शुक्रवार, मार्च 22, 2013

जंगल कथा


                                                                 (चित्र गूगल से साभार)                        

एक नन्हा, चंचल, उत्साही  खरगोश कड़ी धूप में इधर उधर डोल रहा था। छाया का कहीं नामो निशान नहीं था।  हाथी महाराज नहा धोकर मस्त मलंग की तरह सो रहे थे।  धूप से त्रस्त  नन्हें खरगोश ने उस विशालाकार वस्तु की परिक्रमा की और उसे एक मजबूत किला\ईमारत मानते हुये उस महल के पिछले दरवाजे में सिर घुसाया और गर्मी के चलते प्रवेश  भी पा गया जैसे उदारीकृत पासपोर्ट नीति के तहत एक देश के नागरिक दूसरे देश में प्रविष्ट हो जाते हैं। भीतरी नमी और ठंडक के चलते उसे नींद आ गई, किसी एक कोने में वो भी सो गया।  उधर शाम हुई तो हाथी उठा और चल दिया। अब खरगोश की हालत खराब, हाथी के चलने से बेचारा कभी इधर गिरता, कभी उधर। उसे समझ आ गई कि महल के भुलावे में वो कहीं और आ फ़ंसा है। सूरज की किरणें अंदर पहुँच भी नहीं पा रही थीं, हाथी के पेट के अंदर गैस, गड़गड़ाहट और दूसरी स्वाभाविक क्रियायें भी वातावरण को उस बेचारे खरगोश के लिये भारी सिद्ध हो रही थीं। तापमान कम हो जाने के कारण बार्डर प्रवेश-निकास द्वार के फ़ाटक भी बंद हो चुके थे। वह रात उस मासूम पर कयामत की रात की तरह गुजरी। अगले दिन लगभग वही दिन का समय था और वही मुद्रा, खरगोश को  सिमसिम खुला मिला और वो जान छुड़ाकर बाहर कूदा। संयोग से फ़त्तू वहीं से गुजर रहा था, उसने ये करिश्मा देखा तो भागकर उस आलौकिक खरगोश के पांव पकड़ लिये। अब खरगोश था कि मुश्किल से एक मुसीबत से निकला और दूसरी ने पैर पकड़ लिये थे। वो बेचारा अपने पैर छुड़वाने की कोशिश करता था और फ़त्तू अंधश्रद्धा के चलते जिद किये  कि पहले मुझे उपदेश दो, फ़िर जाने दूँगा। तंग आकर खरगोश ने कहा, “बालक, यही है हमारा उपदेश और यही है हमारा संदेश कि  बड़ों के भीतर घुस जाना तो बहुत आसान है लेकिन  बाहर निकलना बहुत मुश्किल।”

हाथी राजा के पास सी.बी.आई होती तो क्या स्थितियों में कोई अंतर आता? खरगोश के बाहर निकलते ही उसके ठिकानों पर हाथी महाराज छापा डलवा देते कि साले तैंने इतने साल पहले फ़लाने के खेत में से मूली उखाड़ी थी।  ये वाला खरगोश तो सिर के बल पुनर्प्रवेश की सौगंध खाता ही, उसके दूसरे बिरादर भी उछल उछल कर अपनी इच्छा प्रकट कर रहे होते कि हमें सेवा का मौका दिया जाये। प्रपंचतंत्र की इस कहानी में आप और क्या कल्पनायें  देखते हैं?                                                                                                                                                

शुक्रवार, मार्च 15, 2013

श्रद्धाँजलि.

                

                   आजीवन ऋणी रहेंगे तुम्हारे

                                  
श्रीनगर में हुये तेरह मार्च 2013 के  फ़िदायीन हमले में शहीद पाँच 

सी.आर.पी.एफ़. जवानों के नाम - 

1. हुतात्मा कांस्टेबल ओम प्रकाश निवासी सिहोर, मध्य प्रदेश
2. हुतात्मा कांस्टेबल पेरुमल निवासी मधुरा, तमिलनाडु
3. हुतात्मा कांस्टेबल सुभाष सौरव निवासी रांची, झारखंड

4. हुतात्मा कांस्टेबल सतीसा निवासी मंदिया, कर्नाटक
5. हुतात्मा एएसआइ एबी सिंह निवासी उज्जैन, मध्य प्रदेश


उपरोक्त चित्र व सामग्री मनु प्रकाश त्यागी जी  की पोस्ट  Attack at crpf camp ,facebook news
से साभार।


शनिवार, मार्च 02, 2013

दो बोरी..

ये वो समय था जब लगभग हर  घर में कम्प्यूटर और हर हाथ में मोबाईल नहीं होते थे। अपने देश में तकनीक की हद वी.सी.आर. और वी.सी.पी. तक ही पहुँची थी। कुछ उच्च मध्यमवर्गीय परिवारों के पास अपने वी.सी.आर.\वी.सी.पी. थे और कुछ नीचे के पायदान के  शौकीन लोग फ़िल्मों के शौक के लिये वीडियो-पार्लर वालों पर निर्भर थे क्योंकि पूरे परिवार को साथ लेकर सिनेमा हॉल तक जाना भी सबके लिये संभव नहीं होता था। रात भर के लिये वी.सी.आर. किराये पर लाये जाते और कीमत वसूली के परंपरागत देशी रिवाज को निभाते हुये कम से कम तीन फ़िल्मों के कैसेट्स लाये जाते थे। बड़े परिवार थे,  अड़ौस-पड़ौस में आना जाना भी रहता ही था। प्राय: पहला शो किसी धार्मिक या पारिवारिक फ़िल्म का होता था, जो सुबह होने तक एक्शन या रोमांस फ़िल्मों के शो में बदल जाता था। उस समय का अपना ही आनंद था। बहुत बार तो शाम होते तक बात फ़ैल जाती थी कि आज फ़लाने के यहाँ वी.सी.आर. आ रहा है और फ़लां फ़लां फ़िल्म लाई जायेगी। कोई ज्यादा ही सीक्रेसी मेन्टेन करने वाला होता था तब भी देर सवेर ही सही बात तो खुल ही जाती थी। जब दो जने तामझाम लेकर आते थे तो सीक्रेट मिशन की चुगली हो ही जाती थी और फ़िर फ़िल्म देखने के न्यौते, अपने परिवार वालों से रात भर किसी दोस्त के यहाँ रहने की स्वीकृति, पूरी राजनीति चलती थी। सौ बात की एक बात, वीडियो पर फ़िल्म देखना एक सामाजिक उत्सव की तरह से होता था।

एक दिन मैं शायद कॉलेज से लौट रहा था तो देखा कई लड़के घेंधू के साथ कुछ मसखरी कर रहे थे और वो जवाब में हमेशा की तरह खिसियाते  हुये और हँसते हुये पार्लियामेंट्री भाषा में  उनकी ऐसी-तैसी कर रहा था। अब तमाशा हो रहा हो और मैं चुपचाप वहाँ से निकल जाऊँ, ऐसा हो नहीं सकता। मैं रुककर तमाशे की वजह पूछने लगा। अब हमारे यहाँ तो हर बात पर कोई न कोई किस्सा है और हर किस्से की कोई न कोई पूर्वकथा तो दोस्तों, भला मानो या बुरा, किस्सा और उसकी पूर्वकथा तो झेलनी ही पड़ेगी। बोलो,   इरशाद...:)

कागजों में तो उसका नाम  प्रेमपाल था लेकिन जानते उसे सब उसके घरेलु नाम ’घेंधू’ से ही  थे। मैं उसे हमेशा प्रेम कहकर ही बुलाता था और बदले में वो उम्र में हमसे बड़ा होता हुये भी मुझे भाई साहब कहकर बुलाता था। बाकी सब उसे घेंधू ही बुलाते थे, वो बदले में अबे तबे करके जवाब देता था।  कुछ साल पहले यू.पी. के एक कस्बे से अपने बड़े भाई के साथ रोजी रोटी की तलाश में शहर-ए-दिल्ली में आया था। पढ़े-लिखे दोनों ही मामूली थे लेकिन मेहनती पूरे थे। एक दो कमरे का मकान किराये पर लेकर उसी में रहते भी थे, खुद ही हाथ से कुछ खिलौने बनाते और फ़िर खुद ही सप्लाई कर आते। मेहनत रंग लाई तो चार पैसे बचाये भी।  इस सब में बड़े भाई का योगदान ही ज्यादा था, शरीर से भी वो घेंधू से कम से कम डेढ गुना था। हमारा घेंधू तो एक सहायक की तरह काम करता रहता था, जितना बड़े ने बताया वो कर देता। 

जल्दी ही बड़े को दिल्ली का रंग चढ़ने लगा, कई यार दोस्त बन गये थे। शुरू में एक-एक  पैसे की सोचने वाला वो अब किसी किसी मौके पर खुले हाथों से पैसा खर्चने लगा लेकिन अपने और अपने दोस्तों के खाने पीने पर ही। कुछ ही समय बाद उसकी शादी भी हो गई। इधर काम बढ़ रहा था, उधर परिवार भी, खर्च भी और साथ साथ ही भाईयों में थोड़ा सा असंतोष भी। पैसा कुछ आ गया था लेकिन रहन सहन वही पहले जैसा ही था। घेंधू सर्दियों में दिन भर शरीर पर कंबल लपेटकर घूमता और गर्मियों में बनियान और पायजामे में। कई बार देखते थे कि फ़र्श पर ही बोरी बिछाकर सोया रहता था। शेट्टी स्टाईल में सिर घुटा हुआ, तेल चमकता हुआ और चेहरे पर वही सदाबहार हँसी। ये जरूर है कि वो हँसी बड़े भाई को देखकर इधर उधर हो जाती थी।  घेंधू बड़े भाई से डरता भी था, कई बातों से उससे खार भी खाता था लेकिन ये भी जानता था कि वो जो भी है,  बड़े भाई के दम से ही है। छोटी मोटी बदमाशी कर लेता था जैसे बड़ा भाई माल बेचने गया तो वो कच्चे माल  की खाली बोरियों में से दो चार बोरियाँ कबाड़ी को बेच आता था, इतनी ही रेंज थी। कहता था कि बीड़ी के पैसे भाई से माँगूंगा तो अच्छा थोड़े ही लगेगा।

किस्से की कहानी पूरी, अब किस्सा शुरू। लड़कों के साथ चलती नोक-झोंक से किस्सा कुछ यूँ खुला  कि गई रात घेंधू का भाई अपने दोस्त से वी.सी.आर लेकर आया था और फ़िल्म देखने के घेंधू के अरमानों पर पानी फ़िर गया  था जब गिलास में रंगीन पानी डालते हुये बड़े भाई ने धमकाया, "जा बे, सो जा दूसरे कमरे में।" आज्ञाकारी घेंधू चला आया, कमरे में फ़िल्म शुरू हो गई। कुछ देर के बाद बड़े भाई को कुछ शक हुआ और उसने चुपके से अंदर से  दरवाजा खोल दिया।  दरवाजे की झिर्री पर चिपका हुआ घेंधू झटके से दरवाजा खुलने पर मुँह के बल आकर फ़र्श पर गिरा। जब तक उठकर बाहर भागने का जतन करता तबतक जासूसी, ताक झाँक, जलन के कई आरोप और पिछवाड़े पर कई धौल-लातें बरस गईं और  हर लात पर घेंधू चिल्लाता था, "मोकू तो दो बोरी लेनी थी भाई, वाई को ओढ़ बिछा लेता, ठंड बहुत लग रही थी।"

मैं तो खैर पहले भी उसे घेंधू कहकर नहीं बुलाता था,उस दिन के बाद से किसी और ने भी उसे इस नाम से नहीं बुलाया।  उसका नया नाम ’दो बोरी’ हो गया था। 

इस साल का बजट आ गया। बजट आने के बाद जितने भी नौकरीपेशा थे, सब घेंधू की तरह दिख रहे हैं। हम सब तो सर्दी से बचने के लिये  दो बोरी की उम्मीद बाँधे थे कि उन्हें ही ओढ़-बिछा लेंगे लेकिन वित्तमंत्री जी को लगा होगा कि ये सब छुपकर सरकार की रासलीला देख रहे हैं, लगा दी लात। कोई बात नहीं बड़े भाई, अधिकार है तुम्हारा।