शनिवार, अगस्त 25, 2018

दो निर्णय ..(भाग २)

तो मित्रों, आगे बढ़ते हैं..
दिल्ली वाला डॉ. नारंग कांड कुछ दिन पहले ही घटित हुआ था, दिमाग में वो भी तुरंत कौंध गया। मैंने वहाँ जाकर पूछा कि क्या मामला है तो अंकल जी ने कहा कि इन लोगों को कई बार मना करने के बाद भी ये कूड़े की बोरी हमेशा यहाँ रख जाते हैं। उनकी तरफ देखा तो उनमें से जो आदमी था वो बोरी उठाकर अपनी ठेली पर रखने का उपक्रम करने लगा। मैंने उससे कहा कि दोबारा ऐसा न हो। इधर से अंकल जी को लगा कि अब एक सहायक आ ही गया है तो बोले, "हर दिन का यही काम है इन भैन@# का, पकड़े जाएं तो हाँ जी/अच्छावजी करते हैं लेकिन मानते नहीं है।" उस आदमी ने कुछ नहीं कहा लेकिन उसके साथ की औरत अपनी टूटीफूटी हिंदी में अंकलजी से बहस करती जा रही थी कि कोई इस मकान में रहता नहीं है, दस मिनट के लिए हमारा सामान सामने रख दिया तो इसमें गाली-झगड़ा क्यों वगैरह वगैरह। पता चला कि वो लोग तीन गलियों में कूड़ा इकट्ठा करते हैं और एक गली से कूड़ा एक बड़े बोरे में भरकर वहाँ रखते हैं और दूसरी गली में चले जाते हैं, ऐसे ही तीसरी गली में। और लौटते समय वो दोनों बोरे भी लादकर फाइनली अपने ठिकाने चले जाते हैं। तमाशबीन एकत्रित थे, दोनों पार्टियाँ गर्मागर्मी में बहस कर रहे थे और यह देखकर वहाँ से निकल रहे दूसरे कूड़ा उठाने वाले भी आ खड़े हुए। ड्राईंगरूम में बैठकर घटना के कारण-निवारण पर बौद्धिक तर्क देना अलग चीज होती है, मौके पर घटना का हिस्सा होना अलग। बहस होते-होते अंकल जी ने फिर कोई गाली दी, वो औरत फिर भड़की और अंकलजी ने उसी ठेली पर टाट तानने के काम आने वाला एक बाँस उठाया और मारने को हुए। मैंने उन्हें रोक लिया लेकिन जैसे कहते हैं कि मारते का हाथ रोक सकते हैं पर बोलते की जुबान नहीं तो उन दोनों की जुबानी जंग जारी रही। वो भी अब चार-पांच लोग थे, इतनी हिम्मत तो खैर कर नहीं सकते थे कि हाथ उठा दें लेकिन औरत को गाली देने और मारने की कोशिश का राग शुरू हो ही जाता। मामला बढ़ने नहीं दिया गया, उनके साथियों को वहाँ से भगाया और इन दोनों को भी दोबारा ऐसा न कहने की बात कहकर मैं भी चला आया, घर पर मेरा भी बेसब्री से इंतजार हो रहा था ☺ अंकलजी को बोला कि वो भी चलें लेकिन वो वहीं रुकने की बात पर अड़े रहे।
घर पहुँचा तो सब तैयार ही थे, मुझे देखकर गाड़ी में बैठने लगे। मैंने गली में देखा तो अंकलजी का लड़का उनके घर के बाहर ही दिख गया। वो मुझसे लगभग पाँच वर्ष छोटा है, मैंने आवाज लगाकर बुलाया और उसे शॉर्ट में बात बताई। ये भी कहा कि अभी सब शांत हो गया था लेकिन तेरे पिताजी वहीं हैं और अकेले ही हैं तो वहाँ जाना चाहिए। सुनकर वो चकित रह गया, "झगड़ा कर रहे थे?" कहकर उत्तेजना में आकर एक दो बार ऐसे इधर उधर पलटा जैसे लड़ाई के मैदान में घोड़ा अचानक से कोई निर्णय न कर पा रहा हो। और फिर अपने घर में घुस गया। हमें अपने घर को लॉक करते,  गाड़ी आगे-पीछे करते पाँच-दस मिनट तो लग ही गए होंगे, मेरा ध्यान उधर ज्यादा था कि वो लड़का घर से शायद कोई लाठी-किरपाण लेकर अपने प्लॉट की ओर भागता दिखेगा लेकिन 😢।
हम उस प्लॉट के सामने से ही निकले तो दरवाजा साफ-सुथरा था। कुछ आगे आने पर अंकलजी भी दिख गए जो दुकान से फल वगैरह खरीद रहे थे। 
मुझे पता नहीं क्या सोचकर(कह सकते हैं कि क्या-क्या सोचकर) हँसी आ गई। 
अब आप अपने ड्राईंगरूम में बैठकर दो ये निर्णय कि यह सामान्य सी घटना लिखने-पढ़ने योग्य थी?
जो घटा, उसमें कौन सा पक्ष सही था?
मामला बढ़ जाता तो भी आप ऐसे ही ठंडे दिमाग से सोच रहे होते या वो सोच रहे होते जो चैनल वाले चाहते हैं?
प्रश्न बहुत हैं, पहले इन्हीं दो चार प्रश्नों पर दो निर्णय।

5 टिप्‍पणियां:

  1. निर्णय तो चश्में बाँटने वाले के हाथ में होता है और उसे बिना पहने कौन क्या कुछ आज देखता है उससे पूछ लेंगे कि हमने क्या देखा फिर बता देंगे। :) बहुत सुन्दर।

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, अकेले हम - अकेले तुम “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. एेंवें ही बस, बिन बात का बतंगड़ ?
    हे राम !! ;)

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  4. अंकल जी को अपने बाद में आये पैसे पर ज्यादा अकड़ आ गई है और कुछ नहीं है | पड़ोसियों को गरियाते रहें लेकिन किसी ने भाव नहीं दिया तो कमजोर कूड़ा उठाने वाले के पीछे पड़ गये ताकि खुद को ऊँचा और दुसरो को नीचे दिखाने की अपनी दीली हसरत पूरा कर सके | कूड़ा वाला कुछ ही समय के लिए कूड़ा रखता है किसी ना किसी के घर के आगे तो उसे रखना ही होगा | खाली प्लाट ही सबसे बेहतर जगह है होगी उसके लिए | मारने के लिए हाथ उठाने वाला सही तो हो ही नहीं सकता पुरुष पर भी नहीं महिला तो बड़ी बात है | बेटे का पहले तमतमाना और फिर सब सामन्य अंदर की बहुत सी बची हुई खुन्नस को ही दिखाता है |चैनल वाले कहते बुजुर्ग को पिट दिया भले बुजुर्ग पहले शुरुआत करते |

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  5. बहुत देर तक सोचा, सोचने के बाद ये सोचा कि यहाँ " दो" निर्णय देना है या निर्णय देना है ;)
    खै़र दो निर्णय तो नहीं, एक ही निर्णय समझ आता है हमको कि कुछ देर के लिए अगर कूडा़ उठाने वाले उसी मोहल्ले का कूडा़ वहाँ रख भी रहे हों तो उनसे तरीके से बात करके और ये आश्वासन पाकर कि वो उस जगह को अपनी मिल्कियत ना समझें और फौरन अपना बोरिया बिस्तर उठा कर और परिसर को साफ सुथरा करके रवाना हो जाया करें तो कोनो हरज नहीं है...हम होते तो यही करते..बाकी गाली गलौज और मार पीट तो जमना पार वालों को शोभा नहीं देता है...;) ;)

    औरत अगर अपने पर आ जाये तो क्या कर सकती है ई तो एक वीडियो पर देखा ही जा रहा है जो काफी वाईरल है इन दिनों.... ;) ;)

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