जून माह में निंदक जी और
छत्तीसगढ़ वाले ललित शर्मा जी के साथ कुमाऊं जाने का अवसर मिला। पह्ले दिन का ठहराव
हुआ रानीखेत से लगभग ४ किमी बाहर एक रिसोर्ट में। अगले दिन सुबह हम कुकुछीना नामक
स्थान के लिये चल दिये। रास्ते में द्रोणागिरी मंदिर आया जिसकी स्थानीय निवासियों
में बहुत मान्यता है। यह मंदिर सड़क से लगभग १ किलोमीटर अंदर ऊंचाई पर स्थित है।
हमारी गाड़ी एक बार पंचर हो चुकी थी तो उस समय की भरपाई हमने सड़क से ही मस्तक नवाकर
कर ली, विश्वास रहता है कि हमारे देव बहुत दयालु हैं J
रानीखेत से द्वाराहाट होते
हुये कुकुछीना की दूरी लगभग ५५ किलोमीटर है। बहुत छोटी सी एक बस्ती जिसमें प्रवेश
करते ही एक गेस्ट हाउस, तय था कि हमें यहीं रुकना है। सामान कमरे में पटककर भोजन
किया और बाबाजी की गुफ़ा में जाने के लिये तैयार हो गये। लगभग डेढ किलोमीटर एक बहुत
संकरा मार्ग है जहाँ तक कार जा सकती है उसके आगे गुफ़ा तक जाने के लिए खड़ी चढ़ाई है।
जहाँ तक कार जा सकती थी गये और फ़िर उतरकर हम तीनों मलंग पैदल चल दिये।
अब तक इस छोटे से रास्ते
में न कोई वाहन दिखा था और न कोई मनुष्य। अनुमान से एक तरफ़ चढ़ाई शुरु की तो दूर से
एक महिला ने चिल्लाकर हमें सचेत किया कि गुफ़ा के लिए जाना है तो उस रास्ते से मत
जाओ, इधर से जाओ। हम उधर चल दिये तो उन महिला ने रास्ते की निशानी बताई और वहीं
अपनी झोपड़ीनुमा मकान के बाहर रखी लकड़ियों में से छड़ी जैसी निकालकर दी कि ये ले
जाओ, चढ़ाई में काम आयेगी। अकेला परिवार वहाँ पहाड़ की तलहटी में रह रहा था, आदमी
बैठा था और महिला कपड़े धोकर सुखाने वाली थी कि उसकी नजर हमपर पड़ी थी और उसने आवाज
लगाई। मकान के दरवाजे पर ’यहाँ चाय मिलती है’ लिखा था, चायपान का कार्यक्रम वापिसी
के लिये सोचकर और लौटते समय छड़ी लौटाने की कहकर हम चलने लगे।
इस यात्रा का कार्यक्रम
अचानक ही बना था। असल में इन दिनों में ललित जी को मोटरसाईकिल पर लेह-लद्दाख जाना
था लेकिन अचानक स्वास्थ्य संबंधी कुछ समस्याओं के कारण उन्हें वो कार्यक्रम छोड़ना
पड़ा था। वहाँ नहीं जा पाये तो उन्होंने निंदक जी से फ़ोन पर बात की, निंदक जी ने
अपने पास बुला लिया कि आप बस गाजियाबाद तक आ जाओ तो आपकी यात्रा की हुड़क मैं पूरी
करवा दूँगा। भीतर की बात ये थी कि निंदक जी कई बार मुझे कह चुके थे कि पहली बार
ऐसा हुआ है कि पहाड़ों पर जाने में मुझे इतना गैप हो गया, मैं तो इस समय बुरी तरह
बेचैन हो रहा हूँ। ऐसे में ललित जी ने जब फ़ोन पर अपनी पीड़ा बताई तो वही बात हो गई
कि ’इधर से तो बुआ के मन में जाने की थी और उधर से फ़ूफ़ा लिवाने आ गया।’ अच्छा,
मेरा कोई प्रोग्राम था नहीं लेकिन बाद में बुआ कौन और फ़ूफ़ा कौन वाला विवाद न हो
इसलिये जनहित में मैं भी साथ में टँग लिया था, मेरे लिये तो भई दोनों ही अग्रज
आदरणीय ठहरे।
तो अब पेंच ये फ़ँसा कि जब
योगी जी की गुफ़ा के लिए चढ़ाई शुरु करने लगे तो ललित जी को लगने लगा कि तबियत ठीक
नहीं है। उन्होंने तय किया कि वो वहीं बैठेंगे, चाय पियेंगे और उन लोगों से गपशप
करेंगे। निंदक जी और मैं गुफ़ा की ओर चल दिए। बहुत छोटा सा ट्रैक है लेकिन रास्ता
बहुत मनोरम। गुफ़ा तक जाने में रास्ते में दो ग्रुप मिले जो वापिस आ रहे थे। कुछ
देर में गुफ़ा तक पहुँच गये, योगदा ट्रस्ट वालों ने उस गुफ़ा को अब एक छोटे कमरे का
रूप दे रखा है। हम वहाँ पहुँचे तो अंदर कोई अनुष्ठान चल रहा था, शायद ५-६ तमिल
भाषी लोग बैठे थे और मंत्रोच्चारण और पूजा चल रही थी।
गेस्ट हाऊस से चले तो गुफ़ा
तक ही आने की सोचकर आये थे क्योंकि दोपहर के बाद खाना खाकर तो हम चले ही थे और
हमें यही बताया था कि गुफ़ा और टॉप दोनों जगह जाने का प्रचलित रास्ता अलग अलग है। गुफ़ा
के बाहर पूजा करवा रहे लोगों का ड्राईवर बैठा था, उसने कहा कि अगर बहुत थकान न हो
रही हो तो शार्टकट से ऊपर भी जा सकते हैं, पहाड़ की टॉप ’पांडुखोली’ या ’पांडवखोली’
कहलाती है और वहाँ एक घास का मैदान और मंदिर भी है। ऐसा माना जाता है कि पाँडव
अपने अज्ञातवास के दौरान वहाँ रुके थे। हम ऊपर की ओर चल दिये।
फ़िर वही वीराना
पहाड़ी रास्ता, कहीं कहीं छोटी सी पगडंडी, बीच बीच में पत्थरों पर पेंट का निशान
ताकि जाने वाले रास्ता न भटकें। मौसम बता रहा था कि कभी भी बारिश हो सकती है।
निंदक जी सरकारी सेवा से निवृत्त हो चुके हैं लेकिन पहाड़ी रास्तों पर चलने के
अभ्यस्त हैं और जवानों से भी ज्यादा फ़िट। वो आगे थे, रास्ता पहचानते थे और मैं
लक्ष्मण की तरह उनके पैरों को देखकर पीछे घिसटता रहा।
एकदम कैजुअल मूड में हम
चढ़ते जा रहे थे, एकाध बार बूँदाबांदी भी हो चुकी थी। बिना रुके चल रहे थे, अब
पसीना भी बहुत आने लगा था। ऊपर से उतर रहे एक दो सन्यासी मिले, अभिवादन होता और वो
हमारा उत्साह बढ़ाते हुए उतरते गये, ’बहुत
अच्छे, बस पहुँच ही गये।“ हम टॉप पर पहुँच गये, सामने बड़ा सा घास का मैदान। बहुत
से फ़ूल उगे हुये, पृष्ठभूमि में मंदिर और चढ़ाई चढ़ पाने की संतुष्टि, सब अच्छा ही
अच्छा लगने लगा। दूर मंदिर में एक ऊँचे स्थान पर खड़े एक साधु की आकृति भी दिख रही
थी, वो भी इधर ही देख रहे थे।
अब हम रुककर आराम से वो
नजारा देखने लगे, किसी डेकोरेटिड पार्क में घास फ़ूल अलग तरह के होते हैं और
प्राकृतिक जगहों पर अलग तरह के। एक में ब्यूटी पार्लर वाली चमक दमक और एक में
नैसर्गिक सौन्दर्य। इतने में जोर से बारिश होने लगी, शाम भी कुछ देर में ढलने को
ही थी। मैदान के पार मंदिर और नीचे चाय सुड़कते ललित जी, हमें अपेक्षा से अधिक समय
लग गया था तो वो चिंतित न हो रहे हों, हम दोनों तरफ़ सोच रहे थे। अब ध्यान आया कि
छोटा हैंडबैग तो ललित जी के पास ही है, हम तो एकदम कैजुअल मूड और ड्रेस में थे।
टीशर्ट में जेब नहीं और ट्रैक पैंट में मोबाईल भी मुश्किल से फ़ँसाया था। इतनी दूर
तक आये हैं और जेब में एक पैसा भी नहीं कि मंदिर में कुछ चढ़ा भी सकें। मैं तो ठहरा
पलायनवादी आदमी, निंदक जी को सुझाव दिया कि पहाड़ पर ही तो चढ़ना था सो चढ़ लिये।
चैलेंज पूरा हुआ, बाकी अपने भगवान जी तो सर्वव्यापक हैं उन्हें यहीं से प्रणाम
करके लौटते हैं। निंदक जी बोले, “भगवान की तो कोई बात नहीं लेकिन उन बाबा ने हमें
देखा है और हम यहाँ तक आकर बिना मंदिर गये लौट जायेंगे तो वो क्या सोचेंगे? चलो,
देखते हैं।“ हम मंदिर की ओर चल दिये।
मंदिर परिसर अच्छा खासा बड़ा
है, पहुँचे तो वहाँ एक स्थानीय युवा ने आकर अभिवादन किया और हम कहाँ से आये हैं
आदि बात करने लगा। बहुत सभ्य लड़का था, मंदिर का सेवादार ही था। फ़ौरन दो गिलास पानी
लाया, “पानी पीजिये, आप थक गये होंगे क्योंकि यह रास्ता थोड़ा कठिन है, लोग दूसरे
रास्ते से आते हैं जो थोड़ा लंबा है लेकिन अपेक्षाकृत सरल है।“ हमने पानी पीकर लड़के
का धन्यवाद दिया और हँसकर बताया कि हम तो बाहर से लौटने वाले थे। कारण जानकर वो भी
हँसने लगा और पैसे न होने के कारण मंदिर से बाहर से ही लौट जाने वाली हमारी सोच की
मीठी निंदा की(निंदा यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ रही J ) बल्कि यह जानकर कि मलंग बिल्कुल खाली हाथ हैं, उसने
विशेष आग्रह किया कि आप दर्शन कर लें तब तक मंदिर की रसोई में आपके लिये चाय बनवा
रहा हूँ। एक तरह से यह आग्रह जबरदस्ती वाला था, दर्शन के पश्चात रसोई में जाकर
चूल्हे पर बनी चाय पी। मंदिर के सेवादार अपनी रात की रसोई की तैयारी कर रहे थे,
चाय पीने के बाद जब उन लोगों को धन्यवाद दिया तो उनकी तरफ़ से भोजन का भी आग्रह
किया गया और रात को सोने का प्रबंध होने का भी। फ़िर कभी दोबारा आने की कहकर हमने
उन लोगों से विदा ली।
लौटते समय हम एक जगह गलत मोड़ पर मुड़ गये, अच्छा खासा लंबा रास्ता चलना पड़ा लेकिन लक्ष्य मालूम था तो कोई समस्या नहीं हुई। सही रास्ते से थोड़ा सा विचलन लक्ष्य तक पहुँचने में विलंब कर देता है।तब तक ललित जी उस पहाड़ी परिवार से स्थानीय विषयों की जानकारी लेते रहे। हम लोगों ने चाय पी और गेस्ट हाऊस के लिये चल दिये। यहाँ भी मजे की बात ये हुई कि वो परिवार चाय के पैसे लेने को तैयार नहीं हो रहे थे, एक तरह से जबरन ही देने पड़े। जब उन्हें याद दिलाया कि टी-स्टाल लिख रखा है इसलिए पैसे लेने में संकोच तो बिल्कुल नहीं करना चाहिये, महिला ने बताया कि टी-स्टाल का पोस्टर मंदिर के बाबाजी ने जोर देकर लगवाया था कि आगंतुकों की सहायता तो तुम लोग वैसे भी करते ही हो।
समाज वही है, जहाँ परस्पर हित की भावना हो।
मंदिरों के पास बहुत धन
संपत्ति है, समाज के लिये उसका कुछ उपयोग नहीं होता आदि आदि जैसे प्रलाप सुनकर
मुझे आत्मग्लानि नहीं होती बल्कि ’हमारी बिल्ली हमीं से म्याऊँ’ वाला मुहावरा याद आता है। श्रद्धालुओं द्वारा दान या चढ़ावा धार्मिक भावना से
धर्म के कार्य के लिये प्रयुक्त किये जाने के लिये किया जाता है लेकिन वो पैसा किस
मद में खर्च होगा ये श्रद्धालु तय नहीं कर सकते क्योंकि बहुसंख्यक समाज के बड़े
मंदिरों का स्वामित्व सरकार के हाथ में है। यह राशि सरकारी खजाने का हिस्सा बनती है और सरकारी संसाधनों पर पहला हक उस वर्ग का नहीं जिसका इसे भरने में सबसे ज्यादा योगदान है।