’अपने परिजनों की इच्छा का मान रखने के लिये विवाह किया जाये या अपनी रुचि को ध्यान मे रखते हुये सन्यास लिया जाये’ इस दुविधा से मुक्ति पाने के लिये एक नवयुवक ने कबीर से मार्गदर्शन माँगा। उसकी बात सुनकर कबीर कुछ सोचने लगे और फ़िर अपनी पत्नी को पुकारा, "इतना अंधेरा है, जरा दीपक जलाकर लाओ।" दिन का समय था और पर्याप्त प्रकाश था, युवक हतप्रभ होकर कबीर की तरफ़ देखने लगा। उसे और भी आश्चर्य हुआ जब बिना किसी प्रश्न या उलाहने के उस भरी दोपहरी में जलता हुआ दीपक लाकर उन दोनों के सामने रख दिया गया। अनमना सा होकर वह युवक कुछ देर वहाँ बैठा रहा। अचानक कबीर उठ खड़े हुये और गंगाजी में स्नान करने चलने की कहने लगे। युवक साथ हो लिया। स्नान के बाद दोनों लौट रहे थे तो एक टेकरी के पास रुककर कबीर ने टेकरी पर स्थित मंदिर में रहने वाले एक वृद्ध महात्मा जी को आवाज लगाई, "महाराज, आपके दर्शन की इच्छा है।" वृद्ध महात्मा धीरे-धीरे उतरकर नीचे आये। दर्शन से कबीर भाव-विभोर हुये एवं यथोचित अभिवादन के पश्चात महात्मा जी ऊपर चले गये जबकि कबीर और उनका अनुगामी हुआ वह नवयुवक वहीं खड़े रहे। पर्याप्त कष्ट के बाद महात्मा जब तक टेकरी की चोटी पर स्थित मंदिर तक पहुँचे, कबीर ने फ़िर से वही पुकार लगाई, "महाराज, आपके फ़िर से दर्शन की इच्छा है।" महात्मा फ़िर से नीचे आये और पुन: दर्शन की कबीर की टेक और वृद्ध महात्मा की टेकरी पर चढ़ने-उतरने की यह क्रिया कई बार दोहराई गई। अब तक युवक का धैर्य जवाब देने लगा था। वो तो कबीर से इतने अहम विषय पर सही मार्गदर्शन की अपेक्षा लेकर आया था और उस विषय पर कोई जवाब न देकर कबीर कभी तो भरे दिन को अंधेरा बताकर दीपक जलवा रहे थे और अब बार-बार उस वृद्ध महात्मा को शारीरिक कष्ट देते दिख रहे थे। उसकी मनोस्थिति भाँपकर कबीर ने कहा, "दीपक वाली घटना की तरह जीवनसाथी पर विश्वास रख-पा सको तो विवाह कर लो और दूसरों के सात्विक आनंद के लिये इन महात्मा जैसा धैर्य रख सको तो सन्यास ले लो।"
मित्र सोमेश की एक पोस्ट पर कमेंट किया था और कहानी जानने की उनकी इच्छा के चलते एक उधार सिर पर था, आज चुका पाया हूँ। यूँ तो यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी लेकिन जब बात छेड़ी थी तो उसे पूरा भी करना था, तिस पर ’नरेन्द्र मोदी-जशोदाबेन प्रकरण’ ने भी इस बात के लिये उत्साहित किया कि ’विवाह’ पर कुछ अपने विचार साझे किये जायें।
विवाह के उद्गम के बारे में कोई पुष्ट जानकारी नहीं मिलती लेकिन इसका इतिहास रोचक अवश्य है। विवाह हर संस्कृति में प्रचलित हैं, विवाह के प्रकार जरूर अलग-अलग हो सकते हैं। कुछ लोगों की राय है कि सभ्य होने की प्रक्रिया में समाज का रुझान सामूहिक हित से व्यक्तिगत अधिकार की तरफ़ बढ़ता गया और वर्तमान की विवाह-व्यवस्था उसी से प्रेरित है।
पुराने समय में जीवन को लगभग चार बराबर हिस्सों में बाँटकर ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम के रूप में जीने की परंपरा रही है। मुझे लगता है कि हमारे पुरखे ’ऑप्टिमम यूटिलाईज़ेशन’ सिद्धांत के शानदार मानने वाले रहे होंगे। मानव जीवन को अनमोल मानते हुये इस जीवन-काल में समय और सामर्थ्यानुसार सही दिशा में अपनी शक्ति को लगाने का यह भी एक तरीका रहा होगा। समय के साथ प्राथमिकतायें भी बदलीं और उसीके अनुरूप परंपरायें भी बदलती रही हैं।
आज के समय के युवाओं के समक्ष शायद कबीर के प्रसंग वाले नवयुवक जैसी दुविधा नहीं होगी। बिना विवाह के एक साथ रहने की बढ़ती प्रवृत्ति के बावजूद एक साधारण परिवार के पात्र का ’विवाह होना’ एक बहुत ही स्वाभाविक सी रस्म है जिसे देर-सवेर घटित होना ही है और ’विवाह न करना’ एक साधारण परिवार में अस्वाभाविक लगने वाली बात। हालाँकि हमारे इतिहास में ऐसे अनेक चरित्र मिलते हैं जिन्होंने विवाह नहीं किया और वो पर्याप्त सफ़ल भी रहे हैं।
गृहस्थ या सन्यास में से श्रेयस्कर कौन सा है? ये प्रश्न कभी न कभी मन में उठता रहा है। बचपन में पढ़ी एक कहानी और ध्यान आती है जिसमें शरीर के सभी अंग अपना महत्व दूसरे अंग से ज्यादा बताने का दावा करते हैं और अपने-अपने तरीके से अपना विरोध जताते हैं। शरीर अशक्त होने लगता है, अंत तक पहुँचते-पहुँचते यही सिद्ध होता है कि हरेक अंग का औचित्य तभी तक है जब तक सब मिलकर और समन्वयता का पालन कर रहे हैं। गृहस्थ और सन्यास के बारे में भी मेरा ऐसा ही मानना है।
जिस परिवेश में मैं पला-बढ़ा, उसमें कहीं से भी किसी गृहस्थ को सन्यासी से कम करके आँके जाते नहीं देखा। बल्कि ध्यान आता है कि किसी न किसी तरीके से गृहस्थ-धर्म को सन्यास की अपेक्षा ज्यादा महत्वपूर्ण ही सिद्ध किया गया। दूसरी तरफ़ देखें तो गृहस्थ में जाने की जगह धर्म, देश या समाज की सेवा के लिये खुद को समर्पित करने वालों को भी कभी हेय दृष्टि से नहीं दिखाया गया। लेकिन इतना मुझे लगता है कि गृहस्थाश्रम को ज्यादा महिमामंडित करना ’मेंटल कंडीशनिंग’ का हिस्सा बिल्कुल हो सकता है। वैसे ही ’हर सफ़ल आदमी के पीछे एक औरत का होना’ भी मुझे इसी कंडीशनिंग प्रक्रिया का हिस्सा लगता है।
नरेन्द्र मोदी के द्वारा नामाँकन पत्र में इस बार अपनी पत्नी का नाम लिखे जाने वाली बात कानूनी या चुनावी मुद्दा हो सकता है लेकिन इस प्रकरण ने एक बार फ़िर से इस प्रश्न को सिर उठाने का मौका जरूर दे दिया है कि अगर कोई व्यक्तिगत हित से ऊपर उठकर अपनी समझ में देश, समाज और/या धर्म के लिये कुछ और करना चाहता है तो विवाह-संबंध इसमें बाधा का काम करता है या नहीं?
हमेशा की तरह इस संभावना को भरपूर जिंदा रखते हुये कि मेरे विचार गलत हो सकते हैं, मेरे विचारों का पलड़ा ’हाँ’ वाली दिशा में कुछ झुका हुआ है।