शुक्रवार, अप्रैल 25, 2014

गृहस्थ आश्रम

’अपने परिजनों की इच्छा का मान रखने के लिये विवाह किया जाये या अपनी रुचि को ध्यान मे रखते हुये सन्यास लिया जाये’ इस दुविधा से मुक्ति पाने के लिये एक नवयुवक ने कबीर से मार्गदर्शन माँगा। उसकी बात सुनकर कबीर कुछ सोचने लगे और फ़िर अपनी पत्नी को पुकारा, "इतना अंधेरा है, जरा दीपक जलाकर लाओ।" दिन का समय था और पर्याप्त प्रकाश था, युवक हतप्रभ होकर कबीर की तरफ़ देखने लगा। उसे और भी आश्चर्य हुआ जब बिना किसी प्रश्न या उलाहने के उस भरी दोपहरी में जलता हुआ दीपक लाकर उन दोनों के सामने रख दिया गया। अनमना सा होकर वह युवक कुछ देर वहाँ बैठा रहा। अचानक कबीर उठ खड़े हुये और गंगाजी में स्नान करने चलने की कहने लगे। युवक साथ हो लिया। स्नान के बाद दोनों लौट रहे थे तो एक टेकरी के पास रुककर कबीर ने टेकरी पर स्थित मंदिर में रहने वाले एक वृद्ध महात्मा जी को आवाज लगाई, "महाराज, आपके दर्शन की इच्छा है।" वृद्ध महात्मा धीरे-धीरे उतरकर नीचे आये। दर्शन से कबीर भाव-विभोर हुये एवं यथोचित अभिवादन के पश्चात महात्मा जी ऊपर चले गये जबकि कबीर और उनका अनुगामी हुआ वह नवयुवक वहीं खड़े रहे। पर्याप्त कष्ट के बाद महात्मा जब तक टेकरी की चोटी पर स्थित मंदिर तक पहुँचे, कबीर ने फ़िर से वही पुकार लगाई, "महाराज, आपके फ़िर से दर्शन की इच्छा है।" महात्मा फ़िर से नीचे आये और पुन: दर्शन की कबीर की टेक और वृद्ध महात्मा की टेकरी पर चढ़ने-उतरने की यह क्रिया कई बार दोहराई गई। अब तक युवक का धैर्य जवाब देने लगा था। वो तो कबीर से इतने अहम विषय पर सही मार्गदर्शन की अपेक्षा लेकर आया था और उस विषय पर कोई जवाब न देकर कबीर कभी तो भरे दिन को अंधेरा बताकर दीपक जलवा रहे थे और अब बार-बार उस वृद्ध महात्मा को शारीरिक कष्ट देते दिख रहे थे। उसकी मनोस्थिति भाँपकर कबीर ने कहा, "दीपक वाली घटना की तरह जीवनसाथी पर विश्वास रख-पा सको तो विवाह कर लो और दूसरों के सात्विक आनंद के लिये इन महात्मा जैसा धैर्य रख सको तो सन्यास ले लो।"

मित्र सोमेश की एक पोस्ट पर कमेंट किया था और कहानी जानने की उनकी इच्छा के चलते एक उधार सिर पर था, आज चुका पाया हूँ। यूँ तो यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी लेकिन जब बात छेड़ी थी तो उसे पूरा भी करना था, तिस पर ’नरेन्द्र मोदी-जशोदाबेन प्रकरण’ ने भी इस बात के लिये उत्साहित किया कि ’विवाह’ पर कुछ अपने विचार साझे किये जायें। 

विवाह के उद्गम  के बारे में कोई पुष्ट जानकारी नहीं मिलती लेकिन इसका इतिहास रोचक अवश्य है। विवाह हर संस्कृति में प्रचलित हैं, विवाह के प्रकार जरूर अलग-अलग हो सकते हैं। कुछ लोगों की राय है कि सभ्य होने की प्रक्रिया में समाज का रुझान सामूहिक हित से व्यक्तिगत अधिकार की तरफ़ बढ़ता गया और वर्तमान की विवाह-व्यवस्था उसी से प्रेरित है। 



पुराने समय में जीवन को लगभग चार बराबर हिस्सों में बाँटकर ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम के रूप में जीने की परंपरा रही है। मुझे लगता है कि हमारे पुरखे ’ऑप्टिमम यूटिलाईज़ेशन’ सिद्धांत के शानदार मानने वाले रहे होंगे। मानव जीवन को अनमोल मानते हुये इस जीवन-काल में समय और सामर्थ्यानुसार सही दिशा में अपनी शक्ति को लगाने का यह भी एक तरीका रहा होगा।  समय के साथ प्राथमिकतायें भी बदलीं और उसीके अनुरूप परंपरायें भी बदलती रही हैं। 

आज के समय के युवाओं के समक्ष शायद कबीर के प्रसंग वाले नवयुवक जैसी दुविधा नहीं होगी। बिना विवाह के एक साथ रहने की बढ़ती प्रवृत्ति के बावजूद एक साधारण परिवार के पात्र का ’विवाह होना’ एक बहुत ही स्वाभाविक सी रस्म है जिसे देर-सवेर घटित होना ही है और ’विवाह न करना’ एक साधारण परिवार में अस्वाभाविक लगने वाली बात। हालाँकि हमारे इतिहास में ऐसे अनेक चरित्र मिलते हैं जिन्होंने विवाह नहीं किया और वो पर्याप्त सफ़ल भी रहे हैं।

गृहस्थ या सन्यास में से श्रेयस्कर कौन सा है? ये प्रश्न कभी न कभी मन में उठता रहा है। बचपन में पढ़ी एक कहानी और ध्यान आती है जिसमें शरीर के सभी अंग अपना महत्व दूसरे अंग से ज्यादा बताने का दावा करते हैं और अपने-अपने तरीके से अपना विरोध जताते हैं। शरीर अशक्त होने लगता है, अंत तक पहुँचते-पहुँचते यही सिद्ध होता है कि हरेक अंग का औचित्य तभी तक है जब तक सब मिलकर और समन्वयता का पालन कर रहे हैं। गृहस्थ और सन्यास के बारे में भी मेरा ऐसा ही मानना है। 

जिस परिवेश में मैं पला-बढ़ा, उसमें कहीं से भी किसी गृहस्थ को सन्यासी से कम करके आँके जाते नहीं देखा। बल्कि ध्यान आता है कि किसी न किसी तरीके से गृहस्थ-धर्म को सन्यास की अपेक्षा ज्यादा महत्वपूर्ण ही सिद्ध किया गया।  दूसरी तरफ़ देखें तो गृहस्थ में जाने की जगह धर्म, देश या समाज की सेवा के लिये खुद को समर्पित करने वालों को भी कभी हेय दृष्टि से नहीं दिखाया गया। लेकिन इतना मुझे लगता है कि गृहस्थाश्रम को ज्यादा महिमामंडित करना ’मेंटल कंडीशनिंग’ का हिस्सा बिल्कुल हो सकता है। वैसे ही ’हर सफ़ल आदमी के पीछे एक औरत का होना’ भी मुझे इसी कंडीशनिंग प्रक्रिया का हिस्सा लगता है।

नरेन्द्र मोदी के द्वारा नामाँकन पत्र में इस बार अपनी पत्नी का नाम लिखे जाने वाली बात कानूनी या चुनावी मुद्दा हो सकता है लेकिन इस प्रकरण ने एक बार फ़िर से इस प्रश्न को सिर उठाने का मौका जरूर दे दिया है कि अगर कोई व्यक्तिगत हित से ऊपर उठकर अपनी समझ में देश, समाज और/या धर्म के लिये कुछ और करना चाहता है तो विवाह-संबंध इसमें बाधा का काम करता है या नहीं? 

हमेशा की तरह इस संभावना को भरपूर जिंदा रखते हुये कि मेरे विचार गलत हो सकते हैं, मेरे विचारों का पलड़ा ’हाँ’ वाली दिशा में कुछ झुका हुआ है। 










44 टिप्‍पणियां:

  1. जवाब आपकी कहानी में छिपा है...यदि कबीर जी जैसी मिल जाये तो ना...वर्ना हाँ...

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    1. ट्रायल-टैस्ट वाला फ़ार्मूला समाज के वर्तमान स्वरूप में मान्य नहीं है, मिलने वाला/वाली कैसा/कैसी है, ये तो विवाह संपन्न होने के बाद ही पता चल पायेगा। लॉटरी की तरह ही है न ये सब, मुझे लगता है exit-clause का प्रावधान शायद कुछ मदद कर सके।

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    2. Modi ji waala EXIT-CLAUSE hai hi, chinta kaahe kar rahe hain... Chal padiye MODI CHARAN CHINHON par, kaun rokta hai aapko ?

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    3. itna dardnaak geet suna diya aapne ki hamre naak mein dard ho gaya :)
      vaise ham bahute kanfusia gaye hain, geet sun kar to aisa laga jaise aap 'Nikas Dwaar' ka upyog kar chuke hain fir bhi aapko is baar ticket nahi mila, bahut beinsaafi hai :(

      ab to hamko bhi Pakistaan jaane ke liye exit dwaar dhoondhna hoga kaahe se ki ham jaison ke liye fatwa jaari ho chuka hai, bas baandhne lage hain apna saamaan ab ham bhi, tab shaayad yahi geetwa hamko bhi kaam devega :(

      haan nahi to !!

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    4. आप जैसी की वजह से ही ये दर्दनाक गाना तैयार हुआ होगा, न रोका न मनाया न दामन फ़ामन पकड़ा न वापिस बुलाया। ये तो किसी पुरुष के वश की ही बात है कि ये सब होने के बाद भी स्माईल देता जाये है।
      @फ़तवा - :) जबरदस्ती हर चीज को अपने ऊपर लेना फ़ालतू टेंशन का कारण बनता हि, पहले मैं भी हर चीज को अपने ऊपर ले लिया करता था। ऐसी बातों को सीरियस लिया जाये तो गिरिराज सिंह ने उन लोगों को पाकिस्तान जैसे मासूम, शांतिप्रिय, सर्वधर्मसमभाव देश जाने का ही फ़तवा दिया है न? हमें तो समुद्र में डूब जाने का फ़तवा मिला है, उसका क्या? यूँ भी जाने वालों को कौन रोक सका है? जायेंगे ही जाने वाले !!

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  2. कहानी के पहले हिस्से में जिज्ञासा है, द्वंद्व नही. कौन शादी का पात्र है कौन संन्यास का? यह प्रश्न है दुविधा नहीं. कहानी में इस प्रश्न का जवाब भी है. कहानी के बाद के लेख में द्वंद्व है: क्या एक गृहस्थ को सन्यास का, व्यक्तिगत हितों के परे जा कर घर त्यागने का हक़ है? मेरा मानना है की यदि आपने शादी की है, और सन्यास आपका साझा सपना है तो मान्य है. किन्तु अपनी पत्नी को बिना बताये, बिना विश्वास में लिए, कोई सिद्धार्थ गौतम बुद्ध बन जाये यह मुझे मंजूर नही.
    आप की राय अलग हो सकती है, यह मुझे मान्य होगी.

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    1. त्यागी सर, मोदी के चक्कर में सवाल थोड़ा पेचीदा हो गया:) आपके कमेंट से मैंने उस पैरे को देखा तो वाकई ऐसा लग रहा है कि मेरा सवाल सिर्फ़ मोदी वाली घटना को लेकर ही है।
      किसी घटना विशेष के साथ न जोड़कर मैं सामान्य तौर पर यह जानना चाह रहा था कि विवाह सामूहिक हितों की दिशा में कुछ काम करने की संभावनाओं के पर कतरता है कि नहीं?
      और स्पष्ट शब्दों में पूछना चाह रहा हूँ कि कुछ बड़ा करने की सोचने वाले का विवाह की लॉटरी न खेलने का निर्णय

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  3. कहानी बहुत ही खूबसूरत है! और विषय अत्यंत महत्वपूर्ण! आजकल हम कई घंटे इसी विषय पर मनन करने में बिताते हैं:) ;)

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  4. ....और सोचने पर, और अब तक के अनुभव से तो यही लगता है कि अकेले रह कर ज्यादा कुछ किया जा सकता है....

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    1. बिल्कुल सही सोचते हैं आप, विवाह नहीं करना और अकेले रह कर बड़े-बड़े काम करना अवश्य उचित है, लेकिन विवाह कर लेना फिर जीवन साथी को बीच में छोड़ कर समाज सेवा का भूत पालना सर्वथा अनुचित है
      First put your own house in order.

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    2. अभिषेक जी, पार्टी बनती है.

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  5. हो सकता है मेरे मामले में यह ’The grass is always greener on the other side of the fence' वाली बात हो लेकिन मुझे भी यही लगता है कि अकेले रहकर कुछ ज्यादा किया जा सकता है।

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  6. आपके विचारों का समर्थन करना मेरे अनुसार उचित है। - भारतीय नागरिक।

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  7. व्यक्ति पर निर्भर है । उसके जीवन के लक्ष्य क्या हैं और उसकी केपेबिलीटीज़ उसके झुकाव क्या हैं ।

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  8. कहानी और प्रसह्न के उत्तर में एक घटना मैं भी साझा करता चलूँ... एक बड़े पहुँचे हुये सन्यासी, जिन्होंने परिवार के साथ साथ सारे माया-मोह त्याग दिये थे, एक बार कहीं प्रवचन दे रहे थे. उसी प्रवास के दौरान, एक दिन वे अपने निवास पर थे, तभी उन्हें किसी ने बताया कि उनकी पत्नी उनसे मिलने आ रही हैं. उन्होंने कहा कि द्वार बन्द कर दो और मना कर दो आने से. उन्होंने गृहस्थ जीवन का परित्याग कर सन्यास अपनाया था बरसों पहले और वो नहीं चाहते थे कि वह व्रत भंग हो. लेकिन उंका यह व्यवहार स्पष्ट करता है कि वह अपनी पत्नी से कभी अलग हुए ही नहीं, तभी तो उन्हें उस स्त्री में भी अपनी वही पत्नी दिखाई दे रही थी जिसे वो कब का त्याग चुके थे.
    यही नहीं, एक दिन उन्हें किसी ने सूचित किया कि उनकी पत्नी का निधन हो गया है, तो उनके मुँह से स्वत: ये शब्द निकले कि चलो आज पिण्ड छूटा!! मतलब अब तक वह बँधे ही हुए थे उस स्त्री से.
    मोदी जी के प्रशंसक होने के बावजूद भी मैं इस बात से उतना आहत नहीं महसूस कर रहा कि उन्होंने इस बार अपनी पत्नी का नाम क्यों लिखा. मुझे इस बाद से अधिक चोट पहुँची है कि उन्होंने पहले इस बात का उल्लेख क्यों नहीं किया.
    गाँधी जी के जीवन की तमाम घटनाओं में कस्तूरबा उनके साथ रहीं. मुझे तो नहीं लगता कि वो किसी भी तरह गाँधी जी के लक्ष्य में बाधक थीं. कबीर और बाबा नानक जैसे महान संत भी गृहस्थ थे, लेकिन इससे उनकी संतई में कहाम व्यवधान आया. दरसल जब आप सन्यास का दिखावा करते हैं तब यह प्रश्न पैदा होता है.
    एक और कहानी विमल मित्र की याद आ गई. एक व्यक्ति का बेटा मेले में खो गया. इकलौता था इसलिये वो विचलित हो गये और दिन रात अध्ययन में लगे रहे. उन्होंने एक परा विद्या हासिल की, जिसके द्वारा वे अपने पुत्र से बातचीत कर सकते थे, जैसे वो जीवित और अदृश्य मगर उनके समक्ष हो. दुनिया भर के सेमिनार में उन्हें बुलाया गया, उनकी व्याख्यान हुए और कई विश्व विद्यालयों ने उन्हें सम्मान और पुरस्कार दिये. एक दिन शाम ढले उनके दरवाज़े पर दस्तक हुई. जब उन्होंने दरवाज़ा खोला तो उनका बेटा सामने खड़ा था. उसे देख उन्हें वे सारे सम्मान, सिद्धानत, पुरस्कार, सेमिनार अपने हाथ से फिसलते महसूस होने लगे. उन्होंने अपने बेटे को पहचानने से इंकार कर दिया और घर से बाहर कर दिया, पागल कहकर!!
    बहुत ज़्यादा हो गया. पता नहीं फिर भी अपना जवाब साफ तौर पर रख पाया कि नहीं!!

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    1. सलिल भाई, परिवार त्यागना बहुत कठिन नहीं है लेकिन मोह-माया त्यागना सच में कठिन है। जो घटना आप बता रहे हैं, अवश्य ही सच हो सकती है। राजा भर्तृहरि की प्रचलित कथाओं में भी वर्णन है कि नाथ पंथ की पद्धति के अनुसार दीक्षा लेने से पहले अपनी पत्नी को मातृ-स्वरूप में संबोधित करके पहली भिक्षा लेनी पड़ती है और भर्तृहरि भी पहले दो या तीन प्रयास में यह नहीं कर पाये थे। कबीर, गुरु नानक और दूसरे बहुत से महापुरुषों के गृहस्थ होने के बारे में एक पैरा मूल पोस्ट में था जिसे मैंने पोस्ट करने से पहले डिलीट कर दिया था। गृहस्थ में रहकर भी संतई की जा सकती है और वो यकीनन अकेले ये सब करने से गुरुतर कर्म है।
      मोदी वाले प्रकरण पर तर्क अपने पास हैं लेकिन मेरा प्रश्न चूँकि इस विशेष घटना पर नहीं है बल्कि एक जनरल सवाल है, इसलिये वो जवाब अभी स्वयं तक ही रख रहा हूँ। सीधे साफ़ तो मैं भी नहीं ही पूछ पाया, पूछना यही चाह रहा था कि विवाह किसी इंडिविज्युअल के लिये परिवार से आगे जाकर बड़ी इकाई के लिये कुछ काम करने की संभावनाओं को सीमित करता है या नहीं?

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  9. "अकेले रहकर कुछ ज्यादा किया जा सकता है" मुझे लगता है कि यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करेगा

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  10. पुरुषार्थ चतुष्टय सिद्ध करने के लिए चारो आश्रमों में गृहस्थ आश्रम सर्वोपरि है। यही एक मात्र पड़ाव है जो बाकी तीनों आश्रमों का निर्वहन एवं निस्तार करता है। इसलिए गृहस्थ आश्रम को तीनों आश्रम मिल कर महिमामंडित करते हैं। इतिहास में ऐसे बहुत से लोग हैं, जिन्होने "गृहस्थ त्याग" कर राष्ट्र प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया।

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  11. जैसे कबीर तैसी संगत, अब कहाँ वैसी पंगत ...

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  12. विवाह करें तो निभायें वरना न करें। अब सामान्य शादियाँ तो निभाई ही जाती है। पत्नी की संम्मती हो तो फिर समाज सेवा भी की जा सकती है पर उनको अव्हेर कर नही।

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    1. विवाह पश्चात इस दुविधा से पाला पड़ने वालों के लिये उचित परामर्श।

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  13. अरे आपने मेरे ब्लॉग का लिंक दिया और मेरे कहने पर वह कहानी सुनाई और मुझे पता ही नहीं चला. फेसबुक की तरह ब्लॉग पर भी टैगिंग का नोटिफिकेशन मिलना चाहिए. नहीं? :)
    'उधार" चुकाने के लिए धन्यवाद. और विवाह पर आपने जो प्रश्न उठाया है उस पर मैं शिल्पा मेहता जी के जवाब से इत्तेफाक रखता हूँ, मेरा उत्तर भी यही माना जाए.

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    1. ’छोटी सी ये दुनिया, पहचाने रास्ते’ पता तो चल ही जाना ही था दोस्त :)

      भूलता नहीं हूँ न तो देर सबेर कहानी सुनानी ही थी। उधार वाली बात तो यूँ ही मजे मजे में लिख दी थी, धन्यवाद की कोई जरूरत नहीं।
      मेरा प्रत्युत्तर भी वही है शिल्पा जी वाला, ’सही बात, धन्यवाद’ :)

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  14. उत्तर
    1. इधर तो यही आई है बंधु, सेंसिटिव मामला देखकर एग्ज़िट क्लॉस अपना ली होगी :)

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  15. हमेशा की तरह इस संभावना को भरपूर जिंदा रखते हुये कि मेरे विचार गलत हो सकते हैं
    आपकी इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ :)


    अब आगे की बात, बुद्ध ने पत्नी का त्याग किया तो राज-पाट का भी त्याग किया, यहाँ किसी ने पत्नी का त्याग किया और राज-पाट को पकड़ लिया और जब राज-पाट पर आँच आने लगी तो फट पत्नी धुन बजने लग़ी :)
    आपकी पोस्ट पढ़ कर यूँ लगा अगर समाज के लिये कोई बड़ा काम करना है तो सबसे पहले पति अपनी पत्नी का त्याग करे वर्ना छोटे-छोटे काम कीजिये और शादी के बन्धन को और पत्नी को कोसते रहिये , यानि कि मोदी युग के पहले कभी कोई पत्नीशुदा माई का लाल हुआ ही नहीं जिसने समाज के लिये कोई बड़ा काम किया हो, बेचारे कबीर साहब जो महान विचारक, समाज सुधारक थे ने भी तो बस हेल्प ही ली होंगी पत्नी की बत्ती जलाने के लिये और अपनीं बात साबित करने के लिये।
    कहते हैं charity begins at home, जब पत्नी को छोड़ देने का माद्दा कोई इन्सान रखता है तो विवाह से इंकार करने की भी हिम्मत उसे होनी चाहिए,
    किसी भगोड़े का महिमा मण्डन करने से पहले सोचना आवश्यक है कि यही काम हमारे घर की बेटी साथ हुआ होता तो क्या यह पोस्ट ऐसे ही लिखी जाती ???? एक त्यागी हुई औरत की भारतीय समाज में क्या गत होती है यह बात किसी से छुपी नहीं है.. इस दुःख-तक़लीफ़ की समझ तब तक नहीं आ सकती जब तक ख़ुद के घर में ये घटना न घटी हो, बहुत आसान है त्यागी हुई पत्नी के आस्तित्व को ही सीधे से नकार देना, उसकी परेशानियोँ को कोई डाइल्यूट करके महत्व नहीं देना, एक स्त्री त्यागी हुईं का ठप्पा लेकर कैसे-कैसे लोगों से रोज़ उलझती रही होंगी और कितने ताने और कितनी नज़रें झेलती होगी, वो भी उन दिनों जब लोगों की सोच इतनी भी उदार नहीं थी, यह एक स्त्री ही समझ सकती है.… अपने बड़े-बड़े सपनों के लिये एक निरीह पत्नी के जीवन की बलि देने वाला आपकी नज़र में महान हो सकता, लेकिन एक पत्नी होने के नाते मुझे ये बात सरासर नागवार गुज़री है

    कहते हैं, विवाह पूर्व जब राम-सीता की कुण्डली मिलाई गई थी तो उनके ३६ के ३६ गुण मिले थे फिर भी उनके विवाह की .…………:( हमारा तो फिर भी आपसे ३६ का आँकड़ा ही है, आपसे हमारे विचार कैसे मिल सकते हैं भला !!!

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    1. बचपन में संस्कॄत का एक श्लोक टाईप कुछ पढ़ा था जिसका भावार्थ कुछ ऐसा था कि अगर कलारिन(शराब का व्यवसाय करने वाली स्त्री) अपने सिर पर दूध से भरा मटका भी लेकर जा रही हो तो लोग यही अभिप्राय लेते हैं कि वो मदिरा ढो रही है। मैंने किसी का महिमामंडन करने के लिये ये पोस्ट लिखी है, इस पोस्ट का यह अर्थ निकालने में मेरी छवि और लेखन की अक्षमता का जितना क्रेडिट है, मनमाना अर्थ निकालने की आपकी क्षमता का योगदान उससे किंचित भी कम नहीं है। अभिव्यक्ति की मेरी और निरर्थक को अर्थमय सिद्ध करने की आपकी स्वतंत्रता के लिये एक नारा लगाना बनता है - long live freedom ;)

      मोदी के समर्थन में मेरे पास तर्क की कमी नहीं है लेकिन वो मेरी पोस्ट की विषय वस्तु नहीं है। आपकी इस बात से मैं सहमत हूँ कि मेरे घर की बेटी के साथ यही काम हुआ होता तो हो सकता है यह पोस्ट ऐसे न लिखी जाती। कृपया ध्यान दें, मैंने कहा है कि ’हो सकता है’।

      जो मैं सिद्ध ही नहीं करना चाह रहा था, उस पर क्या तो बहस की जा सकती है? मैं देश, धर्म या समाज के लिये कुछ सकारात्मक करने के किसी इंडिविज्युअल के इरादों पर उसके विवाह करने या न करने के निर्णय का प्रभाव जानना चाह रहा था न कि विवाह होने के पश्चात विवाह तोड़कर या गृह त्याग देने के निर्णय की वकालत या खिलाफ़त कर रहा था/हूँ। बट, लेकिन, किन्तु जिनकी गिनती ३६ पर अटक जाती है उनके विचार ६३ वालों से एकदम से मिल भी कैसे सकते हैं भला ? टाईम तो लगता ही है :)




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    2. sanskrit mein shlok type nahi hai ye. Ye hai rahim kavi dwaara rachit doha Rahim kavi avdhi aur brajbhasha mein likhte the.
      Doha kuch is tarah se hai :

      रहिमन' नीचन संग बसि, लगत कलंक न काहि।
      दूध कलारिन हाथ लखि, मद समुझहिं सब ताहि

      नीच लोगों का साथ करने से कौन भला कलंकित नहीं होता हैं! कलारिन(शराब बेचने वाली) के हाथ में यदि दूध भी हो, तब भी लोग उसे शराब ही समझते हैं।

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    3. फ़िलहाल रहीम कवि से ही काम चला लेते हैं, मुझे ध्यान आता है कि संस्कृत में भी ऐसा कुछ पढ़ा था कभी। बाई द वे, एक बात तो है - ये पंक्ति अगर तुलसी ने लिखी होती तो अब तक नारी विरोधी होने के कई और आरोप तुलसी बाबा पर लग चुके होते :)

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  16. कोई व्यक्तिगत हित से ऊपर उठकर अपनी समझ में देश, समाज और/या धर्म के लिये कुछ और करना चाहता है तो विवाह-संबंध इसमें बाधा का काम करता है या नहीं?

    Vivah sambandh aise kisi bhi kaam mein baadha kaa kaam nahi karta hai. Jitne bhi rishi-muni they adhiktar vivahit the, aaj tak jitne bhi bade-bade raajnitigy hue hain aksar vivahit hi rahe hain, jitne vaigyanik hue hain adhiktar vivahit rahe hain. Adhiktar samaj ki seva karne waale chahe wo sahitykaar hon, doctor hon, neta hon ya abhineta hon vivaahit hi dekha hai isliye mera mat vivaah sambandh ke paksh ke liye hai.

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    1. यह बात शायद व्यक्ति की इच्छाशक्ति पर निर्भर करती है। मुझे लगता है कि दृढ़ इच्छाशक्ति वाले किसी भी परिस्थिति में अपने लिये रास्ता तलाश लेते हैं और एक सामान्य इच्छाशक्ति लेकिन कुछ सार्थक करने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति के लिये गृहस्थी की बजाय अकेले रहकर कुछ कर सकना ज्यादा सुविधाजनक होता होगा।

      ये वाली टिप्पणी उसी विषय पर है, जिधर मैं हाँक रहा था। देखा,, मैं आपकी बात समझूँ या न समझूँ, देर-सवेर आप मेरी बात समझ ही लेती हैं :)

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  17. चुनावी माहौल है.
    तर्क वितर्क से बहुत गर्मागर्मी है.

    आपके विचार जानकर अच्छा लगता है.

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