रविवार, दिसंबर 22, 2013

खम्म दा कां ..

नौकरी के सिलसिले में पहली बार अनजान शहर में जा रहा था तो पिताजी ने एक नाम बताया और कहा कि वहाँ जाकर उनसे संपर्क करना, बहुत बड़ी शख्सियत हैं और उनसे संपर्क रखने से नई जगह पर बहुत सहारा मिलेगा। एक तो उस समय हम खुद को हिमालय से ऊंचा और सागर से गहरा समझते थे और दूसरा हमें अपना कुँआ छोड़कर बाहर की दुनिया देखने की जल्दबाजी थी तो चुपचाप मुंडी हिलाकर और बिना बहस किये निकल लिये। नई जगह, नई नौकरी, नये दोस्तों की चकाचौंध में हम ऐसे मगन हुये कि पिताजी के बताये नाम के बारे में किसी से पूछा भी नहीं। 

पन्द्रह-बीस दिन में घर आना होता तो पिताजी ने एक-दो बार उस बारे में पूछा भी लेकिन हम टाल गये, वो समझ गये। कई मौसम बदल गये, उस नाम की हस्ती के पते के बारे में मैंने किसी से पूछा नहीं और खुद से कोई बताता भी क्यों लेकिन मन में एक फ़ांस रह गई कि पिताजी ने कुछ कहा और मैंने किया नहीं। स्वयं ही अपने आप से सवाल-जवाब करता रहता कि पिताजी ने कोई आदेश तो दिया नहीं था, सरसरी तौर पर कहा था। फ़िर उन्होंने अपने लिये तो कुछ मांगा नहीं था, मेरे हित के बारे में सोचकर ही कहा था तो मैं तो यहाँ आकर मस्त हूँ ही फ़िर अगर इस काम में लापरवाही हो भी गई तो कोई बड़ी बात तो नहीं। एक बड़ी वजह और भी थी जो किसी से कह नहीं सकता था, माना कि पिताजी की दृष्टि में जो बहुत बड़ी शख्सियत है, उस अनजान शहर में हो सकता है कि उनसे कोई परिचित न हो। मैं किसी से पूछूँ और जवाब में सुनने को मिले कि हम तो नहीं जानते इस नाम वाले सज्जन को और फ़िर पिताजी तक ये बात पहुँचे तो उन्हें ठेस पहुँचेगी। इससे बेहतर तो यही है कि खुद लापरवाह बने रहो। जिंदगी मस्त गुजर रही थी, जंगल में मंगल हो रहा था जिसके सच्चे-झूठे  किस्से इस ब्लॉग पर शुरू में बहुत सुनाये गये थे और अब भी बीच बीच में जिक्र चलता ही रहता है। 

एक बार ऐसा हुआ कि यही दिसंबर या जनवरी के दिन थे और शाम के समय मैं अकेला ही(अपवादस्वरूप ही) टहलता हुआ शहर के बाहरी हिस्से तक पहुँच गया। जब सब साथ होते थे तो हम शहर में ही घूमते थे लेकिन अकेला था तो आज उधर निकल पड़ा जिधर सब नहीं जाते थे।  अंधेरा घिर आया था और सड़क पर कोई रोशनी भी नहीं थी, सोचा कि वापिस चला जाये। फ़िर पता नहीं क्यूँ मन ही मन फ़ैसला किया कि आगे सड़क जहाँ मुड़ रही है, वहाँ तक जाकर लौटूँगा। मैं चलता रहा, जब उस मोड़ के पास पहुँचा तो पीछे से एक ट्रक आया। मैं सड़क से हटकर साईड में खड़ा हो गया। ट्रक मोड़ से मुड़कर आगे चला गया और मैं सिर्फ़ एक पल के लिये वहीं ठिठककर रह गया। मुड़ते समय ट्रक की हेडलाईट की रोशनी एक पल के लिये सड़क किनारे लगे एक बोर्ड पर से होकर गुजरी थी और उस बोर्ड पर वही नाम लिखा था जो पिताजी ने मुझे बताया था। अगली बार घर लौटा तो पिताजी को सारी बात बताई और बिना कुछ खास किये भी वाहवाही पाई, बिल्कुल वैसे ही जैसे कई बार बिना कुछ खास किये ऐसी-तैसी भी करवाई है।

ब्लॉग लिखने के शुरुआती समय की ही बात है, अंदाजन साढ़े तीन साल पहले एक पोस्ट लिखी थी। कुछ दिन पहले किसी मित्र से बात हो रही थी तो ढूँढते-ढूँढते उस पोस्ट तक पहुँचा। गया किसी और सन्दर्भ में था लेकिन वहाँ जाकर ठीक वैसे ही ठिठक गया जैसे उस ट्रक की हेडलाईट की रोशनी पड़ते बोर्ड को देखकर ठिठका था। मसाला फ़िल्म की तरह मसाला पोस्ट बनाने के चक्कर में फ़त्तू का आईटम नंबर पोस्ट में जोड़ देता था तो उस पोस्ट में आईटम नंबर में एक जगह का नाम इस्तेमाल किया था। उस जगह से न अपना कोई वास्ता था न अपने दादा-परदादा का। न कोई मित्र-मित्राणी वहाँ से थे न कोई व्यापारिक या आधिकारिक संबंध। सिर्फ़ आईटम नंबर में दूरी, समय के हिसाब से वो स्थान वहाँ फ़िट होता था और हमने वही कर दिया था। अभी से एक साल पहले तक उस स्थान में हमारे बैंक की जो शाखा थी वो किसी दूसरे प्रशासनिक कार्यालय के अधीन थी। एक साल पहले ही वह शाखा इसी प्रशासनिक कार्यालय के अधीन आई और चारेक महीने पहले एकदम अप्रत्याशित रूप से हम भी उस जगह पर पदस्थापित हो गये। 

अब अपने से अलावा लेकिन अपने ही दो स्टाफ़ सदस्यों की बात। एक स्टाफ़ सदस्य प्रोमोशन पर अक्टूबर में मेरी शाखा में आये तो उन्होंने बताया कि वो अपने पूर्वपरिचित (एक और) संजय जी की ब्रांच में जाना चाहते थे। मैंने हँसकर इसे संयोग ही बताया कि आपको साथ में काम करने के लिये ’संजय’ तो मिल गये लेकिन मनचाहे वाले नहीं बल्कि अनचाहे वाले। एक दूसरे स्टाफ़ सदस्य उन्हें किसी ’संजय’ से मतलब नहीं था बल्कि उन्हें अपनी पोस्टिंग इस स्थान विशेष पर चाहिये थी लेकिन उन्हें मिली दूसरी ब्रांच, जहाँ वही दूसरे वाले ’संजय जी’ हैं। सबके सामूहिक प्रयास से और प्रबंधन की सदाशयता के चलते पिछले सप्ताह दोनों स्टाफ़ सदस्यों का स्थानांतरण कर दिया गया। जिन्हें अपने वाले ’संजय’ चाहिये थे वो ’संजयजी’ के पास और जिन्हें व्यक्तिविशेष से काम नहीं था बल्कि स्थानविशेष से मतलब था, वो अपनी पसंद की जगह पर। मतलब हुण ऑल इज़ वैल :)

ये नमूने हैं कुछ उन बातों और घटनाओं के जिन्हें हम संयोग मानते हैं।  उस रात मेरा अकेले घूमने जाना, अंधेरा घिरने के बावजूद एक पल के लिये बोर्ड पर हेडलाईट की रोशनी पड़ना वगैरह वगैरह, जितना महीन सोचते जायेंगे उतने ही छोर मिलते-छूटते जायेंगे। अब से चार साल पहले किसी अनजान सी जगह का नाम अनायास ही लिख देना और फ़िर कालक्रम में चाहे अनचाहे उसी जगह पहुँच जाना, सब संयोग है या पहले से लिखे किसी घटनाक्रम के अग्रिम संकेत। ज्ञानियों के पास हर सवाल के जवाब होते हैं लेकिन हमारे पास तो  सवाल ही हैं। हम इस ब्रह्मांड के सबसी शक्तिशाली जीव हैं या पहले से लिखी किसी पटकथा के अदना से किरदार? या फ़िर दोनों, बहुतों से शक्तिशाली लेकिन किसी के हाथों विवश, क्या हैं हम?

आप सवाल कर सकते हैं कि पोस्ट-शीर्षक से इसका क्या लेना देना तो इस सवाल का जवाब है मेरे पास। वो क्या है कि हमने सोचा है कि थोड़ा सा भाषा-ज्ञान आपसे साझा कर लेते हैं। कल को आप ये न कहें कि खाली-पीली टाईम खोटी करवाता रहता है।  शीर्षक वाक्य असल में पंजाबी की एक कहावत है। जब हम छोटे थे तो कभी कभार माँ-पिताजी की नोक-झोंक में पिताजी यह वाक्य कहा करते - ’खम्म दा कां बनाना’ - मैं ठेठ पंजाबी नहीं समझता था। खम्म का मतलब नहीं समझ आता था, इसका हिंदी अनुवाद करता तो बनता - खम्भे का कौआ बनाना। लेकिन बात जमती नहीं थी, अभी कुछ दिन पहले पिताजी से इसका मतलब पूछा तो उन्होंने समझाया कि  ’खम्म’ का मतलब है पंख। कहीं पर किसी चिड़िया का पंख देखकर कोई दूसरे को बतायेगा कि वहाँ किसी पखेरू का पंख पड़ा था। तीसरे तक जाते-जाते वो पंख कौए का हो जायेगा और आगे बढ़ते-बढ़ते बताने वाला बतायेगा कि उसने खुद वहाँ बड़े से काले कौए को देखा था। तो इसका सरलार्थ हुआ कि छोटी सी बात को बढ़ा-चढ़ाकर बताना। 

अब अपने जीवन से संबंधित एक दो घटनाओं पर हमारे गंभीरता से सोचने को आप बात का बतंगड़ बनाने, राई का पहाड़ बनाने, झूठे सच्चे किस्से सुनाने की जगह ठेठ पंजाबी में ’खम्मा दा कां बनाना’ भी कह सकते हैं।  आगे किसी पोस्ट में आप को हमारे एक और तकियाकलाम ’होर वड़ो’ का भी अर्थ सोदाहरण समझाया जायेगा।

डिस्क्लेमर - इस पोस्ट में कई जगह ’आप’ शब्द लिखा गया है, इसका अरविंद केजरीवाल जी की राजनीतिक पार्टी से कोई लेना-देना नहीं है।


चंद नमूना-ए-झूठे-सच्चे किस्से :)

एक

दो

तीन

चार

पाँच

छह

सात

आठ




गुरुवार, दिसंबर 12, 2013

द आयरन मैन - The Iron Man

ससुराल जाने का चाव सबको होता है बेशक घूम घूम कर और झूम झूम कर गा लें कि ’मैं ससुराल नहीं जाऊँगी, डोली रख दो कहारो।’  पहली बार ससुराल जाने का अवसर आया तो हमारे फ़त्तू को भी पूरा चाव था। सज धज कर मन में भावी सेवा टहल के ख्याल लिये जनाब ससुराल पहुँच गये। पुरजोर मौखिक स्वागत हुआ। भोजन का समय हुआ और जिज्जाजी जीमने के लिये तैयार हुये तो साली ने बथुए की रोटी पेश की। 

फ़त्तू को धीरे से झटका लगा, पूछा, "बथुए की रोटी?’

साली चहकी, "जिज्जाजी, बथुए में घणा आयरन होय सै।"फ़त्तू आयरन की गोली समझकर जीमने लगा। रात में रोटी तो सादी थी लेकिन साथ में सब्जी जरूर बथुए की थी।

जिज्जाजी के हावभाव देखकर साली ने फ़िर कहा, "जिज्जाजी, बथुए में घणा आयरन होय सै।" फ़त्तू ने वो आयरण सप्लीमेंट भी पेट के हवाले किया। अगले दिन सुबह बथुए के परांठे और दोपहर में रोटी के साथ बथुए का रायता - फ़त्तू ने कुछ कहने के लिये मुँह खोला और जवाब में साली ने फ़िर बथुए में घणा आयरन होने का पुराण खोला।  

फ़त्तू तसल्ली से उसकी बात सुनकर बोला, "बथुए में आयरन की तो मैं जाणूं सूँ पर चार चार बेर बथुआ प्रोडक्ट बनाके खिलाने की तकलीफ़ क्यों करते हो? थारे घर में कोई तीन-चार फ़ुट का आयरन-रॉड रखा हो तो सीधे ही झंझट निबटाओ न, खामेख्वाह बथुए की ऐसी तैसी करण में जुट रहे हो।"



कुर्सी के लिये छीना-झपटी, क्रय-विक्रय, जोड़-तोड़ देखने के अभ्यस्त हम दिल्ली वाले राजनैतिक पार्टियों के बदले अंदाज को देखकर फ़त्तू बने हुये हैं। जिसे देखो वही कह रहा है कि हम सरकार नहीं बनायेंगे और प्रकट यह कर रहे हैं कि इससे भला जनता का होना है।  दिल कर रहा है कि फ़त्तू की तरह कह दूँ ’साली’ पार्टियों से कि लोकतंत्र का जो आयरन सप्लीमेंट हमें देना है वो सीधे तरीके से एक ही बार दे दो न, खामेख्वाह बथुए की ऐसी तैसी करण में जुट रहे हो:)