शुक्रवार, जुलाई 22, 2016

नजरबंदी

कुछ दिन पहले इस विषय में श्रीमान आनंद राजाध्यक्षा जी ने पोस्ट लिखकर विचार माँगे थे हालाँकि वहाँ परिपेक्ष्य कुछ अलग था, उन्होंने inter religion marriage/लव जेहाद से जोड़कर पोस्ट लिखी थी। मेरे परिचय में ऐसी तीन घटनायें सामने आ चुकी हैं, जिनमें से नवीनतम घटना कल की है। पहले वही घटना बता देता हूँ, जैसी जानकारी मिली।
हमारे पड़ौस में एक अंकलजी रहते हैं, ’होर वड़ो’ वाला बयान जिनका था, वही। आयु ७०+ है लेकिन शारीरिक रूप से बहुत अच्छी तरह सक्रिय हैं। सुबह ५ बजे से पहले उठकर नंगे पाँव पैदल चलकर ही गुरुद्वारे जाते हैं, वहाँ से लौटकर संयुक्त परिवार के लिये फ़ल, सब्जियाँ लेने जाते हैं। फ़िर लौटकर कुछ और फ़ुटकर काम के लिये इधर उधर जाना मतलब जब देखो मूवमेंट करते ही दिखते हैं। दोपहर खाना लेकर बच्चों के पास दुकान पर चले जाते हैं, वहाँ से फ़िर किसी बच्चे के साथ दुकान के लिये खरीद्दारी करने। सुबह से लेकर रात तक वो ऐसे ही व्यस्त रहते हैं।
कल दिन में दस बजे के करीब ऐसे ही बिजली का बिल जमा करवाने जा रहे थे। घर से कुछ दूर ही एक आदमी ने उन्हें रोका और कहा कि उसके साहब उन्हें बुला रहे हैं, कोई वारदात हो गई है और इस बारे में पूछताछ करनी है। कुछ कदम चलकर वो उसके साथ आये तो तथाकथित साहब अपनी मोटरसाईकिल खड़ी करके उसका सहारा लेकर खड़े थे। अभिवादन के बाद पूछा गया कि आप यहीं रहते हैं, नाम वगैरह। फ़िर उसने कहा कि यहाँ कुछ देर पहले कोई अपराध हुआ है, इसलिये आपसे कुछ जानकारी लेनी है। बताया कि जीप थोड़ी दूर खड़ी है, वहाँ तक चलना होगा। और इतने में बोला कि अरे, ये कड़ा आपने पहना है क्या सोने का है? इसे उतारकर जेब में रख लीजिये। यह बातचीत चल रही थी तो एक और आदमी के साथ उसका दूसरा साथी यही सब बात कर रहा था और उसने अपनी सोने की चैन उतारकर जेब में रख ली। हमारे सिंह साहब अंकल ने भी उसे चैन उतारते देखकर अपना कड़ा उतार दिया। उन लोगों ने अखबार में लपेट कर जेब में रखने का सुझाव दिया और खुद ही इस काम में मदद करने लगे। अखबार में लिपटा कड़ा जेब में रखवा दिया और उसके बाद सिंह साहब चले गये बिल जमा करवाने और वो दोनों लोग अपनी मोटरसाईकिल पर बैठकर गये अपने रास्ते। सिंह अंकल बिल जमा करवाकर घर आ गये, इस सब में करीब एक डेढ घंटा बीत गया था। दुकान पर जाने लगे तो जेब से पुड़िया निकालकर कड़ा डालने लगे तो अखबार मेंं से एक आर्टिफ़िशियल कड़ा निकला, वैसे तो उसपर कई चमकीले शोख से नग लगे हुये थे और लेकिन वो सरदार जी का ५ तोले का कड़ा नहीं था। इस बार ’होर वड़ो’ हमारे अंकल जी के साथ ही हो गई है।
दिन दिहाड़े और अच्छी भीड़ भाड़ वाली सड़क पर वो भी अपने परिचित इलाके में यह सब हो गया। इसी तरह की दो घटनायें पहले भी परिचितों के साथ हो चुकी हैं हालाँकि वो कुछ पुरानी बात हैं और इस एरिया से दूर घटित हुई थीं। घटनाक्रम ऐसा ही, कोई अचानक से आकर किसी बहाने से बात करता है और उसके बाद आप वही करते जाते हैं जैसा आपको कहा जाये। एक मित्र की माताजी के शरीर से सब गहने उन्होंने स्वयं ऐसे ही एक एक करके उतारकर दे दिये थे, दूसरे मामले में लड़के ने अपना महंगा सा फ़ोन। आंखें खुली रहती हैं लेकिन चैतन्य होते हैं घंटे दो घंटे में।
अब कुछ लोग इसे हिप्नोटिज़्म बता रहे हैं, कुछ का कहना है कि इस तरह की सिद्धि या शिफ़ा कुछ लोगों के पास होती है। ताजा घटना तो एक सीसीटीवी फ़ुटेज में भी आई हैं और उनमें किसी तरह की जोर जबरदस्ती जैसा कुछ नहीं दिख रहा। मैं अब भी इसे ऐसा कुछ न मानकर चालाकी से किसी कैमिकल वगैरह के प्रयोग से प्रभावित करने वाला मामला मान रहा हूँ लेकिन सच तो ये है कि मैं अल्पमत में हूँ। मेरे पास अपनी बात के पक्ष में सिर्फ़ एक ही दलील है कि ऐसी सिद्धि जिसके पास हो वो ऐसे सड़कों पर अपनी सिद्धियों को व्यर्थ नहीं कर सकते, वो बहुत बड़े काम कर सकते हैं।
इस तरह की कुछ हजार या लाख रुपये की ठगी में सम्मोहित करने वाली बात या ऐसी किसी आलौकिक शक्तियों के प्रयोग पर आपको विश्वास आता है?

शनिवार, जुलाई 16, 2016

कुमारिल भट्ट


हो सकता है यह कहानी आपने न सुनी हो, हो सकता है कि सुन रखी हो। ऐसा भी हो सकता है कि किसी और रूप में सुन रखी हो। यह सब महत्वपूर्ण नहीं, महत्व इस बात का होना चाहिये कि किसी कहानी से आप पाना क्या चाहते हैं और पाते क्या हैं। मनोरंजन, ज्ञान, प्रेरणा, अवसाद या ऐसा ही कुछ और भाव। महत्व इस बात का भी है कि इससे आप कितना प्रभावित होते हैं। इस भूमिका से सुधीजन समझ ही गये होंगे कि कुछ ऐसी बात पढ़ने को मिलेगी जिसे रोमिला थापर, इरफ़ान हबीब आदि मान्यताप्राप्त और स्थापित ’कारों के रचे इतिहास में ढूँढने जायेंगे तो निश्चित ही निराशा हाथ लगेगी। आप सोच सकते हैं कि फ़िर ऐसी बातों को कोई लिखे भी क्यों और पढ़े भी क्यों? मेरे लिखने और आपके पढ़ने के पीछे एक विश्वास होगा। विश्वास मात्र लेखक पर नहीं, अपनी चेतना और अपने विवेक पर कि इसके सत्य होने की संभावना बनती भी है या नहीं। मानना या न मानना अपने हाथ में है, यह सनातन की भूमि है जिसपर विरोधी मत भी न सिर्फ़ सुने गये बल्कि उन्हें एक भिन्न शाखा के रूप में मान्यता भी मिली है। यहाँ अपनी बात मनवाने के लिये गर्दन पर तलवार नहीं रखी जाती। 

यह वो समय था जब विभिन्न सामाजिक और राजनैतिक कारणों के चलते सनातन से विमुख होकर आमजन नये धर्म की तरफ़ जा रहा था। ईश्वर को जानने और उसे पाने की पुरानी रीति-विधियों और नये तरीकों के बीच एक प्रतियोगिता रूपी संघर्ष चल रहा था। परिवारों में विमर्श का यह एक ज्वलंत विषय था, कुछ सदस्य अपने धर्म को त्यागना सही नहीं मानते थे वहीं कुछ सदस्य इसे केंचुली की तरह उतारने को तत्पर थे। नए धर्म को राज्याश्रय का लाभ भी था फ़लस्वरूप सनातनियों की संख्या कम हो रही थी। 
उस समय के प्रचलन के अनुसार किसी सनातनी गुरुकुल में विद्याध्ययन कर रहा एक युवा भिक्षाटन के लिये नगर में निकला हुआ था। अचानक उसके हाथ पर कुछ उष्ण तरल पदार्थ की बूँदें गिरीं, युवक ने सिर उठाकर देखा तो गवाक्ष में खड़ी कोई स्त्री रो रही थी और उसीकी आँखों से गिरे आँसू ही थे जिन्होंने युवा का ध्यानाकृष्ट किया था।(अलग अलग मान्यताओं के अनुसार वह स्त्री नगर की रानी या गणिका बताई जाती है)
"हे देवी, आपको क्या कष्ट है?"
स्त्री ने रूंधे गले से कहा, "हमारे धर्म की रक्षा कौन करेगा?"
जीवन में कुछ क्षण ऐसे आते हैं जो जीवन की दिशा को गति दे देते हैं और कई बार दिशा बदल भी देते हैं। कई बार हम अनिर्णय की स्थिति में लंबा समय निकाल देते हैं लेकिन कोई एक क्षण ऐसा आता है जब आर या पार का निर्णय लेने में किंचित मात्र भी विलंब नहीं होता। युवक के जीवन में संभवत: वही क्षण आ पहुँचा था। स्त्री के शब्द "हमारे धर्म की रक्षा कौन करेगा?" सुनकर युवक सहसा बोल उठा, "मैं करूंगा।" उसके जीवन की दिशा भावी द्वारा निर्धारित हो चुकी थी।
उस युवा ब्राह्मण का नाम था ’कुमारिल भट्ट’और वह वर्तमान के आसाम से विद्याध्ययन करने वाराणसी आया हुआ था। कुछ लोग इन्हें दक्षिण भारत से आया भी मानते हैं। उसी क्षण से कुमारिल भट्ट का मनन चिंतन इस समस्या के कारण-निवारण में लग गया। उसने अनुभव किया कि सनातन से पलायन के पीछे सनातन के विरुद्ध किये जा रहे नकारात्मक प्रचार की मुख्य भूमिका थी। जीवन का अच्छा खासा समय सनातन में बिताने के बाद जब कोई विपक्ष में जाता था तो उसके पास अपने पूर्व धर्म की अच्छाई-बुराई की भरपूर जानकारी होती थी। जिस घर में हम रहते हैं, उसका कौन सा कोना निरापद है और कौन सा कमजोर, कहाँ धूप बहुत आती है और कहाँ सीलन, ये हम अच्छे से जानते हैं। अराजकताप्रधान समाज तब भी नहीं था तो विवाद आदि या तो शास्त्रार्थ से सुलझाये जाते थे या प्रचलित न्याय नियमों के अनुसार। ऐसी स्थिति आने पर सनातन की कमियों को निर्ममता से उजागर किया जाता था और परिणाम यह होता था कि लोगों को अपने धर्म में कमियाँ ही कमियाँ दिखती थीं। साधारण शब्दों में ये समझिये कि सारी लड़ाई हमारी ही जमीन पर होती थी, वो जीत गये तो हमारी जमीन पायेंगे और हम अपनी जमीन बचा लेने को ही अपनी जीत मानने को बाध्य थे।
कुमारिल भट्ट ने निर्णय किया कि उन्हें टक्कर देने के लिये मुझे भी बौद्ध धर्म और उसकी पुस्तकों को समझना होगा। कुमारिल भट्ट बौद्ध बन गये, दत्तचित्त होकर शिक्षा प्राप्त की और उस दर्शन में पारंगत हुए। पुन: हिन्दु धर्म में प्रवेश किया और शास्त्रार्थ के क्षेत्र में पुन: सनातन की कीर्ति पताका फ़हराई। कुमारिल भट्ट का समय आदि शंकराचार्य और वाचस्पति मिश्र से पहले का है। भवभूति, मंडन मिश्र आदि उनके शिष्य रहे।
कुमारिल के दर्शन का तीन मुख्य भागों में अध्ययन किया जा सकता है- ज्ञानमीमांसा, तत्वमीमांसा और आचारमीमांसा। उस सब में जिन्हें रुचि हो वो पैठ सकते हैं। पहले भी कह चुका कि सहमत होना या न होने की स्वतंत्रता है। मेरी रुचि इस बात में है कि स्थापित इतिहासकारों ने भले ही भारत के सामाजिक जीवन में स्त्रियों की दशा आदि के बारे में कुछ भी लिख रखा हो, इस धरती की स्त्रियाँ कठिन समय में समाज को और धर्म को प्रेरणा देने में और हमारे पूर्वज चुनौतियों का सामना करने में सक्षम थे।
प्रस्तुत पोस्ट बहुत पहले पढ़ी किसी रचना और लोकजीवन में सुनी बातों के आधार पर लिखी है। कुमारिल भट्ट के बारे में बहुत अधिक विवरण उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि जिनके जिम्मे यह सब काम थे, उन्हें इतिहास लिखना नहीं बल्कि बनाना था। उनके हित कुछ वंशों का ही गौरवगान करने से सधने थे। उदाहरण के लिये मुगल साम्राज्य को हमारे इतिहास में आवश्यकता से अधिक ग्लोरीफ़ाई किया गया जबकि विजयनगर साम्राज्य के बारे में न्यूनतम बताया गया है।
अंत में यही कहूँगा कि किसी घटना के वर्णन या कहानी में महत्व इस बात का है कि इससे आप कितना प्रभावित होते हैं।

बुधवार, जुलाई 13, 2016

सजन रे झूठ मत बोलो

अनुभव बताता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गाना गाने वाले ही असली असहिष्णु हैं। देश या धर्म से संबंधित विवाद खड़े करने हों या इनकी अस्मिता पर प्रहार करना हो, लोक मत को काऊंटर करने के लिये अगर-मगर लगाकर और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नाम लेकर यह लॉबी अपना कार्य करती रहती है। इसका प्रतिदान इन्हें किस रुप में मिलता है, यह अनुमान लगाना बहुत कठिन नहीं। फ़ेलोशिप, विभिन्न अवार्ड, देशी और विदेशी कांफ़्रेंसों में भाग लेने के और रिटायरमेंट के बाद मानवाधिकार या ऐसे ही किसी अन्य सफ़ेद हाथी पर सवारी करने के अवसर किसी से छुपे नहीं हैं। वहीं ये काम किनके इशारे पर और किन्हें लाभ पहुँचाने के लिये होते हैं, यह समझना भी बहुत मुश्किल नहीं है।
कश्मीर के एक आतंकवादी के हथियार उठाये हुये और भड़काऊ भाषण देते वीडियो उसीके सोशल मीडिया एकाऊंट पर उपलब्ध हैं। उसके स्तर का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मुठभेड़ में सेना द्वारा इस आतंकवादी को मार दिये जाने के बाद कई दिन तक घाटी बंद और कर्फ़्यू लगा है, हिंसा हुई है और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री का अधिकृत संदेश जारी हुआ कि बुरहान वानी के मरने से उन्हें सदमा पहुँचा है। इस प्रकरण से सबक लेने की बात कहते हुये हमारे ही देश के  सरकारी विश्वविद्यालय में एक हिन्दी के प्रोफ़ेसर साहब उसे हर तरह से क्लीनचिट दे रहे हैं। यह तो हुई उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जब उन्हें बेशर्मी से झूठ बोलने की बात कही जाये तो वो टिप्पणी डिलीट हो जाती है।
धर्म और भगवान को मानना कामरेडों के लिये वर्जित होता है इसलिये ’खुदा के पास जाना है’ की याद दिलाना तो नाहक ही होगा लेकिन एक अंतरात्मा तो इनकी भी होती होगी। वो भी ऐसी बात कहने से नहीं कचोटती तो यकीन मानो, अंतरात्मा जरूर बेच खाई होगी।


 

रविवार, जुलाई 03, 2016

पार्थ फ़िर गाँडीव में टंकार को पैदा करो.

आज अपना लिखा कुछ नहीं, दो फ़ेसबुक मित्रों की कही बात। 

हमारा अधिष्ठान सनातन है, हम उसी के उत्तराधिकारी है, यह साहस और सत्यता से कहे इसका पुरुषार्थ निरन्तरता का आग्रह रखता है। जो हम करेंगे ही।
हम तो सनातन के साधक है, साधक सदैव विद्यार्थी होता है, सीखना स्वाध्याय सब साथ चलता है। सगुण और निर्गुण भक्ति की धारा सदैव साथ साथ चली है।
पारदर्शिता का प्रश्न आस्था पर चोट लगने से उपजता है। धर्म से इतर, कूटनीति उसी आस्था पर चोट करना है। चोट हुई तो आस्था हिली, और पारदर्शिता की मांग उठी।
यह गीता की भूमि है, योग वाशिष्ठ की भूमि है , यह नचिकेता की भूमि है, यह कबीर दास जी की भूमि है, यह मीरा जी, दादु जी, पीपा जी, रैदास जी, नवल जी महाराज की भूमि है। यहाँ उठाये गए प्रश्नो के उत्तर देने पड़ेंगे, कोई नहीं बच पाया, कोई नहीं बच सकता है।
यहाँ तो स्वयं नारायण ने उत्तर दिया है। जिनकी कठौतीयो में गंगा माँ विराजती है वो भारत है मेरा, प्रश्नो से कोई नहीं भाग सकेगा यहाँ!!
भारत की आत्मा लोकअधिष्ठित है, लोकपोषित है, लोकसंरक्षित है, लोकोन्मुखी है, लोकसंस्कारित है लोकाश्रयी है, जब मेरे रामऔर कृष्ण महलो को छोड़ वन, अरण्य नदी पर्वत लोक के हो विचरते है तो, उनकी देवत्व कीर्ति सहस्त्रो सूर्यो की भांति लोक के आलोक में देदीप्यमान होती है।मेरे महादेव तो है ही, लोक की भस्म में रमे हुए। गंगा जी जब कांवड़ में बैठ बोल बम बोल बम के साथ चलती है तब लोक का साक्षताकार है। तुलसी की रामायण के बीच में निर्गुण राम के उपासक कबीरदासजी के घट घट के राम अक्षर ब्रह्म से प्रकट होते है उसे लोक की थाती ही सहेजती है।
दादू पीपा रैदास साक्षात् भगवत्स्वरूप हो यहाँ लोक में ही अधिष्ठित है, कुम्भ के मेलो ठेलो से लेकर खांडोबा विठोबा की यात्राओं में जो लोक है, वही तो शिवरामकृष्ण का ध्येय है, लोक!!
यह लोक की ही क्षमता सामर्थ्य है जो धर्म के धारण किये हुए है। मैं इसी लोक का अविभाज्य अंश हूँ। मेरा लोक यदि भद्र अभिजात्य नहीं है तो ऐसा भद्र अभिजात्य मुझे नहीं बनना। मेरे अलौकिक के साक्षात्कार के मार्ग की प्रत्येक गली वीथिका इसी लोक के से होकर जाती है और इसी में समाती है। लोक् देवता से लेकर लोक संत सभी लोक को अलौकिक की यात्रा में सबको साथ लेकर चलने का संस्कारित पुरुषार्थ कर देवत्व का संधान कर रहे है। मुझ से यह सब छुड़ा दे ऐसा मुझे भद्र नहीं बनना है। हम राम जी के वानर ही भले... जय श्री राम
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मैं एक बात बोलता हूँ। मैं किसी से प्रभावित हो कर नहीं लिखता। मैं मट्ठा बेचने वालों का कूढ़मगज वैचारिक मानस पुत्र नहीं हूँ। मैं संघी, नव संघी, पुरातन संघी कुछ भी नहीं हूँ। हाँ, महापुरुषों से सीखना मेरे संस्कार हैं। इसके अलावा मेरे विचार मेरे अपने होते हैं जो मेरे अध्ययन पर आधारित होते हैं। मेरा अभिप्राय यह है कि हिन्दू समाज शक्ति और एकता का 'मात्र' प्रदर्शन ही न करे। शक्ति का अर्थ है ऐसी क्षमता जो कुछ ऐसा करने पर मजबूर कर दे जो अन्यथा सम्भव न हो। यदि भारत सरकार के हस्तक्षेप से तीन तलाक का शरई कानून बदलवाया जा सका तो यह बहुत बड़ी जीत होगी। प्रयोग बहुत हो चुके। सदियां बीत गयीं। मुसलमान कभी भी इफ्तार साथ खाने का मर्म नहीं समझेगा। हम भइया मुन्ना करते सर पटक कर देख चुके हैं। एक बात बताता हूँ। पिछले वर्ष तारेक फतह की किताब का लोकार्पण हुआ। उसमें आरिफ मोहम्मद खान साहब भी आये थे। उन्होंने तारेक फतह से साफ़ कहा कि आपकी किताब कोई पढ़ेगा नहीं क्योंकि मुसलमान अपने दिमाग का इस्तेमाल करना बन्द कर चुका है। आज के समय में कड़ा राजनीतिक हस्तक्षेप जो न्याय सम्मत हो वह करने की आवश्यकता है। जो समाज ISIS के लड़ाकों को अपना हीरो मानने लगा हो उनके साथ आप कब तक इफ्तार खाएंगे साहब?