रविवार, नवंबर 23, 2014

बैठे-ठाले

बहुत छोटा था, उन दिनों की बात है कि पिताजी अपना मकान बनवा रहे थे इसलिये चार छह महीने के लिये किराये पर रहने की नौबत आ गई थी। इस झमेले में बड़ों को कितनी भी असुविधा होती हो लेकिन अपने लिये ये एक नई दुनिया थी। स्कूल से लौटकर आता और खाना लेकर छत पर भाग जाता। उस मकान के साथ लगते खेत थे और छत से रेलवे लाईन साफ़ दिखती थी, मुश्किल से दो सौ मीटर दूर।  गाड़ियों की उतनी आवाजाही नहीं थी लेकिन कोयले वाली गाड़ी जब छुकछुक करती आती थी और आसमान में धुंए की लकीर छोड़ती चली जाती तो बहुत अच्छा लगता था। सवारी गाड़ी की जगह जब मालगाड़ी आती थी तो वो ज्यादा अच्छी लगती थी, वजह शायद यह हो कि मालगाड़ी की लंबाई ज्यादा होती है। लेकिन ऐसा भी नहीं था कि सिर्फ़ छुकछुक की आवाज और आसमान में धुंए की लकीर ही अच्छी लगती थी क्योंकि सबसे अच्छा तब लगता था जब ’रथ’ आता था।  ’रथ’ नाम हमने रखा था पटरी पर चलने वाले उस वाहन का जिसपर लाल रंग की एक झंडी टंगी रहती थी, उसपर कुछ लोग बैठे होते थे और दो लोग दौड़ते हुये धक्का लगाते थे। पटरियों पर पड़ते उनके सधे हुये कदम और रथ के गति पकड़ लेने पर उनका कूदकर रथ पर बैठ जाना बिल्कुल वैसा लगता था जैसे कोई योद्धा तलवार भाँजते-भाँजते सुयोग  देखकर अपने घोड़े पर सवार हो जाते हों। बाद में पता चला कि वो ट्राली थी जिसपर बैठकर रेलवे के इंजीनियर लोग जिन्हें PWI कहा जाता है, रेल पटरी की सुरक्षा जाँच करते थे। "बड़े होकर क्या बनोगे" हमसे ये सवाल किसी ने पूछा ही नहीं वरना मेरा जवाब ’रथ को धक्का देने वाला’ होता और किसी कारणवश इस पद के लिये योग्य न माना गया तो दूसरा विकल्प होता,  ’मालगाड़ी का गार्ड’  -   नो थर्ड ऑप्शन। लेकिन कुछ समय बाद हमारा अपना मकान बन गया और यहाँ से रेलवे लाईन दिखती नहीं थी तो निश्चय धूमिल हो गया।

मेरा ख्याल है कि ’मारुति’ के पदार्पण के बाद ही एक आम आदमी कार मालिक होने का ख्वाब देखने लगा होगा, उससे पहले कार हम लोगों के लिये एक ’आकाशकुसुम’ ही थी।  खैर, हम इतने आम भी नहीं थे इसलिये कार के बारे में बेकार नहीं सोचते थे। कुछ बड़े हो चुके थे, कैरियर के बारे में कभी-कभार सोचने लगे थे। सुनते थे कि नौकरी बहुत मुश्किल से मिलती है, सिफ़ारिश लगवानी पड़ती है या चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है तो हथेली में पसीना आ जाता था।  उन्हीं दिनों अखबार  में कुछ रोचक खबरें पढ़ने के बाद और इधर उधर की हाँकने वाले मित्रों के सौजन्य से मन ही मन यह  निश्चित किया गया कि सरकार ने आराम से  नौकरी दे दी तो ठीक है वरना किसी सेठ के यहाँ ड्राईवरी कर लेंगे। उसीकी गाड़ी, उसी का खर्चा और चलाने का मजा हम लेंगे। मजे का मजा और पैसे के पैसे, आम के आम और गुठलियों के दाम।        लेकिन बिना सिफ़ारिश और बिना चढ़ावे के नौकरी मिल गई और ’ड्राईवरी’ मुल्तवी हो गई।

हमारी नजर में एक ही जासूस हुआ था और वो था 007. एक बार तो सोचा कि चलो हम वही बन जायेंगे, 007 नहीं तो 008 या  009 or whatever it is. लेकिन ये बड़ा कठिन लगा। वैसे तो खुद पर विश्वास था कि जेम्स बांड के द्वारा किये जाने वाले मुश्किल दिखने वाले काम, जिन्हें देखने में ही अभी हमारी साँस रुक जाती हो, उनमें तो अभ्यास से ये जड़मत भी सुजान हो जायेगा लेकिन वो जो कुछ भी खा लेने का और कुछ भी पी लेने वाला काम है, उसे सोचकर हमने मन मसोसकर खुद से कहा कि रहने देते हैं भैया, हमसे न होगा।

जीवन के अलग अलग पड़ाव पर कैरियर के बारे में निर्णय बदलते रहे। कभी शिक्षक बनने की सोची, कभी लाईब्रेरियन बनने की, फ़ौज में जाने की भी इच्छा थी। चार्टर्ड एकाऊंटेंट बनने के तो चांस भी बनने लगे थे, एडमिशन भी ले लिया था और आर्टिकलशिप भी साल भर की हो गई थी कि मंडल-कमंडल के रगड़े में ये गरीब आ गया। कहने का मतलब ये है कि हम बहुत कुछ बन सकते थे मगर ये हो न सका। मगर ये हो न सका और अब ये आलम है कि हमने जो बन गया उसी को मुकद्दर समझ लिया और जो नहीं बना मैं उसको भुलाता चला गया।

मैं छोटा था तो कई लोग कहते थे कि He is too mature, आज मैं पैतालीस के लपेटे में हूँ तो मुझे लगता है कि I am too childish. मुझे खुद पता नहीं रहता कि कब मैं एकदम गंभीर हो जाता हूँ और कब एकदम हल्का। गंभीर चर्चा चल रही होती है और मैं ऐसी प्रतिक्रिया दे बैठता हूँ कि सामने वाला चौंक जाये। कभी हँसी-मजाक में भी गंभीरता का पुट, सामने वाला कह देता है कि यार इतने सीरियस भी मत रहा करो। वो अपना माथा पीटते हैं और पता चलने पर मैं अपना, मेरी नीयत तो साफ़ थी।

यूँ तो मनुष्य की आदत है कि जो मिल जाता है उसका मान नहीं करता और जो नहीं मिला उसके लिये दुखी रहता है। यह स्वाभाविक है लेकिन चिंगारी को यार लोगों ने भी भड़का दिया है, सोच रहा हूँ कि कैरियर स्विच कर लिया जाये। हालाँकि वर्तमान में जिस नौकरी में हूँ, तन्ख्वाह ठीक ठाक है और रिटायरमेंट के हिसाब से अभी तो मैं जवान हूँ।  लेकिन परेशानी ये है कि यहाँ काम करना पड़ता है। काम भी करो और काम भी बिना मजे का, बाज आये ऐसी नौकरी से। अब हम ऐसे काम की तलाश में हैं जिसमें पैसे कुछ कम मिलें लेकिन करने में आनंद आये। कुछ ड्रीम कैरियर मैं ऊपर बता चुका लेकिन उनके लिये आयु सीमा निकल चुकी, कुछ विकल्प नीचे बताता हूँ। आप सुझाव देना चाहें तो स्वागत है, कोई भी विकल्प बता सकते हैं। नौकरी करते रहने का, नौकरी छोड़ने का, ये काम करने का, वो काम बिल्कुल न करने का सुझाव, कुछ भी सुझाव चलेगा। लिस्ट को विस्तार देना चाहें तो साथ में सुझाव देने का आपका औचित्य भी बतायें, डबल आभार अग्रिम में। अब इतने स्वागत करने के बाद, अग्रिम में डबल आभार देने के बाद भी  किसी को माथा पीटना पड़े तो किस्मत उसकी, हमारी नीयत तो एकदम साफ़ है।

१.  चूड़ियां पहनाने का धंधा - सीज़नल है लेकिन सदाबहार धंधा लेकिन अपनी भाषा सुधारनी पड़ेगी।

२.  चाट-पकौड़ी का धंधा     -  ये भी सदाबहार है लेकिन मिर्च-मसाला हमें अपने हिसाब से डालने 
                                             की आदत है।

३.   झोटा पालन                -   मुनाफ़े का काम लेकिन दिल्ली छोड़नी पड़ेगी।

४.   धार लगाने का धंधा     -   चाकू छुरियों पर धार लगाने में आगे अच्छा स्कोप दिखता है लेकिन 
                                             अपने हाथ कटने का डर है।

और विकल्पों पर मंथन जारी है.....

अब इतने स्वागत करने के बाद, अग्रिम में डबल आभार देने के बाद भी  किसी को माथा पीटना पड़े तो किस्मत उसकी, हमारी नीयत तो एकदम साफ़ है जी............

31 टिप्‍पणियां:

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  2. ज़िंदगी में बड़े सारे काम कर डाले लेकिन किए सब गलत समय पर। जब पढ़ने के दिन थे फलसफा पका दिया, जब पकाने खाने के दिन थे, टाइम बाँट-बूँट दिया। जब मण्डल-एज थी तो ओवरएज हो गए। फिर कुल मिलाकर यही पाया कि बचपन में बच्चे और बुढ़ापे मे बुड्ढे होने में कौन बड़ी बात है वह तो सभी प्राणी अनायास ही हो जाते हैं, मो सम कौन को तो अलग होना ही पड़ेगा।
    (पिछली टिप्पणी टाइपो के कारण हटाई है)

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  3. >> लेकिन परेशानी ये है कि यहाँ काम करना पड़ता है
    why people want to get paid without doing work in this country ?

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    1. ...because people believe they have blessed this country by taking birth here. Thanks a lot for reading so seriously.

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  4. कहां उंगली कर दी...अब तो चार पांच पोस्ट खत्म हो जाएगी ....वैसे अभी तक तो खुद ही नहीं पता चला कि क्या कर रहा हूं..क्या करना है...क्या करना चाहता हूं...क्या करुंगा..

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  5. 'प्रवचन देने का व्यवसाय'

    भक्त लोग आपकी आव-भगत भी करेंगे

    पैसा भी भरपूर बरसेगा

    अभी एक जगह खाली भी हुई है, जल्दी करिये नहीं तो कोई और 'पाल' आ बैठेगा। :)

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    1. प्रतुल जी... उस कुर्सी पर नजर तो किसी बाड्रा की हैं, चौराहे पर कुछ लोग ऐसा कहते हुए पाए गए हैं.... :)

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    2. यहाँ तो करम ऐसे हैं प्रतुल भाई कि लोग प्रवचन भी सुनेंगे और सेवा पानी भी हमसे करवायेंगे :(

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    3. लोकेन्द्र भाई, आर यू सीरियस?

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  6. कुछ भी निश्चय किया तो वह होना नहीं है (आपके पुराने अनुभव इस पोस्ट के )इसलिए बिना निश्चय किये किया जाए !

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  7. हमने जो बन गया उसी को मुकद्दर समझ लिया और जो नहीं बना मैं उसको भुलाता चला गया।

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  8. पहला पैराग्राफ़ हमारे स्वर्गीय पिता जी को समर्पित... एक लम्बा समय उन्होंने मालगाड़ी के 73 डिब्बों के पिछले डिब्बे में सफ़र/नौकरी करके बिताया और रिटायर हुए राजधानी के 18 डिब्बों वाली गाड़ी से. हमारे लिये आज भी रेलगाड़ी किसी मन्दिर से कम नहीं. स्कूल में जब था तो लंच टाइम में रेलवे के पुल पर खड़े होकर तिंसुकिया मेल को गुज़रते देखना आज भी याद है.
    ये अलग बात है कि पिताजी का आदेश था कि उनके बाद कोई रेलवे में नहीं जाएगा. हम दिल के मारे इस नौकरी में फँस गये. सवाल बस एक रोज़गार का था - अच्छा बुरा दिल के मामले में कौन सोचता है. दिल धोखा दे गया और हम बेदिली से उसी नौकरी को ढोते रहे. हर किसी को मनचाहा तो नहीं मिलता.
    हमपेशा होने के नाते आपका दर्द महसूस कर सकता हूँ अपने सीने में! रही बात नौकरी छोड़ने की तो अपनी तो दुखती रग़ है ये. गुजरात में तो बहुत दुखती है ये रग, जब छोटा से छोटा धन्धा करने वाला बादशाह दिखाई देता है. अपनी मर्ज़ी का बादशाह. ख़ुद का मालिक ख़ुद!
    आपने जो लिस्ट बताई और भाई लोग जो बता रहे हैं उसे तो बस मैं भी ग़ौर से देख रहा हूँ - आख़िर अपने भी काम आने वाली है यह लिस्ट!

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    1. सलिल भाई, बड़ों के आशीष का प्रसाद ही है जो पोस्ट पूज्य बाबूजी से कनेक्ट हो पाई। कुछ भी कह लें, नौकरी होती नौकरी ही है।
      मेरा लड़का जब कभी कहता है कि उसे बैंक में आना है तो मेरा दिल धक से हो जाता है और ये सच है।
      मेरी लिस्ट में हिस्सा नहीं बंटाने दूंगा, बताये देता हूँ। आप तो जिस भी फ़ील्ड में चले जाओगे छा ही जाओगे, ये सर्वे हम जैसों के लिये ही सही है :)

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  9. प्रतुल विशिष्ट जी की बात से सहमत हूँ। :)

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    1. यानि ’बाबागिरी’ को अब तक के रुझानों में सर्वाधिक वोट बल्कि शतप्रतिशत वोट माने जायेंं :)

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  10. भाई जी कुछ भी नया धंधा शुरू करो तो अपने को भी पार्टनर बना लेना....

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    1. पब्लिसिटी का जिम्मा ले लो लोकेन्द्र भाई तो आप साठ टके के पार्टनर :)

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  11. सबसे पहले इस वाक्य का जवाब, आप कहते हैं I am too childish, और मैं कहती हूँ आप child like हो सकते हैं childish नहीं हैं, तभी तो ऐसे विकल्प दिए हैं आपने
    चूड़ियाँ पहनाने का धँधा : अब बहुत मंदा हो गया है, क्योंकि :
    लड़कियों/महिलाओं ने चूड़ियों की जगह ब्रेसलेट पहनना शुरू कर दिया है
    चाट-पकौड़ी का धंधा : फैमिली पैक में आने लगे हैं, जो हेल्दी भी होते हैं और लोग अपने हिसाब से नमक मिर्च डाल लेते हैं
    झोटा पालन : इस उम्र में ये आपके वश की बात नहीं रही अब, बहुत मेहनत का काम है :)
    धार लगाने का धंधा : ये भी नहीं होगा क्योंकि अधिकतर चाक़ू स्टील के बनने लगे हैं जिनपर धार नहीं चढ़ता

    एक विकल्प है आपके लिए :
    हाथों में मेहंदी लगाने का काम, यूँकि आम के आम गुठलियों के दाम, कम मेहनत, अच्छे पैसे और रोज़-रोज़ नए-नए हाथों का साथ. यूँ समझिए आपके दोनों हाथ घी में और सिर कड़ाही में होगा, हर दिन नया दिन होगा, और दिल के अरमाँ भी फुदकना कम कर देंगे ;)

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    1. आपने हमारे दिये सभी विकल्प खारिज किये तो हमसे क्या अपेक्षा रखती हैं? हम आपके बताये विकल्प को खारिज करते हैं, बाकायदा कारण बताकर।
      - सबसे पहली बात तो ये कि मेहंदी थोपनी हो तो फ़िर भी हम ये काम कर सकते थे लेकिन आजकल डिज़ाईनर मेहंदी चलती है और कुछ बनाने में हमारा हाथ बहुत तंग है। आम बनाने बैठें तो अमरूद बनाने वाले मेहंदी के डिजाईन क्या खाक बनायेंगे? और दूसरा बड़ा कारण ये है कि लांचिंग पूर्व सर्वे हम कर चुके हैं, आजतक कोई अधेड़ मेहंदी लगाने वाला हमें दिखा नहीं। करवाचौथ हो या कोई और फ़ंक्शन, मेहंदी लगाने वाले महिलायें तो किसी भी उम्र की दिख जाती हैंं लेकिन लड़के सब युवा ही होते हैं। तीसरी बात ये कि आग में घी डालने से आग बुझती नहीं है, नित नये-नये हाथों के साथ से दिल के अरमान फ़ुदकना कम नहीं करेंगे बल्कि मामला और बिगड़ेगा। हमें अपना अधेड़ापा नहीं बिगाड़ना इसलिये विकल्प खारिज :)

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    2. ओए होए देवर्षि जी, क़ुर्बान जाऊँ आपके रिसर्च पर ।
      चूड़ियाँ क्या रिमोट से पहनाने वाले थे ? :)

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    3. रिमोट से? कब्बी नहीं। न तो हम इत्ते आलसी हैं और न इत्ते टैक्नोसेवी। हाथों को कष्ट देने में हमें कोई कठिनाई नहीं, हँसते-हँसते ये कष्ट उठायेंगे :)

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  12. मेरे एक पड़नानाजी थे, मेरी नानीजी के पिताजी, घटनाएं कुछ इस तरह हुईं कि दो तीन साल मुझे उनके साथ रहने का मौका मिला। मैं बहुत छोटा था। तब उन्‍होंने एक दिन कुछ खुलासा किया...

    उससे पहले मैं बता दूं कि बीकानेर में पीएचडी करने वाले दो तीन लोगों में से वे एक थे, उस जमाने में, राष्‍ट्रपति वीवी गिरी के हाथों उन्‍होंने पीएचडी ली, हिंदी के विद्वान थे और कॉलेज में प्रोफेसर के पद से रिटायर हुए थे। देश के लगभग हर कोने में उनके मुरीद थे। उनकी चिठ्ठियां आती रहती थीं। वे खुद भी लोगों के सवालों के जवाब दिया करते थे, रोजाना करीब दस पत्र मैं खुद डालकर आया करता था, इसलिए पता है।

    उनका शोध प्रबंध 126 से अधिक पुस्‍तकों के आधार पर तैयार था, विषय था हिंदी काव्‍य दोष उद्भव एवं विकास। यह विषय इतना जटिल है कि हर कोई हिम्‍मत ही नहीं करता, इस विषय में घुसने की। उनका अवसान हुआ तो बारह दिनों तक दुनिया के कई देशों से उनके शिष्‍य श्रद्धांजलि देने बीकानेर पहुंचे। कई करोड़पति थे तो कई अरबपति। शिष्‍य भी बूढ़े हो चुके थे, सो उनके आगे एस्‍कॉर्ट गाडि़यां और पीछे मुलाजिमों की...

    मैं सबकुछ देख रहा था और बाऊजी (यहीं कहते थे सभी उन्‍हें) के उन शब्‍दों को याद कर रहा था, जब उन्‍होंने एक दिन मुझसे कहा कि

    अगर संभावनाएं होती, संसाधन होते और मौका मिलता तो वे भी न्‍यायाधीश बन जाते।

    जिस दिन मैंने पहली बार उनके मुंह से सुना तो हक्‍का बक्‍का रह गया था। हर छोटा मोटा एमएलए और एमपी जिनके कमरे में हाजिरी लगाता था, वे न्‍यायाधीश नहीं बन पाने की टीस लिए हुए थे। उनके अवसान के बाद के बारह दिनी सम्‍मान में तो वे क्षण और अधिक चुभे...


    ऐसी ही है जिंदगी...

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    1. जोशी राजा,
      ऊपर किये गये मित्र रोहित के कमेंट को रिपीट करना पड़ेगा :)
      एक तरह ऐसे लोग देखे हैं जो महीनोंं पैसे बचाकर एक दिन अमीरों के लाईफ़स्टाईल की नकल करके देखते हैं और दूसरी तरफ़ ’हवेली’ ’चोखी धाणी’ जैसे ज्वाईंट्स अमीरों से भरे ठुंसे रहते हैं जो जमीन से जुड़े लोगों के लाईफ़स्टाईल को कुछ लमहे जीने के लिये हजारों फ़ूंकते है । बहुत मजेदार है ये सब देखना ।
      आपकी ऐसी एक प्रतिक्रिया पूरी पोस्ट पर भारी हो जाती है :)

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  13. your originality is your asset...be yourself... बचपन बचा के रखना ४५ की उम्र तक सबकी किस्मत में नहीं होता...

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  14. मालिक की मर्जी पे चलती ये दुनिया सारी......ध्यान से खेना इस दुनिया में बन्दे अपनी नाव .....
    कभी धूप कभी छाँव...

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  15. सबसे अच्छी सलाह टेलीविज़न वाले लाले से मिलेगी.

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