’लाला’ एक ऐसा शब्द है जो कभी किसी जाति का सूचक बन जाता है, कभी किसी व्यवसाय का। पंजाब की तरफ़ हिन्दु परिवारों में घर के मुखिया को लाला कहकर संबोधित किया जाता है और ब्रज में छोटे बच्चे को लाला कहकर बुलाते हैं। जब कोई काबुली पठान आवाज लगाये ’ओ लाले की जान’ तो पता चलता है कि कानून की तरह लाला की पहुँच भी बहुत लंबी है, सरहद की सीमाओं को पार भी कर जाती है। लेकिन यहाँ हम जिस लाला का किस्सा बताने जा रहे हैं, वो इनमें से किसी से भी संबंधित नहीं। वो खानदानी लाला था, है और रहेगा। पता नहीं कितनी पीढ़ी पहले, क्यों और कैसे ये लेबल उनके साथ लग गया था और हर नई पीढ़ी कर्ण के कवचकूंडल की तरह इस ’लाला’ पदवी के साथ ही अवतार लेती रही। उसके पिताजी का भी एक भला सा नाम था लेकिन उस नाम से उन्हें कोई नहीं जानता था, ’लाला’ कहने से ही उन्हें पहचान लिया जाता था। इस लड़के का भी सोहणा सा नाम था लेकिन हमारी मित्र मंडली में ये भी ’लाला’ ही कहलाता था।
दसवीं की परीक्षा हो चुकी थी और हमारी रोड इंस्पेक्टरी चालू थी। बोर्ड परीक्षा की मानसिक थकान उतारने के बहाने किराये पर वीडियो लाकर फ़िल्में देखने का कार्यक्रम बन चुका था। आयोजन स्थल का फ़ाईनलाईज़ेशन चल रहा था। दो सरदार भाईयों के अलावा लगभग सब लड़़कों ने पैसा कंट्रीब्यूट करने की हामी भर रखी थी। उनकी हामी भी उनके दारजी की हामी के इंतज़ार में रुकी हुई थी लेकिन उम्मीद पर दुनिया कायम थी। इस बार जैसे एक एक वोटर को बूथ तक लाकर वोट प्रतिशत बढ़ाने का अभियान चला था, हमारे ऐसे सामूहिक कार्यक्रमों में एक एक को शामिल किया जाना आर्थिक कारणों से बहुत आवश्यक था। ऑनलाईन चंदा तो उस समय आता नहीं था, पॉकेटमनी भी इतनी नहीं होती थी कि रोज रोज ये आयोजन किया जा सके इसलिये आज के समय में फ़ालतू सा लगने वाला वो प्रोग्राम हम लोगों के लिये कामनवेल्थ खेलों जैसा आयोजन ही था। पैसा इकट्ठा हो भी गया तो सारी रात वीडियो कहाँ चलेगा, ये सवाल मुँह बाये हम सबके सामने खड़ा था।
जिस दिन दोनों भाईयों के लिये परमीशन और चंदा उगाही के मकसद से हमारा प्रतिनिधिमंडल दारजी की अदालत में पेश हुआ, हमारी तरफ़ से भूमिका वाला तंबू तानने के बाद उनका प्रैक्टिकल सवाल यही था कि वीडियो किसके घर चलाया जायेगा? बिल्ली के गले में घंटी बांधी थी तो पहली उंगली इस गरीब की तरफ़ उठनी स्वाभाविक ही था। मैंने कहा कि प्रोग्राम बने तो ठीक और न बने तो और ठीक, मेरे भरोसे ये प्रोग्राम न बनाया जाये। मेरे पिताजी को शोर शराबा पसंद नहीं, इसलिये मेरे यहाँ तो वीडियो चल नहीं सकता{ दोस्तों ने कानाफ़ूसी करके और पीठ पर धौल धप्पे मारके मेरे डिप्लोमैटिक न होने पर दुखी होते हुये प्रोग्राम कैंसिल होने की आशंका जताई लेकिन दारजी ने मेरी पीठ ठोकी, "शाबाश, साफ़ कहना सुखी रहना।" दूसरे से यही सवाल किया गया तो उसने अपने घर में अपनी बुआ और उनके बच्चों के आने का हवाला देकर और जगह की तंगी की वजह बताकर मुक्ति पाई। धीरे धीरे ऐसा हुआ कि एक एक करके जगह मुहैया करवाने से सब पीछे हटते गये और फ़िल्में देखने का प्रोग्राम अब धूल धुसरित होता दिखने लगा। दारजी खुस होते जा रहे थे क्योंकि प्रोग्राम कैंसिल तो डबल टिकट के पैसे देने से वो बिना कोई इल्जाम लिये बचने जा रहे थे। एकदम से ’लाला’ बोला, "वीडियो मेरे घर चला लेंगे, उसकी कोई टेंशन नहीं है।" लड़कों में लाले की शावा-शावा, बल्ले-बल्ले हो गई। कईयों ने उसके गाल चूम लिये, बंदा हो तो ’लाला’ जैसा वरना हो ही नहीं। दारजी का मूड ऑफ़ हो गया, कई तरह से उन्होंने ’लाला’ को डिगाने की कोशिश की। "वड्डे लाले से पूछ तो लेता" लेकिन हमारा दोस्त ’लाला’ एकदम कूल और रिलेक्सड था। "दारजी, कह दिया तो कह दिया। तुस्सी चिंता न करो, बस इन दोनों को परमीशन दे दो और हमें इन दोनो के हिस्से का पैसा, हमने वीडियो बुक करवा देना है।" मायूस होते हुये दारजी को दोनों चीज देनी पड़ीं, परमीशन भी और डबल फ़ीस का वादा भी।
पूरे सप्ताह लड़कों का उत्साह पूरे जोरों पर रहा। दारजी बीच बीच में हमें भी टोक देते और अपने लड़कों को भी, "इस ’लाले’ दे प्यो नूं मैं बड़ी चंगी तरां जाननां, कट्टी उंगल ते नईं मूत्या उसने ते ऐ भैण दा यार हाँ भर गया? साल्यो अगर ऐ मुकर गया मैं पैसे नईं देणे " (इस लाले के बाप को मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि वो आजतक किसी के काम नहीं आया और ये पता नहीं कैसे जिम्मेदारी ले रहा है? सालों इसने धोखा दिया तो मैंने तुम्हारे पैसे नहीं देने) सारी बच्चा पार्टी दारजी को विश्वास दिलाती कि इसका बाप ऐसा जरूर रहा होगा लेकिन हमारे वाला ’लाला’ धोखा नहीं देगा। रोज ये कहानी छिड़ती, इतना अंतर जरूर आ गया कि अब लाला की इज्जत बहुत होने लगी थी। बैटिंग में उसे अब सेवंथ डाऊन की जगह सैकंड डाऊन पर भेजा जाने लगा, ताड़मताड़ा(गेंद से एक दूसरे को निशाना बनाने का देसी खेल) में जिस लाला के पिछवाड़े को गेंद से सुजाने को लालायित रह्ते थे, लड़के अब उसे बेनेफ़िट ऑफ़ बेनेवोलेंस दे रहे थे। एक दूसरे से छीनकर खाने वाले फ़ल और दूसरे सामान में से लाला को पहले भोग लगवाया जा रहा था, कहने का मतलब ये कि लाला की पांचों घी में थीं और सिर कढ़ाही में था।
नियत दिन से एक दिन पहले दारजी ने अपने दोनों लड़कों की फ़ीस भी चुका दी, अलबत्ता ’लाला’ की हाँ पर उनकी हैरानी अब तक कायम थी। असल में दारजी को एक बड़ा डर था कि बाल मंडली वीडियो वाला प्रोग्राम कहीं उनके दूसरे प्लॉट पर रखे हमारी कालोनी के सबसे पहले रंगीन टीवी पर देखने का न बन जाये, इसलिये उन्होंने पहले जगह फ़ाईनल करवाई थी और उसके बाद लड़कों का हिस्सा डाला था।
देखते ही देखते कयामत की वो रात आ पहुँची, लाला रिक्शा करके वीडियो लेने चला गया और हम सब लड़के गली के चौक में खड़े होकर इंतज़ार करने लगे कि लाला अपने घर में वीडियो और टीवी की सेटिंग ओके करवाकर आये और फ़िर हम सब उसके घर जायें। घंटे भर बाद लाला आता दिखा, सीधे दारजी के पास गया, "अकलजी सॉरी, मेरा लाला कै रया है कि सारेयां ने बराबर पैसे दित्ते हैं तो रौला साड्डे घर क्यों पयेगा। या तां तेरे कोल पैसे न लये हुंदे, हुण मैं नईं चलण देना वीडियो ऐत्थे।"(मेरे पिताजी कह रहे हैं कि पैसे सबके बराबर लगे हैं तो शोर शराबा मैं अकेले अपने घर में नहीं होने दूँगा। या तो तुझसे हिस्सा न लिया होता) पीछे रेडियो में मुकेश की आवाज में गाना बज रहा था, "ये न होता तो कोई दूसरा गम होना था’ दारजी अपने हमउम्र वाले लाले के साथ के अपने पूर्व अनुभव याद कर रहे थे, हम लड़के इस हफ़्ते में लाले को दी हुई रियायतें याद करके पछता रहे थे, वीडियो वाला अलग अल्टीमेटम दे रहा था कि वीडियो चले या न चले वो सुबह तय समय पर वीडियो वापिस ले जायेगा।
डरते डरते दारजी के सामने प्रस्ताव रखा गया कि अब और कोई चारा तो है नहीं, दया करके अपने प्लॉट पर वीडियो देखने की इजाजत दे दें वरना उनकी और हम सबके माँ-बाप की मेहनत से कमाई गई राशि व्यर्थ चली जायेगी। सभी परिवार कमोबेश एक जैसी आर्थिक हालत के थे, जेब तंग लेकिन दिल उतने तंग नहीं। दारजी गुस्से में तो थे ही, कुर्ते की जेब से प्लॉट की चाबी निकालकर अपने लड़कों की तरफ़ फ़ेंकी और बोले, "भैनचोदों, होर वड़ो लाले दी बुंड विच।"
(होर = और
वड़ो = घुसो)
बाकी तो आप सब विद्वान हैं ही :)
सारी रात हम लड़कों ने दारजी का वो डायलाग उतनी बार दोहराया कि उतनी बार किसी परमात्मा के नाम की माला जपते तो भवसागर से पार पहुँच जाते।
बैंक में आने के बाद एक बार ऐसा हुआ कि किसी दोस्त से मिलने एक छोटे से कस्बे में गये और वहाँ जाकर पता चला कि वो अपने घर गया हुआ है। वापिसी की ट्रेन थी रात साढे तीन बजे। प्लेटफ़ार्म पर अखबार बिछाकर कभी बैठकर और कभी लेटकर हम किस्सा-ए-चार दरवेश का नाटकीय रूपांतरण करते रहे ताकि नींद न आ जाये। ये किस्सा उस दिन दोस्तों को सुना बैठा। सुनाया तो था मजे के लिये, लेकिन उसके बाद से जब कभी हवन करते हाथ जलने जैसा मौका आया और ऐसे मौके तब आते ही रहते थे, तो कोई न कोई दोस्त धीरे से इतना कहता था, ’होर वड़ो..’ कसम से गुस्सा तो बहुत आता था लेकिन खून के घूँट पीकर रहना पड़ जाता था। किस्सा तो आखिर मैंने ही सुनाया था न, पंगा तो मैंने खुद ही लिया था न...
क्लेमर/डिस्क्लेमर/फ़्लेमर और डिस्फ़्लेमर(whatever it is) - वोट के लिये अपना धर्म-ईमान गिरवी रखते और बाद में अपने ही तथाकथित वोटबैंक से जूते खाते किसी नेता से या ऐसी ही किसी मिलती जुलती घटना से इस पोस्ट का कोई संबंध नहीं है। फ़ेसबुक पर या ब्लॉग पर कभी कभी किसी घटना का पता चलता है तो मुझसे बरबस ही लिखा जाता है ’होर वड़ो’ - मेरा लिखा कई बार हिन्दी में होने के बावजूद भी मुझे ही समझ नहीं आता तो इस पंजाबी जुमले ’होर वड़ो.......’ को पढ़कर बाकी लोग कहीं मुझे एकदम से पागल न समझ बैठें, इसलिये खुलासा कर दिया। कहने का मतलब ये है कि असी पागल हैगे लेकिन एकदम वाले पागल नहीं हैगे, समझ रहे हैं न? समझ गये तो ठीक है नहीं तो .......