सोमवार, सितंबर 28, 2015

प्रेज़ेंट सर...

उन दिनों पंजाब में मेरी पोस्टिंग थी जब नेट पर पहली बार काम किया, सन २००९। कुछ दिन तक विभिन्न ब्लॉग पढ़े फ़िर उत्सुकतावश ही create blog पर क्लिक कर दिया और अपनी ब्लॉग गाड़ी सरकने लगी। नया शौक था, समय भी बहुत मिल जाता था और कुछ अच्छे लोगों से वास्ता भी पड़ गया तो लिखना जारी रहा। मस्त समय था वो भी। किसी भी विषय पर कुछ भी लिख लेते थे। कहते हैं न समय अच्छा हो तो मिट्टी को हाथ लगाओ तो वो भी सोना हो जाती है, वैसा ही कुछ था। बहुत कुछ सीखा भी, पाया भी।
जब लिखना शुरु किया तो कुछ बातें बहुत अजीब भी लगती थीं। कमेंट्स/सम्मान/ब्लॉगवाणी पर पसंद ज्यादा लेने के लिये किये जाने वाली तिकड़में देखकर हँसी आती थी। उन दिनों अपने बारे में  कुछ बातें सोची थीं -
१.   हिंदु-मुलिम वाली बातों पर नहीं लिखूंगा। (उन दिनों बाकायदा धर्म के नाम पर ब्लॉग में तगड़ी गुटबाजी चलती थी)
२.  स्त्री-पुरुष वाले विवादों पर नहीं लिखूंगा।
३.   कमेंट्स की संख्या बढ़ाने और सम्मान वगैरह के चक्कर में नहीं पड़ना।
लगभग ६ साल हो गये ब्लॉगिंग में आये। कुछ परिवर्तन आये हैं, ब्लॉग की जगह फ़ेसबुक पर सक्रियता ज्यादा है। दूसरा बड़ा परिवर्तन ये आया है कि अब लिखने की सोचें भी तो ले देकर दो टॉपिक पर ही ध्यान जाता है - प्वाईंट १ या प्वाईंट २।
देखते हैं अगली फ़ुर्सत क्या परिवर्तन लाती है, प्वाईंट ३ से भी इस्तीफ़ा देना होगा या फ़िर से लिस्ट १२३ होती है।

मितरो, कहते हैं कि मनुष्य के भी पूंछ होती थी। इस्तेमाल करना बंद कर दिया तो useless हुई और फ़िर गायब हो गई। दूसरी कहावत है brain is like a muscle, use it or lose it. लिखने का भी ऐसा है, लिखते रहो तो की बोर्ड के धार लगती रहती है, गैप आ जाये तो कीबोर्ड भोथरा हो जाता है।

आज की पोस्ट सिर्फ़ और सिर्फ़ इस फ़ारवर्डड मैसेज को समर्पित।

सब कुशल है सर, अवसर पाते ही लौटकर इन्हीं गलियों में मिलेंगे और वो भी कतई पैनी छुरी के साथ :)
आपका हृदय से आभारी 
संजय