रविवार, नवंबर 24, 2013

हिन्द की चादर

कश्मीर से चलकर आये उन ब्राह्मणों की व्यथा-कथा सुनकर सबके दिल उदास हो रहे थे और आँखें गीली।  क्या विडंबना थी कि स्वर्ग जैसी जन्मभूमि में सुख,शान्ति और समृद्धि से जीवन व्यतीत कर रही एक भूभाग की  जनता इस बात के लिये विवश थी कि या तो अपना धर्म छोड़कर दूसरा धर्म अपनाये नहीं तो हर तरह के जुल्म सहे। त्रस्त होकर उन लोगों को आशा की एक किरण यहीं दिखी थी तो कश्मीरी ब्राह्मणों का एक प्रतिनिधिमंडल सहायता की पुकार लगाने गुरू श्री तेगबहादुर जी के समक्ष प्रस्तुत हुआ था। उपस्थित समूह में सन्नाटा छाया हुआ था। सत्तासीन को निरंकुशता के साथ मजहबी कट्टरपन की सनक सवार हो जाना शेर के मुँह खून लगने से भी खराब होता है, शेर तो सिर्फ़ क्षुधापूर्ति के लिये दूसरों की जान लेता है।

धरती ऊपर से शांत दिखती है लेकिन उसके गर्भ में क्या कुछ चल रहा है, ये हमेशा दिखता नहीं है। जहाँ गुरू साहब विराजमान थे, उसी गद्दी के पास खड़े उनके नौ वर्ष की वय के सुपुत्र बाला प्रीतम(गुरू गोविंद सिंह) ने सबकी उदासी का कारण पूछा। कारण बताये जाने पर उस तेजपुंज ने इसका उपाय पूछा।  पहले से ही आतंकित और त्रस्त नागरिकों के टूट चुके मनोबल को झकझोरने का उपाय क्या हो सकता है? 

विचारमग्न गुरू श्री तेग बहादुर जी ने कहा, "अब किसी महापुरुष को बलिदान के लिये सामने आना होगा।"

बाला प्रीतम ने छूटते ही कहा, "पिताजी, आज के समय में आप से बड़ा महापुरुष कौन है?"

वहीं निर्णय हो गया। गुरू तेग बहादुर जी ने प्रतिनिधिमंडल से दिल्ली के शहंशाह को कहलवा भेजा कि अगर वो गुरू तेग बहादुर जी को इस्लाम स्वीकारने के लिये तैयार कर ले तो सब लोग इस्लाम स्वीकार कर लेंगे अन्यथा नहीं। संदेश दिल्ली पहुँच गया और स्वयं गुरू तेगबहादुर भी अपने कुछ शिष्यों के साथ दिल्ली को रवाना हुये।

औरंगज़ेब के द्वारा इस्लाम स्वीकार किये जाने की बात पर गुरू साहब ने ऐसा करने से स्पष्ट मना कर दिया बल्कि निर्भीकता से उसे कहा कि तुम खुद भी सच्चे मुसलमान नहीं हो जो अत्याचार के द्वारा दूसरों को अपना धर्म छोड़ने के लिये मजबूर करते हो। चमत्कार दिखाने की शर्त से लेकर, लालच और फ़िर कैद का भय दिखाकर भी औरंगज़ेब के मंसूबे पूरे होते नहीं दिखे तो उसने जल्लादों को गुरू तेगबहादुर जी का शीश उतारने का हुक्म दे दिया।

"भै का कऊ देत नहिं, नहिं भै मानत आनि" उचारने वाले भला सिद्धांतों के लिये बलिदान देने से पीछे हटते? वैचारिक और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की मिसाल पेश करते हुये गुरू तेगबहादुर जी  ने हँसते-हँसते अपना बलिदान दे दिया, शीश दिया पर अपना धर्म नहीं दिया।

चाँदनी-चौक, दिल्ली में जिस जगह पर गुरू साहब का शीश उतारा गया, आज वहाँ गुरूद्वारा शीशगंज साहिब है जो हम सबकी श्रद्धा और आस्था का केंद्र है। यह हमें याद दिलाता रहेगा कि भविष्य उन्हीं कौमों का सुरक्षित रहेगा  जिनके पास बलिदान की विरासत है।

’हिन्द की चादर’ श्री गुरू तेगबहादुर जी के चरणों में बारंबार नमन।

संबंधित लिंक - गुरू तेग बहादुर सिमरिए 


रविवार, नवंबर 17, 2013

तटस्थता का झंझट

हमारे पापा के एक दोस्त हैं, सहकर्मी रहे हैं और अब दोनों ही सेवानिवृत्त हो चुके हैं। सही मायने में अपने को जो थोड़ा बहुत पढ़ने का शौक हुआ, इन्हीं अंकल की बदौलत हुआ। असल में उनकी पोस्टिंग मेरे स्कूल के पास थी और कभी पापा का कोई संदेश पँहुचाने के लिये और कभी-कभार अपने किसी काम से उनके ऑफ़िस में जाना पड़ता था। परिवार इसी शहर में रहते हुये भी एक तरह से मेरे लोकल गार्जियन का कर्तव्य इन्हीं अंकल ने निभाया।

अंकल एकदम शरीफ़ टाईप के लेकिन हर मर्ज की दवा रहे, निस्सवार्थ और निस्संकोच स्वभाव उनके चरित्र का यू.एस.पी. है। हर विभाग में उनके परिचित निकल आते थे और किसी का भी कोई काम हो तो वो निस्संकोच अपने सिर ले लिया करते थे। किसी अस्पताल में किसी और के काम से गये तो बातों-बातों में पता चलता कि अब उन्हें बिजली दफ़्तर में जाना है और अस्पताल वाले परिचित का कोई काम उस बिजली विभाग से निकल आता। वहाँ जाकर अपने काम करवाये तो पता चला कि बिजली विभाग वाले को बैंक में चेक जमा करवाने या ऐसे ही किसी काम से जाना है तो अगला पड़ाव बैंक होता था और महीने-दो महीने में एकाध बार हम भी उनके साथ संलग्नक बनकर घूमते रहते थे। यूँ समझिये कि रोज का एकाध घंटा उनका इसी सेवाकार्य में गुजरता था। ऐसे ही एकबार किसी की किताबें लौटाने लाईब्रेरी गये तो मैं साथ था और फ़िर मेरे यह पूछने पर कि क्या मैं भी इसका सदस्य बन सकता हूँ, उन्होंने उसी समय मेरा लाईब्रेरी कार्ड बनवा दिया।

अंकल का सादा स्वभाव मुझे बहुत पसंद आता था। एक बार मुझसे पूछने लगे, "किताबें तो पढ़ता है कभी नाटक-वाटक भी देखे हैं अंग्रेजी वाले?"  मैं  भी कौन सा कम सादा था, कह दिया कि देख तो लूँ लेकिन अंग्रेजी के संवाद समझ  नहीं आयेंगे। कहने लगे कि समझने की कोई जरूरत नहीं होती, जब सब ताली बजायें तो ताली बजा दो, जब सब हँसें तो हँस दो। आज्ञा शिरोधार्य करते हुये इसी अंदाज में एकाध नाटक देखा भी, अंकल अपने को आज भी पसंद हैं लेकिन वो आईडिया अपने को उस समय ज्यादा पसंद नहीं आया। फ़िर हमने न देखे अंग्रेजी के नाटक-फ़ाटक। मन में यही सोचा कि इस तरह से अंग्रेजी नाटक देखने से तो सप्रू हाऊस के पंजाबी नाटक देखना ज्यादा बढ़िया रहेगा, कम से कम कुछ पल्ले तो पड़ेगा।

पिछले कुछ दिन से या तो बदली हुई दिनचर्या का असर है या कुछ और बात, अंकल की कही बात थोड़ी-थोड़ी पसंद आने लगी है।  ताजा हालात से अपडेट नहीं रह पाता, हो-हल्ला सुनकर रहा भी नहीं जाता और पूरी जानकारी न होने के चक्कर में कुछ कहा भी नहीं जाता। एक तो जब तक कोई बात समझ आती है, तब तक नई ब्रेकिंग न्यूज़ आ चुकी होती है। इत्ते मामले हो गये, हमने कुछ प्रतिक्रिया ही नहीं दी। आसाराम जी का मामला, खजाने का मामला, मोदी का मामला, राहुल का मामला, नीतिश जी का मामला, और अब सचिन का मामला -  गरज ये कि अपना हाल ऐसा हुआ पड़ा है कि एक चीज की मीमांसा करने की सोचते हैं, तब तक भाई लोग नया हो-हुल्लड़ शुरू कर देते हैं। अबे मिलजुलकर सरकार बना सकते हो, मिलजुलकर घोटाले कर सकते हो, दूसरे उल्टे सीधे काम कर सकते हो मिलजुलकर लेकिन ये नहीं हो सकता कि नया मामला खड़ा करने में मिलजुलकर और आम सहमति से काम ले लो। एक ने कुछ कहा या किया तो तुमसे इतना सब्र नहीं होता कि कम से कम एक हफ़्ता तो इंतजार कर लो? तुम्हारा तो ये फ़ुल्ल टाईम धंधा है लेकिन हम जैसों को तो दो टकेयां दी नौकरी भी देखनी होती है और दूसरी तरह की दुनियादारी भी। वैसे तो हम प्रतिक्रिया न भी दें तो चलेगा, प्रतिक्रियावादियों की कमी तो है नहीं लेकिन कवि लोग जो कह गये हैं कि तटस्थ रहने वाले भी पाप के भागी हैं तो हम चुप कैसे रहें भला? ’जबरा मारे और रोने भी न दे’ वाली बात कर रखी है मुझ जैसे गरीबों के साथ।

हारकर हमने फ़ैसला किया कि अंकल की बात पर अब अमल करेंगे, सब ताली बजायेंगे तो हम भी ताली बजा देंगे और जब दूसरे हँसेंगे तो हम भी हँस देंगे ताकि कम से कम तटस्थ तो न समझे जायें। लेकिन इन धुरंधरों से हमारे साथी ही कौन सा कम हैं? इन मित्रों से अच्छे तो वो दर्शक हैं जो एक दूसरे को देखकर ताली बजाते हैं या हँसते हैं। तुम तो फ़टाफ़ट से हर बात में भारत-पाकिस्तान बना लेते हो। मोदी ने कुछ कह दिया तो समर्थक उसे ही जस्टीफ़ाई करने में लग जायेंगे और विरोधी आरोप लगाने लगेंगे। और अगर राहुल ने कुछ कह दिया तो फ़िर वही करम, आमने-सामने। बात न देखी जायेगी, अपनी प्रतिक्रिया इससे प्रभावित होगी कि बात कही किसने है।

मुजफ़्फ़रनगर दंगों के बाद राहुल के भाषण को लेकर अच्छा खासा बवाल उठ खड़ा हुआ। जहाँ तक मेरी जानकारी है, राहुल ने कहा था कि इन दंगों के बाद आई.एस.आई. कुछ मुस्लिम युवाओं के संपर्क में है। जब तक हम इस बात के लिये तैयार हुये कि चलो भाई ने कोई तो समझदारी की बात की। अब थोड़ी वाहवाही कर ली जाये, तब तक पता चला कि इस बात पर चुनाव आयोग में शिकायत भी हो गई और नेताओं ने राहुल से स्पष्टीकरण भी माँग लिया कि या तो आप उन युवाओं के नाम बताईये या फ़िर मुस्लिम समुदाय से माफ़ी मांगिये। ले भाई संजय कुमार, दे ले प्रतिक्रिया। हम फ़िर से तटस्थ हो गये लेकिन एक बात नहीं समझ आई कि किस बात की माफ़ी मांगी जाये साहब?  इस व्यक्तव्य से पूरे मुस्लिम समुदाय का अपमान कैसे हो गया? आपकी ये माँग किसे क्लीनचिट दे रही है?

उधर पटना भाषण, जोकि मेरे विचार में मोदी के सबसे हल्के भाषणों में से एक था से अपना भी फ़्यूज़ उड़ा हुआ था कि सामने वालों ने उससे भी तगड़ी बातें करनी शुरू कर दीं। सरदारजी ने ज्ञान बघारा कि भाजपा है जो इतिहास और भूगोल बदलती है। सत्वचन महाराज, तुस्सी सच में ग्रेट हो। सब टीवी  पर आने वाले हमारे परिवार के पसंदीदा सीरियल ’तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ का वो सीन याद आ गया जब दया भाभी एक काकरोच को देखकर चीखती है ’कारकोच-कारकोच’ और उसका पति जेठालाल उसकी गलती पर उसे डाँटता है कि पगली इसे कारकोच नहीं कहते। दया के सकुचाकर पूछने पर कि फ़िर इसे क्या कहते हैं, इतराते हुये जेठालाल बताता है, "इसे कहते हैं, ’काचरोच’"

हँसी-मजाक की बात एक तरफ़, लेकिन गंभीरता से इस बात पर क्या हमें नहीं सोचना चाहिये कि ये आरोप-प्रत्यारोप सिर्फ़ सत्ता के लिये लगा रहे हैं और इनके भी कुछ दुष्परिणाम हो सकते हैं?

ऐसा भी हो सकता है कि  मैं इन बातों को संपूर्णता में न समझ पा रहा होऊँ।  अगर ऐसा है तो फ़िर अंकल की बात पल्ले बांध लेने में कोई बुराई नहीं कि सब जैसा करें, वही किया जाये और काकरोच को कारकोच नहीं बल्कि काचरोच कहा जाये :)