रविवार, जून 15, 2014

होर वड़ो..

’लाला’ एक ऐसा शब्द है जो कभी किसी जाति का सूचक बन जाता है, कभी किसी व्यवसाय का। पंजाब की तरफ़ हिन्दु परिवारों में घर के मुखिया को लाला कहकर संबोधित किया जाता है और ब्रज में छोटे बच्चे को लाला कहकर बुलाते हैं।  जब कोई काबुली पठान आवाज लगाये ’ओ लाले की जान’ तो पता चलता है कि कानून की तरह लाला की पहुँच भी बहुत लंबी है, सरहद की सीमाओं को पार भी कर जाती है। लेकिन यहाँ हम जिस लाला का किस्सा बताने जा रहे हैं, वो इनमें से किसी से भी संबंधित नहीं। वो खानदानी लाला था, है और रहेगा। पता नहीं कितनी पीढ़ी पहले, क्यों और कैसे ये लेबल उनके साथ लग गया था और हर नई पीढ़ी कर्ण के कवचकूंडल की तरह इस ’लाला’ पदवी के साथ ही अवतार लेती रही।  उसके पिताजी का भी एक भला सा नाम था लेकिन उस नाम से उन्हें कोई नहीं जानता था, ’लाला’ कहने से ही उन्हें पहचान लिया जाता था। इस लड़के का भी सोहणा सा नाम था लेकिन हमारी  मित्र मंडली में ये भी ’लाला’ ही कहलाता था।

दसवीं की परीक्षा हो चुकी थी और हमारी रोड इंस्पेक्टरी चालू थी। बोर्ड परीक्षा की मानसिक थकान उतारने के बहाने किराये पर वीडियो लाकर फ़िल्में देखने का कार्यक्रम बन चुका था। आयोजन स्थल का फ़ाईनलाईज़ेशन चल रहा था। दो सरदार भाईयों के अलावा लगभग सब लड़़कों ने पैसा कंट्रीब्यूट करने की हामी भर रखी थी। उनकी हामी भी उनके दारजी की हामी के इंतज़ार में रुकी हुई थी लेकिन उम्मीद पर दुनिया कायम थी। इस बार जैसे एक एक वोटर को बूथ तक लाकर  वोट प्रतिशत बढ़ाने का अभियान चला था, हमारे ऐसे सामूहिक कार्यक्रमों में एक एक को शामिल किया जाना आर्थिक कारणों से बहुत आवश्यक था।    ऑनलाईन चंदा तो उस समय आता नहीं था, पॉकेटमनी भी इतनी नहीं होती थी कि रोज रोज ये आयोजन किया जा सके इसलिये आज के समय में फ़ालतू सा लगने वाला वो प्रोग्राम हम लोगों के लिये कामनवेल्थ खेलों जैसा आयोजन ही था। पैसा इकट्ठा हो भी गया तो सारी रात वीडियो कहाँ चलेगा, ये सवाल मुँह बाये हम सबके सामने खड़ा था।

जिस दिन दोनों भाईयों के लिये परमीशन और चंदा उगाही के मकसद से हमारा प्रतिनिधिमंडल दारजी की अदालत में पेश हुआ, हमारी तरफ़ से भूमिका वाला तंबू तानने के बाद उनका प्रैक्टिकल सवाल यही था कि वीडियो किसके घर चलाया जायेगा? बिल्ली के गले में घंटी बांधी थी तो  पहली उंगली इस गरीब की तरफ़ उठनी स्वाभाविक ही था। मैंने कहा कि प्रोग्राम बने तो ठीक और न बने तो और ठीक, मेरे भरोसे ये प्रोग्राम न बनाया जाये। मेरे पिताजी को शोर शराबा पसंद नहीं, इसलिये मेरे यहाँ तो वीडियो चल नहीं सकता{ दोस्तों ने कानाफ़ूसी करके और पीठ पर धौल धप्पे मारके मेरे डिप्लोमैटिक न होने पर दुखी होते हुये प्रोग्राम कैंसिल होने की आशंका जताई लेकिन दारजी ने मेरी पीठ ठोकी, "शाबाश, साफ़ कहना सुखी रहना।" दूसरे से यही सवाल किया गया तो उसने अपने घर में अपनी बुआ और उनके बच्चों के आने का हवाला देकर और जगह की तंगी की वजह बताकर मुक्ति पाई। धीरे धीरे ऐसा हुआ कि एक एक करके जगह मुहैया करवाने से सब पीछे हटते गये और फ़िल्में देखने का प्रोग्राम अब धूल धुसरित होता दिखने लगा। दारजी खुस होते जा रहे थे क्योंकि प्रोग्राम कैंसिल तो डबल टिकट के पैसे देने से वो बिना कोई इल्जाम लिये बचने जा रहे थे। एकदम से ’लाला’ बोला, "वीडियो मेरे घर चला लेंगे, उसकी कोई टेंशन नहीं है।" लड़कों में लाले की शावा-शावा, बल्ले-बल्ले हो गई। कईयों ने उसके गाल चूम लिये, बंदा हो तो ’लाला’ जैसा वरना हो ही नहीं। दारजी का मूड ऑफ़ हो गया, कई तरह से उन्होंने ’लाला’ को डिगाने की कोशिश की। "वड्डे लाले से पूछ तो लेता"  लेकिन हमारा दोस्त ’लाला’ एकदम कूल और रिलेक्सड था। "दारजी, कह दिया तो कह दिया। तुस्सी चिंता न करो, बस इन दोनों को परमीशन दे दो और हमें इन दोनो के हिस्से का पैसा, हमने वीडियो बुक करवा देना है।" मायूस होते हुये दारजी को दोनों चीज देनी पड़ीं, परमीशन भी और डबल फ़ीस का वादा भी। 

पूरे सप्ताह लड़कों का उत्साह पूरे जोरों पर रहा। दारजी बीच बीच में हमें भी टोक देते और अपने लड़कों को भी, "इस ’लाले’ दे प्यो नूं मैं बड़ी चंगी तरां जाननां, कट्टी उंगल ते नईं मूत्या उसने ते ऐ भैण दा यार हाँ भर गया? साल्यो अगर ऐ मुकर गया मैं पैसे नईं देणे " (इस लाले के बाप को मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि वो आजतक किसी के काम नहीं आया और ये पता नहीं कैसे जिम्मेदारी ले रहा है? सालों इसने धोखा दिया तो मैंने तुम्हारे पैसे नहीं देने) सारी बच्चा पार्टी दारजी को विश्वास दिलाती कि इसका बाप ऐसा जरूर रहा होगा लेकिन हमारे वाला ’लाला’ धोखा नहीं देगा। रोज ये कहानी छिड़ती, इतना अंतर जरूर आ गया कि अब लाला की इज्जत बहुत होने लगी थी। बैटिंग में उसे अब सेवंथ डाऊन की जगह सैकंड डाऊन पर भेजा जाने लगा, ताड़मताड़ा(गेंद से एक दूसरे को निशाना बनाने का देसी खेल) में जिस लाला के पिछवाड़े को गेंद से सुजाने को लालायित रह्ते थे, लड़के अब उसे बेनेफ़िट ऑफ़ बेनेवोलेंस दे रहे थे। एक दूसरे से छीनकर खाने वाले फ़ल और दूसरे सामान में से लाला को पहले भोग लगवाया जा रहा था, कहने का मतलब ये कि लाला की पांचों घी में थीं और सिर कढ़ाही में था।

नियत दिन से एक दिन पहले दारजी ने अपने दोनों लड़कों की फ़ीस भी चुका दी, अलबत्ता ’लाला’ की हाँ पर उनकी हैरानी अब तक कायम थी।  असल में दारजी को एक बड़ा डर था कि बाल मंडली वीडियो वाला प्रोग्राम कहीं उनके दूसरे प्लॉट पर रखे हमारी कालोनी के सबसे पहले रंगीन टीवी पर देखने का न बन जाये, इसलिये उन्होंने पहले जगह फ़ाईनल करवाई थी और उसके बाद लड़कों का हिस्सा डाला था।

देखते ही देखते कयामत की वो रात आ पहुँची, लाला रिक्शा करके वीडियो लेने चला गया और हम सब लड़के गली के चौक में खड़े होकर इंतज़ार करने लगे कि लाला अपने घर में वीडियो और टीवी की सेटिंग ओके करवाकर आये और फ़िर हम सब उसके घर जायें। घंटे भर बाद लाला आता दिखा, सीधे दारजी के पास गया, "अकलजी सॉरी, मेरा लाला कै रया है कि सारेयां ने बराबर पैसे दित्ते हैं तो  रौला साड्डे घर क्यों पयेगा। या तां तेरे कोल पैसे न लये हुंदे, हुण मैं नईं चलण देना वीडियो ऐत्थे।"(मेरे पिताजी कह रहे हैं कि पैसे सबके बराबर लगे हैं तो शोर शराबा मैं अकेले अपने घर में नहीं होने दूँगा। या तो तुझसे हिस्सा न लिया होता) पीछे रेडियो में मुकेश की आवाज में गाना बज रहा था, "ये न होता तो कोई दूसरा गम होना था’ दारजी  अपने हमउम्र वाले लाले के साथ के अपने पूर्व अनुभव याद कर रहे थे, हम लड़के इस हफ़्ते में लाले को दी हुई रियायतें याद करके पछता रहे थे, वीडियो वाला अलग अल्टीमेटम दे रहा था कि वीडियो चले या न चले वो सुबह तय समय पर वीडियो वापिस ले जायेगा।

डरते डरते दारजी के सामने प्रस्ताव रखा गया कि अब और कोई चारा तो है नहीं, दया करके अपने प्लॉट पर वीडियो देखने की इजाजत दे दें वरना उनकी और हम सबके माँ-बाप की मेहनत से कमाई गई राशि व्यर्थ चली जायेगी। सभी परिवार कमोबेश एक जैसी आर्थिक हालत के थे, जेब तंग लेकिन दिल उतने तंग नहीं। दारजी गुस्से में तो थे ही, कुर्ते की जेब से प्लॉट की चाबी निकालकर अपने लड़कों की तरफ़ फ़ेंकी और बोले, "भैनचोदों, होर वड़ो लाले दी बुंड विच।" 
(होर = और
वड़ो = घुसो)
बाकी तो आप सब विद्वान हैं ही :)

सारी रात हम लड़कों ने दारजी का वो डायलाग उतनी बार दोहराया कि उतनी बार किसी परमात्मा के नाम की माला जपते तो भवसागर से पार पहुँच जाते।

बैंक में आने के बाद एक बार ऐसा हुआ कि किसी दोस्त से मिलने एक छोटे से कस्बे में गये और वहाँ जाकर पता चला कि वो अपने घर गया हुआ है। वापिसी की ट्रेन थी रात साढे तीन बजे। प्लेटफ़ार्म पर अखबार बिछाकर कभी बैठकर और कभी लेटकर हम किस्सा-ए-चार दरवेश का नाटकीय रूपांतरण करते रहे ताकि नींद न आ जाये। ये किस्सा उस दिन दोस्तों को सुना बैठा। सुनाया तो था मजे के लिये, लेकिन उसके बाद से जब कभी हवन करते हाथ जलने जैसा मौका आया और ऐसे मौके तब आते ही रहते थे, तो कोई न कोई दोस्त धीरे से इतना कहता था, ’होर वड़ो..’ कसम से गुस्सा तो बहुत आता था लेकिन खून के घूँट पीकर रहना पड़ जाता था। किस्सा तो आखिर मैंने ही सुनाया था न, पंगा तो मैंने खुद ही लिया था न...

क्लेमर/डिस्क्लेमर/फ़्लेमर और डिस्फ़्लेमर(whatever it is) - वोट के लिये अपना धर्म-ईमान गिरवी रखते और बाद में अपने ही तथाकथित वोटबैंक से जूते खाते किसी नेता से या ऐसी ही किसी मिलती जुलती घटना से इस पोस्ट का कोई संबंध नहीं है। फ़ेसबुक पर या ब्लॉग पर कभी कभी किसी घटना का पता चलता है तो मुझसे बरबस ही लिखा जाता है ’होर वड़ो’ - मेरा लिखा कई बार हिन्दी में होने के बावजूद भी मुझे ही समझ नहीं आता तो इस पंजाबी जुमले ’होर वड़ो.......’ को पढ़कर बाकी लोग कहीं मुझे एकदम से पागल न समझ बैठें, इसलिये खुलासा कर दिया। कहने का मतलब ये है कि असी पागल हैगे लेकिन एकदम वाले पागल नहीं हैगे, समझ रहे हैं न? समझ गये तो ठीक है नहीं तो .......

रविवार, जून 01, 2014

गलती हो गई जी

किसी कर्मचारी के विरुद्ध एक विभागीय जाँच चल रही थी और उस कार्यवाही में मैं भी एक भूमिका निभा रहा था। विभागीय जाँच वगैरह का जिन्हें अनुभव या अनुमान है, वे जानते ही होंगे कि इनका सेटअप भी कुछ औपचारिकताओं को छोड़कर लगभग भारतीय अदालत की तरह ही रहता है। जज साहब की तरह एक जाँच अधिकारी, प्रबंधन की तरफ़ से पब्लिक प्रोसीक्यूटर की तरह एक अधिकारी, आरोपी,  सफ़ाई वकील की तरह ही आरोपी का प्रतिनिधि, दोनों तरफ़ से गवाह. दस्तावेज और सबसे बड़ी समानता - वही तारीख पर तारीख। प्रबंधन जहाँ जल्दी से जल्दी मामले को एक तरफ़ लगाना चाहता है, बचाव पक्ष की तरफ़ से येन-केन-प्रकारेण मामले को लंबा खींचा जाता है। तो बात कर रहा था उस जाँच की, संयोगवश जाँच अधिकारी, बचाव पक्ष के वकील यानि कि यूनियन के नेताजी और मैं हम तीनों कभी एक ही कार्यालय में रह चुके थे। उन दोनों की जन्म कुंडली शुरू से ही नहीं मिलती थी। वर्तमान में जाँच अधिकारी साहब बड़े ऑफ़िस में कार्यरत थे तो ’स्थानं प्रधानम न बलं प्रधानम’ के चलते उनकी अपनी समझ में उनकी तूती बोल रही थी, बोलनी चाहिये थी और नेताजी ऐसी तूतियों को ठेंगे पर रखते थे।

ऐसे ही गर्मी के दिन थे, ब्रांच की छत पर बने एक कमरे में, जहाँ पुराना रिकार्ड रखा जाता था, कार्यवाही चल रही थी। अचानक से नेताजी ने कहा कि यहाँ तो गर्मी बहुत है, अब आज की कार्यवाही खत्म कीजिये और अगली तारीख पर कुछ ज्यादा समय दे देंगे। जाँच अधिकारी ने शुरू में मजाक में, फ़िर आग्रह करते हुये और अंत में धौंस दिखाते हुये जाँच को फ़ास्ट ट्रेक कोर्ट की तर्ज पर खत्म करने की बात कही। मेरे एक फ़ेवरेट पंजाबी गीत ’सुच्चा सूरमा’ में आये एक वाक्य में कहा जाये तो ’कुंडियों दे सिंग लड़ गये’ यानि मरखनी भैंसों के कुंडलियों जैसे सींग आपस में फ़ँस गये थे। मैं नौकरी में नया-नया था, सच कहूँ तो मुझे तो  इस मुठभेड़ का चश्मदीद गवाह होने में मजा आने लगा था। एक तरफ़ प्रबंधन मद में चूर अधिकारी महोदय, दूसरी तरफ़ सर्वहारा के मसीहा जी। दाँव पर दाँव चले जाने लगे। 

कानून की बहुत ज्यादा समझ न रखने वाले भी जानते हैं कि equity, fair play and justice के नाम पर कानून को कैसे हैंडल किया जा सकता है। नेताजी ने गर्म मौसम, बिजली की दिक्कत, पानी जैसी मूलभूत आवश्यकता के अभाव का ऐसा भावुक प्रसंग कार्यवाही में लिखवाना शुरू किया कि कोई पढ़े तो उसे ऐसा लगे कि जैसे जाँच के नाम पर इस टीम को थार के मरुस्थल में बिना पानी और बिना किसी सायबान के छोड़ दिया गया हो। कागज़ों में गला सूखना शुरू हुआ फ़िर गला चोक हो गया, पसीने धड़ाधड़ बहने लगे, धड़कने कभी तेज और कभी मंद होने लगीं। नौबत यहाँ तक आने लगी कि नेताजी को अभी अस्पताल भिजवाना पड़ेगा। "अरे भाई, कमाल है। आरोप सिद्ध नहीं है तभी तो जाँच की जा रही है न? और बर्ताव ऐसा कि गोरों ने काला पानी में भी किसी से न किया होगा। पीने के लिये पानी तक की सुविधा नहीं, हद है। ये सब उत्पीड़न सिर्फ़ इसलिये कि हम लोग चुपचाप आरोप स्वीकार कर लें वो भी उस गुनाह के जो हमने किये भी नहीं। मैं कार्यवाही में रिकार्ड करवाना चाहता हूँ कि अगर पानी के अभाव में मुझे या किसी को कुछ  हुआ तो इसे प्रबंधन और जाँच अधिकारी की साजिश माना जाना चाहिये।"

जाँच अधिकारी ने आसपास देखा तो उसी कमरे में पुराने रिकार्ड में से कुछ ढूँढता ब्रांच का चपरासी मनोज दिखाई दिया। बवाल खत्म करने के लिये उन्होंने आवाज लगाई, "अरे, मनोज बेटा।"

"हाँ, साहब?"

"अरे बेटा, तेरी ब्रांच में बैठे हैं और पीने के पानी को तरस रहे हैं।"

मनोज ने हाथ के कागज वहीं रखे और हँसकर बोला, "अभी लाता हूँ साहब।"

मुझे थोड़ी सी मायूसी हुई, इतने जोरदार घटनाक्रम का ऐसा पटाक्षेप :(

मनोज मुड़कर दरवाजे तक पहुँचा था कि नेताजी की आवाज आई, "अरे, मनोज।"

"हाँ, दद्दा?"

"तेरी ड्यूटी कहाँ है रे?"

"नीचे हॉल में है, दद्दा।" मनोज आकर जाँच अधिकारी के सामने रुका और आँखों में आँखें डालकर बोला, "हम पानी नहीं लायेंगे, साहब।" मुझे पंक्तियाँ याद आ रही थीं ’राणा की पुतली फ़िरी नहीं, तब तक चेतक मुड़ जाता था..’

जाँच-अधिकारी ने साम,दाम, दंड, भेद सब तरह की नीति अपना ली लेकिन मनोज से पानी लाने की हाँ नहीं भरवा सके। "सस्पेंड करवा दो साहब, पानी नहीं लाऊँगा। मेरे घर आओ, गरीब आदमी हूँ तो जो बन सकेगा वो सेवा कर दूँगा लेकिन यहाँ अभी पानी नहीं लाऊँगा।"

कुछ देर के बाद सब पूर्ववत होना ही था, कार्यवाही के पन्ने फ़ट गये और नई तारीख नेताजी की शर्तों के आधार पर दी गई। पानी-शानी की फ़ुल्ल सेवा भी हुई वो भी अब की बार बिना कहे। अपने को ये सब देखकर बहुत मजा आया। बाद में मेरे पूछने पर नेताजी ने बताया कि मनोज जैसे चेलों को उनपर और उनकी प्रोटेक्शन पावर पर भरोसा है और वो भरोसा नाहक ही नहीं है।

ये उन नेताजी की कहानी है जो यूनियन के चार-पाँच सौ मेंबर्स के नेता थे। ये नेताजी के इन पाँच शब्दों की ताकत थी "तेरी ड्यूटी कहाँ है रे?" कि एक मामूली सा सदस्य अपनी जमी जमाई नौकरी पर खतरा लेने को तैयार था। हालाँकि मैं जानता हूँ कि शब्द में बहुत ताकत है। वेद, बाईबिल, गुरबाणी, कुरान सबमें शब्द की महिमा गाई गई है। शब्द की महिमा के उस स्तर को हम शायद ही समझ सकें लेकिन किसी खास मौके पर किसी खास व्यक्ति द्वारे कहे गये कुछ शब्द कितने प्रभावशाली हो सकते हैं, इस बात का अनुमान तो हम प्रत्यक्ष कुछ देखकर ही लगा सकते हैं।

अंत में यही कहना चाहता हूँ कि गलती सिर्फ़ लड़कों से ही नहीं होती .......
............
.............
..............
................
..................
....................