शुक्रवार, अप्रैल 25, 2014

गृहस्थ आश्रम

’अपने परिजनों की इच्छा का मान रखने के लिये विवाह किया जाये या अपनी रुचि को ध्यान मे रखते हुये सन्यास लिया जाये’ इस दुविधा से मुक्ति पाने के लिये एक नवयुवक ने कबीर से मार्गदर्शन माँगा। उसकी बात सुनकर कबीर कुछ सोचने लगे और फ़िर अपनी पत्नी को पुकारा, "इतना अंधेरा है, जरा दीपक जलाकर लाओ।" दिन का समय था और पर्याप्त प्रकाश था, युवक हतप्रभ होकर कबीर की तरफ़ देखने लगा। उसे और भी आश्चर्य हुआ जब बिना किसी प्रश्न या उलाहने के उस भरी दोपहरी में जलता हुआ दीपक लाकर उन दोनों के सामने रख दिया गया। अनमना सा होकर वह युवक कुछ देर वहाँ बैठा रहा। अचानक कबीर उठ खड़े हुये और गंगाजी में स्नान करने चलने की कहने लगे। युवक साथ हो लिया। स्नान के बाद दोनों लौट रहे थे तो एक टेकरी के पास रुककर कबीर ने टेकरी पर स्थित मंदिर में रहने वाले एक वृद्ध महात्मा जी को आवाज लगाई, "महाराज, आपके दर्शन की इच्छा है।" वृद्ध महात्मा धीरे-धीरे उतरकर नीचे आये। दर्शन से कबीर भाव-विभोर हुये एवं यथोचित अभिवादन के पश्चात महात्मा जी ऊपर चले गये जबकि कबीर और उनका अनुगामी हुआ वह नवयुवक वहीं खड़े रहे। पर्याप्त कष्ट के बाद महात्मा जब तक टेकरी की चोटी पर स्थित मंदिर तक पहुँचे, कबीर ने फ़िर से वही पुकार लगाई, "महाराज, आपके फ़िर से दर्शन की इच्छा है।" महात्मा फ़िर से नीचे आये और पुन: दर्शन की कबीर की टेक और वृद्ध महात्मा की टेकरी पर चढ़ने-उतरने की यह क्रिया कई बार दोहराई गई। अब तक युवक का धैर्य जवाब देने लगा था। वो तो कबीर से इतने अहम विषय पर सही मार्गदर्शन की अपेक्षा लेकर आया था और उस विषय पर कोई जवाब न देकर कबीर कभी तो भरे दिन को अंधेरा बताकर दीपक जलवा रहे थे और अब बार-बार उस वृद्ध महात्मा को शारीरिक कष्ट देते दिख रहे थे। उसकी मनोस्थिति भाँपकर कबीर ने कहा, "दीपक वाली घटना की तरह जीवनसाथी पर विश्वास रख-पा सको तो विवाह कर लो और दूसरों के सात्विक आनंद के लिये इन महात्मा जैसा धैर्य रख सको तो सन्यास ले लो।"

मित्र सोमेश की एक पोस्ट पर कमेंट किया था और कहानी जानने की उनकी इच्छा के चलते एक उधार सिर पर था, आज चुका पाया हूँ। यूँ तो यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी लेकिन जब बात छेड़ी थी तो उसे पूरा भी करना था, तिस पर ’नरेन्द्र मोदी-जशोदाबेन प्रकरण’ ने भी इस बात के लिये उत्साहित किया कि ’विवाह’ पर कुछ अपने विचार साझे किये जायें। 

विवाह के उद्गम  के बारे में कोई पुष्ट जानकारी नहीं मिलती लेकिन इसका इतिहास रोचक अवश्य है। विवाह हर संस्कृति में प्रचलित हैं, विवाह के प्रकार जरूर अलग-अलग हो सकते हैं। कुछ लोगों की राय है कि सभ्य होने की प्रक्रिया में समाज का रुझान सामूहिक हित से व्यक्तिगत अधिकार की तरफ़ बढ़ता गया और वर्तमान की विवाह-व्यवस्था उसी से प्रेरित है। 



पुराने समय में जीवन को लगभग चार बराबर हिस्सों में बाँटकर ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम के रूप में जीने की परंपरा रही है। मुझे लगता है कि हमारे पुरखे ’ऑप्टिमम यूटिलाईज़ेशन’ सिद्धांत के शानदार मानने वाले रहे होंगे। मानव जीवन को अनमोल मानते हुये इस जीवन-काल में समय और सामर्थ्यानुसार सही दिशा में अपनी शक्ति को लगाने का यह भी एक तरीका रहा होगा।  समय के साथ प्राथमिकतायें भी बदलीं और उसीके अनुरूप परंपरायें भी बदलती रही हैं। 

आज के समय के युवाओं के समक्ष शायद कबीर के प्रसंग वाले नवयुवक जैसी दुविधा नहीं होगी। बिना विवाह के एक साथ रहने की बढ़ती प्रवृत्ति के बावजूद एक साधारण परिवार के पात्र का ’विवाह होना’ एक बहुत ही स्वाभाविक सी रस्म है जिसे देर-सवेर घटित होना ही है और ’विवाह न करना’ एक साधारण परिवार में अस्वाभाविक लगने वाली बात। हालाँकि हमारे इतिहास में ऐसे अनेक चरित्र मिलते हैं जिन्होंने विवाह नहीं किया और वो पर्याप्त सफ़ल भी रहे हैं।

गृहस्थ या सन्यास में से श्रेयस्कर कौन सा है? ये प्रश्न कभी न कभी मन में उठता रहा है। बचपन में पढ़ी एक कहानी और ध्यान आती है जिसमें शरीर के सभी अंग अपना महत्व दूसरे अंग से ज्यादा बताने का दावा करते हैं और अपने-अपने तरीके से अपना विरोध जताते हैं। शरीर अशक्त होने लगता है, अंत तक पहुँचते-पहुँचते यही सिद्ध होता है कि हरेक अंग का औचित्य तभी तक है जब तक सब मिलकर और समन्वयता का पालन कर रहे हैं। गृहस्थ और सन्यास के बारे में भी मेरा ऐसा ही मानना है। 

जिस परिवेश में मैं पला-बढ़ा, उसमें कहीं से भी किसी गृहस्थ को सन्यासी से कम करके आँके जाते नहीं देखा। बल्कि ध्यान आता है कि किसी न किसी तरीके से गृहस्थ-धर्म को सन्यास की अपेक्षा ज्यादा महत्वपूर्ण ही सिद्ध किया गया।  दूसरी तरफ़ देखें तो गृहस्थ में जाने की जगह धर्म, देश या समाज की सेवा के लिये खुद को समर्पित करने वालों को भी कभी हेय दृष्टि से नहीं दिखाया गया। लेकिन इतना मुझे लगता है कि गृहस्थाश्रम को ज्यादा महिमामंडित करना ’मेंटल कंडीशनिंग’ का हिस्सा बिल्कुल हो सकता है। वैसे ही ’हर सफ़ल आदमी के पीछे एक औरत का होना’ भी मुझे इसी कंडीशनिंग प्रक्रिया का हिस्सा लगता है।

नरेन्द्र मोदी के द्वारा नामाँकन पत्र में इस बार अपनी पत्नी का नाम लिखे जाने वाली बात कानूनी या चुनावी मुद्दा हो सकता है लेकिन इस प्रकरण ने एक बार फ़िर से इस प्रश्न को सिर उठाने का मौका जरूर दे दिया है कि अगर कोई व्यक्तिगत हित से ऊपर उठकर अपनी समझ में देश, समाज और/या धर्म के लिये कुछ और करना चाहता है तो विवाह-संबंध इसमें बाधा का काम करता है या नहीं? 

हमेशा की तरह इस संभावना को भरपूर जिंदा रखते हुये कि मेरे विचार गलत हो सकते हैं, मेरे विचारों का पलड़ा ’हाँ’ वाली दिशा में कुछ झुका हुआ है। 










रविवार, अप्रैल 06, 2014

छोड़ो...

एक दिन मुझे और मेरे प्रशासनिक कार्यालय से आई फ़ील्ड ऒफ़िसर को  बैंक के काम से शाखा से लगभग पंद्रह किलोमीटर दूर एक गाँव में जाना था। मोटर साईकिल पर जाना खुद को ही ठीक सा नहीं लगा तो  पहली बार ऐसी सुविधा के लिये कुछ संकोच के साथ एक ग्राहक को जो ग्राहक होने के साथ मित्र श्रेणी में भी आ चुके थे, फ़ोन करके पूछा। कुछ ही देर में वो मित्र कार लेकर प्रस्तुत हो गये। जहाँ तक हो सके अपने राम उपकार और बंधन दोनों से बचते हैं लेकिन समाज में रहते कभी किसी कारण से और कभी किसी बाध्यता से दोनों को ही स्वीकारना पड़ता है। कार में बैठते समय यही सब सोच रहा था। मित्र जब तक कार स्टार्ट करें, मैं सीट-बेल्ट बाँधने का उपक्रम करने लगा। जैसे ही उनका ध्यान गया उन्होंने ग्राहक की विनम्रता से और मित्र की आश्वस्तता से मेरा हाथ पकड़ लिया, "न, सरजी। मैं चालीस-पचास से ऊपर कभी भी नहीं चलाता।" अब ऐसे मित्र तो मन को अच्छे ही लगते हैं जो बंधन से बचायें फ़िर भी मैंने प्रतिवाद किया, "उस डर वाली बात नहीं लेकिन हाईवे है, चैकिंग वगैरह..।"  वो बोले, "उनकी ..(बीप...बीप...बीप) सरजी। हमें बेल्ट लगानी पड़ी तो ये हमारी तौहीन है।" मित्र राजनीति में भी दखल रखते हैं और सामाजिक गतिविधियों में भी काफ़ी सक्रिय हैं, रास्ता भी लंबा नहीं था। हुआ कुछ वैसा ही कि कुछ तो बुआ के मन में जाने की ललक थी और कुछ फ़ूफ़ा लेने आ गये, हमारी सीट-बेल्ट नहीं बंधी।

हाईवे पर कुछ दूर गये थे कि साथ से गुजरती एक कार के शीशे पर लिखे एक जातिसूचक स्लोगन की तरफ़ दिखाकर मित्र ने ज्ञानवर्धन किया, "यहाँ ये और ऐसे स्लोगन चलते हैं सरजी। हमारा ड्राईविंग लाईसेंस, रजिस्ट्रेशन, इंश्योरेंस, सीट-बेल्ट सबकुछ यही है।" मुझे हँसी आ गई, "आई सी, पोल्यूशन भी यही है न?" वो भी हंसने लगे, "सब कुछ यही है जी।" अवसरानुकूल उन्होंने एक सच्चा किस्सा और सुनाया, कोशिश करता हूँ उन्हीं शब्दों में दोहराने की।

"कुछ दिन पहले की बात है, इसी शहर के एक व्यापारी बंधु अपनी कार से दिल्ली से लौट रहे थे। बार्डर पर भीड़ तो आपने देखी ही होगी, जाम लगा हुआ था और इनके ड्राईवर ने मौका मिलते ही एक दूसरी कार के आगे अपनी गाड़ी फ़ंसा दी और इस तरह उस दूसरी कार से पहले बार्डर पार कर लिया। जाम में फ़ँसे होने पर यही चलन है, जिसका मौका लगे वही कार का अगला हिस्सा फ़ंसा देता है और निकल लेता है।  चूँकि इन्हें उस जाम में थोड़ा सा मार्जिन मिल गया था तो इनकी कार बार्डर से करीब तीस किलोमीटर आगे पहुँच चुकी थी जब उस दूसरी कार ने इन्हें ओवरटेक करके रोका। कुछ समझने से पहले ड्राईवर और उसे बचाने और वजह समझने तक व्यापारी बंधु दुनियाभर की गालियाँ और लात घूँसे खा चुके थे। मौखिक और शारीरिक क्रियाओं के विश्लेषण से अंतत: वो समझ गये कि गाड़ी के पीछे लगे बड़े से स्टिकर ’गुप्ताजी’ने उनकी जाति और उनकी कार की पहचान तो पक्केकी करवा ही दी थी, जवानों के जातीय अभिमान को उकसाया भी था कि बनिया होके हमारी गाड़ी से जबरदस्ती आगे निकलेगा, ये मजाल? घर लौटते ही गुप्ताजी ने फ़टे कपड़े बाद में बदले, मरहम-पट्टी भी बाद में करवाई पहले वो स्टिकर खुरच खुरच कर उतारा जिसने ये हालत करवाई।"

पिटने वाले हम नहीं थे इसलिये किस्सा सुनकर बहुत हँसी आई, ऐसा ही चलन है जी आजकल। मैं पिटा तो बिना कारण और मैंने पीटा तो कुछ तो कारण रहा ही होगा।  बता चुका हूँ कि मित्र पोलिटिकल रुचि वाले हैं तो इस बारे में और पहलुओं पर भी चर्चा हुई। परंपरागत प्रचलित वर्णव्यवस्था में जो क्रम हैं, उसके अनुसार प्रस्तुत घटना में पीटने वाले और पिटने वालों की जाति बदल दी जाये तो केस बहुत मजबूत हो जाता और मारपीट के अलावा और कई गैरजमानती धारायें जुड़ जातीं। मगर ये हो न सका और गुप्ताजी स्टिकर खुरचकर चुपचाप गम पी गये।

ऐसे ही मेरा एक साथी था जो बैंक के समीप एक फ़ोटोस्टेट की दुकानवाले को हमेशा ’ओ बाहमण के’ कहकर पुकारा करता था। 

एक दिन मैंने पूछा, "ऐसे क्यों बुलाते हो?" 

उसने मुझसे प्रतिप्रश्न किया, "क्यों, ये बाहमण का है नहीं?"

क्या बहस करता उससे? फ़िर प्यार से समझाया कि इसका कोई नाम भी तो है, नाम से पुकार लिया कर। तेरे तर्कों पर चलेगा तो ये भी तो तेरी भाषा में जवाब दे सकता है कि ’हाँ, बोल ....... के। उस स्थिति में क्या होगा?" साथी का चेहरा एक बार तो जोर से तमतमाया लेकिन फ़िर सहज हो गया, मामला सुलट गया।  खैर, आभारी हूँ ऐसे साथियों का जो कटु लगने वाली बातें भी सह लेते हैं और मेरे द्वारा कुछ गलती करने पर मुझे भी कह लेते हैं।

ऐसे सवाल कुछ सोचने पर मजबूर तो करते ही हैं कि कब ऐसा होगा जब हम इन बातों से ऊपर उठ सकेंगे। अभी के हालात तो ऐसे ही हैं कि एक की गुंडागर्दी को रोकने के नाम पर परिवर्तन लाने के प्रयास होते हैं और कानून या समाज से समर्थन मिलने पर दूसरा वही गुंडागर्दी करने लगता है। जो शोषित है, अवसर मिलते ही वो शोषक की भूमिका निभाने लगता है।  इस बात में कोई शक नहीं कि अभी वांछित परिवर्तन नहीं दिखता लेकिन धीरे-धीरे परिवर्तन आ रहा है।  बसपा जैसी जाति आधारित पार्टी अब उतनी कट्टर नहीं दिखती, कभी सवर्णों की पर्याय और ब्राह्मणों के द्वारा नियंत्रित कही जाने वाली भाजपा का शीर्ष नेतृत्व देखिये तो पता चलेगा कि परिवर्तन आ रहा है।       

जो भी हो, उस समय के आने की आस लगाना गलत तो नहीं कि हर नागरिक के पास बिना किसी विशेष जाति, धर्म, लिंग. वर्ग के प्रमाणपत्र के भी स्वयं को सिद्ध करने के पर्याप्त अवसर होंगे। जब हम देश और समाज से सबकुछ पाने की जगह अपनी तरफ़ से कुछ योगदान करने के लिये तत्पर होंगे। 

आप भी कहेंगे कि चुनावी मौसम में कैसे बेमौसमी तराना छेड़ दिया लेकिन ये एकदम बेमौसमी तराना नहीं है। नेता लोग भी हमेशा तो आग उगलने वाली बात नहीं कहते, कभी कभी ये सब भी भाषण में कहते ही हैं :) 

गाना सुनिये, काफ़ी पुराना है और जाहिर है कि देखे हुये ख्वाबों की मंज़िल अभी भी दूर ही है लेकिन सकारात्मकता का संचार तो करता ही है।