|
रविवार, मई 30, 2010
रोशनी और मनमोहनी जी.डी.पी.
शुक्रवार, मई 28, 2010
झेलो अब फ़िर से, नहीं मानते तो...........
पिछले शनिवार से ही अपने कम्प्यूटर पर ब्लॉगस्पॉट वाले ब्लॉग नहीं खुल रहे थे। हम तो तभी समझ गये थे कि हमारी बढ़ती लोकप्रियता से घबरा कर हमारे दुश्मनों ने कोई वू डू कर दिया है। नहीं तो ऐसा थोड़े ही होता है कि याहू मेल, ईमेल, जीमेल और यहां तक कि फ़ी मेल भी काम कर रही थी(फ़ी मेल को कृपया रेडिफ़ मेल पढ़ लें, हमारी है बिना बैक गेयर वाली गाड़ी, नहीं तो बैक जाकर गलती खुद ही सुधार लेते) और जिस गाड़ी पर हम सवार थे वही पंचर हुई पड़ी है। शुरू के दो दिन तो बहुत परेशानी हुई, फ़िर तीसरा दिन आते आते परेशानी की आदत पड गई। हमने भी हिन्दुस्तानी जुगाड़ का इस्तेमाल करते हुये एक पोस्ट के माध्यम से अपना दुखड़ा रो दिया, लोगों की तो जैसी आदत है हमारा दुखड़ा सुनकर हंस पड़े। लेकिन हमारी शिद्दत के आगे कायनात को आखिर झुकना ही पड़ा और कल से समस्या दूर हो गई है। अब हम धन्यवाद तो किसी का करने से रहे, इन्सान हैं आखिर, रवि रतलामी साहब और अनुराग शर्मा जी जैसे भले आदमियों की नेकी को दरिया में डाल कर यही कहेंगे कि “झेलो अब फ़िर से, नहीं मानते तो।”
तो साहब लोगों, आज आपको लिये चलते हैं आज से लगभग बीस साल पहले की एक गर्मियों की रात में। आजकल जैसी ही गर्मी पड रही थी, समय लगभग रात के नौ दस का होगा। मैं ऐसे ही बाहर टहल रहा था कि एक परिचित की दुकान पर कुछ हलचल सी देखकर वहां पहुंच गया। देखा कि हमारे पड़ौस की गली में रहने वाला एक व्यक्ति दुकानदार से कोल्ड ड्रिंक की बोतल मांग रहा था और वो देने में टालमटोल कर रहा था। अब उस व्यक्ति का व्यक्तित्व कुछ अलग सा था, तो हमें तो शुरू से ही थोड़ा खिंचाव सा होता था उअसे। बाल बड़े बड़े, कमीज के साथ हमेशा पायजामा पहने हुये तेज गति से इधर उधर आते हुये कई बार देखा था। लोग तो उसे हिला हुआ मानते थे, लेकिन मैंने कभी भी उसे किसी से बात करते हुये नहीं देखा था। ऐसी वेशभूषा के बावजूद हमेशा साफ़ सुथरा दिखाई देता, लेकिन आंखों में कुछ जरूर था उसकी। या तो किसी से आंख मिलाता नहीं था कभी, और नजर मिल जाये तो ऐसी गहरी नजर थी कि सामने वाला नजर बचाता। अब मैं समझ गया कि दुकानदार भी उसे सामान्य पागल ही समझता है और किसी नुकसान के अन्देशे से उसे बोतल देने से बच रहा है। खैर, मैंने जाकर उससे एक कोल्ड ड्रिंक मांगा। मुझे तो उसने देना ही था, मेरे बाल ठीक ठाक थे और मैंने कमीज के साथ पायजामा नहीं पहना था, मेरा मतलब है कि मैंने तो कुरते के साथ पायजामा पहन रखा था। आप भी न पता नहीं क्या क्या सोचने लगते हो….। अब मेरे हाथ में बोतल आई और मैने आगे पेश कर दी, सोचा देखते हैं कि क्या होता है। उसने आराम से बोतल पी, जेब से पैसे निकाले और दुकानदार को दिये। जाने से पहले मुझसे कहने लगा कि गरमी बहुत है और आसपास के इलाके में सिर्फ़ इसी के पास असली कोल्ड ड्रिंक मिलता है, इसीलिये मैं जिद कर रहा था। लो जी, माल मालिकों का और मशहूरी कंपनी की, हमारा कुछ गया नहीं, उधर गिव एंड टेक वाली डील बढ़िया से हो गई। आगे जाकर नतीजा ये निकला कि जब भी हमारा आमना सामना हो जाता, वो हाथ जोड़कर नमस्ते करने लगा और कुछ उसकी उम्र को देखते हुये और कुछ अपने दिल की सुनते हुये मैं भी हाथ जोड़कर पहले ही नमस्ते कर देता। लोगों का क्या है, पहले ही हमें देखकर हंसते थे, अब और भी ज्यादा हंसने लगे। मुझे समझाया करते कि यार ये पागल है और तू उसे नमस्ते करता है। अब मैं हंस देता और जवाब देता कि बड़ा है मुझसे, इसीलिये नमस्ते कर देता हूं।
कई महीने और कई साल तक ये नमस्ते सदा वत्सले चलती रही जी हमारी, और बहुत बढ़िया तरीके से। अब हुआ कुछ ऐसा कि, हमारे घर वालों ने हमारा बयाना ले लिया, समझ गये न? और नीलामी की तारीख से पहले ही ये फ़ैसला लिया गया कि मकान में कुछ नव निर्माण किया जाना है तो दो तीन महीने के लिये आसपास कहीं किराये पर रहा जायेगा। अब साहब, पडौस की गली में एक फ़्लैट पसंद करने के लिये हम गये और अभी बाहर खड़े मकान मालिक से बात कर रहे थे कि हमारे कोल्ड ड्रिंक वाले मित्र ने पीछे से आकर नमस्ते मारी। हमें कोई मारे और हम चुप रह जायें, ऐसे कुम्हड़बतिया नहीं थे तब, हमने भी मार दी। उन्होंने पूछा कि आज यहां कैसे, मैंने बताया कि अब आपकी गली में ही रहने का विचार है। वो चले गये हजरत अपनी स्वाभाविक तेज चाल में अपने घर की तरफ़ और हम मश्गूल हो गये बातचीत में।
उसके कुछ मिनट के बाद एकदम ऐसा लगा कि जैसे बम फ़टा हो, और हमारी आंख खुली तीन दिन के बाद अस्पताल में। चश्मदीद गवाहों ने बयान दिये कि हजरत ने घर से लट्ठ लाकर मेरे सिर में मारा था और सिर्फ़ इतना कह रहे थे कि “एक गली में एक ही रहेगा।” लोगों ने पहली बार उसे इतने गुस्से में देखा था और बाद में भागते हुये भी देखा था। हमें डाक्टर साहब कहते थे कि हमारी वायरिंग वगैरह सब एकदम चौकस कर दी है, पर खोपड़ी पर वो निशान रह गया बाकी, जिससे प्रेरणा लेकर पहले हालीवुड वालों ने शायद ’मोमेंटो’ नाम की फ़िल्म बनाई और फ़िर हमारे मि. परफ़ेक्शनिस्ट ने भी चांदी कूटी बालीवुड में। अब लोग बाग को तो आप जानते ही हैं, जो मिले वही हमसे सर झुकाने को कह्ता, निशान देखने के लिये, कहानी सुनने के लिये और फ़िर हम पर हंस देने के लिये!!
जिस किसी को शक हो रहा हो हमारी बात पर, अपना पता नोट करवा दे। पांच सात साल के बाद हमने सब छोड़ छाड़कर घुमक्कड़ी करनी है, और हमारे यार बाद्शाह भी ये जानते हैं। ये नीरज छोरा खुद तो आबाद हो जायेगा तब तक, हमें इतनी बढ़िया बढ़िया पोस्ट दिखाकर घर से बेघर करने पर तुला हुआ है। तो हमारी घुमक्कड़ी की शुरूआत शक्की लोगों के घर जाकर अपना सर झुकाकर उनका शक दूर करने से होगी। बस एक लोचा और है, एक डाक्टर साहब से बात चल रही है। वो कह रहे हैं कि इलास्टिक सर्जरी से गर्दन इतनी ऊंची कर देंगे कि किसी के सामने झुकाने की सोच भी नहीं पायेंगे। अब ये इलास्टिक सर्जरी शब्द से कन्फ़्यूज़ मत हो जाना जी, ये हमारा ईजाद किया हुआ शब्द है और इसका रजिस्ट्रेशन करवाने के लिये वर्ल्ड ईंटेलैक्चुअल प्रापर्टी राईट्स के पास आवेदन भेजने ही वाले हैं। वैसे तो ये सर्जरी वाला आईडिया बुरा नहीं है, थोड़ा महंगा जरूर है। पूछ देखते हैं डाक्टर साहब से कि इलास्टिक अपना लायें तो कितना डिस्काऊंट मिलेगा?
अब आप को सिर्फ़ इतना बताना है कि ऊपर के पांच पैराग्राफ़ में से सबसे सच्चा कौन सा है और सबसे झूठा कौन सा है। नहीं बताओगे तो कुछ नहीं होगा और बताओगे तो वेताल फ़िर से पेड़ पर लटक जायेगा
:) फ़त्तू की शादी को कई साल हो चुके थे, लेकिन अभी संतान सुख नहीं प्राप्त हुआ था। पास में ही एक नया नया आश्रम स्थापित हुआ था, जहां के बाबाजी एक रिटायर्ड बायोलोजी अध्यापक थे। फ़त्तू अपनी पत्नी के साथ उनकी शरण में गया और गुहार लगाई। बाबाजी ने उससे बातचीत करके उसकी समझ और समस्या का अंदाजा लगाया। एक भभूति की पुडि़या उसे दी, और अपनी फ़ीस लेकर आशीर्वाद भी दे दिया। फ़त्तू खुशी खुशी कूदता हुआ जब अपनी पत्नी के साथ लौट रहा था तो बाबाजी ने आचाज लगाई, “ओ बावली बूच, अपने कर्तव्य में ढील मत करियो, कहीं निरी पुड़िया के ही भरोसे रह जाये।”
सबक: यही बात हमारे ब्लाग गुरू ने कही थी हमें, कि तुम्हारा कर्तव्य है अपनी भड़ास निकालना। टिप्पणी वो भभूति है जो फ़ल प्राप्ति में सहायक जरूर है, लेकिन कर्तव्य का स्थान नहीं ले सकती। हमने तो अपना कर्तव्य निभाना ही है जी, सो निभा रहे हैं।
|
रविवार, मई 23, 2010
नहीं झिले न हम छ महीने भी?
हा हा हा।
सोमवार, मई 17, 2010
भेड़ का जबरन बाल उतरवाना............!
“हमेशा की तरह एक ठो सवाल दिमाग में आ गया सो कहते हैं (पूछने की हिमाकत ब्लॉग जगत में, वह भी अल्ल सुबह!, कौन करे?) प्यार में सताए/हुटकाए पुरुष ही क्यों गली गली पगलाए फिरते पाए जाते हैं, नारियाँ क्यों नहीं? नारीवादी बातों की प्रतीक्षा रहेगी। अपना दिमाग तो कह रहा है," क्यों कि नारी कुछ अधिक ही सहन कर लेती है। शिव का विषपायी चरित्र अर्धनारीश्वर के नारी वाले हिस्से से आया होगा।"
मेरी पिछली पोस्ट पर गिरिजेश राव जी के कमेंट का यह संपादित भाग है, और हमेशा की तरह अपना फ़्यूज़ उड़ गया। खुशी और तारीफ़ बरदाश्त नहीं होती है अब अपने से। उस पर तुर्रा ये कि अनुराग शर्मा जी भी कोंच गये दोबारा से। अब चांद सूरज को भी हम जैसे रोशनी दिखायेंगे? अब साहब, हम तो यहां खुद सवालों के जवाब तलाशते हुये अपनी तशरीफ़ का टोकरा लेकर आये थे, ऐसे जटिल सवाल पूछकर क्यूं पब्लिक में मेरा हैप्पी बड्डे करवाने पर तुले हुये हो? हमें इतनी समझ होती तो हमीं क्यों ऐसे पगलाये-पगलाये बस्ती-बस्ती, नगरी-नगरी घूम रहे होते? हमने कौन सा गधी को हाथ लगाया था? हां, एक परी को जरूर कभी पाया था अपने नजदीक, ये पाना या खोना ही तो हमें ले बैठा था। वैसे ज्ञानी लोग तो ये भी कहते हैं कि जवानी में गधी भी परी लगती है। अब हम इस बात में भी शुरू से ही कन्फ़्यूज थे कि जब गधी पर जवानी होती है तब वो परी लगती है या जब देखने वाले पर जवानी होती है तब हर गधी परी लगती है।ये खुलासा करने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना बताना है जी कि हमारे लक्षण शुरू से ही ठीक नहीं थे। हर बात पर सवाल उठा देना हमारी बहुत पुरानी आदत है। ठीक है जी, समरथ को नहीं दोष गुंसाईं। बाकी इतना जान लीजिये बड़े भाईयों, हमें उलझाकर आप को इतनी आसानी से नहीं जाने देंगे। अपनी अल्प बुद्धि के अनुसार जो सूझेगा, खिदमत में पेश करेंगे। लेकिन उससे पहले, हमें झेलो थोड़ा सा। मार्केटिंग का जमाना है, अब फ़ंसे हो तो पैकेज लेना ही पड़ेगा आपको। थोड़ी सी आपकी मनपसंद बात करेंगे और उससे पहले अपनी बहुत सी मनपसंद बकवास उंडेलेंगे।
एक बार की बात है कि हमारे एक अधिकारी के विरुद्ध स्टाफ़ के ही किसी ने ऊपर शिकायत कर दी कि वे लोगों को चैक-बुक देने की एवज में भी कुछ न कुछ हाथ गीले कर लेते हैं। अनौपचारिक बातचीत में मैंने उनसे सच्चाई पूछी तो उन्होंने और बातों के साथ एक बात और कही, “यार, ये लोग नहीं भेड़े हैं और इन्हें अपने बाल मुंडवाने ही हैं। मैं नहीं उतारता तो कहीं और से उतरवाते।” डॉयलाग मुझे पसंद आया। सोच लिया कि कहीं न कहीं इस्तेमाल करना है जरूर, आज मौका हाथ आ गया है। गिरिजेश सर और अनुराग सर, हम सब में ही शायद भेड़्त्व है, जिसमें मात्रा कुछ ज्यादा है वही पगलाया घूमता दिखता है और यह भी तय है कि प्यार के कारण नहीं तो किसी और कारण से होता पर अंजाम यही होना था। गिरिजेश जी की बात से मैं भी सहमत हूं और हो सकता है कि इन मामलों में सहानुभूति भी औरत के हिस्से में ज्यादा आती है जो शायद उद्वेग के सुरक्षित डिस्चार्ज में अहम रोल निभाती है। समय नारी मुक्ति का है, जमाने का फ़ोकस भी नारी के साथ होने वाले अन्याय पर ज्यादा है, लेकिन झेलता आदमी भी कम नहीं है। एक उदाहरण और देना चाहता हूं। यदि किसी दम्पत्ति के घर संतान नहीं होती है तो इस बात पर औरत को क्या क्या सुनना और सहना पड़ता है, हम सब जानते हैं। पति पर क्या बीत रही है, इस विषय पर फ़ोकस करते हुये मैंने आज तक कोई विशेष फ़िल्म, सीरियल, कहानी, उपन्यास, बहस नहीं देखी है। वास्तविक जीवन में मेरे ऑफ़िस में एक स्टाफ़ सदस्य ऐसे थे जिनकी शादी को कई साल बीतने के बाद भी कोई संतान नहीं थी। संयोग से हमारी ब्रांच में महिला सदस्य नहीं थीं, तो बोलचाल में कोई राशनिंग नहीं रहती थी। फ़ुर्सत के समय में सभी का मनपसंद विषय इसी मुद्दे पर चटखारे लेना होता था और किस हद तक वार किये जाते थे, ये अगर लिख दूं तो शायद ’मो सम कौन कुटिल, खल, कामी’ से कहीं बड़ी और सुपरलेटिव डिग्री से नवाज दिया जाऊंगा। मैं वहां सब से जूनियर था और मुंह बाये देखता रहता था कि लोग ऐसा कैसे बोल जाते हैं और जो पहले से ही परेशान है वो कैसे झेल जाते हैं? झेलना तो शायद स्त्रियों को इससे ज्यादा ही पड़ता होगा लेकिन उनके पास रोने की सुविधा तो है, आदमी के पास तो यह सेफ़्टी वाल्व भी नहीं है। वहां एक दिन फ़िर ऐसे ही बात छिड़ने पर जब हमारे एक साथी ने जब ’बिलो द बेल्ट’ प्रहार किया तो मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उससे ही पूछा, “………………., एक बात बताओ, तुम जो ये अपने बारे में बताते हो कि मेरे दो बच्चे हैं, क्या गारंटी है कि ये तुम्हारे ही हैं?” एकबारगी तो सन्नाटा छा गया, क्योंकि मैं बोलता बहुत कम था, बस उस दिन रहा नहीं गया था। तमतमाये चेहरे से उस मित्र ने पूछा, “क्या कहना चाहते हो?” मैं भी ऐसा ही बावला था, या तो बोलता नहीं था और शुरू हो गया तो अंजाम की कोई परवाह नहीं। मैंने कहा, “मैं ये जानना चाहता हूं कि जिन बच्चों को तुम अपना बताते हो, क्या गारंटी है कि ये तुम्हारे ही हैं? और साथ ही ये भी जानना चाहता हूं कि जिस आदमी का नाम तुम अपने पिता के नाम पर बताते हो, इस बात की क्या गारंटी है तुम्हारे पास कि वही तुम्हारा बाप है? जिस संतानोत्पादक क्षमता क दम पर तुम खुद को दूसरे से श्रेष्ठ मान रहे हो, इसके लिये तुम्हें खुद पर इतराने का और दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करते रहते हो, इसमें तुम्हारा अकेले का योगदान शायद नाममात्र का ही है,।” बात आगे नहीं बढ़ी, और आगे भी इस मुद्दे पर खुलकर किसी ने कोई बात करनी बंद कर दी।
ये नाकाम प्यार जैसे मामलों में प्रभावित स्त्री या तो निरुपमा जैसी परिणति को प्राप्त होती है, या घरवालों के द्वारा आनन फ़ानन में कहीं और ठेल दी जाती है और वहां घर-गृहस्थी के कामकाज और संतान सृजन, लालन पालन जैसी प्रक्रिया से गुजरते हुये अपने संताप को सकारात्मकता की ओर ले जा पाती है। शायद शारीरिक व मानसिक विशिष्टतायें ही नारी को यह मौका देती हैं और यही वजह है कि गली गली पगलाये-पगलाये घूमने वालों में पुरुषों की संख्या कहीं ज्यादा दिखाई देती है। लेकिन, इस बात का कोई अफ़सोस मुझे नहीं है और न ही इस मामले में स्त्रियों को आरक्षण देने की मैं कोई मांग करने जा रहा हूं। अगर किसी के बाल उतारने ही हैं, तो जी हम भेड़ें ही ठीक हैं(सारे मर्द लोग हां भरो फ़टाफ़ट) इस काम के लिये। हम नर भेड़ों को कोई दर्द नहीं होता है। होगा भी तो कहीं किसी मयखाने मे, किसी कोठे पर या ऐसी ही किसी जगह पर जाकर फ़ाहा लगा लेंगे, आपका क्या होगा जनाबे-आली? और अगर फ़िर भी दर्द असहनीय हो जायेगा तो गली गली में पगलाये फ़िरने वालों की संख्या थोड़ी सी बढ़ जायेगी, बस।
लेकिन इस विषय पर मेरे व्यक्तिगत सलाहकार श्री फ़त्तू जी के विचार थोड़े से भिन्न हैं। मैं चाहता तो उनके विचार ऐसे ही मॉडरेट कर सकता था, जैसे विद्वान लोग असहमति वाली टिप्पणियों को कर जाते हैं, लेकिन ये अच्छी बात है कि हम अभी इतने बड़े नहीं हुये कि…..। जाने भी दो यारों, सब मेरे से ही कहलवा लोगे तो फ़िर आपकी ब्रेन मसल्स की भी आदतें खराब हो जायेंगी। तो फ़त्तू जी का कहना है कि देह को अगर न देखें तो उन्हें तो सभी पागलों में स्त्रियां ही दिखाई देती हैं। जिसके पास स्त्री के नाजुक शरीर(जनरल बात है, कहीं मल्लेश्वरी, कुंजुरानी, सानिया, लैला सरीखी शक्तिरूपा बुरा मान जायें) जैसा नरम दिल है, वही इस दुनिया में बहुत ज्यादा प्यार, दुत्कार, स्नेह, वफ़ा, जफ़ा जैसी चीजें नहीं झेल पाते हैं और बाल, नाखून बढ़ाये पगलाये से घूमते रहते हैं। चलूं यार, मैं भी बाल कटवा आता हूं, बहुत बढ़ से गये हैं।
वैसे फ़त्तू ने इस विषय पर स्टिंग आपरेशन करके फ़ाईनल रिपोर्ट देने का वायदा किया था और वायदे के अनुसार स्पत्नीक दिल्ली के दौरे पर गया था।पता नहीं क्या हुआ कि दूसरी शाम को पत्नी को वापिस घर छोड़ने आया और फ़िर सुबह सुबह दुबारा फ़ील्ड में चला गया था। अब वो अपनी रिपोर्ट हमें कोरियर से भेज रहा है, दो तीन रिपोर्ट्स आये हैं, लेकिन कुछ गड्डमगड्ड सा हो गया है, देख लेना समझ आये तो। कुछ स्टेज 1, स्टेज 2, और स्टेज 3 टाईप का चक्कर है, आज का वीडियो(यूट्यूब से साभार) शायद स्टेज 2 का है, जहां आदमी पागल होने से बच जाता है, ये अलग बात है कि जिंदा नहीं बच पाता है। ये गाना मेरा बहुत फ़ेवरेट है, ड्रीम गर्ल शायद इससे ज्यादा असरकारक कहीं नहीं रही, कम से कम मेरी नजर में।
दिल्ली से फ़त्तू और उसकी पत्नी के अतिशीघ्र वापसी का जो कारण हमें पता चला है, वो इस प्रकार है।
फ़त्तू और उसकी पत्नी जब दिल्ली पहुंचे तो रात बिताने के लिये पहाड़गंज के एक होटल में चले गये। रिसेप्शन पर लिखा था, ’कमरे का किराया दो सौ रुपये, खाना प्रति व्यक्ति सौ रुपये।’ अब फ़त्तू ने घर से चलने से पहले दस बारह परांठे बना लिये थे(पत्नियां अब नहीं बनातीं, उन्हें बने बनाये मिल जाते हैं)। उसे डील ठीक लगी और रात वहीं टिक गये। सुबह जब चलने का समय आया तो काऊंटर पर बैठे मैनेजर ने चार सौ रुपये का बिल थमा दिया, दो सौ कमरे का किराया और दो सौ रुपये खाने के। फ़त्तू ने ऑबजेक्शन उठाया कि खाने के पैसे काहे के, खाना तो तुम्हारा हमने खाया ही नहीं।
मैनेजर- “सर आपने खाया हो या नहीं हमारा तो तैयार था।”
अब फ़त्तू ठहरा पढ़ा लिखा भी और ताजा ताजा ब्लॉगरिया भी, समझ गया कि होटल वालों का नुक्ता ठीक है। वैसे भी उसका सामान्य ज्ञान ब्लॉग-जगत ने काफ़ी बढ़ा दिया है। उसने वहीं काऊंटर से एक कागज उठाया, कुछ लिखा और मैनेजर को थमा दिया। “ले भाई, एक छोटा सा बिल म्हारा भी है तेरी तरफ़, एक हजार मात्र का। मेरी पत्नी के साथ वन नाईट स्टैंड लेने का बिल – एक हजार ओनली।”
मैनेजर- “पर सर, हमने तो कुछ किया ही नहीं।”
फ़त्तू - “भाई, तन्नै कुछ करया हो के ना, हमारी वाली तो बिल्कुल तैयार थी, धोरे खड़ी है पूछ ले।”
सोमवार, मई 03, 2010
यादों से वो गुज़रे ज़माने नहीं जाते
बात शायद 1994-95 की है। नौकरी के सिलसिले में मैं घर से दूर उ.प्र. के एक शहर में रहता था। तीन-चार दोस्त किराये के मकान में इकट्ठे रहते थे। अनजान जगह पर, वो भी उस दौर में, जब कम्पयूटर अभी इतना आम नहीं हुआ था, हम जैसों के लिये यार-दोस्तों का ही सहारा था और ऐसी ही कुछ सोच यार लोग भी रखते थे। उ.प्र. का एक साधारण सा शहर, घर परिवार और रिश्तेदारों से दूर समय काटने के लिये ताश, सिनेमा जैसी चीजें तो थीं, लेकिन सिनेमाघर कुल चार थे। ले देकर साल में दो महीने के लिये एक नुमाईश आया करती थी जो शहर में दो महीने लगती थी लेकिन चार महीने पहले से और चार महीने बाद तक हमारे जैसे छड़ों के दिमाग में लगी रहती थी। न कोई पार्क, न कोई घूमने की जगह, ले देकर एक स्टेशन ही था जहां रात ग्यारह बजे तक हम घूमते रहते थे।
शुरू में जब वहां पहुंचे, तो हमारे सीनियर्स ने हमें ऑफ़िस के पास ही मकान किराये पर लेने की सलाह दी। एक बार तो मन किया कि मान लेते हैं, पर फ़िर अपने संस्कार न भूलते हुये बड़ों की बात न मानने की अपनी परंपरा कायम रखी और रेलवे स्टेशन के दूसरी तरफ़ यानि शहर के एकदम दूसरे कोने में जाकर डेरा जमा लिया। मचाई हाय-तौबा यारों ने भी ऐर सीनियर्स ने भी कि कहां जंगल बियाबान में रहोगे जाकर(कॉलोनी अभी बन ही रही थी), पर कर्मयोद्धा इन छोटी मोटी बातों की कहां परवाह करते हैं। खुदी को बुलंद करके फ़ैसला सुना दिया कि बेशक वो जगह ऑफ़िस से दूर है, स्टेशन के बाद वहां तक पहुंचने में एक सुनसान लंबा गलियारा भी पार करना पड़ेगा, रात में ग्यारह बजे से पहले कमरे पर लौटना भी नहीं है और चाहे अकेले ही रहना पड़े, लेकिन डेरा वहीं जमेगा अपना। अब यार-दोस्त भी ऐसे निकम्मे मिले कि फ़ट से हां में हां मिलाने वाले। तो जी हो गया आबाद हमारा ’छड़ेयां दा वेहड़ा’ और हमने कुछ और किया हो या न किया हो, बुजुर्गों की बनाई कहावत ’जंगल में मंगल’ को सही करके दिखा दिया।
किस्सों की कमी नहीं है, पर ये ससुरी बिल्लो रानी, सॉरी बिजली रानी हमारे हाथ रोक लेती है नहीं तो ’किस्सा चार दरवेश’ की तर्ज पर एकाध किताब हम भी लिख मारते और हो जाते अमर। चलो, आप तो बच जाओगे सारे किस्से झेलने से, एकाध तो खैर शरम लिहाज में गैर भी बरदाश्त कर लेते हैं, फ़िर आप तो हमारे अपने ही हैं।
एक बार कुछ ऐसा हिसाब बना कि हम दो मित्र ही वहां रह गये। अब दो जनों में मंगल भी कितना मनाते(जमाना अभी पुराना ही था, बोल्डनेस आई नहीं थी)। ऑफ़िस से आकर खाना वाना भी बना खा लिया, गाने भी सुन सुना लिये, ताश के भी पत्ते पीट लिये, फ़ूंका-फ़ुंकाई भी कर ली(दधीचि से कम मत जानिये हमे, अपने फ़ेफ़ड़े फ़ूंककर आई.टी.सी. जैसी कंपनियां, डाक्टर, कैमिस्ट, पैथ लैब, पनवाड़ी गरज कि पूँजीपतियों, मध्यम वर्ग और सर्वहारा सबको ऑब्लाईज करते रहे हैं), लेकिन रात अभी दूर थी। चल दिये दोनो स्टेशन की तरफ़। प्रतिदिन वाली सांझचर्या करने के बाद जब लौटने लगे, तो स्टेशन के मेन गेट की तरफ़ से किसी के गाने की आवाज सुनाई दी। मुफ़्त में किसी की तारीफ़ करनी हो तो जी हम अपने आपको रहीम खानखाना से कम नहीं समझते, ’ज्यूं-ज्यूं कर ऊंचा उठें, त्यूं-त्यूं नीचे नैन।’ कितनी भी करवा लो हमसे। हम करेंगे किसी की तारीफ़, तभी तो कोई हमारी करेगा वरना हममें कौन से सुरखाब के पर लगे हैं। ग्यारह नंबर की गाड़ी को रिवर्स गेयर में डाला और उधर चल दिये जहाँ से आवाज आ रही थी। दोस्त हमारा, उम्र में लगभग बराबर, अक्ल में हमसे ज्यादा और पगलैटी में हमसे काफ़ी कम था। उसने घड़ी दिखाई भी कि ग्यारह बज गये हैं, देर हो जायेगी। लेकिन हम तो हम थे जी उस समय(अब नहीं रहे), नहीं सुनी उसकी फ़रियाद। नतीजतन वो भी बेचारा हमारे साथ घिसटता हुआ चल दिया मंज़िले मकसूद की तरफ़।
वहां पहुंच कर देखा तो चार पाँच रिक्शेवाले बैठे हुये थे और एक बीस बाईस साल का लड़का पूरे खुले गले से गाना गा रहा था। हमारे वहां पहुंचने तक उसका गाना आधे के लगभग खत्म हो चुका था। मैं भी वहीं एक ईंट पर बैठकर उसका गाना सुनने लगा। आज पन्द्रह सोलह साल बीतने के बाद भी कानों में वो आवाज गूंजती है।
यादों से वो गुज़रे जमाने नहीं जाते,
आते हैं नये लोग, पुराने नहीं आते।
लकड़ी के घरों को, चिरागों से न करो रोशन,
लग जाती है जब आग, वो बुझाने नहीं आते।
यादों से वो गुज़रे जमाने नहीं जाते,
आते हैं नये लोग, पुराने नहीं आते।
उस लड़के के बिना कमीज के काले-दुबले बदन से एक-एक हड्डी-पसली गिनी जा सकती थी। दर्दभरी आवाज उसकी गूंज रही थी, लेकिन वो खुद जैसे वहां मौजूद ही नहीं था। गाना खत्म करके जब उसने मुंह हमारी तरफ़ किया तो उसकी आँखे पथराई हुई थीं, आँसू सारे चेहरे को भिगोकर गर्दन तक पहुँच रहे थे। मैंने उसका नाम पूछा तो वो ऐसे भावशून्य सा बैठा हुआ था जैसे कि उसे सुनाई ही न देता हो। साथी रिक्शेवालों में से एक ने बताया, “बाबूजी, ये ऐसा ही है। न किसी से कुछ माँगता है, न कुछ बताता है।” मैंने पूछा भी कि खाना-वाना खिला देते हैं इसको तो उन्होंने मना कर दिया कि नहीं खायेगा। मैंने जब उसकी इतनी अच्छी आवाज और उसके रोने के बारे में पूछा तो उसी साथी ने बताया, “जी, वही प्यार-व्यार के चक्कर में दिल पे चोट खा गया है। इसकी आवाज सुनकर एक बार एक कैसेट कंपनी के बाबूजी भी इसको ले जाना चाहते थे, पर गया नहीं। चला जाता तो जिन्दगी बन जाती इसकी, पर पागल ही है, नहीं माना।” उस दिन मैंने दिल से उसकी मदद करनी चाही कि कुछ खा ले, या इसकी जिन्दगी कुछ व्यवस्थित सी हो सके, पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ। उधर मेरा मित्र बार बार और हर दो मिनट में मुझे वहाँ से ले चलने में लगा हुआ था। शायद इन बातों में उसे अपना स्टैंडर्ड गिरता हुआ दिख रहा था। और मैं भी कहां कुछ कर पाया था? उठकर चल ही तो दिया आराम से सोने के लिये। शायद उम्र का तकाज़ा था कि मन में कुछ कर गुजरने की आती जरूर थी पर फ़ैसला नहीं ले पाता था।
आज भी मुझे उस लड़के की आवाज, आंसू, आँखें हांट करती हैं, भूल नहीं पा रहा हूं और न समझ पाया हूं आज तक कि उसकी आवाज और आँखों में से ज्यादा दर्द कहाँ से छलक रहा था। अभी तीन चार दिन पहले अचानक ही उस पुराने मित्र का फ़ोन आया तो मैंने उसे इस घटना की याद दिलाई, वो अच्छी तरह से याद नहीं कर पाया। कहने लगा कि कुछ कुछ याद तो आ रहा है पर पूरी तरह से नहीं और फ़िर मेरी बात बीच में ही काटकर खुशखबरी देने लगा कि छोड़ यार वो बात, अपना वेज रिवीज़न हो गया है, सेलरी पता नहीं कितनी बता रहा था कि बढ़ जायेगी। मैं क्या कहता, कह दिया कि यारा अपनी भूख और भी ज्यादा बढ़ जायेगी।
तभी तो मैं पुराने लोगों से और पुराने लोग मुझसे बात नहीं करते। मेरी कमियाँ सब जाहिर हैं न उनके आगे।
अब आज का सवाल: ईनाम विनाम कोई नहीं मिलता है हमारे यहां, कोई जवाब देना चाहे तो बेशक दे दे। आज का प्रलाप क्या कहलायेगा, कॉमेडी, ट्रैजेडी, कॉटटेल या नन ऑफ़ दीज़?
:) फ़त्तू ने कंधे पर अपनी जेली(भालानुमा लाठी, जिसके सिरे पर तीखे फ़लक लगे होते हैं, और जो बनी तो तूड़ी वगैरह निकालने के लिये थी पर उसका उपयोग सबसे ज्यादा लड़ाई झगड़े में किया जाता है) रखी हुई थी और वो शहर में पहुंचा। एक दुकान पर उसने देखा कि एक मोटा ताजा लालाजी(हलवाई) चुपचाप बैठा है और उसके सामने बर्फ़ी से भरा थाल रखा था। फ़त्तू ने देखा कि लालाजी बिना हिले डुले बैठा है तो वो अपनी जेली का नुकीला हिस्सा एकदम से लालाजी की आंखों के पास ले गया।
लालाजी ने डरकर अपना सिर पीछे किया और बोले, "क्यूं रे, आंख फ़ोड़ेगा क्या?"
फ़त्तू बोला, "अच्छा, इसका मतलब दीखे है तन्ने, आन्धा ना है तू।"
लालाजी, "तो और, मन्ने दीखता ना है के?"
फ़त्तू, "फ़ेर यो बर्फ़ी धरी है तेरे सामने इत्ती सारी, खाता क्यूं नहीं?"
लालाजी, "सारी खाके मरना थोड़े ही है मन्ने।"
फ़त्तू, "अच्छा, खायेगा तो मर जायेगा?"
लालाजी, "और क्या?"
फ़त्तू ने बर्फ़ी का थाल अपनी तरफ़ खींचा और बोला, "ठीक सै लालाजी, हम ही मर लेते हैं फ़िर।"
सबक: सब का माईंडसेट अलग है। फ़त्तू के लिये ये सोचना भी दुश्वार है कि बर्फ़ी सामने रखी है तो कोई आदमी खाये बिना रह सकता है। फ़त्तू विद्वान है, या फ़िर घोषित विद्वान फ़त्तू होते हैं। हम तो मान चुके हैं, आप भी मान लेंगे तो सुखी रहेंगे।