"हैलो" "हाँ जी, कूण बोल रहे हो?" "अबे बावले, मैं हूँ ....। बोल के बात थी?" "नमस्ते ... साब, मैं नूं कहूँ था जी अक आज मैं आऊँ के न आऊँ। मैंने सोची फोन पे.." "लै भाई, मैं किस तरयां बता दूं कि तू आ या न आ?" "जी मेरा मतबल था कि बेरा तो होना चाहिए न? म्हारे अफसर हो आप।" "भाई, तू देख ये तो।" "न जी, वो बात न है। देखणा तो मन्ने ही है पर फोन करना तो मेरा बने ही था न कि आज आऊं के न आऊं?" "अरे बावले, फेर वाई बात। मैं कह दूं कि आ जा और तैने न आना हो तो? और मैं कहूँ कि न आ और तैने आना हो, फेर? तूए देख ये।" "आप समझो तो हो न बात को, शुरू हो जाओ हो। भड़क जाओ हो तावले सी।" "लै! मैं के न्यूए भड़क गया? बाउली बात पूछेगा तो तेरे गीत गाऊंगा?"
"मन्ने के पूछ ली आपते? मैं तो नूं कह रा था कि आज मेरा ड्यूटी पे आण का
पक्का न है। आ भी सकूँ हूँ और न भी आ सकूँ हूँ। कैश में किसी को बैठा दियो
आप, कदे मेरीए बाट देखे जाओ।" "सच में बावली ... है, शुरुए में न कह देता ये बात?" "और के कहण खातर फोन करया था? न्यौता देऊँ था के? यही तो कहण लग रया हूँ सुरु से कि आज आऊँ के न आऊँ" "अच्छा छोड़ बाउली बात, नूं बता के आएगा ड्यूटी पे अक नहीं?" "ह्ह्ह्ह, जी आ भी सकूँ हूँ और हो सके न भी आऊँ।" ................. मोबाइल पीढी को इस लैण्डलाईनिया वार्ता को समझना शायद पकाऊ काम लगे, पर अपनी ऐसी कई यादें लैंडलाइन से जुडी हैं। एक पुराना पोलिटिकली करेक्ट वार्तालाप अचानक याद आ गया।
ब्रांच में FD receipts खत्म होने वाली थीं। यह ’ सिक्योरिटी स्टेशनरी’ श्रेणी में आती हैं। शाखायें अपने स्तर पर प्रिंट नहीं करवा सकतीं बल्कि बैंक स्वयं इनकी प्रिंटिंग करवाकर शाखाओं को उनकी आवश्यकतानुसार जारी करता है ताकि इनका दुरुपयोग न हो सके। मैंने स्टाफ़ में पूछा कि बताओ भाई कौन लेने जाना चाहेगा? (दिल्ली के ऑफ़िस से लानी थी, आम तौर पर देखा है कि स्टाफ़ में टीए बिल वगैरह का उत्साह रहता है। ’अंधे की मक्खी राम उड़ाये’ चरितार्थ हो रही थी, एक भी स्टाफ़ वैसा नहीं निकला जैसा लोग बताते थे। एक सुर में सबने कहा कि आप का घर दिल्ली में है, कल आराम से वहाँ से FD कलेक्ट करिये। लखनवी नवाबों वाली बात हो गई, मैं उन्हें कहूँ कि आपस में सलाह करके कोई एक चला जाये और वो सब मुझे कहें कि रोज भागमभाग करते हो तो एक दिन ऑन ड्यूटी आराम करिये। पूरे दिन के आराम के बदले बड़े ऑफ़िस में जाकर सबको नमस्ते करना अपने को सस्ता सौदा नहीं लगा। कोई निर्णय नहीं हो पाया।
थोड़ी देर में फ़रीदाबाद ब्रांच के हमारे चीफ़ मैनेजर साहब का किसी काम से फ़ोन आया। चौधरी साहब आयु, पद दोनों पैमानों पर अपने से बहुत सीनियर बैठते थे और सबसे बड़ी बात उनका आपसी व्यवहार, अपने से छोटों को भी हमेशा सम्मान देकर बुलाते। एक और मजे की आदत, मुझे हमेशा ’चौधरी साहब’ या ’छोटे भाई’ कहकर बुलाते थे और ”चौधरी’ बुलाने पर मेरे प्रतिवाद करने पर कहते, "बता मोहे, कहाँ लिखा है कि चौधरी सिर्फ़ हम गुज्जर या जाट ही होंगे?" बातों-बातों में मैंने पूछा कि इमरजेंसी स्टॉक में से कुछ FD दे सकेंगे क्या? "अरे ले लो चौधरी साब, हैं तो हमारे पास भी कम ही लेकिन आपका काम तो चल ही जायेगा। मैं अगले हफ़्ते किसी को भेजकर अपने लिये और मंगा लूँगा।" चलो जी, समस्या सुलझ गई। शाम को प्रतिदिन वाले समय से एक घंटा पहले निकलकर मैं चौधरी साहब की ब्रांच में पहुँच गया। हमेशा की तरह बहुत प्यार से गले मिले, सफ़ाई कर्मचारी को आवाज लगाई, "ओ जिज्जी, दो गिलास पानी ला ठंडा। और जूस बोल दे, छोटा भाई आया है बहुत दिन के बाद।" पानी आ गया, जूस के लिए जिज्जी को मैं मना करता रहा लेकिन चीफ़ साहब की बात का मोल ज्यादा होना ही था। साधारण बातचीत होती रही, जूस आ गया और पी लिया। अब काम की बात करनी थी क्योंकि बैंक बंद होने का समय भी हो रहा था। चौधरी साहब घंटी बजाने लगे, उनकी शाखा के FD इंचार्ज का नाम लेकर बोले, "फ़लाने को कह दूँ आपको FD recipts दे देग।" मैंने डिमांड लेटर पर उनकी स्वीकृति लेते हुए कहा, "जी, बुलाने की क्या जरुरत है? एक बार बात सुनने आयेगा, फ़िर सामान देने आयेगा। मैं ही जाकर ले लेता हूँ।" और फ़लाने साहब के पास पहुँच गया। फ़लाने साहब से मुलाकात पहली थी लेकिन फ़ोन पर अच्छा परिचय हो चुका था, किसी पेंशनर द्वारा उनकी शिकायत होने पर चौधरी साहब ने मेरे ही कान पकड़कर मामला खत्म करवाया था तो फ़ोन पर ये भी कई बार आभार प्रकट कर चुके थे। मैंने जाकर अपना परिचय दिया और चौधरी साहब द्वारा FD receipts जारी करने की परमीशन वाला लेटर उन्हें दिया। एक और ग्राहक भी उनकी टेबल पर शायद मेरे आगे आगे पहुँचा ही था। लेटर हाथ में लेकर इंचार्ज साहब कहने लगे, "FD receipt तो मेरे पास भी खत्म ही होने वाली हैं। वेरी सॉरी, मेरी भी खत्म हो ही गई थीं। मैं उस ब्रांच में गया तो उन्होंने नहीं दी फ़िर दूसरी ब्रांच में गया तो बहुत रिक्वेस्ट करने के बाद थोड़ी सी दी हैं। ये है, वो है, ऐसा है, वैसा है। सॉरी सर।"
"ओके, कोई बात नहीं।" मैं मुड़ा तो उन्होंने आवाज लगाकर रोका।
"एक मिनट, सर"
"हाँ, जी?"
"एक बात पूछूँ आपसे?"
"पूछो न"
कुछ रुककर कहने लगा, "आप एक गलती करके आये हो। मैं सही कह रहा हूँ न?"
अब मेरा माथा थोड़ा सा ठनकने लगा, "होश संभालने के बाद मैंने गलतियाँ ही की हैं। आप किस गलती की पूछ रहे हो, सीधे से पूछोगे तो हाँ या न बताऊँ, मुझसे गोलमोल बातें ज्यादा देर होती नहीं।"
"आप सीधे अपनी ब्रांच से आ रहे हैं, आपने ड्रिंक कर रखी है न?"
".... जी, मैंने किसी जन्म में इतनी पी थी कि इस जन्म में मरते दम तक भी न पियूँगा तो काम चल जायेगा।"
"ये बता दो सरजी, मैं ठीक कह रहा था न?"
कोई अच्छा सा जवाब ही दिया होगा मैंने भी, क्योंकि वो मुझे अब याद नहीं। मैं चौधरी साहब के केबिन में आ बैठा। चौधरी साहब फ़ाईलों में उलझे थे, मुझे देखा तो पूछा, "मिल गईं चौधरी साब?"
मैंने हँसते हुए कहा, "FD तो नहीं मिलीं, खत्म हो रही बताते हैं लेकिन एक सर्टिफ़िकेट जरूर मिल गया।"
"कैसा सर्टिफ़िकेट? क्या बात हुई?"
मैं अपनी दिल्ली की पुरानी ब्रांच में फ़ोन कर रहा था। मित्र अभी बैंक में ही था, उसे बोला कि थोड़ी सी FD चाहियें, निकलवाकर रख लेना। मैं अभी और लेट हो जाऊंगा, आकर साईन कर दूँगा।
चौधरी साहब फ़ाईल साईड में रखकर बैठे थे। "क्या बात हुई, वहाँ क्यों तंग कर रहे हो उन्हें?" १ घंटा और बैठना पड़ेगा उन लोगों को भी।"
मैंने बताया कि एक घंटा नहीं, कम से कम दो घंटे और बैठना पड़ेगा मेरे दोस्तों को। मेरे काम से जा रहा हूँ तो भी बिना कुछ खिलाये-पिलाये नहीं जाने देंगे :)
अब चौधरी साहब मेरे पीछे पड़ गये, "कौन से सर्टिफ़िकेट की बात कर रहे थे। मुझे बात बताओ पूरी।"
बतानी पड़ी, ये भी बताया कि हो सकता है जिज्जी जो जूस लाई थी उसीमें कुछ मिला हो :)
सुनते ही चौधरी साहब ने घंटी बजाई, "इसकी तो @^#%$ ^& @&^, हिम्मत कैसे हो गई उसकी?"
जिज्जी उन फ़लाने साहब को बुलाने गई और फ़ौरन ही लौट भी आई। "साहब, उनसे गलती हो गई थी। आपके आने के बाद वो बहुत पछता रहे थे। मैं वहीं सफ़ाई कर रही थी उस समय जब आपसे उनकी बात हो रही थी। वो एक और कस्टमर और आप दोनों एक साथ ही उनकी टेबल पर पहुँचे थे, उसने पी रखी थी।" फ़िर चीफ़ साहब से बोली, "साहब जी, डाँटियो मत ज्यादा। अभी महीने भर की छुट्टी से आया है बीमारी के बाद, हार्ट का पेशेंट वैसे है। सच में उसे गलती लग गई, आपके बुलाने से पहले ही बहुत परेशान हो रहा था।"
तब तक वो खुद भी आ गया और कुछ कहे जाने से पहले ही हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। बहुत शर्मिंदा होते हुए वही सब बताने लगा, "उस कस्टमर के कारण मुझसे बेवकूफ़ी हो गई। मैंने उसे भगा दिया, ऐसा हुआ वैसा हुआ।"
चौधरी साहब को मैंने ही रिक्वेस्ट करके शांत किया, "जाने दो चौधरी साहब, इनकी गलती न है। मेरी शक्ल ही ऐसी है।" ---------------------------
फ़ेसबुक पर एक प्यारा सा शरारती मित्र बना। कुछ दिन पहले कभी मिलने की बात हो रही थी तो बोला, "सर, एक बार आपके साथ बैठकर पीनी है।"