नौ बजने वाले थे और मैं बार बार मोबाईल में टाईम देख रहा था। इतना लेट तो कभी
नहीं होते, हारकर फ़ोन मिलाया। पूछा कि कहाँ हो तो जवाब मिला कि जनाब आज चार्टर्ड
बस से निकल गये हैं। भले आदमी एक कॉल करके बता भी तो सकते थे लेकिन लीक पर चल पड़े
तो साधारण बंदे और हमारे उस्तादजी में अंतर ही क्या रहता?
ऑफ़िस पहुँचकर जब यही बात उनसे कही तो हमेशा की तरह कुसूर मेरा ही निकला। “पहले
मैं कभी एक मिनट भी लेट हुआ? आपको समझ जाना चाहिये था कि मैं बस से निकल आया
होऊँगा।” कुछ जगह ऐसी होती हैं जहाँ सब्र ही अकेला विकल्प बचता है। हमने अपनी गलती
मान ली तो उन्होंने अभयदान देते हुये अन्ना के अनशन तोड़ने को इस परिवर्तन का कारण
बताया। बीच बीच में कई बार आकर अन्ना और उनकी टीम के बारे में कई तरह की बातें
सुना गये। मसलन, ’क्या जल्दी थी इतनी जल्दी अनशन खत्म करने की?’ या फ़िर, ’आंदोलन
अब दम तोड़ देगा। इन्हें चाहिये था कि क्रमिक अनशन करते। अबे, अन्ना बारह तेरह दिन
खींच गये, किरण बेदी और केजरीवाल और वो जो भूषण वगैरह है, महीना-दो महीने तो ये भी अनशन कर
ही सकते थे। फ़िर पब्लिक में और भी जागरूकता आती’ आदि आदि।
बाद में फ़ुर्सत मिलने पर इस बात का खुलासा हुआ| अजीज, हमारा एक ग्राहक, जब चैक
जमा कराने आया तो उस्तादजी ने उसे आवाज लगाई, “ओ अजीज, ये ले तेरी अमानत।” और जेब
से टोपी निकालकर उसे लौटा दी। अब कहानी समझ आई। अन्ना के अनशन के दूसरे दिन की बात
है, घर आने के लिये जब बाईक स्टार्ट की तो उस्तादजी पिछली सीट पर जम गये। उनका
स्टाईल है ये कि जिस दिन काटते हैं, शाम को मरहम भी लगाते हैं।
तो उस शाम को उनका आदेश हुआ था कि “अजीज की दुकान की तरफ़ चलो।” चल दिये हम कि
होगा कुछ काम। देखकर अजीज खुश हो गया, “आईये सर, आज कैसे मेहरबानी की?” थोड़ा सा
घुमाफ़िराकर उस्तादजी ने उससे ’मैं अन्ना हूँ’ वाली टोपी ली और पाँच सौ का नोट पेश
किया, “ले पैसे काट ले।” पाँच रुपये की टोपी और उसके लिये पांच सौ का नोट, वो भी
उन बैंक वालों से जिनसे रोज वास्ता पड़ता है, इतना भी अनाड़ी नहीं हुआ अजीज अभी। वो
हाथ जोड़ रहा था, “रहने दो साहब, और बतायें कुछ, चाय-ठंडा वगैरह लेंगे?” पन्द्रह
मिनट अबे ले ले और नहीं साहब, नहीं के डायलाग चले फ़िर उस्ताद जी ने कहा, “चल, तेरा
उधार या तेरी अमानत मेरे सिर पर” और टोपी सिर पर धारण करके ड्राईवर को चलने का आदेश
दिया, “चलो जी, हैलमेट की टेंशन खत्म।”
लगभग दस दिन तक सुबह शाम मोटर साईकिल की पिछली सीट पर ’मैं अन्ना हूँ’ वाली
टोपी पहनकर सफ़र करने के बाद आज उस्ताद जी ने अमानत लौटा दी थी। अब मुझे आंदोलन के
बारे में उनकी प्रतिक्रियाओं का अर्थ समझ आने लगा था।
उनका ताजा ऑब्जैक्शन\ओब्जर्वेशन(हमारे उस्तादजी की हर ओब्जर्वेशन दरअसल कोई न
कोई ऑब्जैक्शन ही होती है) ये है कि ये अनशन एकदम से फ़ेयर नहीं था। कह रहे थे कि
टी.वी. पर उन्होंने खुद देखा है कि अन्ना बिसलेरी का पानी पी रहे थे। हमने अपना
सामान्य ज्ञान दिखाने की कोशिश की, ’अनशन में पानी तो अलाऊड होता है।’
“यैस, लेकिन बिसलेरी साधारण पानी नहीं है। आप बोतल चैक करिये, उस पर लिखा रहता
है ’मिनरल वाटर’, पावरफ़ुल पानी है वो।”
खून में दौड़ती हुई गुलामी देखकर सिर पीट लेने का मन करता है क्भी कभी लेकिन फ़िर
सोचता हूँ शायद हम जैसों को देखकर भी किसी को यही लगता होगा कि बेकार में प्रगति
के पथ पर सटासट दौड़ते इंडिया की राह में रोड़े अटका रहे हैं। इन जैसों की मानें तो
जो हो रहा है उसे प्रभु इच्छा मानकर उसी की आदत डाल लेनी चाहिये, न गिला किया
जाये और न शिकवा किया जाये। आयेगा कोई कल्कि अवतार और खुद ही कर करा लेगा, जो ठीक होगा। दुनिया बनाने वाले को अपनी दुनिया की फ़िक्र नहीं है क्या?
लेकिन blessing in disguise की तरह हम इनसे भी वरदान खींच लेते हैं। गुणों के
सागर, हर इल्म के माहिर और वक्त के पारखी इन उस्ताद जनों के अपन सदैव आभारी हैं।
कई मामलों में निर्णय लेने में जब सक्षम न हो पा रहे हों कि इधर जायें या उधर
जायें, तो हम इनके निर्णय का इंतज़ार करते हैं और आँख मूंदकर इनके पक्ष के विपक्षी
बन जाते हैं और अभी तक अपना ये निर्णय सही ही रहा है
।
अजीज की अमानत लौटाकर और भी बिंदास दिख रहे थे हमारे पाले उस्तादजी। वैसे वो
हमेशा बिंदास ही होते हैं, बस हुकमरानों की तरह दिखते फ़िक्रमंद हैं ताकि दूसरे ये न
समझ लें कि बड़े सुकून में हैं, कोई कामधाम नहीं है इनके पास। किसी भी सिच्युएशन के
लिये उनके पास प्रोब्लम मौजूद रहती है। ऐसा हुआ तो ये प्राब्लम, नहीं हुआ तो दूसरी
प्राब्लम।
दिन में दो तीन बार चपड़ासी को बुलवाकर कभी कम्प्यूटर को टेबल के सुदूर उत्तर में
रख लेते हैं और कभी दक्षिण-पूर्व में। आधा फ़ुट आगे खिसका लिया और कभी डायरैक्शन
टेढ़ी कर ली। कोई कुछ पूछे, उससे पहले ही उनका रेकार्ड चालू हो जाता है, “दुखी आ गया
यार मैं तो इस कम्प्यूटर से, जब देखो बंद हो जाता है। आऊटपुट क्या बैंगन निकलेगी,
सारा दिन तो इसी वास्तुशास्त्र में निकल जाता है। अब जगह बदल कर देखी है, शायद सही
चल जाये ।” हमने कई बार खुद को प्रस्तुत किया कि हमारा कम्प्यूटर ले लो, हमारी सीट
ले लो – आप बिगड़ी चीजों से परेशान हो, हमें अब सुधरी चीजों से डर लगता है:) लेकिन
नहीं, कह्ते हैं कि यार मुझसे छोटे हो, मैं इतना स्वार्थी नहीं हुआ कि अपनी
मुसीबत तुम्हें दे दूँ। बस हम कुर्बान हो जाते हैं उनके बड़प्पन पर, क्या हुआ अगर
थोड़ा बहुत उनकी सीट का काम इधर आ गया तो, चलता है।
अब अपने सामने प्राब्लम ये आ खड़ी हुई है कि जिक्र तो छेड़ दिया, और परिचय करवाया
नहीं। तो मिलवाते हैं आपको किसी दिन हमारे पाले उस्तादजी से। ’पाले
उस्तादजी,’ इस वाक्यांश में ’पाले’ संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या विशेषण किसी भी
रूप में फ़िट कर सकते हैं। ’जाकी रही भावना जैसी’ वाले स्टाईल में किसी भी रूप में
और किसी भी रोल में फ़िट होने की कूव्वत रखते हैं हमारे ताजातरीन ’पाले उस्तादजी।’ बस ये ध्यान रखियेगा, ये बहुत संक्षिप्त परिचय है, जिसे कहते हैं - tip of an iceberg.
बैंक में अमूमन शाम सात बज जाया करते हैं। चार बजे के बाद पब्लिक आऊट तो अपन
लोग हो जाते हैं मर्जी के मालिक। मोबाईल में गाने शुरू किये और काम निबटाना शुरू।
यहाँ आये चौथा-पाँचवां दिन था और पहली बार ही गाने सुनने शुरू किये थे कि श्रीमानजी आ
कर खड़े हो गये। तब तक अपनी दुआ सलाम के अलावा और ज्यादा परिचय नहीं था। “मैं अपना
काम छोड़कर ये गाना सुनने आया हूँ, बहुत प्यारा गाना है।” हमारी पसंद की तारीफ़ करें
और हम खुश न हों? एक के बाद दूसरा गाना, फ़िर तीसरा। गाने चलते रहे और इनका मूड
बनता गया। फ़िर आया गाना, “जो हमने दास्ताँ अपनी सुनाई, आप क्यूँ रोये” ये साहब
मुड़कर चल दिये। अब अपने को बात खटकी, बुलाया और पूछा कि क्या ये गाना पसंद नहीं
आया? बोले, “नहीं, ये बात नहीं है। गाना बहुत अच्छा है और आवाज भी, लेकिन ये गाना
सुनकर मेरी बीमारी याद आ गई है।”
“बीमारी और आपकी? आप तो माशाअल्लाह जवानों से भी जवान दिखते हैं।”
मजबूरी में ही सही, बैठ गये हमारे सामने और कहने लगे कि पिछले अट्ठाईस साल से
उनकी आँख में आँसू नहीं आते। मैंने नादानी में इस बात के लिये बधाई दे डाली और वो
और मायूस हो गये, “देखो, मेरी बीमारी में भी मुझे बधाई दे रहे हो, और ये कम्बख्त
आँसू हैं, जो अब भी नहीं आये।” बता रहे थे कि कई सालों से सोच रहे हैं कि डाक्टर को
चैक करवायें कि आँसू सूख क्यों गये हैं, फ़िर खुद ही कहने लगे कि गंगोत्री\गोमुख से
जो पानी की धारा निकलती है वो खुदबखुद गंगासागर पहुँच जाती है। रास्ते में बेशक
अनगिनत नदियाँ मिलती हैं, लेकिन स्रोत ही सूख गया तो फ़िर क्या बचा? उनका मन
हल्का करने के लिये मैंने वैसे ही कहा कि मुझे हँसे हुये कई साल बीत गये हैं तो
फ़ौरन टोक दिया, “अभी हफ़्ता पहले तो बहुत चहक रहे थे, जिस दिन आपसे मिलने कोई गैस्ट
आये थे। अबे किशन, झूठ बोलते हुये पकड़े गये संजय जी, ले सौ रुपये इनसे और कुछ
खाने-पीने का सामान लेकर आ। अब तो वैसे भी अन्ना ने अनशन तोड़ दिया है, खाते समय
गले में कुछ अटकेगा भी नहीं।”
“एक बात बताओ, आप हो किसकी तरफ़? कभी सरकार की बुराई, कोई सरकार के खिलाफ़ आवाज
उठाये तो फ़िर उसकी बुराई। ”
“इसका जवाब दो शब्दों में नहीं दे सकता। जैसे, किसी ने एक बार पूछा था कि
वैजीटैरियन हूँ या नॉन-वैजीटैरियन तो मैंने कहा था कि मौकाटैरियन हूँ।”
हमने उस दिन, उस पल से उन्हें उस्तादजी पाल लिया, सॉरी उस्तादजी मान लिया
है।