tag:blogger.com,1999:blog-81406313668545780912024-02-20T12:12:36.674+05:30मो सम कौन कुटिल खल कामी.. ?संजय @ मो सम कौन...http://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.comBlogger236125tag:blogger.com,1999:blog-8140631366854578091.post-1863772053216015382022-10-07T23:16:00.002+05:302022-10-07T23:25:47.356+05:30टुकड़े टुकड़े गैंग ट्विस्ट<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj2gXSpapoayCwyBiBl_jX6RzJ7A1RWCYS2Sr2O5GFzgepxTkS9sAHpkjqn_iepHp8Tfwfy95ByC2b9sBzFjsdf2Sso4slHIxqKXo1nY8HsCCrtAym_FETxxLsCmKivbBhN8X6UtA0OMqufwyo6R4WmJIW8k5Iu7NRDam-_IXDhxSjFM8Ul63uhqz0q/s4608/IMG_20220930_131222.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3456" data-original-width="4608" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj2gXSpapoayCwyBiBl_jX6RzJ7A1RWCYS2Sr2O5GFzgepxTkS9sAHpkjqn_iepHp8Tfwfy95ByC2b9sBzFjsdf2Sso4slHIxqKXo1nY8HsCCrtAym_FETxxLsCmKivbBhN8X6UtA0OMqufwyo6R4WmJIW8k5Iu7NRDam-_IXDhxSjFM8Ul63uhqz0q/s320/IMG_20220930_131222.jpg" width="320" /></a></div><br />मई माह में एक फ्लैट किराए पर लेना था। संयोगवश एक फ्लैट के बारे में सूचना मिली जो लोकेशन, लोकेलिटी व उपलब्ध फर्नीचर आदि के स्तर पर उचित लगा। मुम्बई का सिस्टम ऐसा है कि बिना ब्रोकर के ऐसी बात बनती नहीं और ब्रोकर अपने गांव जो महाराष्ट्र में ही कहीं है, गया हुआ था। पूर्व किराएदार जोकि मेरे सहकर्मी ही हैं, और फ्लैटमालिक की उससे बात फोन पर ही हुई और उसकी सहमति मिलने के बाद फ्लैटमालिक ने अन्य औपचारिकताएं पूरी करके फ्लैट की चाबी दे दी, मैं शिफ्ट हो गया। ब्रोकरेज आदि देने, फ्लैट में बिजली-पानी तथा सोसायटी के अन्य नियम आदि के बारे में बात करने के लिए कॉल किया तो ब्रोकर महोदय ने बताया कि वो बद्री-केदार दर्शन के लिए निकल चुका है और लौटकर भेंट करने आएंगे। अगले दिन व्हाट्सएप्प स्टेटस में श्रीमान जी के माथे पर 'जय बद्रीविशाल' का छापा और पृष्ठभूमि में हेलीकॉप्टर दिख गया। अर्थात बद्रीनाथ दर्शन कर आए थे और अब उनकी केदारनाथ की तैयारी थी। अगले सप्ताह फोन पर समय तय करके मुझसे मिलने आए, रुमाल में लपेटकर प्रशाद भी लाए थे। दर्शन अच्छे होने की जिज्ञासा के उत्तर में मिश्रित प्रतिक्रिया मिली, "बद्रीनाथ धाम में बहुत अच्छे से दर्शन हो गए लेकिन सरजी हम केदारनाथ धाम नहीं जा सके। हेलीकॉप्टर का टिकट मिला नहीं औऱ पैदल जाने का साहस नहीं हुआ।" मैंने भी अपनी दिल्ली(+ पंजाबियों वाली भी) टिपिकल गोली दे दी, "अरे तो क्या हुआ, केदारनाथ के दर्शन हम करवा देंगे। ये भी भला कोई बड़ी बात है?" भोले आदमी ने गोली तुरन्त गटक ली, "पक्का न, सरजी?"<div><p></p><p style="text-align: justify;">"पक्का।"</p><p style="text-align: justify;">अब यह साप्ताहिक कार्यक्रम हो गया कि पिसल भाई का फोन आए और वो पूछे कि कैसे जाएंगे, और कौन होगा, और पक्का न? मैं कहता कि ये सब इतना सोचने का मैटर नहीं है लेकिन है पक्का। महीने भर में पिसल भाई ने जाने की टेण्टेटिव तिथि भी तय कर ली, मुझसे छुट्टी स्वीकृत करवाने और टिकट बुक करवाने के परामर्श भी देने लगे। अब मैं सोचने लगा कि ये भी मुझे सीरियसली लेने लगे!</p><p style="text-align: justify;">इस बीच मुझे मेरे नियोक्ता की ओर से फ्लैट एलॉट हो गया और मात्र डेढ़ माह के बाद मैं वह फ्लैट छोड़कर अन्य क्षेत्र में शिफ्ट हो गया। मुझे लगा कि अब केदारनाथ वाली गोली आई-गई हो जाएगी लेकिन पिसल भाई के साथ ये नहीं था, वो गोली को कसकर धँसाए था। आते-आते सितम्बर भी आ गया।</p><p style="text-align: justify;">अब तक प्रफुल्ल और सुभाष जी मुम्बई आकर जा चुके थे और संयोग ऐसे बने कि पिसल भाई की इन दोनों से भेंट भी हो गई और उसे यह भी परिचय मिल गया कि हम इकट्ठे अनेक यात्राओं पर जा चुके हैं, भाई का टेम्पो अब higher than high हो चुका था। सम्भावित टूर की चर्चा अब इन दो से भी होने लगी थी। दिल्ली से अपनी गाड़ी द्वारा जाने की हमारी योजना जानकर पिसल भाई बहुत उत्साहित था और अपने साथ अपने एक और मित्र को भी ले जाने का आग्रह कर चुका था।</p><p style="text-align: justify;">इधर मेरे विभाग में कार्य सहसा इतना बढ़ गया कि मेरा जा पाना मुझे ही संदिग्ध लगने लगा था। यह बताना रह गया कि बहुत प्रयास करने के उपरांत भी हेलीकॉप्टर के दो टिकट ऑनलाइन उपलब्ध नहीं हो सके थे। मैंने सोच लिया कि मेरा जाना न हो सका तो हरिद्वार से इन दोनों लोगों का पैकेज टूर प्रबन्ध करवा देंगे। इस बीच सुभाष जी ने आश्वस्त किया कि मैं साथ चलूं तो अच्छा ही है अन्यथा वो ही दो मराठों को केदारनाथ धाम के दर्शन करवा देंगे। मराठों को कह दिया गया कि वो 30 सितम्बर दोपहर तक हरिद्वार पहुँच जाएं, उनके हुड़क इतनी थी कि उन्होंने रेल के टिकट तुरन्त बुक कर लिए। उधर प्रफुल्ल ने भी अवकाश का जुगाड़ कर रखा था, अनिश्चित था तो मेरा कार्यक्रम। </p><p style="text-align: justify;">सत्ताईस सितम्बर को जैसे तैसे हाथ पैर जोड़कर मैंने भी 28 सितम्बर से अवकाश की मौखिक स्वीकृति पा ही ली। 29 को घर पहुंचकर फिर से हाथ पैर जोड़ने पड़े और 30 की प्रातः झोला उठाकर हिमालय की ओर निकल लिया। प्रफुल्ल भी अपना ट्रॉली बैग लेकर मेट्रो में मिला और गाजियाबाद से सुभाष जी की गाड़ी में बैठकर हम तीनों चल दिए, चलो केदारनाथ।</p><p style="text-align: justify;">मराठों की ट्रेन की स्थिति पर पिछले दिन से ही निरंतर अपना ध्यान था। रास्ते में सुभाष गुरुजी को नाना विधि से बहला-फुसलाकर 'कार को कार ही रहने दो, वन्देभारत न करो' अभियान चलाया गया जो लगभग सफल भी रहा। मराठों की ट्रेन हरिद्वार पहुंचनी थी दोपहर साढ़े बारह, हम पहुंच गए साढ़े ग्यारह। हाईवे पर ही नाश्ता आदि निबटाने तक ट्रेन भी हरिद्वार पहुंच गई थी, नियत समय से कुछ पूर्व ही। गंगा किनारे उनसे भेंट हुई, विधिवत यात्रा आरम्भ करने से पूर्व सबने गंगा जी में स्नान किया और 'हर हर महादेव' कहते हुए चल दिए।</p><div style="text-align: justify;"><br /></div></div>संजय @ मो सम कौन...http://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8140631366854578091.post-40275005897865890362022-05-26T22:57:00.000+05:302022-05-26T22:57:03.707+05:30एक्स्ट्रा वसूली<p>रविवार को अकेला था तो मैं एलिफेंटा गुफाएं, जो कि मुंबई से कुछ दूर घड़ापुरी नामक टापू पर हैं, देखने चला गया था। वहाँ जाने के लिए गेटवे ऑफ इण्डिया से फैरी चलती है जो लगभग एक घण्टे में उस टापू तक पहुंचा देती है। बालकनी में जाने के पहले ही उनका एक कर्मी खड़ा था जो ऊपर जाकर बैठने के दस रुपए एक्स्ट्रा ले रहा था, मैंने सामान्य प्रैक्टिस समझते हुए दे दिए। बाद में अन्य लोग आए तो एडवांस कलेक्शन सम्भव नहीं रहा होगा, वो ऊपर आकर सबसे दस रुपए लेने लगा। एक दम्पत्ति जिनके साथ एक बच्ची भी थी, फैल गए कि एक्स्ट्रा कुछ नहीं देंगे। उन्हें देखकर एक और जोड़ा भी फैल गया। थोड़ा-बहुत इमोशनल ड्रामा करके उस कर्मी ने फैरी के जैक स्पैरो को आवाज लगाकर कहा, "मास्टर, तीन लोग ये और दो लोग ये पेमेंट नहीं दिया है।" मैंने सोची कि पचास रुपए के चक्कर में शायद बीच समन्दर में जाकर फैरी को हिचकोले खिलवाए जाएं लेकिन मास्टर ने जैकस्पैरोपना नहीं दिखाया। अब जाकर मुझे मेरे दस रुपए का दुःख हुआ। </p><p>लौटते में फैरी दूसरी थी लेकिन कहानी फिर वही, बोले कि ऊपर तले में जाने का दस रुपया एक्स्ट्रा। अबके मैंने काउंटर ऑफर दिया कि दस रुपए मुझे दे दो तो मैं बेसमेंट में चला जाता हूँ। वो नहीं माना, मेरी वैसे भी कोई मानता नहीं है इसलिए मैं इसे ईगो का विषय नहीं बनाता। चुपचाप सामान्य सीट पर बैठ गया। अकेला था इसलिए कोने वाली सीट ले ली, सबसे आगे की सीट। जाते समय की अपेक्षा लौटते समय समुद्र में लहरों की हलचल कुछ अधिक थी।</p><p>मैंने टाइटैनिक नहीं देखी लेकिन बढ़िया हवा, पानी की छिटपुट बूंदें मुझे अपनी इस छोटी सी यात्रा का मिलान अमानुष, पाइरेट्स ऑफ द कैरिबियन, वाटरवर्ल्ड, कास्टअवे आदि के साथ करने को पर्याप्त प्रेरणा दे रही थीं। अचानक से फैरी से honking की आवाजें आने लगीं। इनके हॉर्न की आवाज भी अलग तरह की होती है, कुछ-कुछ बिगुल जैसी। वैसे सब जानते होंगे लेकिन मैंने चूँकि इस यात्रा के लिए ताजा ताजा 260₹ + 10₹ अलग से खर्च किए हैं तो ज्ञान छौंकना बनता है कि भले ही ये स्टीमर/फैरी सड़क या पटरी पर न चलकर समुद्र में चलते हों लेकिन इनका एक निर्धारित रुट होता है, सामान्यतः उसी रुट का पालन करना होता है। यह अलग बात है कि यह रुट एकदम से रेल की पटरी या सड़क जैसा फुट/मीटर की बाध्यता नहीं माँगता। इस कारण आने और जाने वाले स्टीमर/फैरी कुछ अंतर से ही एक दूसरे को क्रॉस करते हैं।</p><p>अन्य यात्री अपने जोड़ीदारों/सेल्फी आदि में मस्त दिखे लेकिन मैं अकेला था तो सोचने लगा कि लगातार बज रहे हॉर्न के पीछे क्या कारण हो सकता है? यह स्पष्ट समझ आ गया कि सामने वाली फैरी को कुछ संकेत दे रहा है। इतने में इस मास्टर का सहायक फैरी के सबसे आगे के नुकीले हिस्से में जाकर सामने से आ रही फैरी को दोनों हाथ हिलाकर और ऊंची आवाज में रुकने के लिए संकेत करने लगा। कन्फ्यूजन ये हो रहा था कि इधर वाले का हॉर्न सुनकर सामने वाला दूर से ही अपनी फैरी को रुट से अलग ले जाता था। दो केस ऐसे होने के बाद हमारी फैरी वाले ने एक अतिरिक्त काम किया कि हॉर्न देने के साथ स्वयं भी यूटर्न ले लिया। अब लोगों के माथे पर चिंता झलकने लगी। आगे संक्षेप में बताऊं तो जैसे-तैसे इस बार सामने वाले को भी समझ आया कि कोई विशेष बात होगी, दूर से ही इनका हाल्टिंग संवाद हुआ और दोनों फैरी को एकदम निकट लाकर और लगभग रोककर इधर से एक युवक को उधर वाली फैरी में कुदवाया गया। पता चला कि इन साहब को आधे रास्ते में आकर पता चला था कि मोबाईल टापू पर ही छूट गया है। ये सब कवायद इसीलिए थी। मेरा अनुमान है कि हमारे स्टीमर को कम से कम दो किलोमीटर का एक्स्ट्रा रास्ता तय करना पड़ा होगा और समय भी अतिरिक्त लगा। मैंने ऐसे समझा कि मेरे दस रुपए ऐसे वसूल होने थे।</p><p>प्रदूषणों में सबसे खराब प्रदूषण मुझे ध्वनि प्रदूषण लगता है विशेष रूप से सड़क पर बजते अनावश्यक हॉर्न लेकिन उस दिन ये आनन्द का कारण बने। जीवन में कुछ उल्लेखनीय न चल रहा हो तो छोटी छोटी बातें भी बड़ी लगती हैं।</p>संजय @ मो सम कौन...http://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8140631366854578091.post-53688760616527728842022-04-23T22:37:00.001+05:302022-04-23T22:37:15.421+05:30विचित्र चिंताएं<p style="text-align: justify;">दिल्ली के साथ भी एक विचित्र सा सम्बन्ध रहा है, न हम बंधें और न ही छूट सके। जीवन में दो ही मुख्य उद्देश्य रह गए लगते हैं, दिल्ली में कुछ वर्ष रहो तो 'चलो दिल्ली से' और कुछ वर्ष दूर रहो तो 'चलो दिल्ली।' एक बार पुनः दिल्ली छूट रही है, एक बार पुनः मैं अनिश्चय की स्थिति में हूँ कि प्रसन्न दिखना चाहिए या अप्रसन्न। मेरी चिंताएं भी तो विचित्र हैं, साथी लोग बताते हैं कि मुम्बई में आवास मिलना बहुत कठिन है और मुझे चिंता है कि छाता तो नहीं खरीदना पड़ेगा?</p><p style="text-align: justify;">अन्ततः यही तय पाया गया कि देखें आगे क्या होता है। और कुछ नहीं तो इस बार नॉस्टैल्जिक होने का अभिनय भी सीख लेंगे☺️</p><p style="text-align: justify;"><br /></p>संजय @ मो सम कौन...http://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8140631366854578091.post-80932725679106361032022-04-15T13:32:00.000+05:302022-04-15T13:32:09.663+05:30विरोधाभास<div>प्रायः माना जाता है कि सफलता आत्मसंतोष लाती है और असफलता कुण्ठा। मैं इस मान्यता पर प्रश्न नहीं उठाता, मेरा कोई मनोरथ पूरा होने पर मुझे भी प्रसन्नता और आत्मसंतुष्टि मिली लेकिन असफल होने पर(जिसके अवसर भी पर्याप्त मिले) मैंने पाया कि दुःख यदि हुआ भी तो बहुत अल्पकालिक। हिसाब लगाने बैठा जाए तो सफलताओं की दर भी असफलताओं से बहुत कम बैठेगी और जीवन पर उनका प्रभाव भी। समय मिलने पर मैंने इस बात पर मनन किया कि एक ही स्थिति में विभिन्न लोग भिन्न व्यवहार क्यों करते हैं? कुछ हैं जो आपे से बाहर हो आते हैं और कुछ को देखकर लगता ही नहीं कि कुछ विशेष हुआ भी है। मेरी प्रयोगशाला में 'सब्जेक्ट' मैं ही होता हूँ तो मेरे निष्कर्ष भी मुझपर ही आधारित हैं। मैं दो मुख्य कारण समझ पाया और दोनों कारण भी मेरी भांति विरोधाभासी भी हैं, एक कारण तो यह कि मैं लोक व्यवहार, हानि-लाभ, हित-अहित आदि के बारे में अन्यों की भांति स्पष्ट नहीं सोच पाता और दूसरा यह कि बचपन में विद्यालय प्रार्थना के बाद बोले जाने वाले श्रीमद्भागवत गीता के कर्म और फल वाला एकाध श्लोक अवचेतन में कहीं धंसे रह गया। किसी कार्य की सिद्धि के लिए प्रयास करना ही मेरे वश में था, यदि वह मैंने सत्यनिष्ठा से किए थे तो अनुकूल परिणाम न मिलने पर भी मुझे दुःखी रहने का कोई अधिकार नहीं। श्रीमद्भागवत गीता के बारे में उचित ही कहा जाता है कि यह भारत की ओर से विश्व को प्रदत्त सबसे बड़ा उपहार है। </div><div>विरोधाभास का सन्दर्भ यह है कि इस ईशवाणी को अत्यंत प्रभावी मानते हुए भी मैं अब तक इसका पूर्ण लाभ नहीं उठा पाया, मनोरंजन को कुछ अधिक ही महत्वपूर्ण मानता रहा।</div><div><br /></div>संजय @ मो सम कौन...http://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8140631366854578091.post-28653895384353458432021-10-10T11:37:00.001+05:302021-10-10T11:37:24.009+05:30मनके<p style="text-align: justify;">मैं एक मध्यमवर्गीय क्षेत्र का निवासी हूँ जिसे वास्तव में निम्न-मध्यमवर्गीय ही कहना चाहिए। मेरा जन्म 1970 का है, मैं मेरे अनुभव लिखूँ तो यही समझा जाए जो मैंने देखा। उससे पूर्व अर्थात 1948 से लगभग साठ-सत्तर के दशक तक यह क्षेत्र निम्न आयवर्ग वालों का ही रहा होगा। देशविभाजन के बाद विस्थापित होकर आए परिवारों को भारत के विभिन्न स्थानों पर बसाया गया था तो मेरे अनुमान में ऐसे सभी स्थानों पर लगभग ऐसा ही सामाजिक टेक्सचर होना चाहिए। लोगों की आर्थिक स्थितियाँ बदलती रही हैं, उसके साथ ही सामाजिक व अन्य स्थितियाँ भी। </p><p style="text-align: justify;">कुछ व्यक्तियों को नौकरी मिल गई, अधिकाँश ने मजदूरी और छोटे-मोटे व्यवसाय से जीवन की नई पारी आरम्भ की। समय के साथ कुछ ने अपने आरम्भिक धन्धों को विस्तार दिया, कुछ ने स्वयं या उनकी सन्तति ने कार्य बदले भी। यह तथ्य है कि नई पीढ़ी के अधिकाँश बच्चे वर्तमान की वस्तुओं, तकनीकों को पुरानी पीढ़ी की अपेक्षा अधिक व्यवहारिक रूप से जानते हैं। साथ ही यह भी उतना ही सत्य है कि यही पीढ़ी अपने परिवारों की साठ-सत्तर वर्ष पुरानी आर्थिक व सामाजिक पृष्ठभूमि से पर्याप्त परिचित नहीं। इस परिचय न होने में मैं इस पीढ़ी का दोष नहीं देखता, मुझे यह you can't eat the cake and have it too जैसी अवस्था लगती है।</p><p style="text-align: justify;">इस परिवर्तन की अवधि में कुछ प्रसंग मुझे रोचक लगते हैं। उस समय हमारे लोगों के पास श्रम से कतराने की लग्जरी नहीं थी। आदमी लोग सुबह अपनी नौकरी अथवा व्यवसाय के लिए निकल जाते थे, स्त्रियाँ घर-गृहस्थी के कामों में जुट जाती थी। कुछ दिनों में मैंने देखा कि अनेक स्त्रियाँ प्रतिदिन 4-5 के समूह में बोलती-बतलाती जाती हैं, कुछ देर में लौटती हैं तो हाथों में थैले-झोले लटकाए। पहले मुझे लगा कि राशन डिपो से चीनी आदि लाती होंगी लेकिन ये तो प्रतिदिन का काम हो गया जबकि कंट्रोल के दिनों में प्रतिदिन चीनी बँटना असम्भव था। इन स्त्रियों में एक कॉमन बात थी कि ये सब 'परले मोहल्ले' की थीं। 'परला मोहल्ला' अर्थात हमारी छोटी सी कॉलोनी के दूसरे छोर पर बसे कुछ घर जिनमें हमारे जैसे विस्थापित परिवार ही रहते थे। वो भी बिल्कुल हमारे जैसे ही लुटपिट कर आए थे लेकिन इधर वाले स्वयं को उनसे श्रेष्ठ(मेरे लिए अज्ञात कारणों से) मानते थे। कुछ जिज्ञासाएं ऐसी होती हैं जिनका त्वरित शमन आवश्यक लगता है, यह उस श्रेणी की न होकर होल्ड की जा सकती थी तो मैंने किसी से पूछा नहीं। जीवन-मरण का प्रश्न न हो और जिनका उत्तर हम स्वयं खोज सकें, उसके लिए औरों पर प्रश्न दागना मुझे प्रिय नहीं। लेकिन जैसाकि बता चुका, 'परला मोहल्ला' कॉलोनी के दूसरे छोर पर था और उधर मेरा नियमित जाना भी नहीं होता था, जिज्ञासा मन में बनी रही। कुछ दिन बाद उस ओर गया तो देखा कि लगभग हर घर के बाहर चबूतरे पर, चारपाई पर या बरामदे में स्त्रियाँ अपने आगे रंग-बिरंगे मनकों(प्लास्टिक के मोती) का ढेर लगाए बैठी हैं। हाथ लगातार सुई, प्लास्टिक की डोर, मनकों से जूझ रहे हैं और चपड़-चपड़ भी चल रही है। ऐसे ही बिन्दुओं को जोड़कर जो चित्र बना तो वो यह था कि उसी मोहल्ले के एक व्यक्ति जो अब कुछ दूर जाकर रहने लगा था, ने जॉबवर्क पर आर्टिफिशल मालाएं आपूर्ति करने का उद्यम आरम्भ किया। ये सब स्त्रियाँ उसके यहाँ से तौलकर मनके और अन्य सामग्री लाती थीं, अपनी दिनचर्या को थोड़ा सा पुनर्व्यवस्थित करते हुए मालाएं बनाती थीं। अगले दिन तैयार माल वापिस, नया कच्चा माल लिया और वही दिनचर्या आरम्भ। स्वाभाविक है कि श्रम का मूल्य अल्प ही सही लेकिन नकद मिलता था। सहकारिता जैसी यह व्यवस्था लम्बे समय तक चली। मेरा अनुमान है कि पारिश्रमिक नाममात्र का ही होता रहा होगा लेकिन उस दौर में इस एक कृत्य ने उन स्त्रियों के साथ उनके परिवारों को आर्थिक रूप से सम्बल दिया होगा। </p><p style="text-align: justify;">मुझे वह मॉडल बहुत प्रेरक लगा था, 'अमूल' और 'लिज्जत' जैसे प्रकल्पों की जानकारी बहुत बाद में हुई।</p><p style="text-align: justify;">प्रश्न ही उठाते रहने वालों के प्रश्न कभी समाप्त नहीं होते। प्रतिबद्धता के मापदण्ड पर देखेंगे तो ऐसे लोग समाधान खोजने वालों से इक्कीस नहीं इकतीस ही होते हैं क्योंकि इन पर समाधान का कर्तव्य/दायित्व नहीं होता।</p><p style="text-align: justify;">अब तो वैसे भी टूलकिट जैसी तकनीक आ चुकी है। डिपो से रंग-बिरंगे प्रश्न कच्चे माल के रूप में उठाओ, ट्विटर/फेसबुक/इंस्टा में पिरो दो। अगले दिन डिपो से नया प्रश्न उठाओ & so on..</p><p style="text-align: justify;">Show must go on...</p>संजय @ मो सम कौन...http://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8140631366854578091.post-86718345592364134932020-10-30T12:15:00.000+05:302020-10-30T12:15:21.752+05:30सरदार पटेल - कुछ अनकही बातें <p> सरदार पटेल की 145वीं जयन्ती: 31 अक्टूबर 2020 पर विशेष</p><p> लौह पुरूष पर चन्द अनकही बातें</p><p><br /></p><p>(द्वारा श्री के. विक्रम राव)</p><p> </p><p><br /></p><p> आजादी तभी नयी-नयी आयी थी। पश्चिमी सीमा के अरब सागरतट पर उपप्रधान मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल नौसेना के जहाज से यात्रा कर रहे थे। एक बस्ती दिखी मगर जहाज उससे कुछ दूर जाने लगा। पटेल ने कारण पूछा तो कप्तान ने बताया कि वह पुर्तगाली उपनिवेश गोवा है। अन्तर्राष्ट्रीय कानून के मुताबिक सीमा बारह मील तक की होती है अतः तट से जहाज दूर ले जाया जा रहा है। सरदार ने कुछ सोचा, फिर पूछाः ‘‘तुम्हारे पास अभी कितने सैनिक हैं? वे कितना वक्त लेंगे गोवा को पुर्तगालियों से मुक्त कराने में ?’’ कप्तान अचंभित हुआ, फिर बोलाः ‘‘करीब तीन घंटे।’’ पटेल इतिहास रचने जा रहे थे। गोवा को तीन सदियों की दासता से तीन घंटों में मुक्त कराकर भारतीय संघ में शामिल करने की तत्परता थी। ठीक वैसी ही जिससे पटेल ने निजामवाले हैदराबाद से लेकर जूनागढ़, पटियाला, जोधपुर, भोपाल आदि राजेरजवाड़ों को भारत में समाविष्ट किया था। कप्तान से सरदार, फिर कुछ रुक कर, बोलेः ‘‘विदेशी विभाग का मामला है, जवाहरलाल नाराज हो जाएंगे। पुर्तगाल से आजादी दिलाना उनका जिम्मा है।’’</p><p> हालांकि इस घटना के बाद करीब 13 वर्ष लगे गोवा को स्वतंत्र होकर भारतीय प्रदेश बनने में। उसका मुक्ति संघर्ष 19 दिसम्बर 1946 में चला था जब राममनोहर लोहिया ने मारगावों (18 जून 1946) के निकट एक मैदान मे गोवा स्वाधीनता का बिगुल बजाया था। मगर कई बार सत्याग्रह और पुर्तगाली उपनिवेशवादियों द्वारा अमानुषिक अत्याचार के बावजूद भी नेहरू सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया। जब तीसरी लोकसभा (1962) का चुनाव होना था तो दक्षिणी मुम्बई से आचार्य जे.बी.कृपालानी ने संयुक्त विपक्ष के प्रत्याशी बनकर कांग्रेस के उम्मीदवार और नेहरू के करीबी वी.के. कृष्ण मेनन (चीन से पराजय के हीरो) को चुनौती दी थी। अपने रक्षा मंत्री की निश्चित हार देखकर नेहरू ने अचानक भारतीय सेना को पुणे से प्रस्थान कर गोवा को बलपूर्वक स्वतंत्र कराने का आदेश दे डाला। दक्षिण मुम्बई में हजारों गोवा प्रवासी वोटर हर्षित हुए। कांग्रेस कठिन सीट निकाल ले गई। जो काम सरदार पटेल तीन घंटो में करा लेते, नेहरू ने तेरह वर्षों बाद कराया। मगर दोनों का निमित्त भी जुदा था।</p><p> पटेल की फौलादी इच्छा शक्ति के दो उदाहरण और हैं। केरल के समीपवर्ती लक्षद्वीप समूह, जहां राजीव गांधी सपरिवार छुट्टी मनाने जाते थे, आबादी के हिसाब से एक मुस्लिम बहुल इलाका है। पाकिस्तान बनते ही मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तानी बेड़े को लक्षद्वीप भेजा था कि उसे कब्जिया कर इस्लामी मुल्क में शामिल कर लें। ठीक वैसी ही सैनिक हरकत जो जिन्ना ने कबाईलियों की पोशाक में पाकिस्तानी सैनिकों को कश्मीर पर हमले के लिए 1948 में भेजा था। नेहरू की असमंजसता भरी नीति के कारण कश्मीर आधा कट गया। आज नासूर बन गया है। उधर जब जिन्ना के आदेश पर पाकिस्तानी नौसेना का बेड़ा लक्षद्वीप पहुँचा तो पाया कि भारतीय नौसेना का रक्षक बेड़ा वहां पहलें ही पहुंच गया था। पटेल को अन्देशा हो गया था कि कश्मीर की भांति लक्षद्वीप को भी पाकिस्तान हथियाना चाहेगा।</p><p> इसी भांति जब अन्तिम ब्रिटिश गवर्नर जनरल लार्ड माउन्ट बैटन ने अण्डमान निकोबार को पाकिस्तान को सौंपने के लिए नेहरू को मना लिया तो, पटेल ने उस प्रस्ताव को ठुकराकर, अण्डमान द्वीप को भारतीय संघ में सुरक्षित रखा। भारत को इन द्वीपों से भावनात्मक लगाव है। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस इन्हें स्वतंत्र करा चुके थे। आज अण्डमान पर चीन की नौसेना की गिद्धदृष्टि लगी है। भारत पर सामुद्रिक आक्रमण के लिए लक्षद्वीप और अण्डमान द्वीप सामरिक तौर पर अत्यन्त सुविधाजनक हैं। </p><p>जवाहरलाल नेहरू की सेक्युलर सोच से तुलना के समय कुछ लोग सरदार पटेल की मुस्लिम-विरोधी छवि निरूपित् करते है तो इतिहास-बोध से अपनी अनभिज्ञता वे दर्शाते हैं, अथवा सोचसमझकर अपनी दृष्टि एंची करते हैं। स्वभावतः पटेल में किसानमार्का अक्खड़पन था। बेबाकी उनकी फितरत रही। लखनऊ की एक आम सभा (6 जनवरी 1948) में पटेल ने कहा था, ‘‘भारतीय मुसलमानों को सोचना होगा कि अब वे दो घोड़ों पर सवारी नहीं कर सकते।’’ इसे भारत में रह गये मुसलमानों ने हिन्दुओं द्वारा ऐलाने जंग कहा था। पटेल की इस उक्ति की भौगोलिक पृष्टभूमि रही थी। अवध के अधिकांश मुसलमान जिन्ना के पाकिस्तानी आन्दोलन के हरावल दस्ते में रहे। उनके पुरोधा थे चौधरी खलिकुज्जमां। जिन्ना के बाद मुस्लिम लीग के अध्यक्ष बनने वाले नवाब मोहम्मद इस्माइल खान भी मेरठ में ही रह गये। कराची नहीं गये। पश्चिम यूपी में नवाब बेहिसाब जमीन्दारी थी।</p><p> कभी प्रश्न उठे कि सरदार वल्लभभाई झवेरदास पटेल के बहुगुणी जीवन की एक विशिष्टता गिनाओ ? तो आज के सियासी परिप्रेक्ष्य में उत्तर यही होगा कि ‘‘पटेल द्वारा अपने घर में वंशवाद का आमूल खात्मा।’’ यह भायेगा उन आलोचकों को जो अघाते नहीं है भत्र्सना करते हुए कि वर्तमान चुनाव और सत्ता में परिवारवाद का रूप विकराल होता जा रहा है। आखिर बचा कौन है इस कैकेयी-धृतराष्ट्री मनोवृत्ति से ? महात्मा गांधी के बाद सरदार पटेल ही थे जिनके आत्मजों का नाम-पता शायद ही कोई आमजन जानता हो।</p><p> पटेल का इकलौता पुत्र था डाह्यालाल वल्लभभाई पटेल जिससे उनके पिता ने सारे नाते तोड़ लिये थे। स्वतंत्रता के एक वर्ष बाद ही मुम्बई के एक सार्वजनिक मंच पर से सरदार पटेल ने घोषणा कर दी थी कि उनके पद पर उनके पुत्र का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। अतः सार्वजनिक जीवन में शुचिता के लिए सत्ता और कुटुम्ब के मध्य रिश्ता नहीं होना चाहिए। सरदार पटेल की एक ही पुत्री थी मणिबेन पटेल जो अविवाहित रही और पिता की सेवा में ही रही। सरदार पटेल का एक ही पोता था विपिन पटेल जो गुमनामी जिन्दगी गुजारता रहा। उसका जब निधन (12 मार्च 2004) दिल्ली में हुआ था तो अंत्येष्टि में चन्द लोग ही थे। लोगों को अखबारों से दूसरे दिन पता चला। </p><p> अहंकारी अंग्रेजी साम्राज्यवादियों को आजादी के बाद भी प्रत्युत्तर देने का माद्दा लौह पुरुष में भरपूर था। सर विन्स्टन चर्चिल ने नेता विरोधी दल के रूप में ब्रिटिश संसद में सत्तारूढ़ लेबर पार्टी के प्रधानमंत्री क्लीमेन्ट एटली द्वारा भारत को स्वतंत्रता देनेवाले प्रस्ताव के विरोध में कहा थाः “अंग्रेज जब भारत छोड़ देंगे, तो न तो एक पाई और न एक कुंवारी बच पाएगी।” सरदार पटेल ने इसका जवाब दिया इण्डियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स की मुम्बई इकाई की बैठक में चर्चिल को अपनी गरिमा सहेजने की राय दी थी। चर्चिल ने कहा था कि केवल तीस हजार ब्रिटिश सैनिकों ने भारत पर राज किया। पटेल ने जवाब दिया, “अब तीन लाख अंग्रेज भी भारत पर शासन नहीं कर सकते।”</p><p><br /></p><p>K Vikram Rao</p><p>Mobile : 9415000909</p><p>E-mail: k.vikramrao@gmail.com</p>संजय @ मो सम कौन...http://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8140631366854578091.post-85149488433067547482020-10-21T12:25:00.002+05:302020-10-21T12:25:32.162+05:30नहीं समझे?<p style="text-align: justify;"> ट्रेन में सामने बैठे व्यक्ति के हाथ में एक सामान्य से मुड़े-तुड़े कैरी-बैग पर 'मोहि क.. छिद्र न भावा' पढ़कर घोर उत्सुकता हो गई। अप्रचलित/अल्पप्रचलित तथा अपूर्ण शब्द/वाक्यांश मुझे आकर्षित करते ही थे, मैंने अनुमान लगाने का प्रयास किया लेकिन असफल रहा। उन सज्जन से आग्रह करते हुए कैरी-बैग की सिलवटें सीधी करके पढा, </p><p style="text-align: justify;">"निर्मल मन जन सो मोहि पावा। </p><p style="text-align: justify;">मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥" </p><p style="text-align: justify;">बहुत कुछ भाव समझ गया लेकिन एक शब्द को लेकर संशय भी रहा। शब्दों को पढ़ने का व्यसन तो था, समझने वाली समझ उतनी नहीं थी। अगले अनेक दिनों तक इसे गुनगुनाता रहा, पक्तियों को आगे-पीछे करके। I was amazed, fascinated. इसके बाद ही 'श्री रामचरितमानस' खरीदकर लाया, पढ़ा। यह चौपाई मेरे लिए एक scale की भाँति हो गई। जब और जहाँ चयन की सुविधा हो वहाँ निर्णय लेने में यह एक महतवपूर्ण पैमाना रहा। </p><p style="text-align: justify;">आप बहुत धनी हैं, fine.</p><p style="text-align: justify;">आप बहुत सुंदर हैं, fine.</p><p style="text-align: justify;">आप बहुत शक्तिशाली हैं, fine.</p><p style="text-align: justify;">आप बहुत influential हैं, fine.</p><p style="text-align: justify;">आप बहुत effective हैं, fine.</p><p style="text-align: justify;">आप बहुत smart हैं, fine.</p><p style="text-align: justify;">आप बहुत popular हैं, fine.</p><p style="text-align: justify;">Fine, because you may be the blessed one.</p><p style="text-align: justify;">इन सबमें से कुछ भी नहीं हैं, तब भी fine. Fine, because you may have the opportunity to chose the path.</p><p style="text-align: justify;">My only take is, मोहि कपट-छल-छिद्र न भावा।</p><p style="text-align: justify;">Book that changed my life, Person who changed my life जैसे चैलेंज कैम्पेन आदि में सहभागिता न करने वाले मेरे जीवन की दिशा को इस एक चौपाई ने बहुत प्रभावित किया, सब कुछ एकवसाथ नहीं लिखा जा सकता।</p><p style="text-align: justify;">अकेला और सम्भवतः इन सबपर भारी विरोधाभास यह है कि यह सब लिखने वाला स्वयं को 'मो सम कौन कुटिल खल कामी' लिखता, बोलता और मानता है। </p><p style="text-align: justify;">नहीं समझे? समझोगे भी नहीं☺️</p>संजय @ मो सम कौन...http://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8140631366854578091.post-22696145495770184672020-10-11T18:52:00.003+05:302020-10-11T19:06:34.620+05:30नाड़िया बैध उर्फ बड़ा भाई<p style="text-align: justify;"> कुछ दिन के अवकाश के बाद ड्यूटी गया था। वह आई, नमस्ते आदि के बाद रिक्वेस्ट करती हुई बोली, "सर रिक्वेस्ट है, आज मुझे पाँच हजार चाहिएं। sort of emergency है कुछ, प्लीज़ हेल्प कर देना।" </p><p style="text-align: justify;">मुझे सरल बातें भी देर से समझ आती हैं, यह बात और भी देर से समझ आनी थी। मैं सिर खुजाने लगा। यद्यपि वह पुरानी खातेदार नहीं थी, एकाध महीना पूर्व ही सेलरी खाता खुलवाया था लेकिन अब तक हुई कुछ भेंटों से उसकी अच्छी छवि थी, बहुत अच्छी कह सकते हैं। आज उसकी कही बात से मैं अचकचाया हुआ था। सैटल होने के लिए उससे पूछा कि ऐसी क्या इमरजेंसी आ गई और कम्प्यूटर में उसका एकाउंट चैक करने लगा। देखा तो मेरे अवकाश पर रहते दिनों में उसका वेतन आ चुका था और दो बार वह एक हजार प्रतिदिन की निकासी भी कर चुकी थी। बीते जमाने की बात है इसलिए ध्यान रहे कि तब ATM नहीं आए थे। इस बीच वो बता रही थी कि किराया देना है, और भी खर्च हैं ये है वो है अर्थात वही usual stuff. मेरी धड़कनें, जोकि उसके आने पर धाड़-धाड़ कर रही थीं, भी अब तक लगभग व्यवस्थित हो चुकी थीं। मैंने भी सोचा कि देखते हैं, पेंच कहाँ तक लड़ते हैं। कह दिया, "चलो देखते हैं।"</p><p style="text-align: justify;">उसने प्रसन्न होते हुए चेक भरा और थैंक्स बोलते हुए मुझे दिया। मैंने चैक प्रोसेस करना आरम्भ किया लेकिन अंदर से शुचिता के नाग ने मस्तक उठा ही लिया, "सुनो, तुम्हारे खाते में सेलरी तुम्हारी मेहनत की आई है। यह तुम्हारा ही पैसा है, मैं जो कर रहा हूँ मुझे यही करने की सेलरी मिलती है।इसके लिए इतना रिक्वेस्ट और थैंक्स करना आवश्यक नहीं होता।"</p><p style="text-align: justify;">वो बोली, "सर, रिक्वेस्ट और थैंक्स तो दोनों otherwise भी आवश्यक हैं। आपने फिर भी मेरी विवशता समझी, आप अवकाश पर थे तो दूसरे सर ने तो साफ यही कहा था कि जब तक खाता एक वर्ष पुराना नहीं होता, एक दिन में एक हजार से अधिक नहीं निकल सकते। so, thanks again."</p><p style="text-align: justify;">उसके जाने के बाद मैंने बॉस से पूछा, "मेरी जगह कौन बैठा था?"</p><p style="text-align: justify;">उन्होंने हँसकर कहा, "वो आया था आपका 'बड़ा भाई', दूसरी ब्रांच से। क्यों, क्या हो गया?"</p><p style="text-align: justify;">'बड़ा भाई' मैं ही बोलता था, शेष सब उसे 'नाड़िया बैध' कहकर पुकारते थे, वो कहानी फिर कभी। मैंने फोन लगाकर उससे पूछा, "बड़े भाई, कस्टमर को उसके खाते से एक दिन में एक हजार से ज्यादा न देने वाला सर्कुलर आया होगा, एक कॉपी भेजियो हमें भी।"</p><p style="text-align: justify;">बड़ा भाई, "अच्छा! मतलब फलानी आई थी। और तैने दे भी दिए होंगे सारे पैसे?"</p><p style="text-align: justify;">मैं, "क्यूँ न देता, उसके पैसे थे। तेरी तरह झूठ भका देता?"</p><p style="text-align: justify;">बड़े भाई ने हँसते-हँसते खूब सुनाईं, "भलाई का टाईम ही नहीं। पागल, सारा दिन टूटफूट झेलो हो और मैं तेरा ही जुगाड़ करके आया था कि हफ्ता-दस दिन में कम से कम एक तो ढंग का कस्टमर रोज आए, तुमसे वो भी न सम्भालते। ऐसे ही नाम खराब करोगे बड़े भाई का।"</p><p style="text-align: justify;"><br /></p><p style="text-align: justify;"><br /></p>संजय @ मो सम कौन...http://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-8140631366854578091.post-31976456037392036012020-09-12T20:39:00.001+05:302020-09-12T20:39:30.178+05:30जबसे जनमे चन्दर भान<p style="text-align: justify;"> मैं बाला साहब ठाकरे का प्रशंसक था। ब्लॉग समय में मेरे अनेक मित्रों ने, जिन्होंने दुनिया मुझसे अधिक देखी है, कहा कि मैं गलत हूँ। मैं सीनियर ठाकरे का प्रशंसक बना रहा। दो कारण थे, </p><p style="text-align: justify;">1. जन्मभूमि आन्दोलन चलाने वाली पार्टी के नेता ढांचा गिरने के बाद आंय-बांय करने लगे थे, बाल ठाकरे ने खुलकर कहा कि यह कार्य उनके लोगों ने किया है।</p><p style="text-align: justify;">2. मैं बाल ठाकरे को मुस्लिम गुंडागर्दी को एक सक्षम चुनौती देनेवाले केन्द्र के रूप में देखता था।</p><p style="text-align: justify;">पहले बिंदु पर बताना चाहता हूँ कि सद्दाम हुसैन, ओसामा जैसे अनेक ऐसे लोग हुए हैं जिनके उद्देश्यों का विरोधी होते हुए भी मैं प्रशंसक रहा हूँ कि वो जो करना चाहते थे या करते थे, उसे कहते भी थे। मनसा-वाचा-कर्मणा में किसी के मन में क्या चलता है, इसकी थाह लेना कठिन है किन्तु इनके कर्मों व कथनों में एकरूपता थी।</p><p style="text-align: justify;">दूसरे बिन्दु पर कहूँगा कि वह सूचनाओं के एकपक्षीय प्रवाह का प्रभाव था। तब के समाचार पत्रों/पत्रिकाओं आदि से जो जानकारी मिलती थी, उसकी पुष्टि का कोई साधन मेरे पास उपलब्ध नहीं था। महाराष्ट्र का कोई मित्र भी नहीं था।</p><p style="text-align: justify;">कालांतर में बाल ठाकरे चले गए, नए *चन्दरभानों* ने उनका स्थान ले लिया। इधर संचार-क्रांति के चलते सूचनाओं का प्रवाह बढ़ा, महाराष्ट्र के मित्र मिलते गए, इनकी पृष्ठभूमि आदि के बारे में ज्ञान भी बढ़ा। अपनी मूर्खताओं से ये लोग मन से उतर ही रहे थे, अब संगति के प्रभाव से उन पर केवल मुहर लग रही है।</p><p style="text-align: justify;">*नाते में मेरे चाचा लगते एक को देखकर मेरे दद्दू कहा करते थे - 'जबसे जनमे चन्दर भान, चूल्हे अग्ग न मन्जी बान।' मन्जी हमारे यहाँ खाट को कहते थे/हैं। किसी अपने का नाम resemble कर जाए तो इसे संयोग मात्र मान लीजिएगा।*</p>संजय @ मो सम कौन...http://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8140631366854578091.post-69757588717735758262020-08-15T17:08:00.000+05:302020-08-15T17:08:19.172+05:30क्योंकि पराजय अंतिम नहीं<p style="text-align: left;">समाप्तकर्मा सहित: सुहृ द्भिर्जित्वा सप्तनान् प्रतिलभ्य राज्यम्।</p><p style="text-align: left;">शैलेन्द्र भूयस्तपसे जितात्मा द्रष्टा त्वास्मीति मतिं चकार।।२०।।</p><p style="text-align: left;">(आजगरपर्व, वनपर्व, श्री महाभारते)</p><p style="text-align: left;">.........</p><p style="text-align: left;">वनवास का ग्यारहवां वर्ष आ चुका था। महाबली भीम, जिसे तथाकथित कलाकर्मियों ने मात्र भोजनप्रेमी और शरीर से बली ही चित्रित किया है, अपने अग्रज युधिष्ठिर को भविष्य के एक वर्षीय अज्ञातवास को ध्यान में रखते हुए अपने तत्कालीन निवास गन्धमादन पर्वतक्षेत्र से स्थान परिवर्तन के लिए प्रवृत्त करते हैं। बुद्धिमान भीम का अभिप्राय जानकर युधिष्ठिर गन्धमादन पर्वत की प्रदक्षिणा करते हैं। वहाँ के भवनों, नदियों, सरोवरों तथा समस्त राक्षसों से विदा लेते हैं। गन्धमादन पर्वत की ओर देखते हुए उस श्रेष्ठ गिरिराज से प्रार्थना करते हैं, "शैलेन्द्र! अब अपने मन और बुद्धि को संयम में रखनेवाला मैं शत्रुओं को जीतकर अपना खोया हुआ राज्य पाने के बाद सुह्रदों के साथ अपना सब कार्य सम्पन्न करके पुनः तपस्या के लिए लौटने पर आपका दर्शन करूँगा।"</p><p style="text-align: left;">............</p><p style="text-align: left;">सब प्रकार से समर्थ किन्तु परिस्थितिवश अपने अधिकारजन्य राज्य से निर्वासित एक पक्ष के चराचर जगत के साथ सामंजस्य, सहअस्तित्व, पर्यावरणप्रेम आदि भाव देखिए। यह भाव, संस्कार बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि यह छिन गए गौरव, वैभव की पुनर्प्राप्ति में सहायक होंगे।</p>संजय @ मो सम कौन...http://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8140631366854578091.post-8739515298231060622020-07-05T09:41:00.000+05:302020-07-05T09:41:52.905+05:30निकट न दूर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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पिछले बरस आज ही के दिन...</div>
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- गूगल मैप्स पर देखा, मेट्रो स्टेशन से दूरी लगभग नौ किलोमीटर दिखा रहा था। उस दिन मेरा face भी शायद index of mind हुआ रखा था, बाहर निकलते ही ऑटो वालों ने घेर लिया। उनमें से एक ने तिलक लगा रखा था, मैंने उसे जगह बताई तो वो पूछने लगा कि लौटना भी है क्या?</div>
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मैंने कहा, "हाँ, मुझे वहाँ मुश्किल से दस मिनट लगेंगे।"</div>
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उसने कहा, "दो सौ रुपए दे देना, सर। वहाँ से आपको वापिस आने के लिए ऑटो आसानी से मिलेगा भी नहीं।" मैं भी कहने को हुआ कि तुम्हे भी वहाँ से सवारी आसानी से नहीं मिलेगी लेकिन चुप रह गया।</div>
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चले तो सावधानी के लिए मैंने GPS लगा रखा था। पहले सिग्नल पर लालबत्ती थी तो मैंने कहा कि यार GPS तो राइट टर्न बता रहा है। उसने तुरंत फोन निकालकर किसी से कन्फर्म किया और बत्ती हरी होने पर राइट टर्न लिया। बोला, "सर, मैं गलत एड्रेस समझ गया था। ये तो मेरे सोचे से कम से कम डबल दूरी पर है।" </div>
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मैंने कहा, "मतलब वहीं जाना होता तो तुम मुझसे डबल से भी ज्यादा किराया चार्ज कर रहे होते? खैर, अपना नुकसान मत करो यार। मीटर स्टार्ट कर लो, जितना बनेगा उससे बीस रुपये ज्यादा दे दूँगा।"</div>
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अनमना सा वो बोला, "नहीं सर, अब मीटर क्या चालू करना।"</div>
<div style="text-align: justify;">
वापिस आकर जब दो सौ रुपए दे दिए तो रिक्वेस्ट सा करते हुए बोला, "सर, बीस रुपये और दे देते तो ..।"</div>
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मैंने दे दिए, बेमन से। साथ ही इतना जरूर कहा कि तुम अपनी वेशभूषा के साथ न्याय नहीं कर रहे हो।</div>
<div style="text-align: justify;">
- पिछले कई वर्षों से किसी कारण से रास्ते में नाईयों की पंद्रह-बीस दुकानें छोड़कर एक विशेष दुकान पर जाता हूँ। मालिक मर चुका, बच्चे नाई का काम कर रहे हैं लेकिन बेमन से। मैं अब भी वहीं जाता हूँ लेकिन अब मन से नहीं जाता। मरे मन वाले कब तक जिएंगे?</div>
<div style="text-align: justify;">
- रात को घर लौटते समय रोज देखता हूँ कि तथाकथित सम्भ्रान्त दिखने वाले/वालियाँ उन लोफरों की ठेलियों से सब्जी खरीद रहे हैं जो महिलाओं को देखकर जानबूझकर आपस में भद्दी भाषा बोलने लगते हैं, अश्लील इशारे कर रहे होते हैं लेकिन महिला ग्राहकों के साथ 'आप' तो ले ही लीजिए', 'जो मर्जी दे दीजिए' जैसे वाक्य बोलते हैं। ग्राहक खुश होती हैं कि कि लड़के बदतमीज हैं लेकिन हमारी तो इज्जत करते हैं, सब्जी भी सस्ती देते हैं और वैसे भी गाली गलौज हमसे थोड़े ही करते हैं...</div>
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- कुछ दिन से मैं देख रहा हूँ कि डेयरी प्रोडक्ट्स की एक नई रिटेल चैनशॉप्स दिखने लगी हैं। जबरदस्त डिस्काउंट और ऑफर्स, और सरनेम राजपूतों का है। जरूर चल निकलेगी। थोड़ी सी छूट देकर तो हमें कोई भी अपना गुलाम बना ले। दूध, घी, पनीर में कुछ रुपए बच जाएं तो कुछ बुरा है? समझेंगे कि मूवी देखने जाएंगे तो एक पॉपकॉर्न इस बचत का। ए बचत, तुझे सलाम। पासपोर्ट प्रकरण के बाद तो समझ आना चाहिए कि संविधान अपनी पसंद का नाम/कुलनाम लगाने की छूट देता है भाई, तू कायकू इतना सोचेला है? </div>
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हाहाहा इतना तो तुम भी मानोगे कि राजपूती नाम तुमसे बहुत ऊँचा है।</div>
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- प्रभाष जोशी ने एक बार भारत पाकिस्तान के हॉकी मैच के बारे में, जिसमें भारत पूरे मैच में आगे चल रहा था लेकिन अंतिम क्षणों में धड़ाधड़ गोल खाकर हार गया था, लिखते समय परिणाम को दोनों टीम की किलर इंस्टिंक्ट से जोड़ा था। और, उस किलर इंस्टिंक्ट को अलग-अलग कौम की 'आत्मा के आवागमन' और 'बस, यही एक जिंदगी' मान्यताओं से जोड़ा था। उनके लिखे को सही या गलत बताने वाला न्यायकार मैं नहीं लेकिन तब वो लेख मेरी अपनी सोच को व्यवस्थित ढंग से लिखा हुआ लगा था। जिन्हें समझ आता है कि यह चक्र अनन्त है वो समय के साथ प्रवाहमान हो लेते हैं और जिनके लिए यह 'करो या मरो' है वो नियम/नैतिकता सब ताक पर रखकर हासिल करने में जुट जाते हैं।</div>
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- - मैं दूर तक देखने की कोशिश करता हूँ तो पास का सब ओझल होता दिखता है। I hope कि जो पास का देखते हैं, उन्हें दूर का भी सब साफ दिखता होगा.....</div>
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संजय @ मो सम कौन...http://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8140631366854578091.post-63353499452947341382020-06-26T17:18:00.002+05:302020-06-26T17:18:56.267+05:30कोरोना काल की डायरी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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लॉकडाऊन काल के मेरे अनुभव तो अच्छे ही रहे, विशेषरूप से लॉकडाऊन १ और २ के। वेतन नियत समय पर और बिना कटौती के मिलना तय था तो आर्थिक रूप से कोई प्रत्यक्ष हानि नहीं हुई, अप्रत्यक्ष लाभ ही हुआ होगा। आवश्यक सेवाओं के अंतर्गत आते हैं इसलिए घर से निकलना पड़ता था और मेट्रो सेवाएं बन्द थी तो अपने दुपहिया पर जाना होगा, यह सोचकर कष्ट था किन्तु सीमित ट्रैफिक और सिग्नलरहित सड़कों के कारण आनन्द ही रहा। पुलिस कर्मियों की डण्डेबाजी भी नहीं झेलनी पड़ी, रोके जाने पर सभ्यता से आईकार्ड दिखाने से ही काम चल गया यद्यपि ऐसी स्थिति भी दो-चार बार ही आई। समय के सदुपयोग की बात की जाए तो महाभारत का प्रथम खण्ड पिछले वर्ष पढ़ना आरम्भ किया था, कतिपय कारणों से वह बाधित था, उसे सम्पन्न करने का मन बनाया। पिछले अनुभव से नियमित न रहने को लेकर कुछ शंकित अवश्य था। लक्ष्य बनाया कि भले ही कम पढ़ा जाए लेकिन नियमित रूप से दो से तीन पृष्ठ भी प्रतिदिन पढ़ पाया तो २०२० में यह सम्पन्न हो जाएगा। मई समाप्त होते तक उस स्थिति तक पहुँच गया कि बचे हुए दिनों में यदि दस पृष्ठ प्रतिदिन पढ़ सका तो लक्ष्य जून 2020 तक प्राप्त हो सकेगा। आरम्भ में प्रतिदिन के 3 पृष्ठ भारी लग रहे थे, अब दस पृष्ठ तक achievable लग रहे थे। </div>
<div style="text-align: justify;">
अब एक अन्य बात पर ध्यान गया, यदि यह खण्ड पढ़ लिया तो उसके बाद? द्वितीय खण्ड उपलब्ध नहीं है, यदि उसकी प्राप्ति में समय लग गया तो बना हुआ momentum समाप्त होने की आशंका आदि आदि..... ऐसे समय में संकटमोचक रहते हैं 'छोटे पण्डित', काम बता भर दो और काम उसका हो जाता है। कोरोनाकाल की एकमात्र अड्डेबाजी में यह बात छेड़ी, उसने लपक ली। इसी बीच 'लालबाबू' बोले कि ऑनलाइन भी मंगवा सकते हैं। एक रविवार को मैंने चैक किया तो पाया कि वास्तव में गीताप्रेस की online पुस्तक सेवा है। ऑर्डर कर दिया, पेमेंट भी कर दी। अगले दिन कन्फर्मेशन के लिए फोन किया(मेरे लिए दुनिया के कठिनतम कार्यों में से एक) तो पता चला कि जो सज्जन यह सब देखते हैं वो अगले दिन आएंगे, वाराणसी में वहाँ भी 'आज मैं तो हरि नहीं, कल हरि होंगे मैं नांय' अर्थात alternate day duty सिस्टम चल रहा है। अगले दिन हरि ने कन्फर्म किया कि पेमेंट प्राप्त हो गई है और पैकेज तैयार है। अब लोचा यह आया कि दिल्ली के लिए डाकविभाग 30 जून तक स्पीडपोस्ट/रजिस्टर्ड पोस्ट स्वीकार नहीं कर रहा। मैंने अपना लॉजिक दिया कि प्रथम खण्ड समाप्त होने के पूर्व मुझे द्वितीय खण्ड क्यों चाहिए। सामने से विकल्प दिया गया कि कुरियर से भेज सकते हैं लेकिन वो महंगा पड़ेगा। डाक विभाग जो कार्य ₹80/- में करता, निजी कुरियर उसके लिए कम से कम ₹200/- अतिरिक्त लेगा। "भेजिए, मैं अतिरिक्त राशि ट्रांसफर कर रहा हूँ।"</div>
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अगले दिन हरिजी ने कुरियर की रसीद व्हाट्सएप्प कर दी। चार-पाँच दिन और व्यतीत हो गए, कुरियर नहीं आया। अब अपने तुरुप के पत्ते 'बाबा' को गुहार लगाई गई कि किसी चेले को कुरियर ऑफिस भेजकर पता करवाएं, उन्ने अगले दिन का आश्वासन दे दिया। तभी कुरियर वाले का फोन आ गया कि लोकेशन बताईये, आपका कुरियर आया है। </div>
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सार यह है कि आज छब्बीस जून २०२० है और प्रथम खण्ड सम्पन्न हो गया है। लॉकडाऊन तेरी सदा ही जय हो।</div>
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#कोरोना_डायरी</div>
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संजय @ मो सम कौन...http://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8140631366854578091.post-58268505463603866292020-06-10T20:16:00.001+05:302020-06-10T21:07:27.395+05:30समय का फेर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
लगभग दस वर्ष किराए के मकानों में रहना पड़ा, कुल 5 मकानमालिक मिले। ऐसा नहीं हुआ कि इनमें से किसी मकानमालिक से मतभेद के चलते एक रात्रि भी उस मकान में बितानी पड़ी हो। एक के साथ ऐसी स्थिति बनी भी तो दो घण्टे में रूम बदल लिया था। हुआ यूँ था कि मेरा एक मित्र अस्थाई ट्रांसफर पर अपने गृहस्थान में एक लम्बा काल बिताकर एक सुबह अचानक मेरे रूम पर प्रकट हुआ, "वापिस आ गया। नया मकान मिलने तक यहाँ रुक सकता हूँ न?" पूछने वाले ने अपने तरीके से सूचना ही दी थी। मैं उन दिनों अकेला रहता था और उसे उसे अपनी पत्नीश्री को भी लाना था, तो उनके लिए मकान देखने में हमें कुछ अधिक सेलेक्टिव भी होना पड़ रहा था।</div>
<div style="text-align: justify;">
मेरे मकानमालिक के पूरे परिवार से अपने सम्बन्ध अच्छे थे लेकिन प्रोटोकाल को लेकर मैं असावधान नहीं रहता था, मैंने भी मकानमालिक को यह सूचना दे दी। उनकी ओर से लेशमात्र भी ऑब्जेक्शन नहीं हुआ। अब हुआ यूँ कि हमारे उस मित्र को संयोगवश उन दिनों बहुत जुकाम लगा हुआ था। कुछ उसका भयंकर जुकाम, कुछ मकान ढूंढने में हमारे अतिरिक्त पैमाने और कुछ यह आश्वस्ति कि कुछ दिन अतिरिक्त लग भी गए तो हम सड़क पर नहीं हैं, इस सबमें सप्ताह भर लग गया। एक दिन ऑफिस से लौटे तो मकानमालिक के बड़े लड़के ने मुझे बुलाया कि चलो कुछ दूर टहल कर आते हैं, बहुत दिन हुए हमारी चर्चा भी नहीं हुई। वह अच्छा पढ़ा-लिखा अधिकारी आदमी था, विभिन्न विषयों पर उससे चर्चा हुआ भी करती थी। मेरे मित्र के बारे में उसने बोला कि इनकी तबीयत ठीक नहीं लगती, ये आराम कर लें। </div>
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हम निकल लिए। उस दिन वो कुछ असहज था। कुछ देर बाद मेरे मित्र का नाम लेकर बोला, "उसे बहुत भयंकर जुकाम लगा हुआ है। कोई गम्भीर बीमारी है?"</div>
<div style="text-align: justify;">
मैंने बताया कि ऐसा कुछ नहीं है, जुकाम है तो जाने में समय लगता ही है। फिर घर से बाहर रहते हैं तो घर जैसी केयर भी नहीं मिल पा रही होगी।</div>
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कुछ देर चुप रहकर वो बोला, "यह छूत की बीमारी जैसा होता है, आपको भी रिस्क है।"</div>
<div style="text-align: justify;">
मैंने बात टाली कि ऐसा कुछ नहीं है।</div>
<div style="text-align: justify;">
उसने कई प्रकार से समझाया कि मित्रता आदि अपने स्थान पर ठीक है लेकिन इस कारण मुझे स्वयं को खतरे में न डालते हुए उस मित्र को कहीं और शिफ्ट कर देना चाहिए। मैंने यह कहते हुए मना कर दिया कि उसके स्थान पर मैं अस्वस्थ होता तो मेरा वो मित्र मुझे नहीं छोड़ता, मैं भी अस्वस्थ होने का रिस्क लेकर भी उसे कभी बाहर नहीं करूँगा।</div>
<div style="text-align: justify;">
वो चलते-चलते रुक गया, बोला, "रिस्क आपको भी लेना नहीं चाहिए लेकिन मैं समझा ही सकता था। तो अब ऐसे सुनो कि मैं मेरे व मेरे घर के सदस्यों के लिए रिस्क नहीं ले सकता। अब?"</div>
<div style="text-align: justify;">
मैंने कहा, "अब? वापिस चलते हैं।"</div>
<div style="text-align: justify;">
दोनों चुपचाप लौट आए। घर पर गेट खोलकर जब वो अंदर जाने लगा, मैंने कहा, "भाईसाहब, आज रात से आप व आपके परिजन हमारी ओर से रिस्कफ्री होंगे।"</div>
<div style="text-align: justify;">
दो घण्टे में पूरी मण्डली ने टीन-टप्पर ढो-ढाकर नए अड्डे में जा टिकाया। यहाँ अकेले थे, नए अड्डे में पूरी मण्डली पुनः जुड़ गई।</div>
<div style="text-align: justify;">
कुछ घटनाओं में मैं किसी एक पक्ष को ठीक या गलत नहीं सिद्ध कर पाता, सभी पक्ष ठीक ही लगते हैं। यह भी ऐसी ही घटना रही। पूर्व मकानमालिक और उनका लड़का बाद में भी यदाकदा मिलते थे, बात होती थी और हम हँस देते थे। वो भी कहता था कि अपनी अपनी जगह हम दोनों ही ठीक थे, और मैं पहले से ही यह मानता था☺️</div>
<div style="text-align: justify;">
वही मित्र आज ऑडिट के चक्कर में अपने गृहस्थान से हमारे ऑफिस वाली बिल्डिंग में आया था। संयोगवश जिन सीनियर के साथ आया था, वो हम दोनों के कॉमन मित्र रहे हैं। वही सीनियर मुझे मिलने आए तो उन्होंने बताया कि अमुक भी आया हुआ है। आज भेंट होती तो सम्भवतः चौबीस वर्ष बाद आमने-सामने मिलते, एक ही बिल्डिंग में अलग-अलग मंजिल पर बैठे रहे। कोरोना, दूसरे शहर से आने के प्रोटोकॉल, पहले से परिपक्व हो गए हम☺️ फोन पर बात हुई तो हँसते हुए कल मिलने का तय हुआ है। अपनी-अपनी जगह सब ठीक हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
ऐसी बातों के लिए भी कोरोना काल याद रहेगा।☺️</div>
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संजय @ मो सम कौन...http://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-8140631366854578091.post-963503748483601722020-05-07T11:58:00.001+05:302020-05-07T11:58:23.454+05:30उतने पाँव पसारिये.....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
उन दिनों बिजली की आपूर्ति बहुत अनियमित थी, सार्वजनिक उपक्रम के हाथों में थी। घर में छोटे बच्चे भी थे, आवाज उठी कि इन्वर्टर होना चाहिए। क्रय के मामलों में मैं था निपट अनाड़ी, मेरा एक प्रिय मित्र इनमें विशेषज्ञ था तो उससे बात छेड़ी। उसने बताया कि उसने भी इसी सप्ताह नया इन्वर्टर लिया है। साथ ही यह भी बताया कि जिस विक्रेता से इन्वर्टर क्रय किया है, उसने बिना ब्याज और/या किसी अतिरिक्त कीमत के ही छह मासिक किस्तों में इन्वर्टर दिया है क्योंकि बातचीत करते समय वो लोग एक ही कॉलेज के सीनियर-जूनियर निकल आए थे। मेरा वह मित्र वैसे भी बहुत सुदर्शन व्यक्तित्व का स्वामी रहा तो पहली भेंट में ही लोग उसके व्यवहार से प्रभावित होते मैंने स्वयं देखे थे, इसलिए इस सुविधा के मिलने पर मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। मित्र ने उत्साहित होते हुए मुझे भी कन्विंस किया कि जब कोई अतिरिक्त कीमत नहीं चुकाई जानी है तो एक साथ भुगतान करने की अपेक्षा मुझे भी ऐसे ही छह किस्तों में भुगतान की सुविधा लेनी चाहिए।</div>
<div style="text-align: justify;">
सारी पटकथा सैट होने के बाद अब बिल्ली के गले घण्टी बाँधने की वेला आ गई थी।</div>
<div style="text-align: justify;">
घर के मुखिया पिताजी थे, उनसे बात आरम्भ हुई। </div>
<div style="text-align: justify;">
"आजकल बिजली बहुत जा रही है, गर्मी में छोटे बच्चों को रातभर परेशानी होती है।"</div>
<div style="text-align: justify;">
"हाँ, क्या कर सकते हैं?"</div>
<div style="text-align: justify;">
"बैटरी वाले इन्वर्टर मिलते हैं, पंखे वगैरह को आठ-दस घण्टे का बैकअप मिल जाता है। लाईट जाते ही ऑटोमैटिक इन्वर्टर पर शिफ्ट हो जाते हैं, सोच रहा था कि हम भी ले लेते हैं।"</div>
<div style="text-align: justify;">
"ले लो। कितने का आता है?"</div>
<div style="text-align: justify;">
"पन्द्रह हजार के आसपास आएगा।"</div>
<div style="text-align: justify;">
"ठीक है। हैं पैसे?"</div>
<div style="text-align: justify;">
"पैसों का तो हो जाएगा, पहले तो आपकी परमीशन ही लेनी थी। वो सुनील है न, उसने भी इसी सप्ताह नया इन्वर्टर लिया है। ढाई हजार कैश और हर महीने ढाई हजार के हिसाब से पाँच चैक लिए हैं दुकानदार ने, कह रहा था कि मेरा भी ऐसे ही करवा देगा।"</div>
<div style="text-align: justify;">
"ऐसे कोई कैसे उधार पर दे देता है?"</div>
<div style="text-align: justify;">
"सबको नहीं देते हैं। सुनील के घर भी दुकानदार ने अपना लड़का भेजा था, वो आकर घर देख गया। बल्कि जो लड़का आया था, वो सुनील का घर देखकर बहुत इम्प्रेस्ड भी था।"</div>
<div style="text-align: justify;">
"हम्म, जो लड़का यह देखने आया था कि यह बन्दा उधार लायक है या नहीं, उसकी खुद की तनख्वाह कितनी होगी तेरे ख्याल से?"</div>
<div style="text-align: justify;">
अब मैं कुछ सोच में पड़ गया, "मिलते होंगे डेढ़-दो हजार उसे, हमें क्या मतलब?"</div>
<div style="text-align: justify;">
अब आया क्लाइमैक्स, "भैंचो डेढ़-दो हजार महीने के लेने वाला यह वेरीफाई करने हमारे भी घर आएगा कि हम उधार के लायक हैं या नहीं। ऐसा है, पैसे हैं तो इन्वर्टर खरीद लो नहीं तो चुपचाप बैठ जाओ।"</div>
<div style="text-align: justify;">
कुछ देर हम दोनों चुपचाप बैठे रहे। फिर पिताजी बोले, "चल जा, मेरी चेकबुक ले आ।"</div>
<div style="text-align: justify;">
"नहीं, पैसे तो हैं मेरे पास। तभी तो खरीदने को तैयार हुआ था, सुनील से तो आज ही बात हुई तब उसने छह महीने वाली बात बताई। हाँ, सुनकर मैं भी थोड़ा लालच में जरूर पड़ गया था क्योंकि इसमें कोई नुकसान नहीं दिखा था।"</div>
<div style="text-align: justify;">
"देख ले, पैसे नहीं हैं तो मेरे बैंक खाते से निकाल ले। छोटे बच्चों को बिजली के कारण परेशानी तो होती होगी।"</div>
<div style="text-align: justify;">
"न, हैं अभी मेरे पास। जरूरत होगी तो आपसे ले लूँगा।"</div>
<div style="text-align: justify;">
"ठीक है। कैश मीमो मेरे को चैक करवाईयो।"</div>
<div style="text-align: justify;">
"अच्छा जी।"</div>
<div style="text-align: justify;">
अगले दिन इन्वर्टर आ गया। कैश मीमो चैक करवाने गया, उन्होंने देखी भी नहीं और सम्भाल कर रखने के लिए कह दिया। </div>
<div style="text-align: justify;">
------</div>
<div style="text-align: justify;">
एक समय था जब उधार लेने के नाम पर ही मध्यमवर्गीय लोग उछल पड़ते थे जैसे करंट लगा हो। जब तक अपरिहार्य न हो जाए, उधार लेने की अपेक्षा अपनी आवश्यकताएं सीमित कर लेना प्राथमिकता हुआ करती थी। 'पैर उतने ही पसारने चाहिएं, जितनी चादर हो' - पिछली पीढी तक यह भौतिक जीवन का मंत्र था।</div>
<div style="text-align: justify;">
यद्यपि मैंने ऊपर जो लिखा, वह एक बहुत सामान्य घटना है। सामान्य लेकिन सरल नहीं, अपितु बहुत जटिल। कम से कम मेरे लिए बहुत जटिल, जिसकी स्वयं की आजीविका भी इस अंधी दौड़ पर निर्भर करती है।</div>
<div style="text-align: justify;">
मैं स्वयं यह भी कह रहा हूँ कि प्रत्येक काल में इसे प्रासंगिक नहीं मान सकते। समय परिवर्तनशील है, विलासिता की वस्तुएं धीरे-धीरे आवश्यकता बन जाती हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
जो देखा है, उसके आधार पर इतना अवश्य कह सकता हूँ कि सुख पाने के चक्कर में हम अनजाने में दुख को भी न्यौता दे रहे होते हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
आवश्यकताएं आज भी बहुत कम हैं पर ये दिल मांगे मोर कि कर लो दुनिया मुट्ठी में ....</div>
<div style="text-align: justify;">
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<div style="text-align: justify;">
निशांत भाई की फेसबुक पोस्ट ने यह सब लिखवा दिया☺️</div>
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<br /></div>
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https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10218815007019166&id=1020718001</div>
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संजय @ मो सम कौन...http://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-8140631366854578091.post-29913953403491838182020-03-22T15:03:00.000+05:302020-03-22T15:03:34.505+05:30जनता कर्फ्यू में यही सोचा ☺️<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
समय के साथ, वय के साथ समझ बदलती है। </div>
<div style="text-align: justify;">
'मेरा नाम जोकर' जब पहली बार देखी तो पूरी फिल्म में सिम्मी ग्रेवाल, पद्मिनी और सर्कस वाली रूसिन पर ही फोकस अटक कर रह गया था।</div>
<div style="text-align: justify;">
एकाध वर्ष पूर्व सहसा इस फिल्म की बात चली तो लगा कि सौन्दर्य दर्शन के चक्कर में कहीं न कहीं जोकर(एक पुरुष) के vision की उपेक्षा हो गई।</div>
<div style="text-align: justify;">
अनजाने में हुए इस अन्याय के प्रायश्चित के लिए सोचा कि सम्भव हुआ तो अपन भी कभी वो ट्राई करेंगे अर्थात कुछ विशिष्ट जोड़ों को बुलाकर एक gathering सी कर लेंगे। विश्वास था कि gathering सम्भव भी हो सकेगी क्योंकि सामने वालियों की(और उनके वालों की भी) समझ भी तो आयु के साथ बदली होगी और इसे friendly spirit में लिया जाएगा।</div>
<div style="text-align: justify;">
समय के साथ और भी बहुत कुछ बदलता है यथा तकनीक, सुविधाएं, रुकावटें। उदाहरण के लिए जब यह मूवी आई थी तब aids नहीं था। वो बाद में ही आया किन्तु aids बेचारा एक मामले में फिर भला था कि उसमें प्रायः जो करता था वो भरता था। अब नई नई बीमारियाँ आ गईं, अब आवश्यक नहीं कि करने वाला ही भरेगा। </div>
<div style="text-align: justify;">
फिर सोची कि नर हो न निराश करो मन को। रोने वाले हर बात में रोने के बहाने ढूँढ लेते हैं, हम क्या उनसे गए बीते हैं? तकनीक भी तो बदली है, प्लान इम्प्लीमेंट करने के लिए आवश्यक हुआ तो वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग का सहारा ले लेंगे। </div>
<div style="text-align: justify;">
कोरोना आए या उसके फूफा-फूफी, हार नहीं माननी है।</div>
</div>
संजय @ मो सम कौन...http://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-8140631366854578091.post-42488466076302967482020-02-07T23:19:00.000+05:302020-02-07T23:19:08.731+05:30अव्यवस्थित<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: left;">
<span style="text-align: justify;">कुछ परिवर्तन के लिए इस बार हिंदी फिल्म देखनी आरम्भ की। मैं एक स्पैल में फिल्म न देखकर टुकड़ों में ही देख पाता हूँ और यह suit भी करता है, अच्छी लगी तो long relish हो गया और अच्छी नहीं लगी तो the end से पहले ही the end की सुविधा। तो इस बार फिल्म चुनी गई, 'बाला'</span><br /><span style="text-align: justify;">फिल्म देखते समय मुझे कुछ स्थान पर लगा कि मैं भी नायक की भाँति सोचता हूँ, विशेषकर जब अपने झड़ते बालों वाली समस्या को नायक बचपन में अपने गंजे शिक्षक का उपहास करने से जोड़ता है। </span><br /><span style="text-align: justify;">मैं कर्मफल के सिद्धांत में विश्वास रखता हूँ और यथार्थ में सम्भवतः कुछ करता कम और सोचता अधिक हूँ, इसलिए प्रायः अपनी किसी असफलता या अपने प्रति हुए अन्याय के समय पूर्व में मेरे द्वारा किसी अन्य के साथ किया ऐसा व्यवहार स्मरण करता हूँ और कोई घटना पा भी लेता हूँ। इस सोच को स्वस्थ माना जाए या दिल बहलाने की बात, मेरी असंतुष्टि मिटती है और भविष्य के लिए अपने को सुधारने का एक लक्ष्य मिल जाता है। पढ़ने में यह बात आकर्षक लग भी सकती है किन्तु इसे अपनाने में अपने प्रति कुछ निर्मम अवश्य होना पड़ता है, आसपास वालों की दृष्टि में aaceptable, presentable और respectable बनना कठिन होता जाता है और अन्य के साथ व्यवहार भी पहले जैसा jolly नहीं रहता।</span><br /><span style="text-align: justify;">माफ करना, बड़े लेखकों की नकल करने के चक्कर में मैं भी थोड़ा इधर-उधर निकल जाता हूँ।☺️ उस बात पर आता हूँ, जिसके लिए इतनी भूमिका बाँधी।</span><br /><span style="text-align: justify;">प्रतिदिन लगभग सदा ही सार्वजनिक वाहन में यात्रा करता हूँ। ट्रेन में चलता था तो त्रैमासिक सीज़न टिकट रखता था और अब मेट्रो में चलना होता है तो हजार-पांच सौ का रिचार्ज करवाया और कुछ दिन की छुट्टे नोट की समस्या से मुक्ति मिल जाती है। कुछ माह से मेट्रो स्टेशन से कार्यालय और कार्यालय से मेट्रो स्टेशन आते हुए शेयरिंग ई-रिक्शा का सहारा लेता हूँ। सांयकाल में तो ऐसी कोई शीघ्रता नहीं होती किन्तु सुबह के समय हर एक मिनट कीमती लगता है। प्रायः देखता हूँ कि अनेक लोग ऐसे हैं जो रिक्शा में बैठते ही चलने की जल्दी मचाते हैं किंतु जब रास्ते में उतरते हैं तो किराए के पैसे देते समय इतनी प्रकार और स्टाइलों से अपनी देह को घुमाकर/मरोड़कर, इधर-उधर हाथ डालकर wallet निकालते हैं, सौ या पचास का नोट निकालकर रिक्शावाले को देते हैं, फिर लौटाए गए नोट या सिक्कों को कसौटी पर कसकर लेनदेन सम्पन्न करते हैं। मुझ जैसे अनेक बार समय देखकर सुलगते रहते हैं कि ये लोग हमें देर करवा रहे हैं और वो भी ऐसे कारणों से, जिन्हें इस एक छोटी सी आदत से बदला जा सकता था कि आवश्यक खुले पैसे अपने पास रखे जाएं।</span><br /><span style="text-align: justify;"> In short, लोगों की इस आदत से मैं बहुत त्रस्त रहता हूँ और इस पर विस्तृत और उपयोगी चर्चा निंदक जी से भी हो चुकी है, यदि उन्हें स्मरण हो। </span><br /><span style="text-align: justify;">मैं स्वयं बहुत पहले से इस मामले में particular रहा कि जेब में आवश्यकता योग्य फुटकर नोट अवश्य रहें। एकाध बार तो ऐसा भी हुआ कि संयोग वश खुले पैसे नहीं थे तो ऑफिस से निकलते समय मैंने एक स्टाफ से दस रुपए उधार भी लिए कि यार दस रुपए दे दो, मैं कल लौटा दूँगा। लौटाए नहीं, यह अलग बात है किन्तु भावना यही थी कि अपने कारण दूसरों का समय व्यर्थ करने का पाप नहीं करना। अपनी इस उपलब्धि का मैंने अहंकार भी किया है और अनेक मित्रों के सामने गाया भी बहुत है। </span><br /><span style="text-align: justify;">आज कार्यालय से लौटते समय भी यही सब देखता और कुढ़ता आया। गंतव्य पर पहुँचते तक रिक्शा में दो सवारी बचीं, रिक्शा वाले ने भी रिक्शा लगभग सड़क के बीच ही रोक दी। जेब में हाथ डाला तो ₹२००/- वाले दो नोट ही निकले। मेरी हालत सच में बुरी हो गई, दूसरे यात्री ने तब तक बीस का नोट देकर दस रुपए वापिस सम्भाल लिए थे। सड़क के बीच ई-रिक्शा रुकवाना और झिकझिक करना, मेरे पसीने छूट गए। मैंने उस लड़के से अनुरोध किया कि यदि वह मेरे बदले भी दस रुपए रिक्शा वाले को दे देगा तो मैं उसे अभी खुले करवाकर लौटा दूँगा। लड़का पता नहीं क्या समझा होगा क्योंकि मेरा सम्प्रेषण भी उतना स्पष्ट नहीं रहता किन्तु उसने दस रुपए रिक्शा वाले को दे ही दिए। </span><br /><span style="text-align: justify;">आगे कहानी यह हुई कि वो अपरिचित लड़का बिना इस बात की प्रतीक्षा किए कि उसके दस रुपए मैं लौटा सकूँ, "कोई बात नहीं, छोड़िए अंकल जी।" कहते हुए दूसरे रिक्शा में बैठकर चला गया। </span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="text-align: justify;">चार घण्टे होने को आए हैं, मुझे अब तक लग रहा है जैसे मैं कोई भिखारी हूँ।</span><br /><span style="text-align: justify;">घटना साधारण भी लग सकती है और अस्वाभाविक भी, किन्तु सौ प्रतिशत सत्य है। </span></div>
<div>
<br /></div>
</div>
संजय @ मो सम कौन...http://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-8140631366854578091.post-44943513072252797592020-01-26T13:18:00.002+05:302020-01-26T13:18:48.155+05:30तुम ले के रहना आज़ादी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
15 अगस्त,1947 से कुछ माह पहले तक यह स्पष्ट होने लगा था कि धर्म/भाषा के आधार पर देश का विभाजन होगा। इस अनुमान की स्पष्टता सबसे अधिक उन लोगों के समक्ष थी जो राजनीतिक स्तर पर सक्रिय या कहें कि जागरूक थे, उनके बाद उन लोगों के समक्ष जो आज के भारत-पाक बॉर्डर के निकटवर्ती क्षेत्रों के निवासी थे। विभाजन से प्रभावित हुए सब लोग राजनीतिक स्तर पर बहुत जागरूक नहीं थे, सब लोग इन क्षेत्रों के निवासी भी नहीं थे। अधिसंख्य हिन्दू मोहनदास करमचंद गाँधी के आभामण्डल से इतने सम्मोहित थे कि मन ही मन 'विभाजन मेरी लाश पर होगा' को ब्रह्मवाक्य माने बैठे थे। यह सम्मोहित होना एक प्रकार की निर्भरता का प्रतीक है कि हमने तुमपर अपना दायित्व सौंपकर अपना कर्तव्य कर दिया है। गाँधी की यह छवि सबको suit भी करती थी, अंग्रेजों और मुसलमानों को भी। विभाजन हुआ और कितना शांतिपूर्ण या रक्तरंजित हुआ, यह हम जानते हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
धर्म के आधार पर अलग जमीन किसकी माँग थी? वह माँग पूरी होने के बाद भी कौन सा पक्ष असन्तुष्ट रहा और कौन सा पक्ष इसे एक दुःस्वप्नन मानकर आगे बढ़ने को प्रतिबद्ध रहा? </div>
<div style="text-align: justify;">
मुझे लगता है कि अभी तक हठधर्मिता दोनों पक्षों की लगभग एक समान रही है। वो सदा असन्तुष्ट रहने पर अड़े रहे हैं और हम लुट पिटकर भी सन्तुष्ट होने पर अड़े रहे हैं। दोनों पक्षों की भीड़ की इस मानसिकता, मनोविज्ञान को सबसे अधिक उन लोगों ने समझा है जो जानते हैं किन्तु मानते नहीं। जानते हैं कि दोनों पक्षों में अपेक्षाकृत उत्तम कौन है इसलिए उसे त्यागते नहीं, जानते हैं कि दोनों पक्षों में अपेक्षाकृत निकृष्ट कौन है इसलिए उसे अप्रसन्न नहीं करते। उस पक्ष के लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुखौटा चढ़ाकर AMU में हिंदू की कब्र खुदने की बात कहते हैं, खिलाफत 2.0 के आगाज़ के नारे लिखते हैं, असम को देश से काटने की बात कहते हैं, देश के कानून को न मानने की बात कहते हैं, कश्मीर की आज़ादी मांगते हैं, बंगाल की आज़ादी मांगते हैं और हमारे बीच के 'जानने किन्तु न मानने वाले' हमें बताते हैं कि इन्हें प्यार से समझाया जाना चाहिए, बैठाकर इनसे बात की जानी चाहिए। </div>
<div style="text-align: justify;">
हर नए दिन यह और अधिक स्पष्ट होता जा रहा है कि अंततः हठधर्मिता हमें ही त्यागनी होगी, हम ही त्यागेंगे। तुम अपने नारों, बयानों पर टिके रहना। इस बार तुम्हारी ताल से ताल मिलाई जाएगी -</div>
<div style="text-align: justify;">
तुम ले के रहना आज़ादी,</div>
<div style="text-align: justify;">
हम दे के रहेंगे आज़ादी...</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
संजय @ मो सम कौन...http://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8140631366854578091.post-46587624184433130332019-12-27T22:30:00.000+05:302019-12-27T22:30:17.632+05:30वेले दी नमाज ते कुवेले दियां टक्करां<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
भौगोलिक कारणों से अन्य राज्यों की अपेक्षा पंजाब और बंगाल पर मुस्लिम रवायतों का प्रभाव अधिक पड़ा। इसे संक्रमण कहना भी अनुचित नहीं होगा क्योंकि दोनों पक्षों समान रूप से प्रभावित नहीं हुए, दोनों समाजों में हठधर्मिता की असमान मात्रा इसका एक बड़ा कारण हो सकती है। बंगाली के बारे में मुझे बहुत अनुमान नहीं किन्तु इन्हीं कारणों से बोलचाल में पंजाबी और उर्दू में निकटता रही और एक दूसरे के व्यवहार-रवायतें आम बोलचाल में प्रयुक्त भी होते रहे। हो सकता है कि बहुत से लोगों को इस बात से आश्चर्य हो कि पाकिस्तान की एक बड़ी जनसंख्या पंजाबी बोलती है। खैर, आपको पंजाबी की एक कहावत के बारे में बताता हूँ जिसे मेरे पिताजी कई बार हमपर प्रयोग करते थे। ये कहावत है, 'वेले दी नमाज ते कुवेले दियां टक्करां।' आरम्भ में जब यह हम पर प्रयोग हुई तो इतना समझ आया कि कुछ समझाईश मिली है पर अर्थ अच्छे से समझ नहीं आया। बाद में किसी उपयुक्त अवसर पर पिताजी से पूछा तो उन्होंने विस्तार से बताया कि जैसे हम लोगों में ईश्वर की पूजा करने के नियम विधान होते हैं, वैसे ही मुसलमान अपने खुदा की इबादत के लिए नमाज पढ़ते हैं और उनके भी कुछ नियम हैं कि कितनी बार पढ़नी है, किस समय पढ़नी है, कैसे उठना-बैठना है आदि आदि। इसी क्रम में उन्हें बार-बार धरती पर माथा टेकने पड़ता है। अब कहावत से सन्दर्भ जोड़ते हुए मुझे समझाया गया कि कोई व्यक्ति सही समय पर वह गतिविधियां कर रहा हो तो सामने वाले जानेंगे कि नमाज पढ़ रहा है और असमय पर करे तो सामने वाले यही जानेंगे कि यह जमीन पर टक्करें मार रहा है। भाव यही कि हर कार्य उपयुक्त वेला अर्थात समय पर ही करना चाहिए।</div>
<div style="text-align: justify;">
CAA के विरोध में हाथों में गुलाब के फूल लेकर, बच्चों को मोहरा बनाकर महफ़िल लूटने का ड्रामा कर रहे अमन के पैरोकारों को देखकर यह सब स्मरण हो आया। जब सार्वजनिक संपत्ति की तोड़फोड़ कर रहे थे, आग लगा रहे थे, सुरक्षा बलों पर और निर्दोष लोगों को पत्थर मार रहे थे, तब हाथों में पत्थर-हथियारों के स्थान पर फूल लिए होते तो सबके लिए अच्छा रहता। </div>
<div style="text-align: justify;">
कहावतें तो और भी ध्यान आती हैं, अभी इसी से काम चलाइये।</div>
</div>
संजय @ मो सम कौन...http://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8140631366854578091.post-11931387284585708782019-12-14T22:40:00.000+05:302019-12-15T12:32:49.920+05:30है न? <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
एक कम्पनी है जिसे एक अन्य कम्पनी ने टेकओवर किया था। कार्य-संस्कृति और अन्य घटकों में परिवर्तन आया तो अधिकाँश कर्मचारी नई कम्पनी छोड़कर अन्य नौकरियों में चले गए। कुछ दिन पहले पता चला कि बचे हुए पुराने कर्मचारियों में एक ऐसा है जो यूँ तो well paid है पर दिनभर फेसबुक, चैटिंग, गेम्स में लगा रहता है। कम्पनी सरकारी नहीं है और उस कर्मचारी की दिनचर्या पूरी तरह से नई कम्पनी के कर्ताधर्ताओं की जानकारी में है फिर भी यह चल रहा है इसलिए यह जानकर मुझे आश्चर्य हुआ। कुछ कुरेदने पर पता चला कि पुरानी कम्पनी के आउटस्टैंडिंग बिल्स और उन्हें उगाहने की जटिलताएं उसी कर्मचारी की जानकारी में है। वो हर मास दस-पन्द्रह लाख का बिल क्लियर करवा देता है। दोनों पक्ष जान रहे हैं कि पुराने बिल क्लियर होते ही पिंक स्लिप जारी हो जानी है और यदि यह स्लिप पहले जारी हो गई तो बचे हुए सब बिल डूब जाने हैं। और इस प्रकार ढील के पेंच हैं कि लड़े जा रहे हैं, लड़े जा रहे हैं। कारण एक ही है, दोनों के हित परस्पर फँसे हुए हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
यह कोई कपोल कल्पित कथा नहीं अपितु आँखों देखी एक स्थिति है। </div>
<div style="text-align: justify;">
देश में भी यही चल रहा था। समस्याओं को पाला जाता था, पोसा जाता था। निर्णय लंबित किए जाते थे जिससे परस्पर हित साधे जाते रह सकें। ऐसे में कोई नेतृत्व ऐसा मिला जो निर्णय लेने का साहस दिखाए तो कष्ट उभरने लगते हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
एक रैंक एक पेंशन, आधार मैपिंग, नोटबन्दी, जीएसटी, तीन तलाक पर रोक, ३७० हटाना, जन्मभूमि पर निर्णय के लिए अनुकूल वातावरण बनाना, नागरिकता संशोधन बिल आदि आदि - इन सब पर बुद्धिजीवी एक बात अवश्य कहते हैं कि मोदी ने जल्दबाजी की है, सम्बन्धित पक्षों को विश्वास में नहीं लिया। तुमने विश्वास में ले लिया था तभी सम्भवतः गरीबी भगा दी, अशिक्षा भगा दी, आतंकवाद समाप्त कर दिया था। है न?</div>
</div>
संजय @ मो सम कौन...http://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-8140631366854578091.post-45775332854881876112019-12-09T21:59:00.000+05:302019-12-09T21:59:22.753+05:30इंसानियत का परचम<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
तत्कालिक संकटों का समाधान भी तत्कालिक होता है, नाक पर मक्खी बैठी और उसे तुरंत उड़ा दिया। ऐसी स्थिति बार-बार समक्ष आती हो तो उसका समाधान आपको स्थिर होकर सोचना होगा। आप देखेंगे तो पाएंगे कि हम लोग लगभग हर समस्या के तत्कालिक समाधान पर ही ध्यान केंद्रित करके रह जाते हैं। हम इस तथ्य की उपेक्षा कर जाते हैं कि युद्ध की तैयारी शान्तिकाल में होती है। बलात्कार, रेल या सड़क दुर्घटनाओं के उदाहरण ध्यान कीजिए, हुआ तो हम उद्वेलित हुए और कुछ ही देर में फिर रूटीन दिनचर्या में व्यस्त हो जाते हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
कल दिल्ली की सघन आबादी में लगी एक आग में पचास के लगभग लोग जल मरे, हम ये सरकार वो सरकार, इस विभाग उस विभाग को कोसेंगे और दुनिया ऐसे ही चलती रहेगी क्योंकि हम व्यवस्था का भाग मात्र लाभ उठाने के लिए बनने की मानसिकता से ग्रस्त हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
चार मंजिला ईमारत में प्लास्टिक का सामान बनाने का कारखाना और गोदाम था, तीन भाइयों का ऐसा ही सेटअप है।</div>
<div style="text-align: justify;">
कारखाना चलाने का लाइसेंस नहीं था।</div>
<div style="text-align: justify;">
फायर सर्विस वालों का एनओसी नहीं था।</div>
<div style="text-align: justify;">
बिजली कनेक्शन नहीं था, बिजली के खम्भे से कटिया डालकर कनेक्शन जोड़ रखा था।</div>
<div style="text-align: justify;">
इन कारणों से ईमारत के मुख्य दरवाजे पर ताला लगा था (काम नहीं रुका हुआ था)। मुँह अंधेरे आग लगी तो फँसे हुए लोग इन कारणों से भाग भी नहीं सके।</div>
<div style="text-align: justify;">
अभी तक इस आगजनी में हलाक हुए तिरालीस लोगों को विभिन्न सरकारों द्वारा चौदह लाख फ़ी हलाक की दर से मुआवजा घोषित हो चुका है। पीड़ितों को मुआवजे का मैं भी विरोध नहीं करता पर मुआवजा राशि कहाँ से आए, इस पर भी हमें सोचना चाहिए।</div>
<div style="text-align: justify;">
अख़बार लिख रहा है - 'देते हैं करोड़ों का टैक्स पर सुविधाएँ कुछ नहीं मिलती'.....</div>
<div style="text-align: justify;">
पर्दे पर चचा द्वारा खोज निकाला भारत यानि Discovery of India चल रहा है। पर्दे के पीछे दमदार आवाज गूँज रही है, 'सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, मा ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम् । प्रियं च नानृतम् ब्रूयात्, एष धर्मः सनातन:॥'</div>
<div style="text-align: justify;">
नेताओं, पत्रकारों की इस 'प्रियं ब्रूयात्, मा ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्' प्रियता के चलते यद्यपि मेरा मन भी हमदर्दी के समन्दर में गोते लगा रहा है लेकिन मैं यह भी सोच रहा हूँ कि क्या अनाजमण्डी में ऐसी एक या तीन इमारतें ही हैं? क्या दिल्ली में अनाजमण्डी जैसी एक ही जगह है? क्या भारत में दिल्ली जैसा एक ही नगर है? जो बिजली का बिल नहीं भरते, लाइसेंस फीस नहीं भरते, वो आयकर, जीएसटी आदि अन्य टैक्स भरते हैं? PF /ESI के नियमों का पालन करते हैं? न्यूनतम वेतन / minimum wages का पालन करते हैं(करुणा से ओतप्रोत होते हुए एक अखबार ने बताया है कि काम करने वाले डेढ़ सौ रुपया प्रतिदिन पाते थे)? बाल श्रमिकों की सेवाएं तो नहीं ली जा रही थीं? मन्दी पर छाती पीटते विद्वान नहीं बताएंगे कि इनके आंकड़े GDP में गिने जाते हैं या नहीं क्योंकि उन्हें इसका उत्तर पता है। उन्हें यह भी पता है कि क्या, कब और कितना बोलना है। इंसानियत का परचम फहराना आसान नहीं, बहुत मन मसोस कर रहना पड़ता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
हम और आप यह तो कर ही सकते हैं कि</div>
<div style="text-align: justify;">
नित्य के जीवन में अनुशासन का पालन करना आरम्भ कर दें। हो सकता है लाईफ कुछ बोरिंग हो जाए किन्तु विश्वास रखिए, अपना और अगली पीढ़ियों के लिए दुनिया को सुरक्षित करने में आपका योगदान होगा। </div>
</div>
संजय @ मो सम कौन...http://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8140631366854578091.post-46808234484122931352019-12-01T15:22:00.000+05:302019-12-01T15:22:30.461+05:30The walk and The walkers<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
मौसम और उस दिन के सामाजिक कार्यक्रमों के अनुसार उपस्थित सदस्यों की संख्या बदलती रहती थी, कभी चार भी रह जाती और कभी चौदह तक पहुँच जाती। ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं पहुँचा तो पाया हो कि आज मैं अकेला हूँ। मुझे छोड़कर सभी उस ग्रुप से पुराने जुड़े हुए थे क्योंकि वे स्थानीय थे, अधिकाँश नौकरी और व्यापार से रिटायर्ड थे। </div>
<div style="text-align: justify;">
यात्रापथ के इस छोर से उस छोर तक प्रतिदिन</div>
<div style="text-align: justify;">
हँसी-मजाक, आपसी छेड़छाड़, राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक चर्चा चलती रहती। मैं प्रायः श्रोता ही बना रहता, सम्भवतः इसलिए भी उन सबमें सबसे कम अनुभव, परिचय, ज्ञान के उपरांत भी सबका स्नेहभाजन बना रहता था।</div>
<div style="text-align: justify;">
एक दिन देखा तो समूह में एक नया चेहरा दिखा। पहले मुझे लगा कि मेरे ही जैसे कोई नया रंगरूट है किन्तु वो तो मेरे अतिरिक्त सब सदस्यों को अच्छे से जानता था। उस दिन सब कुछ सामान्य नहीं दिखा। लोग उसकी बातों पर उत्तर भी कठिनता से देते, स्पष्ट दिख रहा था कि सब उसे टाल रहे हैं जबकि वो लगभग जबरदस्ती सबसे हँसी-मजाक करके ग्रुप में अपना स्थान बनाना चाह रहा है। </div>
<div style="text-align: justify;">
अगले दो-तीन दिन यही स्थिति बनी रही। सदस्यों की कम संख्या पर तो मैंने अधिक गौर नहीं किया क्योंकि यह वैसे भी घटती-बढ़ती रहती थी लेकिन उपस्थित लोगों में वो पहले सी सहज उन्मुक्तता नहीं दिखती थी। </div>
<div style="text-align: justify;">
उस दिन लौटते समय मैंने मेरे उस साथी से जिसने मुझे यहाँ introduce किया था, इस परिवर्तन का कारण पूछा। कुछ ना-नुकर के बाद वो मान गया कि यह व्यक्ति इस परिवर्तन का मूल हो सकता है। बताते समय मेरे इस मित्र की बातों में भी उसके प्रति एक नकारात्मक भाव झलक रहा था। पता चला कि पहले वह भी यहाँ नियमित आने वालों में था, कोई चोर या बलात्कारी न होकर हम जैसे सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार से ही था। कुछ वर्ष पहले इनके संयुक्त परिवार की लड़की और पड़ौस में रहने वाले एक लड़के की हुई हत्या के कारण यह और इसके भाई जेल में थे। यह अब छूटकर आया है और चाह रहा है कि सब इसे पहले जैसे स्वीकार कर लें।</div>
<div style="text-align: justify;">
उस मित्र से विशेष चर्चा नहीं हुई परन्तु अन्य सदस्यों का स्टैण्ड मुझे समझ भी नहीं आया, अनुकूल भी नहीं लगा।</div>
<div style="text-align: justify;">
संयोग ऐसे बने कि उन्हीं दिनों वो शहर भी मुझसे छूट गया। आने के पहले दिन मैं नियत समय पर walk पर गया तो पाया कि वहाँ कोई और सदस्य उपस्थित नहीं है। ग्रुप के बाकी सदस्यों से मेरी इस विषय पर विस्तृत चर्चा नहीं हो सकी पर मुझे विश्वास है कि इस ग्रुप में मैं अकेला व्यक्ति रहता जो उसे खुले मन से मित्र स्वीकार करता। हम टीवी चैनल्स, समाचार पत्रों, प्रसिद्ध, चमकते-दमकते लोगों की कही बातों को अंतिम सच मान लेने वाले लोगों का समाज बनकर रह गए हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
संजय @ मो सम कौन...http://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8140631366854578091.post-82626096967770816062018-09-16T14:12:00.000+05:302018-09-16T14:12:03.964+05:30सबका साथ सबका विकास<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
हमारा मित्र भोला बताया करता था कि उसके गाँव का एक आदमी हमेशा अपनी दृष्टि नीचे रखता था। उन्हीं दिनों गाँव में पहली बार किसी ने दोमंजिला भवन बनाया था तो यह चर्चा का विषय बना हुआ था। स्वाभाविक रूप से भवनस्वामी के लिए यह एक उपलब्धि थी तो एक दिन भवन स्वामी ने बहुत आग्रह करके उस व्यक्ति को दृष्टि उठाकर अपना नवनिर्मित भवन दिखाया। शाम तक यह भी चर्चा का एक विषय हो गया कि अमुक आदमी ने आज आँख उठाई। सच झूठ की नहीं कह सकता किन्तु भोला बताता था कि अगले दिन उस भवन की छत ढही हुई मिली थी। अब ठीक से स्मरण नहीं लेकिन किसी सन्दर्भ में ये किस्सा मुझे सुनाते हुए ही कहा था। जो भी हो, एक दो बार प्रयास करने के उपरांत भी मुझसे आँखें उठाकर नहीं चला जाता। </div>
<div style="text-align: justify;">
चलते समय मेरी दृष्टि प्रायः नीचे की ओर ही रहती है। आसपास की (और ऊँची भी) बहुत सी सुंदरताएं मैं देख नहीं पाता हूँ, मेरा सारा ध्यान नीचे ही रह जाता है। सीमेंटेड सड़कें तो एकरूपी होती हैं लेकिन जिन सड़क, फुटपाथ या फर्श पर टाईल्स, मार्बल, पत्थर आदि लगे रहते हैं, उनके डिजाइन/रंग आदि पर ध्यान देना मुझे अच्छा लगता है। इस नीरस चर्चा में रस यह है कि अच्छा लगने के लिए मैं कुछ न कुछ खोज ही लेता हूँ ☺</div>
<div style="text-align: justify;">
भूतल पर बिछे पत्थर, टाईल्स या लकड़ी के टुकड़े सब निर्जीव ही होते हैं लेकिन उनका आकार, उन पर बने ज्यामितीय पैटर्न आदि इन निर्जीव वस्तुओं को भी किसी प्रजाति की तरह unique बना देते हैं। चलते-चलते मैं इस पर ध्यान देने लगता हूँ कि कितने कदम की दूरी है, धीरे-धीरे पग इन पत्थरों/टाईल्स के साथ सिंक्रोनाइज होने लगते हैं, तारतम्य में आने लगते हैं। यह सम्भव तभी हो पाता है जब दूरी कुछ ज्यादा हो। </div>
<div style="text-align: justify;">
अच्छा, कभी इस पर ध्यान दिया कि मनुष्य खड़ा हो तो सुविधाजनक ढंग से खड़े रहने के लिए कितनी धरती उसे पर्याप्त होगी? अगर आप किसी ऐसे धरातल पर खड़े हों जिसमें टाईल्स या पत्थर लगे हों तो 1 वर्गफुट कम होगी? कल्पना करिए, सम्भवतः कम नहीं होगी। चलिए अगर च्वॉयस हो तो इस पत्थर को 2X2 फुट का कर लेते हैं। अब तो आराम से इस पर खड़े हो सकते हैं न? अब इस सोच को विस्तार देते हैं और जिस पत्थर पर आप खड़े हैं, उसे एलीवेट करते हैं। बाकी धरातल को यथास्थान रखते हुए जिस पत्थर पर आप बहुत आराम से खड़े थे, उसे एकाध किलोमीटर ऊँचा उठा दिया जाए तो कैसा महसूस होगा? मेरे पैरों का आकार नहीं बढ़ा, वो पत्थर छोटा नहीं हुआ, मैं औरों की अपेक्षा ऊँचा उठा(सब ऊँचा उठने का स्वप्न देखते ही हैं) लेकिन पता नहीं क्यों मेरी हथेलियों और तलवों में पसीने आ जाते हैं। चिकित्साविज्ञान में इसे कोई सा फोबिया बताते हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
जो साथी नीचे रह गए, उनके मनोभाव कुछ और होंगे, उसे भी कोई सा फोबिया कहते ही होंगे।</div>
<div style="text-align: justify;">
फिर मैं सोचता हूँ कि अकेला मैं इस तरह से न उठकर हम सब उठें तो सम्भवतः कोई फोबिया नहीं होगा।</div>
<div style="text-align: justify;">
मेरे अकेले के विकास में विनाश होने की संभावना अधिक है, सबका साथ सबका विकास कहीं से गलत नहीं है।</div>
</div>
संजय @ मो सम कौन...http://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-8140631366854578091.post-24924861100444759462018-08-25T18:15:00.000+05:302018-08-25T18:15:06.226+05:30दो निर्णय ..(भाग २)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
तो मित्रों, आगे बढ़ते हैं..</div>
<div style="text-align: justify;">
दिल्ली वाला डॉ. नारंग कांड कुछ दिन पहले ही घटित हुआ था, दिमाग में वो भी तुरंत कौंध गया। मैंने वहाँ जाकर पूछा कि क्या मामला है तो अंकल जी ने कहा कि इन लोगों को कई बार मना करने के बाद भी ये कूड़े की बोरी हमेशा यहाँ रख जाते हैं। उनकी तरफ देखा तो उनमें से जो आदमी था वो बोरी उठाकर अपनी ठेली पर रखने का उपक्रम करने लगा। मैंने उससे कहा कि दोबारा ऐसा न हो। इधर से अंकल जी को लगा कि अब एक सहायक आ ही गया है तो बोले, "हर दिन का यही काम है इन भैन@# का, पकड़े जाएं तो हाँ जी/अच्छावजी करते हैं लेकिन मानते नहीं है।" उस आदमी ने कुछ नहीं कहा लेकिन उसके साथ की औरत अपनी टूटीफूटी हिंदी में अंकलजी से बहस करती जा रही थी कि कोई इस मकान में रहता नहीं है, दस मिनट के लिए हमारा सामान सामने रख दिया तो इसमें गाली-झगड़ा क्यों वगैरह वगैरह। पता चला कि वो लोग तीन गलियों में कूड़ा इकट्ठा करते हैं और एक गली से कूड़ा एक बड़े बोरे में भरकर वहाँ रखते हैं और दूसरी गली में चले जाते हैं, ऐसे ही तीसरी गली में। और लौटते समय वो दोनों बोरे भी लादकर फाइनली अपने ठिकाने चले जाते हैं। तमाशबीन एकत्रित थे, दोनों पार्टियाँ गर्मागर्मी में बहस कर रहे थे और यह देखकर वहाँ से निकल रहे दूसरे कूड़ा उठाने वाले भी आ खड़े हुए। ड्राईंगरूम में बैठकर घटना के कारण-निवारण पर बौद्धिक तर्क देना अलग चीज होती है, मौके पर घटना का हिस्सा होना अलग। बहस होते-होते अंकल जी ने फिर कोई गाली दी, वो औरत फिर भड़की और अंकलजी ने उसी ठेली पर टाट तानने के काम आने वाला एक बाँस उठाया और मारने को हुए। मैंने उन्हें रोक लिया लेकिन जैसे कहते हैं कि मारते का हाथ रोक सकते हैं पर बोलते की जुबान नहीं तो उन दोनों की जुबानी जंग जारी रही। वो भी अब चार-पांच लोग थे, इतनी हिम्मत तो खैर कर नहीं सकते थे कि हाथ उठा दें लेकिन औरत को गाली देने और मारने की कोशिश का राग शुरू हो ही जाता। मामला बढ़ने नहीं दिया गया, उनके साथियों को वहाँ से भगाया और इन दोनों को भी दोबारा ऐसा न कहने की बात कहकर मैं भी चला आया, घर पर मेरा भी बेसब्री से इंतजार हो रहा था ☺ अंकलजी को बोला कि वो भी चलें लेकिन वो वहीं रुकने की बात पर अड़े रहे।</div>
<div style="text-align: justify;">
घर पहुँचा तो सब तैयार ही थे, मुझे देखकर गाड़ी में बैठने लगे। मैंने गली में देखा तो अंकलजी का लड़का उनके घर के बाहर ही दिख गया। वो मुझसे लगभग पाँच वर्ष छोटा है, मैंने आवाज लगाकर बुलाया और उसे शॉर्ट में बात बताई। ये भी कहा कि अभी सब शांत हो गया था लेकिन तेरे पिताजी वहीं हैं और अकेले ही हैं तो वहाँ जाना चाहिए। सुनकर वो चकित रह गया, "झगड़ा कर रहे थे?" कहकर उत्तेजना में आकर एक दो बार ऐसे इधर उधर पलटा जैसे लड़ाई के मैदान में घोड़ा अचानक से कोई निर्णय न कर पा रहा हो। और फिर अपने घर में घुस गया। हमें अपने घर को लॉक करते, गाड़ी आगे-पीछे करते पाँच-दस मिनट तो लग ही गए होंगे, मेरा ध्यान उधर ज्यादा था कि वो लड़का घर से शायद कोई लाठी-किरपाण लेकर अपने प्लॉट की ओर भागता दिखेगा लेकिन 😢।</div>
<div style="text-align: justify;">
हम उस प्लॉट के सामने से ही निकले तो दरवाजा साफ-सुथरा था। कुछ आगे आने पर अंकलजी भी दिख गए जो दुकान से फल वगैरह खरीद रहे थे। </div>
<div style="text-align: justify;">
मुझे पता नहीं क्या सोचकर(कह सकते हैं कि क्या-क्या सोचकर) हँसी आ गई। </div>
<div style="text-align: justify;">
अब आप अपने ड्राईंगरूम में बैठकर दो ये निर्णय कि यह सामान्य सी घटना लिखने-पढ़ने योग्य थी?</div>
<div style="text-align: justify;">
जो घटा, उसमें कौन सा पक्ष सही था?</div>
<div style="text-align: justify;">
मामला बढ़ जाता तो भी आप ऐसे ही ठंडे दिमाग से सोच रहे होते या वो सोच रहे होते जो चैनल वाले चाहते हैं?</div>
<div style="text-align: justify;">
प्रश्न बहुत हैं, पहले इन्हीं दो चार प्रश्नों पर दो निर्णय।</div>
</div>
संजय @ मो सम कौन...http://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8140631366854578091.post-44180327104830167672018-08-22T22:23:00.000+05:302018-08-22T22:23:03.231+05:30दो निर्णय<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
उस दिन हमें सपरिवार कहीं जाना था। सब तैयार हो रहे थे, इस काम में मैं हमेशा फर्स्ट आता हूँ। जो शर्ट सामने पड़ गई वो पहन ली, जो पैंट दिख गई वो चढ़ा ली। न मैचिंग का झंझट और न कंट्रास्ट का। ये वैसे भी अच्छा ही है कि पुरुषों के लिए लिपस्टिक, नेलपॉलिश, बिंदी, चूड़ी आदि-आदि का लफड़ा नहीं है। तो हुआ यह कि मैंने एक काम जानबूझकर पेंडिंग रखा हुआ था, मिठाई खरीदने का। विचार था कि जब अन्य सदस्य तैयार हो रहे होंगे तो मैं उतनी देर में मिठाई खरीद लाऊँगा। मैं गया और मिठाई लाकर लौट रहा था किंतु उससे पहले कुछ और बताना आवश्यक है।</div>
<div style="text-align: justify;">
हमारे घर से कुछ ही घर छोड़कर एक परिवार है जिसकी बात यहाँ आएगी। आज से सत्तर वर्ष पहले हमारे यहाँ के सभी निवासी लगभग एक ही आर्थिक और सामाजिक स्थिति के थे, ४७ में उधर से आए हुए। जिसे जो काम समझ आया होगा, उसमें जुट गया। मेरा जन्म सत्तर का है, तब तक लोग आर्थिक रूप से ठीकठाक स्थिति में आ गए थे। मैं तब दसवीं में था तो पता चला कि उस परिवार में से एक भाई ने कुछ दूरी पर एक प्लॉट जिसमें दो कमरे भी बने हैं और खरीद लिया है, तब तक जमीन सोना नहीं बनी थी। किंतु एक बात थी, उस प्लॉट/मकान को उन्होंने खाली ही रख छोड़ा और रहना उसी पुराने पारिवारिक मकान के एक कमरे वाले उनके भाग में जारी रखा जिसमें पहले से रहते आ रहे थे ताकि हिस्सेदारी बनी रहे। ऐसे केस देखने के बाद मुझे पाकिस्तान पर कई बार हँसी जरूर आती है जो हमें कश्मीर छोड़ने को कहता है ☺</div>
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जो भी हो, कालांतर में ऐसा हुआ कि इनकी मेहनत से परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी होती गई और उस साझे घर से उनके दूसरे भाई अपना हिस्सा लेकर कहीं और चले गए, पुराना घर भी इनके अकेले के स्वामित्व में आ गया। कुछ समय और बीता तो इसी घर के साथ लगता एक और घर इन्होंने खरीद लिया, दोनों को मिलाकर अच्छे से प्लानिंग करके पुनर्निर्माण करवाया और पूरा परिवार एक साथ इसी घर में रह रहा है। वो जो कुछ दूरी पर प्लॉट/मकान चुपके से खरीदा था, अब भी वैसे ही चुपचाप पड़ा है। कभी-कभी बूढ़े अंकल जी जाते हैं, ताला खोलकर थोड़ी बहुत सफाई जैसी हो पाती है कर आते हैं और पड़ौस वालों को सुनाकर दो चार गालियाँ बोल आते हैं। इस बहाने सब लोगों को पता रहता है कि मकान लावारिस नहीं है।</div>
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तो उस दिन मैं मिठाई लेकर लौट रहा था, भाई का फोन आ चुका था कि सब तैयार हैं और वो गाड़ी बाहर निकाल रहा है। रास्ते में वही प्लॉट/मकान पड़ता है जिसकी बात आपको बता चुका हूँ। वहाँ कुछ लोग इकट्ठे थे और ये जो गलियों में कूड़ा उठाने ठेली रिक्शा वाले आते हैं, उनमें से एक जोड़े से अंकल जी बहुत गुस्से में भिड़े हुए थे, दे गाली-गलौज जारी था। लोग खड़े तमाशा देख रहे थे। मैंने मोटरसाइकिल स्टैंड पर लगाई और मौके पर पहुँच गया.....</div>
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चालण दूँ न्यूए अक ..?</div>
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संजय @ मो सम कौन...http://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-8140631366854578091.post-69810504390497905962018-07-05T16:08:00.000+05:302018-07-05T16:08:11.860+05:30कुछ न समझे ...............<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="_1dwg _1w_m _q7o" style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 12px; padding: 12px 12px 0px;">
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<div class="_5pbx userContent _3ds9 _3576" data-ft="{"tn":"K"}" style="border-bottom: 1px solid rgb(229, 229, 229); font-family: inherit; font-size: 14px; line-height: 1.38; margin-top: 6px; padding-bottom: 12px;">
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<span style="font-family: inherit;">- गूगल मैप्स पर देखा, मेट्रो स्टेशन से दूरी लगभग नौ किलोमीटर दिखा रहा था। उस दिन मेरा face भी शायद index of mind हुआ रखा था, बाहर निकलते ही ऑटो वालों ने घेर लिया। उनमें से एक ने तिलक लगा रखा था, मैंने उसे जगह बताई तो वो पूछने लगा कि लौटना भी है क्या?</span></div>
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<span style="font-family: inherit;">मैंने कहा, "हाँ, मुझे वहाँ मुश्किल से दस मिनट लगेंगे।"</span></div>
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<span style="font-family: inherit;">उसने कहा, "दो सौ रुपए दे देना, सर। वहाँ से आपको वापिस आने के लिए ऑटो आसानी से मिलेगा भी नहीं।" मैं भी कहने को हुआ कि तुम्हे भी वहाँ से सवारी आसानी से नहीं मिलेगी लेकिन चुप रह गया।</span></div>
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<span style="font-family: inherit;">चले तो सावधानी के लिए मैंने GPS लगा रखा था। पहले सिग्नल पर लालबत्ती थी तो मैंने कहा कि यार GPS तो राइट टर्न बता रहा है। उसने तुरंत फोन निकालकर किसी से कन्फर्म किया और बत्ती हरी होने पर राइट टर्न लिया। बोला, "सर, मैं गलत एड्रेस समझ गया था। ये तो मेरे सोचे से कम से कम डबल दूरी पर है।"</span><span style="font-family: inherit;"> </span></div>
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<span style="font-family: inherit;">मैंने कहा, "मतलब वहीं जाना होता तो तुम मुझसे डबल से भी ज्यादा किराया चार्ज कर रहे होते? खैर, अपना नुकसान मत करो यार। मीटर स्टार्ट कर लो, जितना बनेगा उससे बीस रुपये ज्यादा दे दूँगा।"</span></div>
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<span style="font-family: inherit;">अनमना सा वो बोला, "नहीं सर, अब मीटर क्या चालू करना।"</span></div>
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<span style="font-family: inherit;">वापिस आकर जब दो सौ रुपए दे दिए तो रिक्वेस्ट सा करते हुए बोला, "सर, बीस रुपये और दे देते तो ..।"</span></div>
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<span style="font-family: inherit;">मैंने दे दिए, बेमन से। साथ ही इतना जरूर कहा कि तुम अपनी वेशभूषा के साथ न्याय नहीं कर रहे हो।</span></div>
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<span style="font-family: inherit;">- पिछले कई वर्षों से किसी कारण से रास्ते में नाईयों की पंद्रह-बीस दुकानें छोड़कर एक विशेष दुकान पर जाता हूँ। मालिक मर चुका, बच्चे नाई का काम कर रहे हैं लेकिन बेमन से। मैं अब भी वहीं जाता हूँ लेकिन अब मन से नहीं जाता। मरे मन वाले कब तक जिएंगे?</span></div>
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<span style="font-family: inherit;">- रात को घर लौटते समय रोज देखता हूँ कि तथाकथित सम्भ्रान्त दिखने वाले/वालियाँ उन लोफरों की ठेलियों से सब्जी खरीद रहे हैं जो महिलाओं को देखकर जानबूझकर आपस में भद्दी भाषा बोलने लगते हैं, अश्लील इशारे कर रहे होते हैं लेकिन महिला ग्राहकों के साथ 'आप' तो ले ही लीजिए', 'जो मर्जी दे दीजिए' जैसे वाक्य बोलते हैं। ग्राहक खुश होती हैं कि कि लड़के बदतमीज हैं लेकिन हमारी तो इज्जत करते हैं, सब्जी भी सस्ती देते हैं और वैसे भी गाली गलौज हमसे थोड़े ही करते हैं...</span></div>
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<span style="font-family: inherit;">- कुछ दिन से मैं देख रहा हूँ कि डेयरी प्रोडक्ट्स की एक नई रिटेल चैनशॉप्स दिखने लगी हैं। जबरदस्त डिस्काउंट और ऑफर्स, और सरनेम राजपूतों का है। जरूर चल निकलेगी। थोड़ी सी छूट देकर तो हमें कोई भी अपना गुलाम बना ले। दूध, घी, पनीर में कुछ रुपए बच जाएं तो कुछ बुरा है? समझेंगे कि मूवी देखने जाएंगे तो एक पॉपकॉर्न इस बचत का। ए बचत, तुझे सलाम। पासपोर्ट प्रकरण के बाद तो समझ आना चाहिए कि संविधान अपनी पसंद का नाम/कुलनाम लगाने की छूट देता है भाई, तू कायकू इतना सोचेला है?</span><span style="font-family: inherit;"> </span></div>
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<span style="font-family: inherit;">हाहाहा इतना तो तुम भी मानोगे कि राजपूती नाम तुमसे बहुत ऊँचा है।</span></div>
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<span style="font-family: inherit;">- प्रभाष जोशी ने एक बार भारत पाकिस्तान के हॉकी मैच के बारे में, जिसमें भारत पूरे मैच में आगे चल रहा था लेकिन अंतिम क्षणों में धड़ाधड़ गोल खाकर हार गया था, लिखते समय परिणाम को दोनों टीम की किलर इंस्टिंक्ट से जोड़ा था। और, उस किलर इंस्टिंक्ट को अलग-अलग कौम की 'आत्मा के आवागमन' और 'बस, यही एक जिंदगी' मान्यताओं से जोड़ा था। उनके लिखे को सही या गलत बताने वाला न्यायकार मैं नहीं लेकिन तब वो लेख मेरी अपनी सोच को व्यवस्थित ढंग से लिखा हुआ लगा था। जिन्हें समझ आता है कि यह चक्र अनन्त है वो समय के साथ प्रवाहमान हो लेते हैं और जिनके लिए यह 'करो या मरो' है वो नियम/नैतिकता सब ताक पर रखकर हासिल करने में जुट जाते हैं।</span></div>
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<span style="font-family: inherit;">- - मैं दूर तक देखने की कोशिश करता हूँ तो पास का सब ओझल होता दिखता है। I hope कि जो पास का देखते हैं, उन्हें दूर का भी सब साफ दिखता होगा.....</span></div>
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संजय @ मो सम कौन...http://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.com2