हाथ पर और घुटने पर लगी खरोंचों को
देखकर कहने लगे, "पुत्तर, बचाव हो गया। केहड़े पिंड जाना है?" अब आगे.....................
मैंने बताया तो पूछने लगे कि किसका लड़का हूँ? मैंने बताया, "बापूजी,
मैं यहाँ का रहने वाला तो हूँ नहीं। नौकरी के सिलसिले में यहाँ रहता हूँ,
मेरे परिवार को आप नहीं जानते।" बारिश रुक चुकी थी लेकिन गीली सड़क पर कुछ
देर पड़ा रहा था, गीले कपड़ों के कारण ही शायद सिहरन सी लग रही थी। मैंने
उनसे पूछा कि वो इस समय सड़क पर क्या कर रहे थे? हँसकर बताने लगे, "कुछ
बंदों के साथ हरमंदिर साहब के दर्शनों के लिये गया था, लौटने में देर हो
गई। बाकी सब शहर के थे, मुझे पिछले मोड़ पर उतारकर गाड़ी से वापिस चले गये
थे। थोड़ा सा आगे आकर देखा तो सड़क के बीच में मोटर साईकिल गिरी पड़ी थी,
परमात्मा का शुक्र है कि तुम्हें ज्यादा नहीं लगी।"
मैंने टाईम
देखा, शहर से चले हुये लगभग दो घंटे हो चुके थे। तो क्या मैं इतनी देर तक
सड़क पर..? बूँदाबादी फ़िर होने लगी थी और साथ साथ मेरी आँखों के आगे फ़िर वही
धुंध। चोट तो ज्यादा लगी नहीं तो क्या थकान के कारण ही मुझे पता नहीं
चला..?
सरदारजी ने सहारा देकर मुझे खड़ा किया। आमने सामने खड़े हुये तो
मैंने पहली बार उनकी तरफ़ गौर से देखा। सफ़ेद कुर्ता पायजामा, मजबूत कद
काठी के साथ स्नेह बरसाता निश्छल चेहरा। मोटरसाईकिल दो तीन किक खाने के बाद
स्टार्ट हो गई, मैंने कहा कि उनको छोड़ दूँगा तो उन्होंने हाथ से इशारा
करते हुये कहा कि उनका घर तो ये सामने है। मैंने उधर देखा तो पेड़ों के पीछे
सड़क से थोड़ा हटकर बना हुआ एक दोमंजिला पक्का मकान दिखाई दिया। हैरानी की
बात ये है कि अब भी बूँदाबांदी, हवा और चांदनी वही टिपिकल पहाड़ों जैसी धुंध
का सा आभास दे रहे थे। पेड़ों के पीछे, एक अकेला मकान, बहती हुई सरकती हुई
सी धुंध की चादर एक अजीब सा नशीला सा माहौल बना रहे थे। सरदारजी ने मेरे
सिर पर हाथ फ़ेरा और जेब में हाथ डालकर कुछ फ़ूल बाहर निकाले। जरूर
गुरुद्वारे से प्रशाद के साथ मिले होंगे।एक फ़ूल मेरी तरफ़ बढ़ाया, दोनों हाथ
से मैंने गुरुघर का प्रशाद स्वीकार किया, माथे से लगाकर जेब में रख लिया।
बुजुर्गवार ने मेरी पीठ थपथपाई, बोले, "पुत्तर, ध्यान से जाना।"
मैं
चल दिया था। दिमाग खाली नहीं रहता है, सोचने लगा कि सरदारजी टाईम पर न आते
तो शायद मैं सारी रात वहीं सड़क पर पड़ा रहता। लेकिन एक बात है, सरदारजी
निकले बड़े कोरे, एक बार झूठे से भी नहीं कहा कि बेटा, चोट लगी है और अब भी
बारिश हो रही है, रात यहीं रुक जा। सामने ही तो था उनका मकान। मैं कौन सा
रुकने वाला था? इन्हीं बातों को सोचता विचारता मैं कब कमरे पर पहुँचा, कब
सोया - कुछ ध्यान नहीं।
बग्गा सुड़क सुड़क कर अपनी चाय पी रहा था
और मेरी बात सुन रहा था। मेरे शरीर में अब भी ओफ़िस जाने की हिम्मत नहीं हो
रही थी, अकड़न-जकड़न ने शरीर पर कब्जा कर रखा था। मैंने बग्गे से कहा कि आज
मैं आराम करूँगा, शाम तक सब ठीक हो जायेगा। अब उसने भी खरोंचों का मुआयना
किया और ज्यादा चोट न लगने की बात पर शुक्र मनाया। पूछने लगा कि कौन सी जगह
पर मोटर साईकिल स्लिप हुई थी? अब गाँव-खेड़ों की सड़कों पर क्या साईनबोर्ड
लगे होते हैं, अंदाजे से उसे लोकेशन बताई। सोचकर कहता है, "है तो नेड़े
ही(पास ही है)।" फ़िर जैसे कुछ याद आ गया हो, एकदम से कहने लगा, "चल्लो जी,
घर अकेले रहोगे इससे अच्छा है दफ़्तर चलो। वहाँ पीछे सोफ़े पर लेट जाना। टाईम
पास हो जायेगा थोड़ा आपका भी।" बस इस टाईप के बंदों की यही आदत है, दबाकर
रखो तो कुछ नहीं बोलेंगे और जरा सी छूट दे तो सिर पर हावी होने लगेंगे।
मेरे बार बार मना करने के बाद भी जैसे जबरदस्ती ही मुझे कमरे से ओफ़िस ले
जाकर ही माना। और तो और पिछले दिन के कपड़े भी लपेटकर ले गया कि घर से
धुलवाकर दे जायेगा।
फ़िर ओफ़िस में जाकर सब वही कुछ पूछ्ते रहे, मैं जितना याद था वो बताता रहा। दफ़्तरों
में स्टाफ़ कम हो या ज्यादा हो, अनौपचारिक ग्रुप जरूर बने रहते हैं। बग्गा
अपने ग्रुप में बैठा था और धीरे धीरे अपने ग्रुप वालों के साथ गुटर-गूँ कर
रहा था। शाम को बॉस कुछ जल्दी निकल गये, हम भी निकलने की तैयारी कर रहे थे
कि बग्गा पार्टी ने आकर बीती रात की घटनाओं के बारे में फ़िर से सवाल जवाब
शुरू कर दिये। उससे पिछली रात कितनी देर सोया था से शुरू हुये सवाल खत्म
होने का नाम ही नहीं ले रहे थे।
अब मुझे खीझ होने लगी थी, "मोटर साईकिल
स्लिप होना कौन सी इतनी बड़ी बात हो गई जिसपे कमेटी बैठाओगे? ठीक है यार,
मैंने पी रखी थी। चढ़ गई, हजम नहीं हुई इसलिये गिर गया होऊंगा। खुश हो?"
"नईं साबजी, गुस्सा न करो। ये सब हम नहीं कह रहे हैं।"
"फ़िर, क्या कह रहे हो? मैंने झूठमूठ ये ड्रामा किया है?"
सारे चुप। एक बोला, "साबजी, जिस जगह अपकी मोटर साईकिल गिरी थी, वहाँ एक मकान है जरूर लेकिन उस मकान में कई साल से कोई नहीं रहता।"
"वो
बाबा तो वही मकान बता रहा था अपना। अब मैंने कौन सा रजिस्ट्री करानी थी उस
मकान की जो कागज पत्तर चैक करता? झूठ बोल रहा होगा, खैर हमें क्या लेना
देना। खत्म करो ये सब, मुझे वैसे भी आधा अधूरा सा ही ध्यान है वो सब।"
फ़िर
भी सब खड़े रहे। सुखदर्शन, जो उन सबमें उम्र में सबसे बड़ा था और मुझपर बहुत
स्नेह रखता था, धीरे से बोला, "साबजी, उस मकान में एक बूढ़ा अकेला रहता था।
बच्चे उसके बाहर मुल्क में सैट हो गये थे। कई साल पहले एक बार वो बूढ़ा
अपने कुछ संगियों के साथ स्वर्ण मंदिर के दर्शन करने अमृतसर गया था। वापिसी
में उनकी गाड़ी का एक्सीडेंट हो गया था और वो बेचारा मौके पर ही..।"
कुछ
सीन मुझे दिख रहे थे, कुछ धुंध के पीछे छुप जाते थे। हो सकता है ये बात
पहले भी सुन रखी हो, संयोगवश उसी मकान के पास एक्सीडेंट हुआ था तो अवचेतन
में से निकलकर कोई कहानी बन गई हो। खाली दिमाग वैसे भी शैतान का घर होता
है। आज बाहर बारिश नहीं हो रही थी लेकिन मेरे दिमाग में जरूर बिजलियाँ चमक
रही थीं। क्या-क्या ख्वाब देख लेते हैं हम? और फ़िर उन्हें सही ठहराने के
कितने बहाने भी, हद है यार। जमाना कहाँ से कहाँ पहुँच गया और अपना दिमाग
अब भी वही सदियों पुराना।
कुछ काम करने लगूँ तो इस गोरखधंधे से
छुटकारा मिले। घर आकर भूख न होने पर भी खाना बनाने की तैयारी में जुट गया।
खूब सारा खाना बनाना है आज, सोच लिया। अकेले बैठकर कैंडललाईट डिनर होगा, और
सच में कुछ देर में ही सब भूल गया। क्या हुआ था, कब हुआ था, कैसे हुआ था -
सब भूल गया।
सोने की तैयारी कर रहा था कि बग्गे ने आवाज लगाई, "साब, कपड़े ल्याया हूँ।"
"शाबाश शेर। इतनी जल्दी? धुलवा भी लाया और प्रैस भी करवा लाया, वैरी गुड।"
"आहो जी। तबियत ठीक है न हुण?"
"चकाचक। चल जा अब, रात बहुत हो गई।"
"हाँ जी, चलता हूँ। याद आया, कमीज की जेब में से ये फ़ूल निकला था।"
उसकी हथेली पर रखा हुआ गुलाब का सूखा फ़ूल मुझे दिखता था, फ़िर धुंध की चादर आ जाती थी, फ़िर दिखता था, फ़िर धुंध.......।
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