गुरुवार, दिसंबर 01, 2011

नशा है सबमें मगर रंग नशे का है जुदा........


"गीत लिखने वाले ने ठीक लिखा है, मतलब निकालने वालों ने भी ठीक मतलब निकाला है। अन्ना का फ़ार्मूला भी ठीक है और इस बात पर अन्ना की खिंचाई करने वाले भी ठीक हैं।
लिखने वाले, कहने वाले इतना कुछ लिख कह गये हैं कि हर कोई अपने मतलब की बात निकाल ही लेता है।
 अनुराग जी का ये कहना "जिन्होने समाज-सुधार में थोड़ा भी योगदान दिया है वे उनसे तो बेहतर ही हैं जिन्होने कुछ नहीं किया" बिल्कुल ठीक है।
8 A.M. वाली हमारी ये टिप्पणी पता नहीं ठीक है या नहीं:)"
ये कमेंट किया था अंशुमाला जी की पोस्ट पर ’नशा शराब में होता तो......’
http://mangopeople-anshu.blogspot.com/2011/11/mangopeople.html?showComment=1322361489913#c6657040222165410415 ,
लेकिन वो फ़ंस गया था स्पैम में तो सोचा कि चलो आज इसी पर सही। मेहनत बरबाद न हो, इसलिये इतनी मेहनत और कर ली। फ़िर  किसी वजह से पोस्ट नहीं कर पाया था और अब तो कमेंट भी दिख रहा है। लिख दिया था तो अब छाप भी देते हैं कौन सा पैसे लग रहे हैं अभी?  :))
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जहाँ तक मेरी जानकारी है, ये गीत प्रकाश मेहरा ने लिखा था। वही प्रकाश मेहरा, जिन्हें हम एक मसाला फ़िल्ममेकर के नाम से जानते हैं। इस गीत से भी ज्यादा लावारिस फ़िल्म के कैबरे डांस वाले गीत ’अपनी तो जैसे-तैसे’ के शब्दों ने मुझे बहुत प्रभावित किया था। उस गीत को अगर आप बिना देखे हुये सुनें तो उसका एक अलग ही प्रभाव पायेंगे।  अवैध रिश्तों के नतीजे के रूप में पैदा हुई, पली बढ़ी इंसानी नस्ल के दर्द को बहुत नफ़ासत से बयान किया गया है। कमर्शियल सिनेमा की मजबूरियों के चलते इस गाने को फ़िल्माते वक्त यकीनन दिल से बहुत बड़ा समझौता किया गया होगा। मैं इस गाने को देखने की जगह ऑडियो फ़ार्मेट में सुनना ज्यादा  पसंद करता हूँ, आखिर दिल तो है दिल, दिल का ऐतबार क्या कीजै:)

बात करें नशे की तो ये भी मजे की तरह किसी का गुलाम नहीं। नशे का मायना सबके लिये अलग अलग है।  शराबी को शराब से नशा होता है तो किसी को सत्ता से नशा होता है। किसी के लिये रूप से बड़ा कोई नशा नहीं तो किसी के लिये धन सबसे बड़ा नशा है। असली बात है नशे का असर, वो असर आपको कहाँ लेकर जा रहा है, ये बात ज्यादा मायने रखती है।   बातों का नशा भी है और मुलाकातों का नशा भी है, और तो और मुक्का लातों का नशा भी होता है। समाजसेवा, परोपकार ये भी तो नशे से कम नहीं? शक्ति का नशा होता है तो भक्ति का भी नशा ही होता है। ये  जो पीर-पैगंबर और हमारे दूसरे नायक हुये हैं, वो भी चाहते तो हम लोगों की तरह लीक पर चलते हुये जिंदगी बिता सकते थे। घर से बेघर होकर कहाँ कहाँ की यात्रायें की, किसी ने जहर पिया, किसी ने गोली खाई, कोई फ़ाँसी चढ़ा। कोई जलते तवों पर बैठाया गया, किसी को हाथी के आगे फ़ेंका गया। उनकी रूह पर भक्ति का नशा न होता तो ये सब संभव हो सकता था?  

गुरू नानक देव जी द्वारा की गई यात्रायें चार उदासियों  के नाम से जानी जाती हैं। ऐसी ही एक यात्रा के दौरान वो सिद्धों के इलाके में पहुँचे। अपने वर्चस्व वाले इलाके में एक नये साधु का आना सुनकर उन्होंने एक बर्तन भेजा, जो लबालब दूध से भरा हुआ था।  लाने वाले ने वो बर्तन पेश किया और चुपचाप खड़ा हो गया, गुरू साहब ने उस बर्तन में गुलाब के फ़ूल की पंखुडियाँ डाल दीं जो दूध के ऊपर तैरने लगीं। इन यात्राओं में बाला और मरदाना उनके सहायक के रूप में शामिल थे। ये माजरा उन्हें समझ नहीं आया तो फ़िर गुरू नानक देव जी ने उन्हें समझाया कि सिद्धों ने उस दूध भरे बर्तन के माध्यम से यह संदेश भेजा था कि यहाँ पहले से ही साधुओं की बहुतायत है, और गुंजाईश नहीं है। गुरूजी ने गुलाब की पंखुडि़यों के माध्यम से यह संदेश दिया कि  इन पंखडि़यों की तरह दूध को बिना गिराये अपनी खुशबू उसमें शामिल हो जायेगी, अत: निश्चिंत रहा जाये। उसके बाद दोनों पक्षों में प्रश्नोत्तर भी हुये। सिद्धों ने एक प्रश्न किया था कि आप ध्यान के लिये किन वस्तुओं का प्रयोग करते हैं? उत्तर देते हुये गुरू नानक देव जी ने कहा था, "नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिन रात"  कि प्रभु नाम सिमरन की ये खुमारी दूसरे नशों की तरह नहीं कि घड़ी दो घड़ी के बाद उतर जाये। ये तो वो नशा है जो एक बार चढ़ जाये तो दिन रात का साथी बन जाता है।

अब एक किस्सा शराब और शराबी पर, खुद सुना-सुनाया। हमारे एक भूतपूर्व गार्ड फ़ौज की पेंशन लेने हर महीने एक या दो तारीख को अपने पैतृक गाँव वाले बैंक में  जाया करते थे। उनका कहना था कि इस बहाने कम से कम महीने में एक बार बूढ़े माँ-बाप, भाईयों के परिवार से मिलना हो जाता है। उनका गाँव हरियाणा-राजस्थान  सीमा पर पड़ता था। उस इलाके में एक जाति विशेष रूप से  इस कुटीर उद्योग में संलग्न थी। कई बार इस बात का जिक्र कर चुके थे।  एक बार गार्ड साहब पेंशन लेकर लौटे तो दो तीन दिन तक उनकी तबियत कुछ नासाज़ दिखी। दरियाफ़्त करने पर उन्होंने कुछ इस तरह बताया।

"इस बार पेंशन लेने गया तो बैंक में ही एक पुराना मित्र मिल गया, जो कुछ साल किसी डाक्टर के पास कंपाऊडरी करने के बाद अब  गाँव में  अपनी डाक्टरी पेल रहा था(क्लैरिफ़िकेशन - गीता है नहीं मेरे पास, न तो उस पर हाथ रखकर कसम खा लेता कि  डाक्टरी ही बताया गया था)। बैंक के काम से फ़ारिग होकर दोनों दोस्तों ने जिन्दगी के गम दूर करने की या इस मुलाकात को सेलिब्रेट करने की सोची। डाक्टर ने कहा कि आज तुझे ’झीणी’ के हाथ की खींची हुई शराब पिलाता हूँ। जालिम क्या तो खुद है, और क्या शराब खींचती है..बिना पिये अंदाजा लगाना मुश्किल है। हमने भी सोची कि सरकारी उचित दर वाली दुकान से तो रोज पीते हैं, आज स्वदेशी, स्वावलंबी, कुटीर उद्योग वाली  ही सही।  वैसे भी डाक्टर सिफ़ारिश कर रहा है तो पहुँच गये उस ठीये पर अपने और पूरे जहान के गम गलत करने। पूरी बस्ती में कम से कम बारह पन्द्रह घर थे जिन्होंने घर के पिछवाड़े में गड्डे बना रखे थे और उन गड्डों में शराब बनने बनाने की सतत प्रक्रिया चलती रहती थी।

अपने पसंदीदा अड्डे पर पहुँचकर डाक्टर ने आवाज लगाई, "ओ झीणी, देख आज नया बंदा लेकर आया हूँ। तेरी इतनी तारीफ़ की है इसके आगे, नीचा न दिखा दियो मन्नै।" 

चहकती हुई झीणी बाहर आई "कौण डाक्टर सै के?" 

दो ही मिनट में झूलती टेबल और हिलती कुर्सियों के साथ मैचिंग करता एक लबालब भरा हुआ जग और दो गिलास लेकर झीणी हाजिर हो गई। डाक्टर ने जेब से तली मूँगफ़लियों का पैकेट निकाला और हम दोनों शुरू हो गये। डाक्टर घूँट घूँट पीने के बाद ’जियो झीणी रानी’ का नारा लगाता था। मुझे स्वाद अटपटा सा लगा लेकिन डाक्टर को सुरूर में आते देखकर मैं भी धीरे धीरे घूँट भर रहा था। बचपन का दोस्त बहुत दिनों के बाद मिला था, शायद डाक्टर ज्यादा ही जोश में आ गया था। एकदम से पूछने लगा, "मैंने यहाँ सबके ठियों पर चखकर देख रखी है, लेकिन झीणी रानी, तेरी शराब में बात ही कुछ अलग है। कई बार पूछा है तुझसे, आज बता ही दे कि अलग से इसमें  क्या मिलाती है तू? बोल न,  तुझे मेरी कसम है आज। मेरे दोस्त के सामने मन्ने नीचा न दिखा दियो।" अब बात ये है जी, लुगाई जात ऐसी ही होवे है कि जहाँ अपनी कसम दे दो, फ़ट्ट से  पिघल जावै है। झीणी भी पिघल गई और बोली, "डाक्टर, तू भी न बस्स...।  देख, माल मसाला तो सब जगह एक सा ही डले है, मैं तो अपनी जानूँ हूं कि जद से ब्याह के इस घर में आई हूँ, रोजी रोटी की कसम है मुझे अगर मन्ने एक बार भी इस गड्डे के अलावा कहीं और मूता हो।"

मैंने अब तक जो दो चार घूँट भरे थे, सूद समेत टेबल पर उलट दिये और डाक्टर की दिप दिप करती आँखें पता नहीं इस बात से खुश थीं कि झीणी ने उसे नीचा नहीं दिखाया  या  इस बात से कि उसके बचपन का दोस्त शहर  वाला होकर देसी चीजों को पचाने की अपनी शक्ति खो बैठा है। मैं उठ रहा था और वो मेरा हाथ पकड़ कर बैठा रहा था, एक जग और पियेंगे। बार बार कहता था कि झीणी ने उसकी बात का मान रखा है और सीक्रेट फ़ार्मूला बता दिया है।  "बकवास मत कर तू।  आज माँ बाबू से मिले बिना ही वापिस जा रहा हूँ, कह दियो उनसे कि एकदम से कोई जरूरी काम आ गया था।"

बाद का हाल पूछने पर गार्ड साहब ने इस वाकये का सबक ये बताया कि गाँधी बाबा महान थे। उनके बताये तीन बंदर भी महान थे। न बुरा देखो, न बुरा सुनो और न बुरा बोलो। मैंने यूँ ही पूछ लिया कि काम तो एक ही बंदर से चल सकता था जिसकी मार्फ़त ये संदेश मिलता कि बुरा मत करो?  ड्यूटी ऑफ़ किये काफ़ी देर हो चुकी थी, आज सरकारी उचित दर के ठेके के सेवनदार बने हुये गार्ड साहब ने कहा, "इस सारी बात से आपने कोई सबक नहीं सीखा। फ़ालतू के सवाल करने से सेहत को नुकसान पहुँच सकता है, जैसे डाक्टर के सवाल से हुआ। महान लोगों ने जो कह दिया, चुपचाप से उसे मान लो और मान नहीं सकते तो भी संकट के समय में उनके बोले डायलाग बोल दो। बातों का पालन उतना जरूरी नहीं है जितना मौके-बेमौके पर उनका बोला जाना।   

याद आ रही हैं ये सब बातें और लग रहा है कहीं मीडिया ने जरूर वो क्लिपिंग डिस्टार्ट या एडिट कर दी होगी जिसमें एक गाल पर तमाचे के बाद गाँधीजी को याद करते हुये फ़ौरन दूसरा गाल आगे बढ़ाया गया होगा.........।.......सरदारजी ने पद संभालते ही जो टेक लगाई थी ’देहि शिवा वर मोहे इहै, शुभ करमन से कबहुँ न टरूँ’ बराबर पूरी कर रहे हैं। साझीदार के  एक थप्पड़ लगते ही खुद फ़ोन लगाकर हालचाल पूछा,  इससे ज्यादा और क्या कर सकते हैं?........कसाब के 26\11 को तीन साल हो गये हैं, सिल्वर जुबली पता नहीं कितने साल में मानी जाती है आजकल?  कानून अपना काम करेगा -yes, law will take its own course. .........जो हमसे टकरायेगा, चूर चूर हो जायेगा।....... केजरीवाल तो लपेटे में आ ही  गये थे, अब क्रेन बेदी, हो जाओ तैयार, मुकदमेबाजी के लिये।............. रामदेव, बालकिशन, अलानो  फ़लानों, यू आल डिज़र्व दिस ट्रीटमेंट। सबकी फ़ाईलें तैयार हैं।  समझते ही नहीं गाँधीजी के तीन बंदर वाला इशारा...।.......झीणी बाई, तुझे सर्च करता हूँ फ़ेसबुक पर और दूसरी साईट्स पर, हौंसला न छोड़ियो और जारी रहियो अपने कुटीर उद्योग में  वैल्यू एडीशन करने में।   यू.पी. वालों के बाद हरियाणा पंजाब के दलितों पिछड़ों के घर भी सवारी तशरीफ़ ला सकती है,  कभी तो वोट यहाँ भी पड़ेंगे.......हो सकता है झीणी बाई के ठीये पर ही अबकी बार.................... .......सरकार किसानों का भला करके ही मानेगी, एफ़ डी आई पर पीछे नहीं हटना है जी.............जनता साली पागल कहीं की, समझती है नहीं कुछ  और बरगलाये में आ जाती है.................बिचौलियों को उनकी औकात दिखा देनी है इस बार...............कनिमोझी छूट गई.....मालेगांव वाले छूट गये.....law will take its course..............ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे, तोड़ेंगे दम मगर, तेरे पैर न छोड़ेंगे...................और इशारा करो जी आप तो, गद्दी जायेगी तो जाये.................तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा............

इतनी बार नशा नशा लिखा गया है मुझसे कि  गम और भी गलत होता जाता है:)) सरकार राशन कार्ड में कैरोसीन के साथ इसका भी कोटा बाँध दे तो कैसा रहे?  खाओ-पियो करो आनंद  और .....................