दीपावली के आसपास की बात है, बाजार में पूरी रौनक थी। दुकानें तो सजी ही थीं, फ़ुटपाथ पर भी सजावटी सामान, पोस्टर वगैरह वालों ने रौनक लगा रखी थी। बैंक मुख्य सड़क पर ही था तो चहलपहल का अनुमान सहज ही लग जाता था। हमारा एक स्टाफ़ था बिल्कुल शोले फ़िल्म के हरिराम नाई के जैसा। जेलर साब मेरा मतलब मैनेजर साहब को एक-एक स्टाफ़ की गतिविधियों की जानकारी देता था, वो भी नमक-मिर्च लगाकर। स्टाफ़ बहुत था तो कोई न कोई गतिविधि चलती ही रहती थी, कोई दिन खाली नहीं जाता था जब शिकायत न होती हो, फ़िर लिखापढ़ी या वाद विवाद न होते हों। ऐसी स्थिति में आप फ़ँसे हों तो धीरे-धीरे आप का जुड़ाव या सहानुभूति भी किसी एक पक्ष के साथ हो जाती है, किसके साथ अंतरंगता महसूस करनी है ये आपकी अपनी सोच पर निर्भर करेगा। तो एक हमारा ग्रुप था जिसमें स्मार्ट लोग लगभग न के बराबर थे लेकिन जो भी थे वो विश्वासयोग्य और दूसरा ग्रुप स्मार्टों, स्मार्टरों और स्मार्टेस्टों से भरा हुआ था। संक्षेप में ये कि बड़ी हैप्पनिंग नौकरी चल रही थी।
आपको बता रहा था अपने हरिराम नाई की, किसी चौपाई का उदाहरण दूंगा तो मित्र लोग मुझ भले आदमी को कट्टर हिन्दू मान लेंगे, इसलिये एक फ़िल्मी गाना याद दिलाता हूँ ’चोरों को सारे नजर आते हैं चोर’ हरिराम चूँकि खुद हर समय चुगलखोरी के चक्कर में रहता था तो मैंने अनुभव किया कि जब भी कोई दो लोग आपस में बात करते हुये उसकी तरफ़ देख लेते थे, वो समझता था कि उसके खिलाफ़ साजिश की जा रही है। किसी न किसी बहाने से वहाँ चक्कर काटने लगता, एकदम खोजी कुत्ते की तरह। जब ये बात अपने ग्रुप के लोगों को बताई तो मजे लेने के अवसर एकदम से बढ़ गये। हम साधारण बातचीत करते हुये भी प्लानिंग से एकदम से उसकी तरफ़ देखते और पहले से भी धीमी आवाज में बातें करने लगते। हरिराम की त्यौरियाँ चढ़ जातीं, वहीं चक्कर काटने लगता और हम अब सच में हँसने लगते। ये लगभग प्रतिदिन का काम हो गया, हरिराम की नर्वसनेस बढ़ने लगी।
उन्हीं दीवाली के आसपास के दिनों की बात है, स्टाफ़ के एक परिचित बेरोजगार लड़के को बैंक के बाहर ही पटरी पर पोस्टर बिक्री के लिये उसी स्टाफ़ ने जेब से फ़ाईनांस कर दिया। अब बाकी काम के साथ यह भी सबका एक काम हो गया कि जब भी मौका मिले, जाकर देखते कि दुकानदारी कैसी चल रही है। एक साथी ने आकर कान में कुछ कहा और हमने हरिराम की तरफ़ देखा। अकेला होते ही हरिराम आया और मुझसे पूछने लगा कि फ़लाना क्या कह रहा था। मैंने झूठमूठ की टालमटोल की लेकिन वो बार-बार पूछता रहा। मैंने कहा, "वो बाहर पोस्टर वाली दुकान की बात कर रहा था।" उसको विश्वास इसलिये नहीं हो रहा था कि इसमें उसकी तरफ़ देखने की कोई बात नहीं थी। फ़िर वही सवाल, मैंने आवाज लगाई और बोला वो पोस्टर लेकर आ जिसके बारे में बता रहा था। पोस्टर आ गया साहब। पोस्टर का शीर्षक था ’करनी-भरनी’ और किस कर्म की क्या सजा भुगतनी होती है इसके चित्र बने हुये थे। हमने कहा कि इस पोस्टर की तारीफ़ कर रहे थे, इस बार दीवाली पर हम सब ये लेकर जायेंगे। कायदे से तो हरिराम की शंका मिट जानी चाहिये थी लेकिन असल में था क्या कि उस पोस्टर के केन्द्र में जो करनी-भरनी का चित्र था वो था चुगलखोरी का। अब साहब, चोरों को सारे नजर आने लगे चोर। हरिराम ने ’भाण...द मैं किसी से बात नहीं करता फ़िर भी सब मेरे पीछे पड़े रहते हैं’ ’एकाध मर जाओगा मेरे हाथ’ और हममें से कोई न कोई उसके हर उद्गार पर किसी न किसी चित्र पर हाथ रख देता। अच्छा हंगामा हुआ, जेलर साब तक शिकायत पहुँची। निकला बैंगण। किसी पर कोई चार्ज प्रूव नहीं हुआ और कई दिन तक ब्रांच में ये ड्रामा चलता रहा - ’अरे पानी पिला दे न तो देख्या था न करनी भरनी में?’ ’अरे सारा काम मुझ पर ही लाद दोगे, देख्या न था करनी-भरनी में?’ हरिराम उबलता रहता, भड़कता रहता लेकिन हम मारते थे पुलिसिया मार - दर्द हो लेकिन चोट न दिखे।
बहुत हँसी-मजाक करते थे हम। कोई सीनियर कभी कह भी देता था कि यार सीरियस भी रहा करो कभी। फ़ालतू की हँसी बाद में बहुत महंगी पड़ती है। हम लोग हाँ में हाँ मिला देते, "जी सर, करनी-भरनी यहीं है।" हम तो मजाक में ही कहते थे लेकिन बात सच्ची है, जो करते हैं वो हम भरते भी हैं।
कल छोटे वाले बालक का आधार कार्ड देखा, पिता का नाम वाला कालम रिक्त स्थान। देखते ही ध्यान आया कि कुछ दिन पहले किसी को फ़ेसबुक पर कमेंट किया था कि कुछ प्रजातियाँ ऐसी हैं जो शायद सरकारी रिकार्ड में बाप का नाम डीएनए टेस्ट करवाने के बाद ही लिखते होंगे। हो गई न जी करनी-भरनी? इतने पर ही बस नहीं हो गई, आदतवश लौंडे से पूछ लिया कि डीएनए टेस्ट करवाने के बाद ही बापू का नाम लिखवायेगा? रूठ गया है लड़का, एक और करनी-भरनी। बड़ी मुश्किल से माना है जब उसके फ़ेवरेट अक्षय कुमार की एयरलिफ़्ट मूवी देखने के लिये गाँधी का हरा नोट दिया है।
खैर, ये तो छोटी वाली करनी थी जो पाँच सौ में भरी गई, और जाने कितनी ऐसी करनी हो चुकी होंगी जो पैसे रुपये में भरी भी न जायेंगी। खैर, झेलेंगे उन्हें भी। और रास्ता भी क्या है? .... देखी जायेगी।