद के विवरण जानकर मैं भी बाहर बाहर से कुछ कमाने के लिये कन्विंस हो चुका था।
घाटे का तो कोई चांस था ही नहीं, संयुक्त परिवार में रहने वाला मैं अब इस सोच में पड़ गया कि ये बंपर मुनाफ़ा मैं अकेले अकेले खा जाऊं तो नैतिक रूप से वो सही होगा या नहीं? ’जहाँ चाह वहाँ राह’ वाली तर्ज पर राह निकाली कि पूँजी पिताजी से ली जाये, मुनाफ़ा जो होगा वो भी पिताजी तक ही पहुँचाया जाये, माल मालिकों का, मशहूरी कंपनी की। डील हो गई और बॉस के पचास हजार और हम दोनों जूनियर पार्टनर्स  के पच्चीस-पच्चीस हजार की आरंभिक पूँजी  से  ’ईर बीर फ़त्ते’ फ़र्म अघोषित रूप से व्यापार में कूद गई।
पहले ही बता चुका कि कई हजार दिन पहले की बात है, इसलिये करबद्ध प्रार्थना है कि हमारे हिस्से की पच्चीस हजार की रकम पर ज्यादा ध्यान न दिया जाये। अरे भई,  पुरानी फ़िल्मों में इतनी रकम की फ़िरौती की माँग के कई उदाहरण मिल सकते हैं।
हमारे सामने ही एक आढ़ती से फ़ोनपर सरसों खरीद लेने की पुष्टि हो गई। हालाँकि खरीद दर  अखबार में दिये गये रेट से कुछ ज्यादा लगी लेकिन बताया गया कि अखबार में तो स्टैंडर्ड रेट आते हैं, हमारे नाम पर खरीदी गई सरसों हाई क्वालिटी की थी इसलिये रेट ज्यादा है। व्यापार के गुर धीरे धीरे ही आते हैं। अब हम लोग अखबार में ’बलात्कार’, ’हत्या’, ’चार बच्चों की माँ आशिक के साथ भागी’ जैसे समाचार बाद में देखते थे, उससे पहले ’आज के भाव’ में सरसों का रेट देखते थे। आने वाले समय में सरसों की माँग उठ सके, इस मिशन के तहत अपने और अपनों के घरों में सरसों के तेल का और दूसरे उत्पादों का प्रयोग बढ़ाने के तमाम प्रयास शुरू कर दिये गये।
महीना भर हुआ था कि बॉस ने बताया कि उनकी जिस प्रापर्टी में सरसों का भंडारण किया गया था, उस प्रापर्टी को बेचना पड़ गया है। अब एक विकल्प है कि सरसों जिस भाव बिके, बेच दी जाये या फ़िर उसके भंडारण के लिये किराये की जगह ली जाये। चूँकि अभी सीज़न चल रहा था, सरसों ऊंचे भाव पर बिकनी नहीं थी, फ़र्म ने फ़ैसला लिया कि किराये की जगह पर सरसों का भंडारण किया जाये।
चार पांच महीने बीत गये थे, अखबार बता रहे थे कि सरसों के प्रति क्विंटल भाव कम से कम साढ़े चार सौ रुपये ज्यादा हो चुके थे, बिग पार्टनर से कहा गया कि सरसों बिकवा दी जाये। आढ़ती को फ़ोन पर कह दिया गया। ये कहना सुनना कई दिन तक चलता रहा। इधर आढ़ती के यहाँ कभी ये पंगा कभी वो पंगा शुरू हो चला था, उधर अखबार में सरसों के  भाव गिरने शुरू हो चुके थे। एक दिन गरमागरमी में कहा गया कि जिस रेट पर निकले, इसे निकलवाओ। वो निकाली गई, बेईज्जत होकर निकली तो उसने भी कसर पूरी निकाली। वैसे भी खरीद के समय अखबार रेट से ज्यादा का आरोप था तो इस बार अखबार रेट से कम पर निकली। कई हिसाब बराबर हो गये। अब वहाँ से पेमैंट और हिसाब आने का इंतजार था, हफ़्ते दो हफ़्ते में वो कयामत की घड़ी भी आ गई, जब सब हिसाब किये जाने थे। 
खरीद पर कमीशन, बिक्री पर कमीशन, किराया-भाड़ा, दामी, बारदाना (कई शब्द मैंने पहली बार सुने) वगैरह वगैरह काटकर हिसाब समेटा गया तो अपने हिस्से में सिर्फ़ बाईस सौ रुपये का घाटा आया। पूँजी पिताजी की लगवा रखी थी तो उन्हें  घुमाफ़िराकर पच्चीस हजार पर तीन सौ का लाभ दिया क्योंकि अपना रेट तो  दस परसेंट का है, घाटा हो या फ़ायदा।
हम सरसों के व्यापारी के रूप में अपने फ़्रेंड्स सर्किल में बहुत मशहूर हुये। कई महीनों तक लोगों के मनोरंजन का साधन बने रहे। लोग चाय सिगरेट मंगवाते थे, आधी पी चुके होते तब जालिम लोग पूछते, "और सरसों का व्यापार कैसा रहा?" न आधी पी जाती, न उगली जाती।  सबसे ज्यादा मजे भोला द ग्रेट लेता था, "मैं सौ रुपये मांगता तो देने से पहले मुझे सौ बात सुनाते थे, हुण आया न स्वाद पच्चीस सौ रुपईये दा घाटा खाके? वड्डे ब्योपारी बनण चले सी"  और यहीं नहीं, जब जब घर आता तो मेरे लाख मना करने के बाद भी  पिताजी के सामने भी बात छेड़ता, "संजय बाऊ, दुबारा सरसों कब लेणी है?" मैं आँखों-आँखों में डाँटता रहता और वो चाय पीता रहता और हँसता रहता।
उस सच्चे सौदे के बाद बॉस की और उस हरियाणवी साथी  ’अभय सिंह’ की नोंक-झोंक खूब चलती रही। एक दिन अभय सिंह बॉस पर भारी पड़ रहा था कि आपको आढ़ती की पहचान ही नहीं थी और बॉस ने मायूस सा होकर कहा, "यार, मुझे तो वो आढ़ती एकदम सीधा-सादा लगा था। गोरा-चिट्टा, मासूम सा।" अभय एकदम से भड़क गया, "यो पैहचाण सै सही गलत की? देखण में गोरा चिट्टा था तो हमने के उसकी पप्पी लेणी थी?"
आप भी सोचेंगे कि इस मो सम को ये बात आज कैसे याद आई? अखबार में पूरे पेज पर राहुल की फ़ोटो और प्रोफ़ाईल देखकर माताजी मुझसे कह रही थीं, "ओय संजय, इसका भी जन्म 1970 का ही है, तेरे जितना ही है ये।" माँ है न, नहीं जानती कि इतने से शब्दों से कितना बड़ा मानहानि का केस बन सकता है। फ़िर बात चली तो कहने लगीं कि बच्चा दिखता एकदम से सीधा साधा है, छल कपट से दूर। माँ है न, नहीं जानती कि किसी के दिखने या लगने से जिस जिम्मेदारी की अपेक्षा लगा लेते हैं हम लोग, उसके लिये सीधा-सादा होना या दिखना ही बहुत नहीं होता। 
उसके दिखने वाली बात पर मुझे अपने पुराने बॉस, अभय और वो गोरा चिट्टा आढ़ती याद आ गया, माँ ने पूछा भी कि हँसता क्यों है, क्या बताता उसे? ऐसी बातें सिर्फ़ दोस्तों के साथ ही तो हो सकती हैं न...
बहुत दिन हुये गाना नहीं लगाया था, चलो  आज यही सही:)
                                                

52 टिप्‍पणियां:

  1. 'अर्थ' के वास्ते सरसाये से लोगों के 'सरसों' के व्यापार पर टिप्पणी नहीं करना चाहता :)...पर 'सरसाना' लफ्ज़ पहले भी पढ़ा / सुना है...ज़रा दूसरे ही तरह के अर्थों में :)

    चन्द्रकान्ता संतति में नायिका , एक अदद नायक की उम्मीद में है सो कहती है कि ...
    आम पके, नीबू पके, पात रहे, सरसाय !
    माली वाको है नहीं बिन माली बाग सुखाय !!

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    1. अली साहब, दूसरे वाले के बारे में पहले बताना चाहिए था न:)

      बाकी बाग और बाग के माली पर हमारे मोहम्मद सिद्दीक साहब ने भी एक पंजाबी हुंकार भर रखी है -
      ’आ गये जदों बाग दे माली,
      केड़ा जाऊ खेड गुलाली’

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  2. धंधे के अनुभव मजेदार रहे। सत्तर की पैदाइश वाले संयोग भी चकाचक हैं। हमें तो अब भी लग रहा है कि आप फ़िर से हजारो दिन पहले वाला काम आजमाओ। भाई साथी ब्लॉगर हैं न ! इतनी सलाह तो देने का हक बनता ही है।

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    1. हक तो आपका पूरा बनता है सरजी, बस दो ढाई हजार दिन की कसर है फ़िर यही सब आजमाने का विचार है।

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  3. अगर यह चिकना भी पप्पी दे देगा तो समझो लाभ की उम्मीद नहीं रहेगी, और नहीं देगा (जो देनी भी नही है)तो यह लूट कर ले जायेगा, आखिर खानदानी आढ़ती है, कई पीढ़ी देश लूट रही है।
    चलिये सस्ते घाटे में निपट लिये..............

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    1. इसे आगे करके लूट भी दूसरे ही लेंगे भाई, मोहरा है ये तो।

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  4. किसी के दिखने या लगने से अंदाजा नहीं लगा सकते -सही है ...अब आपको ही तो देख रहे हैं ... हजारों दिन तो हो ही गये होंगे ....पहले पता था क्या कि ... :-)

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  5. कुछ धंधे ऐसे भी हैं जिसमे गोराई चिट्टाई भोलापनाई के अपने अलग लाभ हैं... धंधे धंधे की बात है... वैसे झोट्टे वाला धंधा काला ज़रूर है पर घाटे का नहीं है...

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    1. ये किस्सा भी सुनायेंगे किसी दिन ठाकुर साहब, बड़े पापड़ बेले हैं घर की गाय-भैंस का दूध पीने के चक्कर में।

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  6. ऐसी भी एक हसीन नादानी.

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  7. ईर बीर फत्ते 22 सौ में छूट गए ये बहुत बड़ी बात है :)

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    1. भोला एक ज्ञान और देता था कि कागजों में ही नहरें खुद रही हैं।

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    1. यूँकि सरसों के व्यापार में तेल ही आना जाना था, ’सीताराम सीताराम।’
      हाँ, नहीं तो..!!

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  9. सही बात है जी , दिखने से होणे का के वास्ता !

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  10. dhande me 'nuksan'..........ki bharpai dhande ke 'anubhav' se kar li jati hai............

    bakiya, pathkon ne jo maje liye o apke 'hazaron din' pahle hue nuksan ka 'vyaj' raha......

    hum to kahenge ke 'eer-veer-fatte' ke navi jori bana kar koi nawa dhanda suru kiya jai......purane anubhav kab kam aayenge.....


    pranam.

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    1. तो पार्टनरशिप पक्की समझूँ न मौसीजी, आई मीन नामराशि? :)

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    3. बताओ शिल्पाजी, ’नौ नंबर के एक टंकी’ या ’एक नंबर के नौ टंकी’?
      हे राम, ये दिन भी देखने थे!!

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    4. :) :)

      एक नंबर के नौटंकी हों या नौ नंबर के एक टंकी - हमें तो बड़े भाते हैं इनके किस्से और इनकी किस्सागोई :)

      स्वप्ना , संजय भाईजी को बेशके नुक्सान हुआ हो "बिजनेस" में, हमें तो यहाँ आकर दुई दुई फायदे हुए हैं - बताइये का ?

      एक तो हम संजय जी के लेखों को पढने लगे - हुआ न फायदा नंबर 1 ?
      और दूसरा फायदा ई - के यहाँ से आपकी टिप्पणियाँ पढ़ पढ़ कर आपके भी हम फैन हो गए - और आपका भी बिलोग पढने लगे । फायदा नंबर दो :)

      तो करें ये "एक नंबर की नौटंकी" या "नौ नंबर की एक टंकी" - हमारे लिए तो बिजनेस फायदे का ही हो रहा है :)

      हाँ नहीं तो :)

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  12. @ "और सरसों का व्यापार कैसा रहा?"

    काम बंद क्यों कर दिया ...?
    घाटा मुनाफा तो व्योपार में होता ही रहता है संजय बाऊ ..दिल छोटा न करो !
    वैसे एक किलो सरसों का तेल अपने घर में भी आता है !
    वैसे अगर चाहो तो मैं भी आपके साथ तैयार हूँ , अगला चांस मिलने पर खबर करना , आप जैसा पार्टनर कहाँ मिलेगा ...
    शुभकामनायें !

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    1. ये तो और भी जुल्म है सतीश भाईजी, वो बंदे तो काफ़ी कुछ पिलाकर पूछते थे और आप सूखे-सूखे ही, जे अच्छी बात नहीं है:)

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    2. अगली बार मिलने पर चर्चा करते हैं , चाय बैंक वाली पियेंगे :)

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  13. संजय बाऊ ..दिल छोटा न करो ! व्योपार में aur pyar main kaha gay hai ki ...

    kuch paakar khona hai ..aur kuch khokar pana hai..ab tak व्योपार में hote to bahut badde व्योपार में ke malik hote ...aaj bhee malik ho lakin apnee marji ke...


    jai baba banaras...

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    1. कह कहकर दिल की छोलदारी की कनात बनवा दोगे कौशल जी, अरे आप तो गाँव के आदमी हो यार:)
      जय बाबा बनारस।

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  14. बाऊ छड यार धंधे दियां गल्लां - नफ्फा ते टोटा चलदा रहंदा है

    बाकि विश्व में एकमात्र १९७० वाला यही 'इस्मार्ट' पाडा बचा है.

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    1. फ़िर वही बात कर दी बाबाजी, ’इस्मार्ट’ है तो हमने क्या पप्पी लेनी है इसकी? :)

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  15. सरसों का व्यापार आपको ही मुबारक, हमें तो तेल में पूड़ी तलकर खाने में ही मजा आता है। ७० में होना था तो हो गये, दूसरों के अपराध की सजा थोड़ा न लेंगे।

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    1. आपका दृष्टिकोण तो हमेशा से सकारात्मक है प्रवीण जी, अब तो हमें भी तेल में तलकर पूड़ी खाने में ही मजा आता है।






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  16. नमस्कार संजय भाई!
    हम कहा चलो हमहूँ, सरसों देख आईं!
    पर लोक्की कईन्दे, "तेल वेक्खो ते तेल दी धार वेक्खो"!

    जी कुछ मजा सा नहीं आ रहा ,इन दिनो!

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  17. अरे पोस्ट के बारे में नही! वैसे ही देश,दुकान और समाज के हाल देख कर मजा सा क्या, कुछ भी नहीं आ रहा!

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    1. ’मजा सा’ गया तेल लेने, हमारे कुश भाई आ गये तो हमें मजा आ गया।

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  18. एक और कहावत है की आँखों से देखने के बाद ठोक बजा के भी देख लो , लगता है की आप लोगो ने उसे ठोका बजाय नहीं था तो बाद में आप की बैण्ड बजी । जिस गोर चित्ते की बात आप कर रहे है लो जी उसका तो एक सरनेम ही काफी था सभी को ये मान लेने के लिए की ये तो पैदा ही हुए है हम पर राज करने के लिए , गोरा चिट्टा , भोला भाल होना तो बोनस हो गया जी , और माँ जो कहती है वो हमेसा सही कहती है उनकी भी माँ ने कहा था की सत्ता जहर है देखते है की अपनी माँ की बात मानते है और उस जहर से दूर रहते है ( अपनी माँ की तरह ही ) या नील कंठ बनने को तैयार है :)

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    1. कोशिश तो उन त्यागमूर्तियों की यही रहेगी कि दूसरा कोई सत्ता वाला जहर गलती से भी न पी सके।
      बाई द वे, खुशामदीद है जी :)








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  19. इसे कहते हैं

    भरोसे की भैंस पाड़ा जणती है...


    घाटा व्‍यापार में नहीं भरोसे में हुआ.. :)

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    1. जोशी राजा, इस मुहावरे के लिये कोटिश: धन्यवाद।

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  20. बसंत में अब कुछ याद रहे न रहे, सरसों का व्यापार याद रहेगा....

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  21. अभी अगर इच्छा हो तो बताइयेगा... इस बार गोरे चिट्टे की जगह किसी सांवले सलोने को देखते हैं...
    हा हा हा
    :)

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  22. हमने तो अज तक आपकी फोटो तक नहीं देखी -संजय से कुछ आईडिया लगा रहा हूँ :-)
    बड़ा मजा आया -चले थे व्यापारी बनने -हुंह! :-)

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  23. भाई साहब शानदार संस्मरण और व्यापार संरचना ...

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  24. पूरी कथा का सार तो अंत में ही है.... रोचक संस्मरण

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  25. मुझे लगता है हम बेंकर्स व्यापार और व्यापारियों को समझ लेने का स्वाँग ही करते हैं.

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  26. सर ,शेयर कर रहा हुं 😂😂😂😂😂 । मुझे तो ऐसे धंधों की अक्ल पिता जी से आ गई थी। उन्होंने "दोस्तों" के साथ मिलकर 1979 में फर्नीचर का काम किया था । धोखे, लोन,बैंक,कोर्ट केस से छूटे 1994 में जाकर ।

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  27. मैंने तो कई साथियों का हश्र देखकर ही शिक्षा प्राप्त कर ली कि कारोबार जैसी जटिल चीज अपने बस का रोग नहीं।
    वैसे अब तो आप फुलटाइम भी आजमा सकते हैं अपना व्यावसायिक हुनर।

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  28. मैंने तो कई साथियों का हश्र देखकर ही शिक्षा प्राप्त कर ली कि कारोबार जैसी जटिल चीज अपने बस का रोग नहीं।
    वैसे अब तो आप फुलटाइम भी आजमा सकते हैं अपना व्यावसायिक हुनर।

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