गुरुवार, अक्तूबर 23, 2014

दीपोत्सव

महापर्व के दिन हैं तो पिछले दो तीन दिन से  लौटते समय मेट्रो में बहुत भीड़ हो जाती थी। ’नानक दुखिया सब संसार, सारे दुखिया जमनापार’ के रिमिक्स श्लोक के द्वारा  दिल्ली के जिन जमनापारियों का महिमामंडन दशकों से होता आया हो, उन जमनापार वालों की मेट्रो लाईन पर होने वाली भीड़भाड़ च धक्कामुक्की का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं। सिवाय इसके, एक दो फ़ले फ़ूले से दीवाली गिफ़्ट भी हाथ में थे तो माबदौलत ने कल शाम मेट्रो को तलाक-तलाक-तलाक कहकर धुर तक भारतीय रेल से नाता रखने का निर्णय लिया। दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हाल और भी शानदार था, खुर्जा जाने वाली गाड़ी का इंतज़ार करते हुये देखा तो जमनापार वालों के साथ उत्तम प्रदेश यानि पुत्तर प्रदेश के बाशिदे भी मनसे के साथ ओवैसी की MIM की तरह हाजिर। संजय कुमार, होर वड़ो..., इससे तो मेट्रो ही ठीक नहीं थी?

ओखली में सिर दिया तो मूसल से क्या डरना? ’व्हेन इन रोम, डू एज़ रोमंस डू’ को याद किया और जमनापारियों की तरह डू’ते हुये यानि कि बाजू, कोहनी, कंधों, पैरों के साथ जुबान का भरपूर इस्तेमाल करते हुये हम भी गाड़ी में चढ़ ही गये। हर तरफ़ उत्सव का प्रभाव दिख रहा है, ज्यादातर सहयात्री पुरानी दिल्ली और आसपास के बाजारों में दुकानों पर काम करने वाले लड़के हैं और उनकी बातें मालिक से मिले उपहार और अपनी अपेक्षाओं के अंतर पर केंद्रित। जो अपने मन में, वो उनकी बातों में - हम सब एक हैं :)

रात के नौ बजने वाले हैं, बाहर नजर जाती है तो आसमान में गहरा अंधेरा। अजीब बात है लेकिन अंधेरा मुझे अच्छा लगता है, गहरा अंधेरा और ज्यादा अच्छा। दूर कहीं कोई रोशनी चमकती है तो बहुत बहुत अच्छा लगता है। 

मन ही मन स्वयं  कन्फ़र्म कर रहा हूँ कि  मैं शायद विरोधाभासों से भरा आदमी हूँ, उत्सवप्रिय  नहीं हूँ लेकिन वैसा भी नहीं जैसों के बारे में कहा जाता है कि ’निर्भाग टाबर त्यौहार के दिन रूसयां करैं।’ खुद बहुत उत्साही नहीं हूँ लेकिन दूसरों को उत्साहित देखता हूँ तो अच्छा लगता है, छोटी खुशियों पर उत्साहित देखता हूँ तो और ज्यादा अच्छा लगता है। जिस खुशी से दूसरों को दुख न होता हो, ऐसी खुशी को देखकर बहुत बहुत अच्छा लगता है।

स्टेशन कितनी दूर है, यह अनुमान लगाने के लिये दृष्टि अंधियारे आसमान से जमीन की तरफ़ लाता हूँ तो आम तौर पर अंधेरों में डूबी रेल पटरी के आसपास की कच्ची-पक्की झुग्गियाँ  रंग बिरंगी रोशनी से नहाई हुईं दिख रही हैं। पीछे की कॉलोनियों में छोटे-बड़े मकानों पर बिजली की चमचमाती लड़ियाँ ऐसा लग रहा है कि अंधेरे से रोशनी की लड़ाई थमी नहीं है बल्कि पूरे उत्साह से जारी है। अच्छा अनुभव हो रहा है, बहुत अच्छा लग रहा है। यही तो है दीप पर्व का असली उद्देश्य, जहाँ अंधेरा है वहाँ रोशनी की जरूरत ज्यादा भी और सार्थक भी।

सच ये भी है कि बीच बीच में ऐसे भूखंड भी आ रहे हैं, जहाँ आज सामान्य से भी कम रोशनी और सन्नाटा है। इन इलाकों से वास्ता रहा है तो जानता हूँ कि ये अंधेरा यहाँ आज ज्यादा गहरा क्यों है। ये भी जानता हूँ कि कुछ जगहों पर अंधेरा हमेशा रहेगा भी हालाँकि ’अंधेरों में जो बैठे हैं, नजर उनपर जरा डालो - अरे ओ रोशनी वालों’ वाली गुहार सुनकर कभी भावुक भी मैं ही होता था।   पहले ही मान चुका हूँ कि अंतर्विरोधों से भरा आदमी हूँ :) लेकिन इन अंधेरों से अब परेशानी भी नहीं होती क्योंकि अंधेरे के अभिशप्तों के अंधेरे की उनकी अभ्यस्तता के अधिकार का सम्मान करना समय ने सिखा दिया है। 

स्टेशन से बाहर निकल रहा हूँ। कुछ साल पहले तक यहाँ झुग्गियाँ थीं, अब पक्के मकान बन चुके हैं तो अच्छा लगा। एक औरत ने जो निश्चित ही किसी अंबानी/अडानी परिवार से नहीं है. मेज का जुगाड़ करके उसपर कुछ मोमबत्तियों के पैकेट और सजावटी सामान बेचने के लिये रखे हुये हैं, देखकर बहुत अच्छा लगा। हर कोई उद्यमशीलता की ओर प्रवृत्त होता दिखे तो बहुत बहुत अच्छा लगेगा। 

अंधकार और प्रकाश का यह प्रतिद्वंद्व सतत है और रहेगा। आप किसके पक्ष में है, यह चुनाव आपने करना है।

आप सबको दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनायें। हम तो इस वर्ष शायद दीपावली न मनायें लेकिन आप सभी पटाखे, आतिशबाजी आदि का प्रयोग करते समय अपनी व दूसरों की सुरक्षा में लापरवाही कदापि न बरतें।  स्वस्थ रहें, सुरक्षित रहें। 

पुनश्च ’शुभ दीपावली’