रविवार, मार्च 20, 2011

हो हो होली...


                                                          
                                                    (चित्र गूगल से साभार)               

पिछले तीन दिन से बहुत से मित्रों के होली से संबंधित खूबसूरत, रंग बिरंगे. चित्रमय, गद्यमय शुभकामना संदेश मिल रहे हैं। अच्छा भी लग रहा था और थोड़ा सा अजीब सा अहसास  भी हो रहा था। अच्छा इसलिये कि यारों की मेलिंग लिस्ट में अपना नाम शुमार है और दूसरा मूड बनने के पीछे वही भावना था कि ’तेरी कमीज मेरी कमीज से सफ़ेद क्यूँ?’  तस्वीर. शेर, दोहे, कविता ये सब अपने बूते के नहीं, इसीलिये न इतने बढ़िया बढ़िया संदेशे और पोस्ट लिख रहे हैं सारे? मुझे अहसास-ए-कमतरी करवाने के मंसूबे बांध रखे हैं सबने। सारी दुनिया दुश्मन हुई पड़ी है मेरी। देख लूँगा सबको एक एक करके और दिखा भी दूँगा, वक्त आने दो:)

इतने पर भी बस नहीं की यारों ने,  कल ही बहुत से अग्रजों ने आदेश\अनुरोध किया कि होली पर कोई तड़कती फ़ड़कती पोस्ट लिखो(कहा तो दो ही बंधुओं ने था लेकिन बहुत से इसलिये लिखा है ताकि आप लोग इम्प्रैस हो जाओ कि अपनी भी डिमांड है:))     सोच रहा हूँ अपने प्रोफ़ाईल में ये लाईन बोल्ड करके लिख ही दूँ, “यहाँ आर्डर मिलने पर तड़कती फ़ड़कती पोस्ट लिखी जाती हैं:)”  माना एकाध बार ऐसा हो चुका है, और हमने चढ़ाई में आकर कुछ लिख भी दिया था लेकिन इत्ते  फ़रमायशी गीतमाला भी नहीं हुये हैं अभी कि फ़ट से  फ़रमायश मान लें। नहीं लिखेंगे, बिल्कुल नहीं लिखेंगे। रखनी है यारी रखो, नहीं रखनी है तो मत रखो।  जैसे फ़त्तू उस दिन अपने मुलाजिमों को मुखातिब हो रहा था, “Do do, not do not do. Eat your husband & lie in oven. What my goes? Your goes, your father’s goes.”  पंजाबी तर्जुमा  (करना है करो, नहीं करना ते ना करो। खसमां नू खाओ ते चूल्हे विच जाओ। मेरा की जांदा है? त्वाडा जांदा है, त्वाडे प्यो दा जांदा है) मैं भी कह दूंगा, “Keep keep, not keep not keep….”

कन्फ़्यूज़न था कि भारी हुआ जा रहा था कि अब कैसे रेसपांड किया जाये। जवाब  न दिया जाये तो  भी फ़ंसे और जवाब दें तो ऐसे अच्छे अच्छे संदेश कहाँ से लेकर आयें?  अच्छा फ़ंसा इस नगरी में आके, गुड़ खाने का मन भी करता है और ..।      

हंसी मजाक एक तरफ़, दो तीन बार ऐसा हो चुका है कि मैं इधर अपनी कोई पोस्ट लिख रहा हूँ, या इधर उधर कमेंट्स कर रहा हूँ  और फ़ौरन बाद मालूम चला कि अभी अभी कोई त्रासदी होकर हटी है। दो घटनायें तो मुझे याद हैं ही, एक दंतेवाड़ा में नक्सलवादियों के उत्पात की खबर जब मालूम चली और अभी जापान वाली आपदा का जब मालूम चला तो इस बात का इल्म होने के बावजूद कि मेरे या हमारे पोस्ट लिखने, हँसी मजाक करने से इन बातों का कोई लेना देना नहीं है लेकिन फ़िर भी कहीं एक चीज मन को कचोटती है कि मैं इधर हँसी ठिठोली में लगा हूँ और उधर हम जैसे ही मनुष्य जीवन-मौत के बीच झूल रहे हैं। फ़िर सोचता हूँ तो दुनिया का नजरिया बेहतर लगने लगता है कि इन त्रासदियों को नहीं रोक सके तो फ़िर इन उत्सवों, राग-रंग को क्यों रोका जाये?  हो सकता है मुश्किलों से जूझने का जोश  इन्हीं से मिल जाये। फ़िर आपका ही बना बनाया मूड क्यों बिगाड़ा जाये।

दोस्तों, आप सबके शुभकामना संदेशों के लिये दिल से आभारी।   फ़त्तू एंड असोसियेट्स की तरफ़ से आप सबको, आपके परिवार को, दोस्तों-दुश्मनों को, परिचितो-अपरिचितों को रंगों के इस त्यौहार की हार्दिक शुभकामनाये।

:)) फ़त्तू एक बार घर गृहस्थी के जंजाल से घबराकर बाबाजी बन गया था। घूमते भटकते एक गांव में पहुंचा और मंदिर में रुक गया। किसी ने खाना खिला दिया तो अगले दिन भी वहीं रुका रहा। देखते देखते अच्छी सेवा होने लगी(जैसे मुझे कमेंट्स देते हो आप सब:)) एक दिन गांव वालों ने सोचा कि ये तो मुटियाता जाता है जरा इसका दम खम भी तो देखा जाये। कुछ लोगों ने जाकर पूछा, “बाबाजी, कई दिन हो गये यहाँ डेरा डाले हो। हमसे जो कुछ हो सकता है,  सेवा कर रहे हैं। ये बताओ कल को हमारे भी कुछ काम आ जाओगे कि नहीं? कुछ सिद्धि-विद्धि भी है या यूँ ही ये बाना पहन रखा है?” फ़त्तू ने किसी भी समस्या से निपटने का भरोसा भी दिया और साथ में अपनी दो शर्तें भी बता दीं। पहली ये कि, “गांव की सामूहिक समस्या होनी चाहिये।”    और दूसरी ये  कि,  “साल में एकाध बार वो यानी बाबाजी  भड़भड़ा(सही शब्द तो कुछ और ही है, शायद याद नहीं आ रहा:)) जाते हैं। ब्लॉगजगत के लोगों को, सॉरी गाँववालों को तसल्ली हो गई। समस्यायें आतीं लेकिन बाबाजी की वही शर्त कि सांझी समस्या होनी चाहिये, आड़े आ जाती। कई साल बीत गये, एक बार गांव पर टिड्डी दल का भारी हमला हो गया। लोगों को कुछ न समझ आया तो भागकर फ़त्तू के पास गये और गुहार लगाई। लोगों ने कहा कि बाबाजी ये तो गांव सांझली समस्या है, आपकी पहली शर्त पूरी हो गई, कुछ उपाय करो।
फ़त्तू बोला, “भाई, इब तुम दूसरी शर्त याद कर ल्यो, साल में एकाध बार…. वाली।  आज तो बस यूँ समझ ल्यो कि बाबाजी  भड़भड़ा रहे हैं।”

पुनश्च: - सभी को होली की बहुत बहुत बधाई।

शुक्रवार, मार्च 11, 2011

गुड़गुड़ी वेज़....


उसका कद रहा होगा, लगभग सवा-पांच फ़ुट। दुबला पतला शरीर, जैसे सर्कस का जिमनास्ट हो, गोरा रंग। सिर पर सफ़ेद पगड़ी, शरीर पर सफ़ेद ही कुरता और सफ़ेद धोती। जूती जरूर काले रंग की होती थी। उम्र करीब साठ साल, लेकिन चाल में इतनी फ़ुर्ती कि लगता जैसे अभी टीन एजर ही हो। हाथ में एक छोटा सा हुक्का, जिसे हुक्की कहते हैं,  लगभग हर समय रहती थी। सुबह नहा धोकर घर से निकलता तो रात में अंधेरा होने के बाद ही लौटता। और ये रूटीन बरसों पुराना था। सुबह का नाश्ता, दोपहर का खाना और रात का खाना, सब बाजार से। बाजार में भी अच्छे हलवाईयों के यहाँ ही व्यवहार था उसका। पैसे न वो देता और न कोई माँगता था उससे। पुलिस, प्रशासन सब जगह  पैठ बना रखी थी उसने, मुखबिर था। सब ये बात जानते थे तो कोई पंगा नहीं लेता था। गांव देहात में जैसे सांड देवता को खेत में मुंह मारने की छूट रहती है, इन साहब को भी हर दुकानदार यही मानकर झेल रहा था। 

शुरू में एक  वणिकबुद्धि हलवाई ने उसे कुछ दिन के बाद टोक दिया था, “दस दिन हो गये, रोज पूरियाँ  खा रहे हो। हिसाब बढ़ता जा रहा है।”    वो उस समय हुक्की गुड़गुड़ा रहा था, सुनकर एक बार गुड़गुड़ की आवाज थोड़ी जोर से आई और फ़िर उसने मुंह ऊपर उठाकर देखा, “कितने रुपये हो गये तेरे?”    हलवाई ने हिसाब देखकर बताया,  “साठ रुपये।”   कुरते की जेब में हाथ डाला और तीन चार भारी भरकम गलियां अपनी घरवाली को दीं, “………     ……..   …….., हरामजादी ने जेब में कुछ छोड़ा ही नहीं।” एक दस का नोट निकाला और हलवाई को देते हुये बोला, “ले लाला, दस रुपये जमा कर ले। सीधा पचास का हिसाब रह गया। और यार, अच्छा किया तूने टोक दिया, बल्कि पहले ही बताना था कि दस दिन हो गये। मैं तो ऐसे ही लापरवाह सा बंदा हूँ।  तेरे यहाँ पूरियां बहुत खस्ता होती हैं, इसलिये कहीं और मजा नहीं आता। लेकिन कल तेरा पिछला हिसाब साफ़ करूंगा, उसके बाद ही तेरे यहाँ पूरियां खाऊंगा।  वैसे यार, तू  पहले ही टोक देता तो कितना अच्छा रहता, अब मुझे शर्म आ रही है।”  लाला ने दयानतदारी दिखाई, “कोई बात नहीं, तेरी ही दुकान है। मैंने तो इसलिये कहा था कि व्यवहार बना रहे हमारा।”      “बेफ़िक्र रह, आज शाम तक या कल तक तेरा हिसाब चुकता कर दूंगा।” कहकर वो चल दिया।   उसके जाने के बाद लाला ने अपनी पीठ ठोंकी, ’हिम्मते-मर्दां, मददे खुदा’  ऐसे ही बाजार वाले खम खाये रहते थे इससे। आज जरा सा टाईट किया तो कर गया न अंटी ढीली?  मुफ़त का थोड़े ही है हमारा माल, रोज आता था, खापीकर निकल लेता था जैसे बाप का माल है। बल्कि अब पिछले हिसाब में तीन-पांच किया तो थोड़ा सा और टाईट कर देंगे, याद करेगा ये भी कि वास्ता पड़ा है किसी लाला से।

पुराणों में आता है कि भक्त का अहंकार त्याग करने के लिये विष्णु हरि ने खुद भी श्राप लेना स्वीकार किया था। बेशक कलयुग ही सही, लेकिन भारत भूमि से धर्म का लोप अभी इतना भी नहीं हुआ है। लाला के मन में अहंकार आया जान, उसका मान मर्दन करने का ही जैसे सोचा हो ऊपरवालों ने। ऊपरवालों इसलिये कहा कि इंडिया जो कभी भारत था, उसमें भगवान का स्थान इंस्पैक्टर लोगों ने ले लिया है। घंटे भर के अंदर ही  ’फ़ूड एंड एडल्टरेशन डिपार्टमेंट’ के दो स्टाफ़ और उनकी सहायता के लिये थाने से दो सिपाही लाला की दुकान में प्रकट हो चुके थे। देसी घी में चर्बी की मिलावट, मिठाइयों में प्रतिबंधित रंगों की मिलावट, दूध में मिलावट, गरज ये कि दुकान में मौजूद हर सजीव निर्जीव चीज में ऐसी मिलावट सिद्ध होनी शुरू हुई कि लाला से जब उसके पिता का नाम पूछा गया तो वो खुद भी कन्फ़्यूज़ हो गया कि बताते ही ये उसमें भी मिलावट सिद्ध कर देंगे। उसे लग रहा था बाजार से गुजरता हर आदमी उसकी दुकान में हो रहे घटनाक्रम पर सी.आई.ए. की तरह आंख गड़ाये है। इज्जत का फ़लूदा होगा तो होगा, बाजार में जो नाम खराब होगा तो आने वाली पीढियां उबर नहीं पायेंगी। खूब चिरौरी की लाला ने, लेकिन वो सरकारी महकमा क्या जो अपने कर्तव्य से च्युत हो जाये। लाला का अहंकार ऐसे गायब हो गया जैसे गधे के सिर से सींग। कभी इंस्पैक्टर साहब की ठोडी को हाथ लगाता और कभी अपनी टोपी उतारकर उसके पैरों में रखता, लेकिन बर्फ़ नहीं पिघली। द्रौपदी ने भी इतनी आद्रता से कॄष्ण को नहीं पुकारा होगा जैसे लाला मन ही मन परमात्मा को याद कर रहा था।

उसी समय हाथ में अपनी हुक्की लिये वो आ खड़ा हुआ। ’क्या बात हो गई साहब जी, आज लाला की पूरियां आपको भी खींच लाईं?”  और वो भी आज दुकान के अंदर ही आ गया। सबसे हाथ मिलाकर जब हंसी मजाक करने लगा तो लाला को उसके हाथ की हुक्की बांसुरी की तरह लगने लगी। उसके दरियाफ़्त करने पर सरकारी अमला मिलावटी चीजों की लिस्ट, और कानून की धारायें गिनवा रहा था और सैंपल की जांच तो जब होगी तब होगी, उससे पहले ही संभावित नतीजों के बारे में बताकर लाला के पैरों तले से जमीन खिसका रहा था। लाला इशारे से उसे परे बुलाकर ले गया और इस मुसीबत से छुटकारा दिलवाने की कहने लगा। उसने बताया कि फ़लां बाजार में जब छापा मारा था तो दस हजार में मामला निबटा था, अपनी गुंजाईश बता दे, मैं कोशिश करता हूं। लाला ने उसे सब अख्तियार दे दिये,  बस हैसियत का ध्यान रखने की प्रार्थना की।  “आदमी है तो बहुत सख्त, लेकिन अपना लिहाज करता है, चल देखते हैं। तू पूरियां उतरवा इनके लिये।” 

लाला के सामने इंस्पैक्टर    साहब से कहा उसने कि ये उसकी अपनी दुकान है, बल्कि घर है। नाश्ता रोज यहीं करता है वो, इसका इतना मान तो रखना ही पड़ेगा। साहब लोगों के लिये नाश्ता परोसा जा रहा था, दुकान के अंदर ही और उसने जाकर लाला को बधाई दी कि तेरा मामला पांच हजार में निबटा दिया है, लेकिन बाहर आवाज नहीं निकलनी चाहिये। किसी खास को बताना ही हो तो दस हजार बताईयो, तेरी भी इज्जत बनेगी और इनके पेट पर भी लात नहीं लगेगी. मार्केट रेट ऐसे ही बनते बिगड़ते हैं। लाला ने फ़ट से गिनकर उसे पांच हजार थमाये। उसे जेब के हवाले करके और अपनी हुक्की दुकान पर काम करने वाले एक लड़के के हवाले करके लाला को सबके लिए बढ़िया चाय मंगवाने को कहा उसने।  शूगर की बीमारी को शूगर से भी मीठी एक गाली देकर अपने लिये फ़ीकी चाय मंगवाई, “घड़ी घड़ी में पेशाब आता  है इस नामुराद बीमारी में, चाय आये तब तक  मैं आता हूं पेशाब करके।”

मिलावटी खाद्य पदार्थों का सेवन करके बड़ी सी डकार लेकर टीम चल दी, जाने से पहले उसने लाला से पूछा, “लाला, मेरे हिसाब में कितने बचे हैं, पचास हैं न? कल आता हूँ, दे दूँगा।”  
लाला की आँखें भर आईं थीं, क्यों शर्मिंदा करते हो जी, एक तरफ़ कहते हो मेरी दुकान है, फ़िर ऐसा कह्कर क्यों पाप चढ़ाते हो?”     
“ना भाई, है तो अपनी ही दुकान लेकिन हिसाब तो हिसाब है। कल को बाजार में किसी के आगे तू कहेगा कि इसने मुफ़्त में मेरे यहाँ इतने दिन माल खाया तो मेरे सफ़ेद कपड़ों का क्या होगा?”
“भाई, जूती मार ले मुझे। ऐसी बात मत करो। मैं भी तेरा हूं और ये दुकान भी तेरी है।”

इतने प्यार को ठुकराना कहाँ आसान है? मन मसोसकर जाना पड़ा उसे। कुछ दूर जाकर फ़िर से एक चाय की दुकान में घुस गये। जेब से पैसे निकाले, पांच-पांच सौ दोनों सिपाहियों को देकर दो हजार इंस्पैक्टर साहब  को दिये। बोला, “बड़ा मूँजी आदमी है, दो हजार से ऊपर जाता ही नहीं था। कहता था मैंने मिलावट की ही नहीं तो क्यों दूँ, इज्जत-विज्जत की कदर नहीं है आजकल लोगों को। साहब जी, पचास का नोट दे दो, साला मेरे से भी पैसे लेगा, छोड़ेगा नहीं। कल फ़िर मुँह दिखाना है उसे। आज की मेहनत मुफ़्त में गई, आपका तो मेहनताना शुक्राना मिल गया, काश हम भी होते सरकारी अफ़सर।” इंस्पैक्टर साहब ने सौ रुपये दिये उसे, “ज्यादा ड्रामा मत कर, तेरे कहते ही अ गये न हम दफ़्तर छोड़कर। अगले आसामी की तलाश शुरू कर अब।”

हुक्की की गुड़गुड़ चल रही थी और बाकी सब काम भी,  जैसे महंगाई, भ्रष्टाचार पर जनता के बीच दबी दबी सी असंतोष की लहर भी चल रही है और बाकी सब काम    चारा, अलकतरा, जाली स्टांप, कामनवैल्थ, स्पैक्ट्रम वगैरह वगैरह। कह गये न हमारे मनीषी ’चरैवेति चरैवेति’  माननी तो पड़ेगी ही उनकी, मन मारकर ही सही लेकिन the show must go on.

ये बातें एक सचमुच के चरित्र की हैं, जिसे मैंने देखा भी है लेकिन चर्चे बहुत सुने थे उसके। एक और बहुत मशहूर जुमला था उसका। किसी सूदखोर से  पैसे उधार लिये थे उसने और  कई बार तकाजा करने पर भी नहीं लौटाये।  एक दिन कुछ ऐसे लोगों के साथ बैठा था जिन्होंने अपनी उधारी चुका दी थी। बात चली तो उन सबको कहने लगा, “तुम लोगों जैसे किसी से लेकर वापिस  कर देने वालों के कारण हम जैसों को कितनी परेशानी आती है, तुम्हें क्या  पता? तुम्हारा उदाहरण दे देकर लोग हमें झूठ सच बोलने को मजबूर करते हैं।”     
अब तो ऊपर हुक्की गुड़गुड़ा रहा होगा, इतना बताता हूँ कि अंत समय बहुत कष्ट में गुजरा था उसका। अपने लड़कों ने ही कमरे में बंद कर दिया था, सुना था कि दिमाग फ़िर गया था उसका। हम छोटे छोटे थे, छुपकर खिड़की से देखते थे कभी कभी, सारे कपड़े उतार देता था और कभी नाचता था कभी अपने बाल नोंचता था। बोलता रहता था कभी गाने तो कभी गालियाँ, चुप नहीं करता था बिल्कुल।  एक ही समय में अलग अलग किस्म के लोगों से अलग अलग व्यवहार करने की उसकी कला का शतांश भी ग्रहण कर पाता तो धन्य हो जाता मैं भी। वैसे बोलने तो लग गया हूँ मैं भी अब पहले से बहुत  ज्यादा।    आप सब जैसे कम और अच्छा बोलने लिखने वालों के कारण हम जैसों को कितनी परेशानी आती है, आपको क्या पता? आपके उदाहरणों   के कारण हमें झूठ सच बोलने लिखने को मजबूर होना पड़ता है…
गाना देखना है? देख लो न फ़िर, कौन सा पैसे लगने हैं:)

सोमवार, मार्च 07, 2011

शोध-पत्र....


अखबार की खबरों से उकताकर इधर की दुनिया में आये थे।, आये तो फ़िर ऐसे रमे कि अखबार वगैरह पढ़ने सब भूल गये। अब जब आते-जाते, सोते-जागते ये नैट की दुनिया हमारे ऊपर के माले में कब्जा कर गई तो जाकर स्थिति की गंभीरता का अहसास हुआ। लेकिन अब पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत। 
पुष्ट सूत्रों ने बताया  हैं कि आजकल रात में सोते समय भी हम कभी रोते हैं, कभी हँसते हैं। उनकी बात में हमने करैक्शन किया कि सोते समय ही हम रोते हैं या हँसते हैं। ये ’भी’ और ’ही’ का जरा सा अंतर बात के मायने बदल देता है।

स्पष्टीकरण माँगा गया, “वजह बताओ, क्यों हँसे थे?”  सतर्क, सजग और सावधान सरकारें किसी भी तरह के विद्रोह को शुरुआती चरण में ही दबा लेती हैं, न कि  हमारी केन्द्र सरकार की तरह कि पहले समस्या को बढ़ने दिया जाये, फ़िर कभी वार्ता, कभी पैकेज के जरिये सुलटाने की कोशिश की जाये।  

हमने हमेशा की तरह बात घुमाने की कोशिश की, “ज्यादा तानाशाही से हालात बिगड़ते ही हैं, थोड़ी स्वायत्तता अधीनस्थ लोगों को मिलती रहे तो सही रहता है। नींद में थोड़ा सा हँस लिया या मुस्कुरा लिया गया तो ऐसा तो कोई कुफ़्र नहीं टूट पड़ा।” हमारी ओब्जैक्शन ओवररूल्ड हो गई हमेशा की तरह। 

हमने फ़िर कोशिश की, “थोड़ी सी प्रेरणा वड्डे सरदारजी से लेकर देखो। राजा बाबू को स्वायत्तता  दे रखी थी,  वो भी खुश और इनकी अपनी मोटर भी चलती  रही पम-पम। बाद में बात खुलखुला गई तो फ़ट से बयान दे दिया कि मुझे क्या पता कि ये मेरे मंत्री संतरी क्या कर रहे थे?  मेरे बयान ले लो, मेरे से कर लो पूछताछ।   मैं कहीं भ्रष्टाचार का दोषी मिल जाऊँ तो बात करना।  हो गई न ईमानदारी सिद्ध?  अब राजाबाबू पहुंच गये ससुराल, सरदारजी की कुर्सी सलामत। इसी नीति  पर चलना चाहिये।  हम अगर थोड़ा बहुत इधर-उधर तीन-पांच  कर भी लेते है  वो भी नींद में, तो तुम पर कोई इल्जाम थोड़े ही आयेगा? और अगर कोई टोक भी दे तो सरदारजी वाला  फ़ार्मूला है ही।”

लेकिन हमारा ये फ़ार्मूला भी फ़ेल हो गया। सुनने को ये मिला, “तुम लो प्रेरणा सरदार जी से, वो बेचारे  क्या अपने मन से हंसते  बोलते हैं?  इशारा मिलता है, वैसे ही कह देते हैं और देख लो फ़ल मिल रहा है, कित्ती बड़ी कुर्सी मिली हुयी है उन्हे। और देखो जरा  अपने लक्षण, बिना इशारे के हँस देते हो,  टूटा स्टूल भी नहीं मिलेगा।  वजह बताओ, हंसने का  क्या चक्कर है(पसीने आने वाली बात का कोई स्पष्टीकरण नहीं मांगा गया हमसे,  SWOT analysis पक्का है)?”    

क्या बताते?  और बता देते तो किसने मानना  था कि पोस्ट पर आते कमेंट्स को देख सोच कर नींद में कोई खुश हो सकता है।

महाशिवरात्रि को कई दिन बीत चुके लेकिन असर जैसे अब तक है।  लिखना कुछ और चाहा था, लिख दिया इधर उधर का। अब करते हैं जी ’टु द प्वाईंट’ बात। इस रोज रोज की छीछालेदर से दुखी होकर हमने फ़ैसला किया कि फ़िर से पहले जैसा हुआ जाये। अखबारों, किताबों, रिसालों से दोस्ती की जाये। अखबार पढ़ने शुरू किये। ब्लॉगिंग का इतना असर तो हो गया है कि हर सीधी बात भी पेचोखम लिये दिखती है। महंगाई,  भ्रष्टाचार,  साम्प्रदायिकता, भाई भतीजावाद, हत्या, लूटपाट, चार बच्चों की मां प्रेमी संग फ़रार  जैसी बातें वैसे भी अब बोर करती हैं तो हम निकल लिये मेन रास्ता छोड़कर पगडंडियों की सैर पर।
ध्यान गया दो शोध पत्रों पर। 

पहला शोधपत्र बताता है कि मानव इतिहास में पर्यावरण संरक्षण में अभी तक का सबसे बड़ा योगदान जिसने दिया है, उसका नाम है ’चंगेज़ खान।’ अपने जीवन काल में उसने जो नरसंहार किये थे, जितने इंसानों का कत्ल किया था, उस गिनती के आधार पर गणना करके बताया गया था कि इस धरती से पता नहीं कितने क्यूबिक टन कार्बन का सफ़ाया किया था भले आदमी ने।   बताईये, कितना महान योगदान था उस का और हम सब उसे बर्बर, असभ्य, क्रूर कहकर याद किया करते रहे।  बहुत नाईंसाफ़ी हुई उस बेचारे के साथ, पता नहीं कैसे होगी प्रतिपूर्ति उसकी मानहानि की:)

अब बात दूसरी रिसर्च की।  शायद अमेरिका में  कोई रिसर्च की गई है और उन्होंने ये फ़रमान सुनाया है कि किसी के नाम का प्रथम अक्षर उस व्यक्ति के behaviour in queue का निर्णायक तत्व है। वर्णमाला के अक्षर क्रम के अनुरूप ही व्यक्ति लाईन में लगने के संबंध में  व्यवहार करता है। हमारी तो उमर गुजर गई लाईन में सबसे पीछे लगने में लेकिन लॉजिक अब जाकर पता चला है। स्कूल में थे तो बैकबेंचर, कहीं लाईन में लगने का मौका आये तो सबसे पीछे और अब तो ऐसी आदत हो गई है कि बस, ट्रेन या किसी प्रशिक्षण कार्यशाला, सेमीनार में जाना होता है तो चाहे सबसे पहले ही क्यूं न पहुंच जायें, नजर अपनी पिछली सीटों पर ही टिकी होती है, वहीं जाकर रखते हैं तशरीफ़ का टोकरा। अब तो आदत ही ऐसी हो गई है।      अपने आसपास नजर डालता हूं तो अब समझ आया कि  अभिषेक ओझा, अदा जी, अजीत गुप्ता जी, अमित शर्मा, अली सैय्यद साहब. अनुराग शर्मा जी, अरविन्द झा, अरुणेश जी, अंशुमाला जी, अर्चना जी, आशीष, अंतर सोहिल,  अविनाश जैसे ब्लॉगर्स इसलिये लाईन में हमसे इतनी आगे हैं। किसी यारे-प्यारे का नाम छूट गया हो तो E. & O.E.  ये नाम हमने सिर्फ़ उनके लिये हैं  जो आसपास हैं, दूर की नजर हमारी शुरू से ही कमजोर है:)   हम ऐंवे ही इनके लेखन की तारीफ़ किये रहते हैं, विद्वान लोगों ने जो कहीं इनका नाम अ से न शुरू करके किसी और वर्णाक्षर से किया होता तो पता चलता इन्हें आटे दाल का भाव। हम तो जहाँ हैं, मस्त हैं बल्कि सोचता हूं एक हलफ़नामा देकर नाम XANJAY  या   ZANJAY   रख लेता हूँ,  थोड़ा सा माडर्न लुक आ ही जाये:) 

खैर,  थ्योरी  दमदार लगी। कितना टाईम है यार लोगों के पास।   पता नहीं किस किस विषय पर रिसर्च करते रहते हैं। पता चला कि अमेरिका में कोई फ़ाऊंडेशन बनाकर यदि किसी रिसर्च वगैरह के नाम पर खर्च किया जाये तो उसे टैक्स में छूट मिलती है। तो इसका मतलब ये है कि टैक्स मैनेजमेंट, टैक्स- प्लानिंग, टैक्स इवेज़िंग  सब तरफ़ चलती है। कल ही एक दोस्त कह रहा था साल में 2060 रुपल्ली की छूट देकर मुखर्जी ने मूरखजी बना दिया वेतनभोगियों को। अपन आशावादी बने हुये थे, कहा ये भी न देते तो क्या उखाड़ पछाड़ कर लेते भाई?  तो भाई उदारवादीयों, वैसे तो त्वाडी गड्डी LPG(Liberalisation, Privatisation & Globalisation) पर चल रही है, बाहर के मुल्कों से थोड़ा सा सबक लेकर यहाँ भी रिसर्च वगैरह पर टैक्स की छूट वगैरह का ऐलान करो,  फ़िर देखो हमारे ब्लागजगत के जलवे। एक से एक प्रतिभा छुपी है यहाँ, ऐसी ऐसी रिसर्चें कर डालेंगे कि पनाह मांगते फ़िरेंगे सब विकसित देश और वहाँ के रिसर्चर।

तो साहब, जब तक टैक्स में छूट नहीं मिलती, आप सबको छूट है हमारी  रिसर्च से बचे रहो। जिस दिन छूट मिल गई, उस दिन देख लेंगे आप सबको:)

आज फ़िर दिखाते हैं आपको एक पुराना गाना, पसंद न आये तो हमारा नाम वही रख दीजियेगा पहले वाला:)

बुधवार, मार्च 02, 2011

अमर प्रीत - (एक पुरानी कहानी)



उसने सर उठाकर देखा, प्रीत अपने क्यूबिकल में बैठी थी। बाहर भी मौसम खराब था  और ऑफ़िस के अंदर भी। सुबह से बारिश की झड़ी लगी है, ग्राहक कौन आता?  शायद आज आठवीं बार उसने  फ़ोन मिलाया और फ़िर प्रीत ने फ़ोन काट दिया। उसने अपनी डायरी निकाली और लिखना शुरू किया। कब पांच बजे, नहीं मालूम चला। देखा तो प्रीत भी अभी बैठी थी, शायद बारिश रुकने का इंतजार कर रही थी। उसने डायरी से पेज फ़ाड़ा, तह किया और लिफ़ाफ़े में डालकर कोट की जेब में रख लिया। ब्रीफ़केस उठाया और चल दिया, मनोज ने कहा भी कि रुक जाओ, अभी बारिश है लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया। प्रीत के पास जाकर ठिठका, लिफ़ाफ़ा उसके सामने रखा और बिना देखे, बिना बोले बाहर निकल गया। भीगना कोई नई बात नहीं थी उसके लिये, जब तब खूब भीगा है वो बारिश में, आज भी सही। इक्का दुक्का स्कूटर या मोटरसाईकिल वाले  थे जो सड़क पर दिखाई दे रहे थे, पैदल चलता तो वो अकेला ही था। 

घर पहुंचकर कपड़े बदले, काफ़ी बनाई और मोबाईल स्विच-ऑफ़ करके बिस्तर में घुस गया। न रहेगा बाँस और न बजेगी बांसुरी। खाना बनाने की हिम्मत नहीं थी या खाने की इच्छा नहीं थी, खुद ही नहीं तय कर पाया। रह रहकर आंखों के सामने प्रीत का भावशून्य चेहरा आ रहा था। एक जरा सी बात पर कोई इतना पत्थरदिल कैसे हो सकता है? इतने महीनों का सामीप्य कैसे भुला सकती है वो?  ठीक है, अगर उसे जिद है तो यही सही। रात भर नींद तो नहीं ही आई, खुली आँखों के सामने देखे अनदेखे ख्वाब जरूर नाचते रहे। सुबह चार बजे के बाद कहीं आँख लगी उसकी।

प्रीत को घर पहुंचने में आज देर हो गई थी। आज खाने का मन नहीं था, सो मना कर दिया। खुद ही जाकर काफ़ी बनाई और बिस्तर में घुस गई। काम करना बंद कर सकता है कोई, खाना स्किप किया जा सकता है एकाध टाईम, आंखें भी बंद की जा सकती हैं लेकिन ये जो मन होता है, ये निठल्ला नहीं बैठता। जेहन में बार बार अमर का चेहरा आ रहा था। आज बहुत गुस्सा दिलाया उसने, क्या जरूरत थी उसे उसकी हर बात में दखल देने की? दूधपीती बच्ची तो नहीं वो, जो किसी बात को हैंडल नहीं कर सकती।  बहुत सर चढ़ा लिया मैंने ही, आज बच्चू को अपनी हैसियत मालूम चल ही गई दिन में दस बार फ़ोन किया होगा। इतनी तो हिम्मत थी नहीं कि आमने सामने आकर बुला ले।  दस गज की दूरी है, महाशय जी फ़ोन मिलाते हैं।  अच्छा हुआ आज दिल मजबूत करके बैठी रही, नहीं किया फ़ोन अटैंड। और शाम को कैसे ब्रीफ़केस उठाकर बारिश में बाहर निकल गया, जैसे फ़िल्मी हीरो हो। सोचता होगा कि अभी प्रीत रास्ता रोक लेगी जैसे सत्तर की फ़िल्मों में हीरोईन अपनी कसम देकर हीरो को रोक लेती थी, हुंह। अरे, ध्यान आया एक चिट्ठी दे गया था जाते जाते। देखूं तो क्या प्रेम कहानी लिख गया है। बैग से कागज निकाला और पढने लगी।

’प्रीत,  (मेरी प्रीत लिखने की हिम्मत नहीं हो रही)
जानता हूँ आज तुम नाराज हो, हक है तुम्हें। वैसे ये पहली बार नहीं कि तुम नाराज हुई हो मुझसे,  ऐसा जरूर पहली बार हुआ कि मैंने आज तुम्हें मनाने की कोशिश की है। नहीं तो तुम बिगड़ती थी और मैं अकड़ा रहता था, थोड़ी देर में तुम ही हँसकर मना लेती थी मुझे। और मनाना भी क्या मनाना था, सिर्फ़ आकर बात करना शुरू कर देती तुम और मैं छोटे बच्चे की तरह सब भूल जाता था।  मैं बदल रहा हूँ खुद को, नहीं तो रूठकर मानना और रूठों को मनाना कभी नहीं करता था मैं।      आज तुम्हें मुझपर गुस्सा आया,  मैंने एक दो बार नहीं आठ बार तुम्हें कॉल किया और तुमने हर बार फ़ोन काट दिया। प्रीत, ऐसा क्या हो गया हमारे बीच?  तुमने ही तो मेरे जीवन में  आकर मेरे होने को एक वजह दी थी, वरना मैं जिन्दा थोड़े ही था?  सिर्फ़ साँस चलते रहना, दिल का ध़ड़कते रहना ये जीवन थोड़े ही होता है। अब तो मेडिकल साईंस ने भी जिन्दगी और मौत की परिभाषा बदल दी है। वही नौकरी, वही मैं, वही सबकुछ पहले भी था – एक तुम मेरी जिन्दगी में बरबस ही समाती चली गई और सब बदल गया। याद है तुम्हें, कैसे पहली ही मुलाकात में हम एकदम से अनौपचारिक महसूस करने लगे थे? मैं तो चुप्पा, घुन्ना और जाने क्या क्या नामों से जाना जाता था, और तुम्हारे साथ ऐसी कॉमपैटिबिलिटी बनी थी कि कभी लगा ही नहीं कि हम एक दूसरे की आदतों को न जानते हों। सच कहूँ, तो तुमने ही मुझे जीना सिखाया। इतना सम्मान दिया, इतना अपनापन कि मैं खुद से ही रश्क करने लगा था। मैंने कुछ कहने में बेशक समय लगा दिया हो, तुमने मानने में एक पल नहीं लगाया। मैं ही ठिठक ठिठक कर कुछ कहता था, आदत नहीं रही  थी मुझे कि मेरा कुछ कहना ही किसी के लिये पत्थर की लकीर बन सकता है। झूठ नहीं कहा तुमसे, हमेशा अकेला नहीं रहा मैं भी, कई बार हमसफ़र मिले लेकिन जिसे अपनी माना हो वो आजतक एक ही मिली, तुम सिर्फ़ तुम।  वरना  तो किसी के साथ दो कदम चलकर और किसी के साथ दो बात करके ही मन भर जाता था।  तुमसे जितना बात हो जाए, लगता ही नहीं कि बस्स बहुत हो गया। मुझे ऐसी ही मंजिल की तलाश थी जिसे पाकर भी सफ़र मुकम्मल न हो।      तुमसे मैंने कई बार कहा कि आंख बंदकर मुझपर भी भरोसा मत करो, और तुम कहती थी कि भगवान से भी ज्यादा भरोसा है मुझपर। कहाँ खो गया वो भरोसा?
खैर जाने दो, मैं तो पहले भी खुद को तुम्हारे लायक नहीं मानता था और आज भी नहीं मानता। बीच में जरूर कुछ समय ऐसा लगा था कि पिछले समय में जो कुछ झेला, भुगता था मैंने उसीकी वजह से खुद को अंडर एस्टिमेट कर रहा था,  नहीं तो तुम जिसे चाहो, वो मामूली इंसान नहीं हो सकता। लेकिन ये एक भ्रम ही था, तुम्हारी आँखों पर ही शायद चाहत का चश्मा चढ़ा था, या मेरे सितारे अच्छे थे उन दिनों। बुरे समय के बाद अच्छा समय आता है तो और भी अच्छा लगता है लेकिन जब फ़िर से वही गम की भरी रातें और तनहाईयां आ घेरती हैं तो साँस लेना भी दुश्वार लगता है।
कई दिन से मुझे ऐसा लग रहा  था कि मेरी बातें तुम्हें नागवार गुजर रही हैं। तुम भी शायद  ऐसा महसूस कर रही होगी।   आज सारा दिन मुझ पर कैसे गुजरा है, मैं जानता हूँ। लेकिन अब मैं शांत हूँ। अगर हम दिल से एक नहीं हो सकते तो क्या जरूरत है ऐसे सपने देखने की? सोच देखना, आज शाम और रात तुम्हारे पास है। कल सुबह तुम्हारे फ़ैसले का मुझे इंतज़ार रहेगा। मोबाईल स्विच-ऑफ़ कर दूंगा आज रात, कहीं मैं ही कमजोर न पड़ जाऊं और तुम्हें फ़िर से फ़ोन  मिला बैठूँ। देखता हूँ कल की सुबह मेरे लिये सुबह बनकर आती है या ……? इतना जान लो, मेरे लिये अब जिन्दगी में या तुम हो या फ़िर कोई नहीं। बस शोर शराबा मुझे पसंद नहीं, भले ही  हम एक साथ हों कि न हों, जो भी फ़ैसला हो आराम से बता देना।
तुम्हारा  अमर

कागज पढ़कर फ़ाड़ दिया प्रीत ने और बड़बड़ा रही थी. “ओह, देवदास जी, बड़ा आया इमोशनल करने वाला। देख लूँगी इसे तो।” कागज पेन लेकर अब वो बैठ गई थी, रात के एक बजे। नींद न आए तो कुछ तो करना ही था।

अगले दिन ऑफ़िस में सब वैसा ही चल रहा था जैसे एक आम ऑफ़िस में होता है। दोनों में आज हाय-हैलो भी नहीं हुई। साढ़े बारह बजे होंगे,  प्रीत आई और एक कागज अमर की मेज पर रखकर चली गई। धड़कते दिल से अमर ने कागज खोला,  एक गोला बनाकर उसके अंदर लिखा था ’अमरप्रीत’ और नीचे सिर्फ़ एक पंक्ति .”मेरे होने वाले पति जी, आज मैं लंच नहीं लाई हूँ। ’गेलार्ड’ में लंच करवाओगे न?   स्साला नौटंकीमास्टर कहीं का, हा हा हा”

अमर की आँखें भीग आईं थीं, एक जमाने के बाद। भीगी आंखों का भी अपना ही आनंद होता है।