ये वो समय था जब लगभग हर घर में कम्प्यूटर और हर हाथ में मोबाईल नहीं होते थे। अपने देश में तकनीक की हद वी.सी.आर. और वी.सी.पी. तक ही पहुँची थी। कुछ उच्च मध्यमवर्गीय परिवारों के पास अपने वी.सी.आर.\वी.सी.पी. थे और कुछ नीचे के पायदान के शौकीन लोग फ़िल्मों के शौक के लिये वीडियो-पार्लर वालों पर निर्भर थे क्योंकि पूरे परिवार को साथ लेकर सिनेमा हॉल तक जाना भी सबके लिये संभव नहीं होता था। रात भर के लिये वी.सी.आर. किराये पर लाये जाते और कीमत वसूली के परंपरागत देशी रिवाज को निभाते हुये कम से कम तीन फ़िल्मों के कैसेट्स लाये जाते थे। बड़े परिवार थे, अड़ौस-पड़ौस में आना जाना भी रहता ही था। प्राय: पहला शो किसी धार्मिक या पारिवारिक फ़िल्म का होता था, जो सुबह होने तक एक्शन या रोमांस फ़िल्मों के शो में बदल जाता था। उस समय का अपना ही आनंद था। बहुत बार तो शाम होते तक बात फ़ैल जाती थी कि आज फ़लाने के यहाँ वी.सी.आर. आ रहा है और फ़लां फ़लां फ़िल्म लाई जायेगी। कोई ज्यादा ही सीक्रेसी मेन्टेन करने वाला होता था तब भी देर सवेर ही सही बात तो खुल ही जाती थी। जब दो जने तामझाम लेकर आते थे तो सीक्रेट मिशन की चुगली हो ही जाती थी और फ़िर फ़िल्म देखने के न्यौते, अपने परिवार वालों से रात भर किसी दोस्त के यहाँ रहने की स्वीकृति, पूरी राजनीति चलती थी। सौ बात की एक बात, वीडियो पर फ़िल्म देखना एक सामाजिक उत्सव की तरह से होता था।
एक दिन मैं शायद कॉलेज से लौट रहा था तो देखा कई लड़के घेंधू के साथ कुछ मसखरी कर रहे थे और वो जवाब में हमेशा की तरह खिसियाते हुये और हँसते हुये पार्लियामेंट्री भाषा में उनकी ऐसी-तैसी कर रहा था। अब तमाशा हो रहा हो और मैं चुपचाप वहाँ से निकल जाऊँ, ऐसा हो नहीं सकता। मैं रुककर तमाशे की वजह पूछने लगा। अब हमारे यहाँ तो हर बात पर कोई न कोई किस्सा है और हर किस्से की कोई न कोई पूर्वकथा तो दोस्तों, भला मानो या बुरा, किस्सा और उसकी पूर्वकथा तो झेलनी ही पड़ेगी। बोलो, इरशाद...:)
कागजों में तो उसका नाम प्रेमपाल था लेकिन जानते उसे सब उसके घरेलु नाम ’घेंधू’ से ही थे। मैं उसे हमेशा प्रेम कहकर ही बुलाता था और बदले में वो उम्र में हमसे बड़ा होता हुये भी मुझे भाई साहब कहकर बुलाता था। बाकी सब उसे घेंधू ही बुलाते थे, वो बदले में अबे तबे करके जवाब देता था। कुछ साल पहले यू.पी. के एक कस्बे से अपने बड़े भाई के साथ रोजी रोटी की तलाश में शहर-ए-दिल्ली में आया था। पढ़े-लिखे दोनों ही मामूली थे लेकिन मेहनती पूरे थे। एक दो कमरे का मकान किराये पर लेकर उसी में रहते भी थे, खुद ही हाथ से कुछ खिलौने बनाते और फ़िर खुद ही सप्लाई कर आते। मेहनत रंग लाई तो चार पैसे बचाये भी। इस सब में बड़े भाई का योगदान ही ज्यादा था, शरीर से भी वो घेंधू से कम से कम डेढ गुना था। हमारा घेंधू तो एक सहायक की तरह काम करता रहता था, जितना बड़े ने बताया वो कर देता।
जल्दी ही बड़े को दिल्ली का रंग चढ़ने लगा, कई यार दोस्त बन गये थे। शुरू में एक-एक पैसे की सोचने वाला वो अब किसी किसी मौके पर खुले हाथों से पैसा खर्चने लगा लेकिन अपने और अपने दोस्तों के खाने पीने पर ही। कुछ ही समय बाद उसकी शादी भी हो गई। इधर काम बढ़ रहा था, उधर परिवार भी, खर्च भी और साथ साथ ही भाईयों में थोड़ा सा असंतोष भी। पैसा कुछ आ गया था लेकिन रहन सहन वही पहले जैसा ही था। घेंधू सर्दियों में दिन भर शरीर पर कंबल लपेटकर घूमता और गर्मियों में बनियान और पायजामे में। कई बार देखते थे कि फ़र्श पर ही बोरी बिछाकर सोया रहता था। शेट्टी स्टाईल में सिर घुटा हुआ, तेल चमकता हुआ और चेहरे पर वही सदाबहार हँसी। ये जरूर है कि वो हँसी बड़े भाई को देखकर इधर उधर हो जाती थी। घेंधू बड़े भाई से डरता भी था, कई बातों से उससे खार भी खाता था लेकिन ये भी जानता था कि वो जो भी है, बड़े भाई के दम से ही है। छोटी मोटी बदमाशी कर लेता था जैसे बड़ा भाई माल बेचने गया तो वो कच्चे माल की खाली बोरियों में से दो चार बोरियाँ कबाड़ी को बेच आता था, इतनी ही रेंज थी। कहता था कि बीड़ी के पैसे भाई से माँगूंगा तो अच्छा थोड़े ही लगेगा।
किस्से की कहानी पूरी, अब किस्सा शुरू। लड़कों के साथ चलती नोक-झोंक से किस्सा कुछ यूँ खुला कि गई रात घेंधू का भाई अपने दोस्त से वी.सी.आर लेकर आया था और फ़िल्म देखने के घेंधू के अरमानों पर पानी फ़िर गया था जब गिलास में रंगीन पानी डालते हुये बड़े भाई ने धमकाया, "जा बे, सो जा दूसरे कमरे में।" आज्ञाकारी घेंधू चला आया, कमरे में फ़िल्म शुरू हो गई। कुछ देर के बाद बड़े भाई को कुछ शक हुआ और उसने चुपके से अंदर से दरवाजा खोल दिया। दरवाजे की झिर्री पर चिपका हुआ घेंधू झटके से दरवाजा खुलने पर मुँह के बल आकर फ़र्श पर गिरा। जब तक उठकर बाहर भागने का जतन करता तबतक जासूसी, ताक झाँक, जलन के कई आरोप और पिछवाड़े पर कई धौल-लातें बरस गईं और हर लात पर घेंधू चिल्लाता था, "मोकू तो दो बोरी लेनी थी भाई, वाई को ओढ़ बिछा लेता, ठंड बहुत लग रही थी।"
मैं तो खैर पहले भी उसे घेंधू कहकर नहीं बुलाता था,उस दिन के बाद से किसी और ने भी उसे इस नाम से नहीं बुलाया। उसका नया नाम ’दो बोरी’ हो गया था।
इस साल का बजट आ गया। बजट आने के बाद जितने भी नौकरीपेशा थे, सब घेंधू की तरह दिख रहे हैं। हम सब तो सर्दी से बचने के लिये दो बोरी की उम्मीद बाँधे थे कि उन्हें ही ओढ़-बिछा लेंगे लेकिन वित्तमंत्री जी को लगा होगा कि ये सब छुपकर सरकार की रासलीला देख रहे हैं, लगा दी लात। कोई बात नहीं बड़े भाई, अधिकार है तुम्हारा।