रविवार, मार्च 15, 2015

चलें?

उन दिनों हम कालेज में पढ़ते थे और ताजे-ताजे बालिग हुये थे मतलब बालिगपने का पहला ही साल था। हमारे बचपन का एक साथी था जो आठवीं के बाद ही शिक्षा से मुक्ति पाकर अपने पिता की कपड़ों की दुकान पर हाथ बँटाने लगा था। हाथ बँटाने के बदले नियमित रूप से दुकान पर हाथ भी साफ़ करता था जिसकी औपचारिक पुष्टि इस घटना के दौरान ही हुई थी। उसकी निजता की सुरक्षा के लिये उसकी पहचान तो नहीं बताऊंगा लेकिन आप लोगों की सुविधा के लिये उसका कुछ नाम तो रखना ही पड़ेगा। उसे इस घटना में नेता के नाम से ही जान लेते हैं। तब तक तीन या चार बार वो सत्य एवम ज्ञान की खोज करने गौतम बुद्ध की तरह गृहत्याग कर चुका था लेकिन  बोधि-वृक्ष के तले पहुँचने से पहले ही जालिम माँ-बाप और दूसरे रिश्तेदार उसे कभी मुंबई से और कभी मसूरी से दुनियादारी में खींच लाते थे। हर बार उसके लौट आने पर हम उसे छेड़ते थे, "हाँ भई, चलें ?"   और एक दो महीने बाद वो हमें पूछता था, "चलें?"
सन 1988 की ठंड का मौसम शुरु हुआ, नेता ने एक दिन मुझे घेरा और मित्र-मंडली के साथ दिल्ली से बाहर कहीं घूमने जाने का वादा लेकर ही छोड़ा। ऐसा नहीं था कि हम बहुत घनिष्ठ मित्र थे, बात सिर्फ़ इतनी थी कि एक तो हमसे जल्दी से ’न’ नहीं कहा जाता था और उससे बड़ी बात ये कि हमारी छवि थोड़ी ठीक-ठाक सी ही थी, जिस ग्रुप में हमारा नाम होता था उस ग्रुप का पेरेंटल पासपोर्ट/वीज़ा अपेक्षाकृत आसानी से जारी हो जाता था। तो साहब लोगों, नेता ने ’चलें’ कहकर फ़ूलप्रूफ़ प्लान तैयार किया और जम्मु स्थित श्री वैष्णो देवी जाने का प्रोग्राम फ़ाईनल कर दिया। उसने बताया कि उसके साथ उसका एक मित्र भी होगा जो स्वाभाविक है उसके जैसा ही था, और किसी को ले जाना है तो मेरी मर्जी और मेरी ही जिम्मेदारी। गंतव्य-स्थान के एक जाने-माने धार्मिक स्थल होने और साथ में मेरे होने के उसके प्लान के चलते उसके माँ-पिताजी ने भी टूर अप्रूव कर दिया। उसके पिताजी ने परमात्मा के आगे हाथ जोड़कर इतना जरूर कहा, "चलो,  मांयवे ने पूछा तो सही।" 
यहाँ तक तो सब हँसी-मजाक  में ही हो गया, अब सोच मुझे होने लगी। संजय कुमार, तू इस नेता की बातों में आकर फ़ँस गया बच्चू। ये दोनों एक जैसे हो गये, अब तेरी रेल बननी पक्की समझना। थोड़ी सी जुगत हमने भी भिड़ाई और अपने जैसा दो साथी और तैयार कर लिये। बंदे हो गये पाँच और छब्बीस दिसंबर को हम पाँच जम्मु के लिये घर से रवाना हो गये। नेता और उसके साथी के घरवालों को बहुत ज्यादा चिंता नहीं थी लेकिन हम तीनों(संयोग से हम तीनों के ही नाम संजय थे/हैं) के परिवार वाले फ़िक्रमंद थे क्योंकि तीनों पहली बार घर से दूर अकेले जा रहे थे। हम लोगों ने अपने परिवार वालों को आश्वस्त किया कि हम 30 या फ़िर ज्यादा से ज्यादा 31 दिसंबर तक घर लौट आयेंगे और रेडी स्टेडी गो हो लिये।
आनन फ़ानन का प्रोग्राम था, कोई रिज़र्वेशन नहीं। शालीमार एक्सप्रेस का नाम सुन रखा था, वही पकड़ने के लिये जब प्लेटफ़ार्म पर पहुँचे तो भीड़ देखकर दम फ़ूल गया। फ़ौजी डिब्बे में चढ़कर और थोड़ी सी अंग्रेजी बोलकर फ़ौजियों के दिल में और कोच में थोड़ी सी जगह बना ही ली लेकिन कष्ट बहुत हुआ। 27  की दोपहर कटरा पहुँचकर पहला काम किया वापिसी की टिकट बुक करवाने का। टिकट मिले 29 तारीख के। मंदिर के दर्शन करके 28 की दोपहर तक हम कटरा लौट आये। नेता उदास होकर कहने लगा, "भैनचो पहली बार घरवालोंं से पूछकर घर से बाहर भी आये और मजा भी नहीं आया। ऐसा लग रहा है जैसे अभी आज ही घर से आये थे और आज ही वापिस पहुँच जायेंगे।  कहीं और चलें?"
अगले दो घंटों में उसने चलें? चलें? लगाकर हमारी हालत खराब कर दी। पैसे तो सिर्फ़ वैष्णो देवी तक के लिये ही लाये थे, घरवालों से तो सिर्फ़ यहीं तक का पूछा था जैसी सारी ओब्जेक्शन नेताजी ने ओवररूल कर दीं। कसम खिलाकर हमसे पूछा गया कि सच बताओ undisclosed पैसे कितने हैं? हम तीनों संजयों के पास शायद मिलाकर बारह तेरह सौ रुपये निकले। नेता अकेले ने कच्छे के नेफ़े में से दो हजार रुपये निकालकर सब इकट्ठे कर दिये, हिसाब बाद में होता रहेगा। इतने पैसे देखकर हमें हैरानी हुई भी तो उसने दुकान पर हाथ बँटाने वाली बात स्वीकार कर ली। "बापू तो जितना मर्जी पीट ले, कबूल नहीं करवा सकता लेकिन दोस्तों से हम कोई राज नहीं रखते।"  यारी की ताकत देखकर हम भी इमोशनल हो गये और  हमने भी कह दी कि चलो।
लो जी, बन गया कश्मीर का कार्यक्रम। तब इतना ही पता था कि जम्मु और कश्मीर एक ही राज्य है। हमारे दिमाग में था कि जम्मु से दो-तीन घंटे की दूरी पर ही कश्मीर होगा।  वापिसी वाली कन्फ़र्म टिकट रिश्वत देकर कैंसिल करवाई और रिज़र्वेशन वाले सरदारजी ने चार्ट देखकर बताया कि अगली उपलब्ध टिकट हैं 2 जनवरी की। अब उंगली नेता को पकड़ा ही चुके थे, क्या करते?  इस बार नया साल कश्मीर में मनेगा। मेरे घर पर टेलीग्राम कर दिया गया कि इस तरह से प्रोग्राम थोड़ा बदल गया है और हम दो जनवरी के आसपास घर पहुंच पायेंगे।
बड़ी लंबी दास्तान है कि कैसे हम लोग कदम-कदम पर ठगे गये। जम्मु से श्रीनगर तक पहुंचने में हम अपनी लाईफ़ किंगसाईज़ जिये। और जब तक श्रीनगर पहुँचे तो पूंजी के नाम पर हम पांच लोगों के पास शायद दो सौ रुपये भी नहीं बचे थे। अगले ही दिन वो भी खत्म और फ़िर  दिल्ली का ही एक और ग्रुप वहाँ मिला जिनसे उधार हमारे नेताजी मैनेज करते थे और उनकी उधारी लौटने के भी तीन महीने बाद चुका पाये। क्या क्या मुसीबतें उस यात्रा में हम पर न आईं लेकिन आज जब अपने प्रिय मित्र संजय के साथ कभी उस टूर की बात होती है तो बहुत हँसी आती है। 
हम लौटकर दिल्ली पहुँचे थे 5 जनवरी को। पिताजी नई दिल्ली स्टेशन पर ही दिख गये, हमें तलाश करने आये  थे। डर और शर्म के मारे उनसे आँख भी नहीं मिला पाया था मैं। एक ही बस में घर तक लौटे लेकिन आपस में एक भी बात न हुई। घर लौटा तो देखा कि मजमा लगा हुआ है, रोना पीटना मचा हुआ है। माँ रो रही हैं, रिश्तेदार महिलायें और पड़ौसिनें उन्हें घेरकर बैठी हैं और सांत्वना दे रही हैं।
हालात सामान्य होने में कई घंटे लगे। टेलीग्राम मिला ही नहीं था और न ही मेरी टेलीग्राम भेजने वाली बात पर किसी को विश्वास आ रहा था। अब ध्यान आ रहा है कि माँ  मेरी पसंद का खाना खिला रही थीं और बता रही थीं कि मिलने आने वाली औरतें कैसे आजकल के खराब माहौल के बारे में बताती जाती थीं और कैसे उनका दिल और ज्यादा घबराता जाता था। मैं गर्दन झुकाये खाना खा रहा था। अभी खीर की कटोरी उठाई ही थी कि डाकिये ने लाकर टेलीग्राम दिया। मेरी गर्दन कुछ डिग्री ऊपर तो उठ ही गई थी।
नेता मिल जाता है अब भी कभी-कभी। हम में से जिसका मौका लग जाता है, वही पूछ बैठता है, "चलें?"  पता दोनों को है कि अब जाना नहीं हो पायेगा।
आम परिवार से होने का ये फ़ायदा तो समझ आता है कि गुमशुदगी राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बन जाती।