हम छोटे ही थे, गली में एक भैया रहते थे जिनपर हर कोई आंख मूंदकर विश्वास करता था। उन्होंने ही हमें शाखा पर ले जाना शुरु किया था। बड़ा शौक तो खेलने का ही था, नये नये खेल खेलने को मिलते और साथ में अच्छी बातें भी सीखने को मिलतीं। राष्ट्र प्रथम - यही सिखाया जाता था। खेलकूद और बौद्धिक के रास्ते देश, समाज को कुरीतियोंं से मुक्त करके स्वावलंबी और शक्तिशाली बनाने की बातें अच्छी लगती थीं। ये नहीं सिखाया जाता था कि हमारा अतीत स्वर्णिम था इसलिये कुछ करने की आवश्यकता नहीं बल्कि स्वर्णिम अतीत की बातें लुप्तप्राय आत्मगौरव को जगाने के लिये की जाती थीं। कोई व्यक्ति स्वार्थ, निंदा-स्तुति, प्रलोभन, पूर्वाग्रह से परे नहीं इसलिये केसरिया ध्वज ही सर्वोपरि माना जाता। कौन स्वयंसेवक किस जाति का है, इस बात का कोई अर्थ नहीं। किसके पिता धनवान हैं और कौन निर्धन परिवार से, वहाँ इस बात से कोई अंतर नहीं था। स्वय़ं को और स्वयं के माध्यम से अपने धर्म को भी पुष्ट करने की बातें तो सिखाई जाती थीं लेकिन किसी ने नहीं सिखाया कि दूसरे धर्म वाले हमारे शत्रु हैं और उन्हें कमजोर करना है। हम सब भारतमाता की संतान हैं और उसकी रक्षा करना हमारा प्रथम कर्तव्य, जीवन में अनुशासन लाना, कर्तव्य करने के लिये तत्पर रहना जैसी शिक्षायें ही थीं जो वहाँ सीखने को मिलीं। कम से कम मुझे तो यही समझ आता था।
नहीं समझ आता था तो कुछ उन लोगों का व्यवहार जो शाखा में आने जाने के हमारे रास्ते में हमपर ताने कसते थे। ताने कसे जाते थे
’संघी *%गी एक दो,
संघ में जाना छोड़ दो’
हम छोटे थे, शुरू में तो समझ ही नहीं आया कि क्या कहा जा रहा है और क्यों कहा जा रहा है। कई दिन तमाशा होता रहा तो हम बच्चों ने भैया से पूछा। जितना हमें समझ आ सकता था, उस दिन भैया ने बताया कि कैसे कुछ जातियों को कुछ लोग नीची जाति मानते हैं इसीलिये संघियों की तुलना उनसे करते हैं। "हम चुपचाप क्यों सुनते रहते हैं?" इस प्रश्न के उत्तर में सुनने को मिला कि कहने वाले अपनी सोच के हिसाब से ऊंच नीच मानते हैं, हम अपनी सोच के हिसाब से एकीकरण कर रहे हैं। ये हमारे लिये ताना नहीं, हमारे काम की पहचान है। भैया ने सच बोला या झूठ लेकिन हमारी तसल्ली नहीं हुई। तसल्ली तो खैर दूसरी पार्टी की भी नहीं हुई, उनकी हिम्मत बढ़ती गई और बात शब्द बाणों से हाथापाई तक आई। जो हुआ, उधर से पूरी तैयारी से हुआ लेकिन हमारे लिये अप्रत्याशित था। हम बच्चे तो खरोंचों और छोटी मोटी चोटों में निबट गये, भैया के अच्छी खासी चोटें आईं और उनका हाथ भी फ़्रेक्चर हुआ। इमरजेंसी हटने के बाद आई जनता पार्टी की सरकार भी अपने आपसी झगड़ों की वजह से जा चुकी थी। दूसरी पार्टी(तब की पहली पार्टी) के हौंसले बुलंद थे, पुलिस और प्रशासन का झुकाव भी हमारे हक में नहीं था। कोई एक्शन नहीं हुआ। टीस उठी थी मन में कि राष्ट्र के लिये सोचने वालों की गलती क्या थी? वो क्या मंसूबे थे जिनमें शाखा पर जाने वाले अड़चन लगा रहे थे? कालाबाजारी, भ्रष्टाचार, ड्र्ग्स डीलिंग सिखाई जाती थी क्या वहाँ?
भैया से मिलने हम लोग उनके घर गये तो उन्हें शरीर से अस्वस्थ पाया लेकिन हौंसले में कोई कमी नहीं थी। हमें अपराधबोध था कि हम छोटे हैं इसलिये भैया का पूरा साथ नहीं दे पाये और भैया हमें बता रहे थे कि उनकी ये तकलीफ़ कितनी कम है। इमरजेंसी के कुछ भुक्तभोगियों के किस्से उन्होंने बताये। जो भी हो, उस घटना के कारण शाखा में जाना हमने नहीं छोड़ा। वो तो कई साल बाद में छोड़ा।
बाद में अपने परिचय में आये कुछ लोगों के बारे में पता चला कि आपातकाल के दौरान कैसे सरकारी या अर्धसरकारी सेवकों को परेशान किया जाता था। लिखकर दो कि संघ से कोई वास्ता नहीं और आगे भी नहीं रखूँगा लेकिन कितनों ने ही ऐसा मानने की जगह नौकरी छोड़ना मंजूर किया। मजे की बात ये कि ऐसे किस्से सुनाने वाले उनके साथी होते थे या मकानमालिक, शायद उन्हें भी अपराधबोध रहा होगा कि उन स्वयंसेवकों जैसे नहीं बन पाये। मैं खुद इमरजेंसी के दिनों में जिस स्कूल में पढ़ता था, रातोंरात उसे बंद करना पड़ा था। सरकार का दृढ निर्णय था कि एक विचारधारा विशेष को कुचलना ही है। हम तो प्राईमरी कक्षा में ही थे, दूसरे स्कूल में डाल दिये गये थे और नये दोस्तों और नई पढ़ाई में मस्त हो गये लेकिन उन स्कूलों में काम करने वाले आचार्य और अध्यापिकाओं(जिन्हें हम दीदी कहते थे) पर आये संकट को आज समझ सकता हूँ।
प्रताड़ित होने वालों में सिर्फ़ कुछ लिख देने और नौकरी छोड़ देने वाले ही नहीं थे, बहुतों को जेल में डाल दिया गया और तरह तरह के अमानुषिक अत्याचार किये गये। अभिनेत्री प्रवीण बॉबी के बारे में कहते हैं कि उनका एक कान कटा हुआ था और इसीलिये वो हमेशा कानों पर बाल रखने के एक स्टायल में दिखती थीं। कभी मौका मिलने पर आज की तारीख का कोई केन्द्रीय मंत्री अक्सर जेबों में हाथ डाले दिखें तो समझ लीजियेगा कि ये भी एक स्टाईल ही है।
तब से अब जमाना बहुत बदल गया है। तकनीक उन्नत हो गई है, सेंसरशिप पहले जैसी संभव भी नहीं और सोशल मीडिया ने सबके हाथ में कलम दे दी है। पिछले एक साल से उसी विचारधारा वाली सरकार है, जिसने उन दिनों में कहर झेला था। स्पष्ट बहुमत वाली ऐसी सरकार देश के इतिहास में पहली बार आई है। स्वाभाविक है कि समर्थक उत्साहित हैं, कुछ अतिउत्साहित भी। अब घुड़की सुनकर बहाने से आँख इधर उधर नहीं बचाते, पलटकर जवाब दे देते हैं। सरकार भी अपनी है, नेटपैक भी अपना ही है। फ़िर भी इतना हमें मालूम है कि क्रिया की प्रतिक्रिया बेशक होती रहे लेकिन किस लेवल तक उतरना है, इतना बोध हमेशा रहेगा ही।
मोदी समर्थकों को ’भक्त’ कहकर संबोधित करने वालों की चिट्ठी को वैसे तो तार ही माना जाये। ये कतई व्यंग्यबाण नहीं है, खीझ है कि कैसे ये टुच्चे लोग सरकार के साथ स्वयं को जोड़ बैठे हैं। जो ’भक्त’ हैं, किसी और वजह से बेशक उनका मोहभंग हो जाये, इतना तो तय है कि इन व्यंग्यबाणों से आतंकित होकर तो नहीं ही भागेंगे।