रविवार, फ़रवरी 02, 2014

बसन्त पंचमी

आने वाली चार तारीख को बसन्त पंचमी है।  बसन्त पंचमी से आपको क्या याद आता है? कुछ नहीं, कुछ-कुछ, बहुत कुछ?  कोई उत्सव, कोई गाना, कोई भूली बिसरी याद, कोई  नई-पुरानी घटना यहाँ तक कि कोई दुर्घटना भी,  साझा करना चाहें तो स्वागत है।

मेरे प्रिय पाठक-पाठिकाओं पर नकल का आरोप न लगे, इसलिये इस पोस्ट पर कमेंट कूछ समय के अंतराल में पब्लिश होंगे।

24 टिप्‍पणियां:

  1. सरसों के खेत...पीले परिधान...गंगा स्नान...रंग बसंती, अंग बसंती, छा गया, मस्ताना मौसम आ गया...

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    1. पहला गाना तो मुझे भी यही ध्यान आता है और दूसरा ’ मेरा रंग दे बसंती चोला’ (बेशक बसंत पंचमी से उसका रिश्ता हो या नहीं)

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  2. पीला कुर्ता पहन कर विद्यालय जाना, सरस्वती माँ की पूजा और वीर हकीकत राय का बलिदान दिवस मनाना।

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  3. i remember a bright yellow satin cloth ghaghra dress which my mom stitched for me. i was very fond of it. mom said yellow is auspicious. wore it for many years - till it became too short as i grew taller :) most of my dresses used to be stitched by mom. god alone knows HOW she managed it with being a working lady and managing the house and two kids too? i can't manage one kid family work with my job!!!

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    1. You are managing fb/blogs na, so blame social media for your managerial limitations :)
      We can't ever compete with our parent generation, we all are same in this matter.
      Thanks for sharing.




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  4. बचपन की बहुत सारी स्मृतियाँ याद आती है सरस्वती वंदना पर नृत्य से लेकर पूजा तक पीले फूलों से लेकर पीले पकवान तक और पीले रंग से लेकर पहनावे तक इस दिन विशेष रूप से पीले परिधान पहनने कर पुजा करने का रिवाज था हमारे घर में खाने में भी मम्मी पीले मिट्ठे चावल बनाती थी। और भी बहुत सी अनगिनत यादें है।

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    1. बसंत पंचमी पर पीले मीठे चावल और हर संक्रांति पर हलवा तो अब भी हमारी माँ बनाती हैं, इस बहाने से बच्चों को इन पर्व त्यौहारों की कुछ जानकारी तो हो ही जाती है । हो सके तो हम सब अपने परिवार में यह परंपरा जारी रखें।

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  5. वसंत पंचमी की याद..
    .
    1. सरस्वती पूजा
    2. बेर, रसभरी, बून्दी और गाजर का प्रसाद... कहते थे बेर वसंत पंचमी के बाद ही खाने को मिलेगा
    3. स्कूल में उत्सव
    4. लड़कियाँ उस दिन साड़ी पहनती थीं.. हमारे यहाम बहुत सी लड़कियों के साड़ी पहनने का शुभारम्भ ही इसी दिन होता था.. और हम सब लड़कियाँ ताड़ा करते थे (वैसे मेरी अपनी थी).. अब बालों की सफेदी के बीच इतनी ईमानदार स्वीकारोक्ति तो वाजिब है!
    5. घर पर दो दिनों का उत्सव... सरस्वती माता की प्रतिमा की स्थापना से लेकर विसर्जन तक.. तब हम सब गंगा के उस पार रेत पर जाते थे (प्रतिमा विसर्जन के पश्चात) और हमारी पिकनिक होती थी..
    6. इसी से जुड़ी एक और याद है दसवीं क्लास के समय की.. मगर वो शेयर नहीं कर रहा!!

    आपके कहने पर इतना कुछ कह गया...!!

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    1. 1 & 3 out of 6 - यहाँ भी अपने तो तैंतीस प्रतिशत मार्क्स ही आये :(
      4 - शत प्रतिशत मार्क्स(आपको)
      6 - उत्सुकता जगाकर कह दिया कि शेयर नहीं करूंगा, जय हो सलिल भैया की :)

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  6. ई का पंगा है ऋषिवर !!!! ??
    ज़रूर आपके पास खूबसूरत यादों का ज़ख़ीरा हैं और जिनको साझा करने के लिए आपका दिल फुदक रहा है, इसी लिए ई बहाने का जाल बिछाया गया है । :)

    हमको तो बस इतना याद है कि साड़ी पहनने का शौक इसी दिन पूरा होता था, ऊ भी पीली साड़ी । अपनी सहेलियों के साथ कुछ जगहों पर सरस्वती पूजा देखते थे, प्रसाद खाते थे और घर जाते थे..... बस्स्स्स।

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    1. क्या गुडविल कम बैडविल बना रखी है मेरी, धन्य भये हम। ऐसे भी शिकारी नहीं हम कि हर बात में जाल बिछायेंगे, हमारी सराफ़त है कि अपने किस्से पेलते रहते हैं तो कभी कभी आप सबके किस्से भी जानना चाहते हैं ताकि एकतरफ़ा अप्रोच वाला आरोप तो कम से कम न ही लगे :)

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  7. मैं कोसला {छत्तीसगढ } में प्रायमरी पाठ-शाला में पढती थी तब वसन्त-पञ्चमी के दिन हम लोग नारियल और अगर-बत्ती लेकर जाते थे । स्कूल में सरस्वती-पूजा होती थी । हम लोग हाथ-जोड-कर सरस्वती-माता को प्रणाम करते थे और फिर प्रिया प्रसाद गुरूजी हमसे कहते थे - " देखौ रे लइका हो ! सरस्वती महतारी मेर विद्या के भण्डार भरे हावय । तुमन ऑखी मूँद के अपन - अपन बर विद्या मॉग लौ रे । जौन हर जतका श्रध्दा ले विद्या मॉगही वोला , सरसती दाई हर ओतके बिद्या दीही । हमन सरसती दाई मेर हाथ-जोर के प्राथना करबो । मैं हर जइसे-जइसे कइहौं तुमन दोहराहौ -
    " जय सरसती कि जय सरस्वती
    माथे धरौं बेल की पत्ती ।
    तुम पहनो गज- मुक्ता -हार
    हमको दो विद्या - भण्डार ॥ "

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    1. माँ शारदा की असीम कृपा है आप पर।
      आभार स्वीकार करें शकुन्तला जी।

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  8. आज बसन्त पंचमी है। बसन्त पंचमी से आपको क्या याद आता है? कुछ नहीं, कुछ-कुछ, बहुत कुछ? कोई उत्सव, कोई गाना, कोई भूली बिसरी याद, कोई नई-पुरानी घटना यहाँ तक कि कोई दुर्घटना भी, साझा करना चाहें तो स्वागत है । इसकी शुरुआत ब्लॉग स्वामी अपनी घटना से करते है बाकि उससे प्रेरित हो कर अपनी यादे ताजा करेंगे ।

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    1. इस दिन की अपनी यादें प्रवीण पाण्डेय जी की यादों की कार्बन कॉपी है जी।

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  9. हां याद आता है गाँव में अरंड का पेड़ निर्जन में गाड़ आना और रोज उस पर सूखी पट्टियां टहनियां जाना रखते जाना -यानि होलिका दहन की तैयारी -स्कूल जीवन में मान सरस्वती की पूजा की भी याद है ! बस अब आप अपनी सुनाएँ!

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    1. दिल्ली ने ये सब न देखने दिया अरविन्द जी, हमारे यहाँ तो होलिका दहन की तैयारी भी उसी दिन शुरू होती थी जिस दिन दहन होता था।

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  10. सरस्वती पूजा , मीठे चावल , बेर , लड्डू , बूंदी आदि का प्रसाद!
    और हाँ ,शिल्पाजी की ही तरह माँ का सिला हुआ पीला लहंगा , स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रम के लिए!

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    1. स्कूलों में सांस्कृतिक कार्यक्रम तो अब भी होते हैं, कपड़े शायद सिले सिलाये चलते होंगे।

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  11. सरस्वती पूजा के साथ हमारी तो ढेर सारी यादे जुडी है हर साल एक नया किस्सा , हमारे घर में तो मेरे जन्म के पहले से हो रहा था छोटे में पहले बुआ चाचा करते दूसरी पीढ़ी में दीदी और दादा करने लगे छोट बच्चे बस पीछे खड़े रहते किन्तु हमें बड़ी जल्दी मौका मिला क्योकि नए घर में जा कर रहने का मौका हमारे परिवार को मिला तो सबसे बड़ी होने के कारन पूजा मै करती काफी साल तक करती रही जब विश्वास ( नादानी ) था तब भी जब नहीं रहा तब भी क्योकि वो प्रतिक था पढाई में मेरे विश्वास का, लेकिन उसके साथ ही उत्सव बड़ा हो गया क्योकि उसी दिन नए घर के वार्षिक पूजा का दिन होता था साथ में अखंड रामायण , जब तक बच्चे थे तब तक शानदार उत्सव की तरह था ओघरे से ( पुराने घर से ) सब आते पूरा खानदान जुटता सब बच्चे मिलते तो दो दिन की मौज होती थी , किन्तु जैसे जैसे आयु बढ़ी और रामायण पढने आने लगा उसके साथ उसे पढने की जिम्मेदारी भी आ गई , शुरू में तो मजा आता था जब मन करता पढने बैठ जाते लोगो के साथ जब मन करता उठ जाते , जैसे ही कोई ढोलक मंजीरे के साथ राग आलापना शुरू करता हम सब भाग जाते , किन्तु बड़े होने के साथ अब तो किसी और के साथ अकेले ही पढने की जिम्मेदारी आने लगी वो भी दो चार घंटो तक , हाल ये था कि कोई यदि रात में रामायण पढने के लिए मुर्गा फंस जाता ( कोई धार्मिक रामायण प्रेमी जो समूह अकेले दुकेले रात भर उसे पढ़े) तब तो वो उत्सव हो जाता नहीं तो मुसीबत वो भी मुझ जैसी के लिए जिसमे कोई श्रद्धा ही नहीं थी , छोटे शहरो में रात १० बजे निद्रा के गोद में जाने वाले को कभी कभी उससे ज्यादा जगाया जाता नतीजा जब सामने वाला अपनी लाइन पढता हम झपकी ले लेते अगली लाइन पढते ही नहीं अक्सर सामने चाचा , दादा या दीदी होते अपने बगल में रखा तकिया खीच के मारते जगाने के लिए क्योकि रामायण पढना छोड़ कर मुझे जगा नहीं सकते थे , इशारे से कहते जाओ और मै ख़ुशी ख़ुशी उठु तो इशारे में कहते मुंह धूल कर वापस आओ :))) वो तो फिर भी गलिमत था असली झनहाट तब होती जब इतनी सर्दी में रात के २ या ३ बजे जगाया जाता , देखो तो फलाने कितने घंटे से अकेले पढ़ रहे है अब तुम जाओ , या उन्हें बाथरूम जाना है आदि आदि , जो रजाई ओढ़े रहते वही लिए दिए आँखे मीचते रामायण के आगे बैठ जाते इतनी ठंडी में रात को २-३ बजे मुंह हाथ कौन पागल धुलेगा , और अकेले पढ़ रहे बन्दे को और जगाने वाली अक्सर बड़ी मम्मी को निर्देश दिया जाता ( जो असल में कभी सुनी नहीं जाती थी ) की एक घंटे से ज्यादा नहीं पढूंगी किसी और को जगा के भेज देना । मजा तब आता जब साथ में अपने जैसा ही कोई मिल जाता फिर तो फार्मूला वन कि रेस शुरू हो जाती फटाफट पन्ने पलटते राग वाग गया तेल लेने बस अपनी ताकत की पूरी सीमा की रफतार में उसे पढ़ा जाता हा ईमानदारी से बिना कोई लाइन और पन्ना छोड़े और कभी कभी जब सो रहे बाबा ( दादा जी ) कि नीद खुल जाती और लॉडिस्पिकर में हमारी रेस सुन लेते तो कस के डांट पड़ती आराम से पढ़ो मन लगा के :)) कई बार सुबह जब बड़े आते तो कहते अरे रात भर में तुम लोगो ने इतना पढ़ लिया इतना थोड़ा सा ही बचा है ठीक से पढ़ा या पन्ने पलट दिए । कल आप की पोस्ट पढ़ रही थी तो बैक ग्रांउड में अपने आप रामायण पढने की धुन सुनाई देनी लगी , दोहा सोरठा चौपाई पढने का अलग अलग तरिका होता है ना । अगले साथ फिर से पोस्ट लिखियेगा मेरे पास तो किस्सा अभी से तैयार है सरस्वती पूजा विथ शोले :)) हमरी तो हो गई अब अपनी वाली सुनाई ही दीजिये ।

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    1. अखंड रामायण इन फ़ास्ट मोड विद ईमानदारी, मजा आ गया:)
      सालभर का समय है स्क्रिप्ट तैयार कीजिये, ’वसंती शोले’ की।

      मैं अपनी वाली बात हमेशा की तरह कभी बेमौके पर जरूर लिखूँगा।

      हटाएं
  12. मैं पूर्वी दिल्ली के गुजरों के एक गांव में पला बढ़ा हूँ और शायद इसलिए उपरोक्त वर्णित किसी भी गतिविधि में कभी भी भागीदार नहीं रहा। होली दीवाली जैसे मुख्या त्योहारों के आलावा दूसरे त्योहारों को धूम धाम से मानाने का प्रचलन दिल्ली में नहीं है। वैसे इस विषय में दिल्ली में पले बढे दूसरे लोगों के विचार भी जानना चाहता हूँ।

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  13. मैं पूर्वी दिल्ली के गुजरों के एक गांव में पला बढ़ा हूँ और शायद इसलिए उपरोक्त वर्णित किसी भी गतिविधि में कभी भी भागीदार नहीं रहा। होली दीवाली जैसे मुख्या त्योहारों के आलावा दूसरे त्योहारों को धूम धाम से मानाने का प्रचलन दिल्ली में नहीं है। वैसे इस विषय में दिल्ली में पले बढे दूसरे लोगों के विचार भी जानना चाहता हूँ।

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