उस शाम घर वापिसी के लिये स्टेशन पहँचे तो पहले से स्टेशन पर पहुँचा साहनी बहुत खुश दिखाई दिया। हम सब चिंता में डूब गये| जिस दिन साहनी खुश दिख जाता था उस दिन या उससे अगले दिन जरूर हम लोगों में झगड़ा होता था। डरते डरते वजह पूछी तो पता चला कि सर्दियों के चलते कोई एक्सप्रेस गाड़ी अपने निर्धारित समय से घंटों देर से चल रही थी और आज हमारी रोज वाली पैसेंजर गाड़ी के टाईम पर वही आ रही है। चहकते हुये उसने समीकरण बताया - आज पैसेंजर ट्रेन की जगह एक्सप्रेस में सफ़र करने को मिलेगा + दिल्ली पहँचकर गाड़ी बदलने का झंझट नहीं रहेगा = घर पहँचने के रोज के टाईम से कम से कम डेढ़ घंटा पहले घर पहँचेगा यानि कि हुण मौजां ही मौजां। मैंने खुद को अगले दिन होने वाली लानत-मलानत के लिये तैयार करना शुरू कर दिया।
अगला दिन, समय वही और जगह भी वही। हम सब भी वही, बस हमारा साहनी अपनी स्वाभाविक मुद्रा से भी ज्यादा स्वाभाविक रूप से रौद्र दिख रहा था। ट्रेन में बैठे, पत्ते बँटने शुरू हुये कि शर्मा ने मुझे इशारा किया और हम शुरू हो गये।
पत्ते बाँटते बाँटते मैंने पूछा, "साहनी साहब, कल तो जरूर भाभी ने पकौड़े बनाकर खिलाये होंगे?"
"क्यों, बारात आनी थी उसकी? पत्ते बाँट चुपचाप।"
"अरे, कल तुम्हें डेढ़ घंटा पहले घर पहुँचा देखकर खुश हो गई होगी, इसलिये पूछा। तुम तो यार ऐसे गरम हो रहे हो जैसे ..।"
भाई का पारा चढ़ने लगा था, "मुझे पता था उंगली किये बिना मानना नहीं है तूने। खेल में ध्यान नहीं लगा सकता क्या? खाना खाते समय और ताश खेलते समय बोलना नहीं चाहिये।"
"अच्छा यार, मैं नहीं बोलता। बिगड़ तो ऐसे रहा है जैसे पता नहीं क्या पर्सनल अटैक कर दिया हो। अच्छा, ये तो बता दे कि कल घर किस समय पहुँचा था?"
":रोज वाले टाईम पर, साढ़े आठ बजे। नहीं बोलूँगा कहकर भी सवाल पूछे जा रहा है। अब मत पूछियो कुछ।"
"बोलने से मना किया था तुमने, पूछने से नहीं। कल तो एक्सप्रेस गाड़ी थी, फ़िर भी रोज वाले टाईम पर? कहाँ चला गया था?"
"मुझे गुस्सा मत दिला यार, चुपचाप पत्ता फ़ेंक।"
"कभी बोलने से मना करता है तो कभी पूछने से। चल ठीक है यार, हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता। जहाँ और जितना दिल करे, उतने धक्के खा।"
"मैं क्यों धक्के खाऊँगा? हमारे स्टेशन पर बेंच नहीं है क्या? या उस पर मैं थोड़ी देर बैठूँगा तो रेलमंत्री के पेट में दर्द हो जायेगी? ले, सुन ले सारी बात। सात बजे उतर गया था तेरी उस एक्सप्रेस वाली गाड़ी से, फ़िर सोचा जल्दी घर पहुँच गया तो बेकार में वो सौ तरह के सवाल पूछेगी इसलिये वहीं बैठ गया। फ़िर जब रोज वाली ट्रेन आई तो मैं भी उठकर अपने घर चला गया। तुम खेलो यार, मेरा मूड नहीं है अब खेलने का।" सबने बहुत समझाया लेकिन साहनी अपनी जबान का पक्का था, उस दिन नहीं ही खेला। अगले दिन से धीरे धीरे उसे फ़िर पटरी पर ले आये।
इस बात से साल भर पहले हमारी भाभीजी ने एक बार अपने लिये चप्पल मँगवाई थी। शाम को लौटते समय साहनी ने कहा कि मेरे साथ बाजार चलो, सात नंबर की लेडीज़ चप्पल लानी है। शर्मा कहने लगा, "कौन सी कंपनी का सात नंबर? हर कंपनी का अपना अपना स्केल होता है, बाटा का सात अलग होता है और लखानी का अलग। मुझे तो कभी चप्पल खरीदनी होती है तो नंबर की बजाय हाथ से अपनी मिसेज के पैर का साईज़ नाप लाता हूँ। एकदम सही साईज़ मिलता है फ़िर, नंबर का झमेला ही नहीं।" साहनी को बात जम गई और चप्पल खरीद एक दिन के लिये मुल्तवी हो गई। अगले दिन बाँया हाथ-दायां हाथ का कन्फ़्यूज़न हुआ, पैमाईश का नया फ़ार्मूला धागे वाला निकला और शॉपिंग एक दिन और टल गई। तीसरे दिन हम पाँच बंदे एक जोड़ी चप्पल खरीदने गये। दुकानदार को धागा दिखाकर साईज़ समझा दिया गया और साथ ही सिफ़ारिश भी कर दी गई कि रेट बेशक अपनी मर्जी का लगाये लेकिन चप्पल ऐसी होनी चाहिये कि जोर से भी लगे तो आवाज कम से कम आये। दुकानदार ने वताया कि आजकल ऐसी लेडीज़ चप्पल ही ज्यादा बिकती हैं, ज्यादा आवाज और कम चोट वाली तो जेन्ट्स चप्पल आती हैं। पुरुषत्व के सुपीरियरीटी कॉम्प्लेक्स के चलते साहनी समेत हम सब बहुत खुश हुये। साहनी भी खुश हुआ था नतीजतन हमेशा की तरह अगले दिन फ़िर हम लोग किसी बेकार सी बात पर बहुत उलझे।
ये तो हुई भूमिका, अब आते हैं मुख्य घटना पर। एक दिन शाम को स्टेशन पर पहुँचे और गाड़ी के आने का सिग्नल भी हो चुका था। दूर से गाड़ी आती दिखने लगी। स्टेशन से थोड़ा पहले ही हार्न बजाती हुई गाड़ी रुक गई और देखते देखते इंजिन के पास भीड़ इकट्ठे होने लगी। हम प्लेटफ़ार्म पर ही ताश खेलने में मस्त रहे, साहनी भीड़ का हिस्सा बनने चला गया। काफ़ी देर के बाद लौटा, जैसा कि अंदेशा था उसने बताया कि कोई बेचारा गाड़ी के नीचे आकर मर गया है। कोई जवान लड़का था, सामने से रेल आते देखकर भी जल्दबाजी में साईकिल लेकर पटरी पार करने लगा और...। साहनी बता रहा था कि एकदम नई साईकिल थी बेचारे की। हमें अफ़सोस हुआ लेकिन उतना ही, जितना अखबार में ऐसी कोई खबर पढ़कर होता है। ट्रेन आई और सब फ़िर से महती कर्म में जुट गये। साहनी ने फ़िर से उस लड़के की बात छेड़ी, "बेचारा जवान लड़का था। घर से पता नहीं किस काम से निकला होगा लेकिन मौत पर किसी का बस नहीं चलता है। साईकिल भी एकदम नई थी जैसे अभी ही खरीद कर लाया हो।" एक बार फ़िर से सबने दुख प्रकट किया। साहनी चूँकि मौके पर देखकर आया था वो उस मंजर को भुला नहीं पा रहा होगा, कुछ देर बाद फ़िर से उसने वही बात छेड़ी और साथ ही नई साईकिल की बात भी। बेध्यानी में मैं कह उठा, "यार, तू ऐसा कर कि अगले स्टेशन पर उतर जा और दूसरी ट्रेन से वापिस चला जा। साईकिल वहीं रखी होगी, तेरा ध्यान उस साईकिल में ही फ़ँसा है तो ले आ जाकर।" साथी लोग जोर जोर से हँसने लगे, साहनी सन्न रह गया और मैं ...।
अगला स्टेशन आने पर उसने अपना बैग उठाया और कोच से उतर गया। उस दिन के बाद उसने हम लोगों के साथ आना जाना, बोलना खेलना सब छोड़ दिया। शुरू में दो चार दिन हम लोगों ने उसे साईकिल का नाम लेकर उकसाने की कोशिश भी की लेकिन वो चुपचाप वहाँ से चला जाता। फ़िर धीरे धीरे उसके और हमारे रास्ते अलग अलग हो गये। जिन्दगी अपनी रफ़्तार से उसकी भी चलती रही और अपनी भी, लेकिन एक बोझ सा सीने पर रहा ही।
पिछले सप्ताह मेट्रो से उतरकर बैंक जा रहा था तो "अबे, संजय है क्या?" कहकर उसने आवाज लगाई तो एक बार तो मैं भी पहचान नहीं पाया। शायद पन्द्रह साल बाद मिले होंगे, दुनिया सच में बहुत छोटी हो गई है। पांच सात मिनट वहीं बस स्टैंड पर खड़े खड़े ही बातचीत हुई। मैंने कहा कि यार उस दिन मुझसे गलती हुई, मुझे ऐसा नहीं बोलना चाहिये था तो वो मुस्कुराने लगा।
हालचाल पूछने के बाद बताने लगा, "आज ड्यूटी से छुट्टी कर रखी है। नया स्कूटर खरीदने जा रहा हूँ।"
मन तो किया कि कह दूँ, "क्या फ़ायदा होगा तेरे नया स्कूटर खरीदने से? घर तो वही पुराने टाईम पर जायेगा।" लेकिन हाथ मिलाकर इतना ही कह पाया, "यार, ध्यान से चलाना, ट्रैफ़िक बहुत है आजकल।"
सैकड़ों हजारों पत्थरों में से एक पत्थर और उतरा, चलो कुछ तो बोझ कम हुआ। सौ टके का सवाल ये है कि बेशक छोटी सी ये दुनिया पहचाने रास्ते हैं, क्या ऊपरवाला हमेशा और हर बार इतनी मोहलत देता है कि अपनी गलती मान सकें? जवाब अगर हाँ है तो कीप मिस्टेकिंग को कीप इट अप रखेंगे और अगर जवाब न में है तो क्विट।
हमने ये भी सोचा कि अपने मुँह मियाँ मिट्ठू तो आप सबके सामने इतनी बार बन चुके, एक अध्याय ऐसा भी सही। :)
गाना सुनो यार, बहुत दिन हो गये उल्टा सीधा लिखते पढ़ते हुये..