तो मित्रों, आगे बढ़ते हैं..
दिल्ली वाला डॉ. नारंग कांड कुछ दिन पहले ही घटित हुआ था, दिमाग में वो भी तुरंत कौंध गया। मैंने वहाँ जाकर पूछा कि क्या मामला है तो अंकल जी ने कहा कि इन लोगों को कई बार मना करने के बाद भी ये कूड़े की बोरी हमेशा यहाँ रख जाते हैं। उनकी तरफ देखा तो उनमें से जो आदमी था वो बोरी उठाकर अपनी ठेली पर रखने का उपक्रम करने लगा। मैंने उससे कहा कि दोबारा ऐसा न हो। इधर से अंकल जी को लगा कि अब एक सहायक आ ही गया है तो बोले, "हर दिन का यही काम है इन भैन@# का, पकड़े जाएं तो हाँ जी/अच्छावजी करते हैं लेकिन मानते नहीं है।" उस आदमी ने कुछ नहीं कहा लेकिन उसके साथ की औरत अपनी टूटीफूटी हिंदी में अंकलजी से बहस करती जा रही थी कि कोई इस मकान में रहता नहीं है, दस मिनट के लिए हमारा सामान सामने रख दिया तो इसमें गाली-झगड़ा क्यों वगैरह वगैरह। पता चला कि वो लोग तीन गलियों में कूड़ा इकट्ठा करते हैं और एक गली से कूड़ा एक बड़े बोरे में भरकर वहाँ रखते हैं और दूसरी गली में चले जाते हैं, ऐसे ही तीसरी गली में। और लौटते समय वो दोनों बोरे भी लादकर फाइनली अपने ठिकाने चले जाते हैं। तमाशबीन एकत्रित थे, दोनों पार्टियाँ गर्मागर्मी में बहस कर रहे थे और यह देखकर वहाँ से निकल रहे दूसरे कूड़ा उठाने वाले भी आ खड़े हुए। ड्राईंगरूम में बैठकर घटना के कारण-निवारण पर बौद्धिक तर्क देना अलग चीज होती है, मौके पर घटना का हिस्सा होना अलग। बहस होते-होते अंकल जी ने फिर कोई गाली दी, वो औरत फिर भड़की और अंकलजी ने उसी ठेली पर टाट तानने के काम आने वाला एक बाँस उठाया और मारने को हुए। मैंने उन्हें रोक लिया लेकिन जैसे कहते हैं कि मारते का हाथ रोक सकते हैं पर बोलते की जुबान नहीं तो उन दोनों की जुबानी जंग जारी रही। वो भी अब चार-पांच लोग थे, इतनी हिम्मत तो खैर कर नहीं सकते थे कि हाथ उठा दें लेकिन औरत को गाली देने और मारने की कोशिश का राग शुरू हो ही जाता। मामला बढ़ने नहीं दिया गया, उनके साथियों को वहाँ से भगाया और इन दोनों को भी दोबारा ऐसा न कहने की बात कहकर मैं भी चला आया, घर पर मेरा भी बेसब्री से इंतजार हो रहा था ☺ अंकलजी को बोला कि वो भी चलें लेकिन वो वहीं रुकने की बात पर अड़े रहे।
घर पहुँचा तो सब तैयार ही थे, मुझे देखकर गाड़ी में बैठने लगे। मैंने गली में देखा तो अंकलजी का लड़का उनके घर के बाहर ही दिख गया। वो मुझसे लगभग पाँच वर्ष छोटा है, मैंने आवाज लगाकर बुलाया और उसे शॉर्ट में बात बताई। ये भी कहा कि अभी सब शांत हो गया था लेकिन तेरे पिताजी वहीं हैं और अकेले ही हैं तो वहाँ जाना चाहिए। सुनकर वो चकित रह गया, "झगड़ा कर रहे थे?" कहकर उत्तेजना में आकर एक दो बार ऐसे इधर उधर पलटा जैसे लड़ाई के मैदान में घोड़ा अचानक से कोई निर्णय न कर पा रहा हो। और फिर अपने घर में घुस गया। हमें अपने घर को लॉक करते, गाड़ी आगे-पीछे करते पाँच-दस मिनट तो लग ही गए होंगे, मेरा ध्यान उधर ज्यादा था कि वो लड़का घर से शायद कोई लाठी-किरपाण लेकर अपने प्लॉट की ओर भागता दिखेगा लेकिन 😢।
हम उस प्लॉट के सामने से ही निकले तो दरवाजा साफ-सुथरा था। कुछ आगे आने पर अंकलजी भी दिख गए जो दुकान से फल वगैरह खरीद रहे थे।
मुझे पता नहीं क्या सोचकर(कह सकते हैं कि क्या-क्या सोचकर) हँसी आ गई।
अब आप अपने ड्राईंगरूम में बैठकर दो ये निर्णय कि यह सामान्य सी घटना लिखने-पढ़ने योग्य थी?
जो घटा, उसमें कौन सा पक्ष सही था?
मामला बढ़ जाता तो भी आप ऐसे ही ठंडे दिमाग से सोच रहे होते या वो सोच रहे होते जो चैनल वाले चाहते हैं?
प्रश्न बहुत हैं, पहले इन्हीं दो चार प्रश्नों पर दो निर्णय।