मैं एक मध्यमवर्गीय क्षेत्र का निवासी हूँ जिसे वास्तव में निम्न-मध्यमवर्गीय ही कहना चाहिए। मेरा जन्म 1970 का है, मैं मेरे अनुभव लिखूँ तो यही समझा जाए जो मैंने देखा। उससे पूर्व अर्थात 1948 से लगभग साठ-सत्तर के दशक तक यह क्षेत्र निम्न आयवर्ग वालों का ही रहा होगा। देशविभाजन के बाद विस्थापित होकर आए परिवारों को भारत के विभिन्न स्थानों पर बसाया गया था तो मेरे अनुमान में ऐसे सभी स्थानों पर लगभग ऐसा ही सामाजिक टेक्सचर होना चाहिए। लोगों की आर्थिक स्थितियाँ बदलती रही हैं, उसके साथ ही सामाजिक व अन्य स्थितियाँ भी।
कुछ व्यक्तियों को नौकरी मिल गई, अधिकाँश ने मजदूरी और छोटे-मोटे व्यवसाय से जीवन की नई पारी आरम्भ की। समय के साथ कुछ ने अपने आरम्भिक धन्धों को विस्तार दिया, कुछ ने स्वयं या उनकी सन्तति ने कार्य बदले भी। यह तथ्य है कि नई पीढ़ी के अधिकाँश बच्चे वर्तमान की वस्तुओं, तकनीकों को पुरानी पीढ़ी की अपेक्षा अधिक व्यवहारिक रूप से जानते हैं। साथ ही यह भी उतना ही सत्य है कि यही पीढ़ी अपने परिवारों की साठ-सत्तर वर्ष पुरानी आर्थिक व सामाजिक पृष्ठभूमि से पर्याप्त परिचित नहीं। इस परिचय न होने में मैं इस पीढ़ी का दोष नहीं देखता, मुझे यह you can't eat the cake and have it too जैसी अवस्था लगती है।
इस परिवर्तन की अवधि में कुछ प्रसंग मुझे रोचक लगते हैं। उस समय हमारे लोगों के पास श्रम से कतराने की लग्जरी नहीं थी। आदमी लोग सुबह अपनी नौकरी अथवा व्यवसाय के लिए निकल जाते थे, स्त्रियाँ घर-गृहस्थी के कामों में जुट जाती थी। कुछ दिनों में मैंने देखा कि अनेक स्त्रियाँ प्रतिदिन 4-5 के समूह में बोलती-बतलाती जाती हैं, कुछ देर में लौटती हैं तो हाथों में थैले-झोले लटकाए। पहले मुझे लगा कि राशन डिपो से चीनी आदि लाती होंगी लेकिन ये तो प्रतिदिन का काम हो गया जबकि कंट्रोल के दिनों में प्रतिदिन चीनी बँटना असम्भव था। इन स्त्रियों में एक कॉमन बात थी कि ये सब 'परले मोहल्ले' की थीं। 'परला मोहल्ला' अर्थात हमारी छोटी सी कॉलोनी के दूसरे छोर पर बसे कुछ घर जिनमें हमारे जैसे विस्थापित परिवार ही रहते थे। वो भी बिल्कुल हमारे जैसे ही लुटपिट कर आए थे लेकिन इधर वाले स्वयं को उनसे श्रेष्ठ(मेरे लिए अज्ञात कारणों से) मानते थे। कुछ जिज्ञासाएं ऐसी होती हैं जिनका त्वरित शमन आवश्यक लगता है, यह उस श्रेणी की न होकर होल्ड की जा सकती थी तो मैंने किसी से पूछा नहीं। जीवन-मरण का प्रश्न न हो और जिनका उत्तर हम स्वयं खोज सकें, उसके लिए औरों पर प्रश्न दागना मुझे प्रिय नहीं। लेकिन जैसाकि बता चुका, 'परला मोहल्ला' कॉलोनी के दूसरे छोर पर था और उधर मेरा नियमित जाना भी नहीं होता था, जिज्ञासा मन में बनी रही। कुछ दिन बाद उस ओर गया तो देखा कि लगभग हर घर के बाहर चबूतरे पर, चारपाई पर या बरामदे में स्त्रियाँ अपने आगे रंग-बिरंगे मनकों(प्लास्टिक के मोती) का ढेर लगाए बैठी हैं। हाथ लगातार सुई, प्लास्टिक की डोर, मनकों से जूझ रहे हैं और चपड़-चपड़ भी चल रही है। ऐसे ही बिन्दुओं को जोड़कर जो चित्र बना तो वो यह था कि उसी मोहल्ले के एक व्यक्ति जो अब कुछ दूर जाकर रहने लगा था, ने जॉबवर्क पर आर्टिफिशल मालाएं आपूर्ति करने का उद्यम आरम्भ किया। ये सब स्त्रियाँ उसके यहाँ से तौलकर मनके और अन्य सामग्री लाती थीं, अपनी दिनचर्या को थोड़ा सा पुनर्व्यवस्थित करते हुए मालाएं बनाती थीं। अगले दिन तैयार माल वापिस, नया कच्चा माल लिया और वही दिनचर्या आरम्भ। स्वाभाविक है कि श्रम का मूल्य अल्प ही सही लेकिन नकद मिलता था। सहकारिता जैसी यह व्यवस्था लम्बे समय तक चली। मेरा अनुमान है कि पारिश्रमिक नाममात्र का ही होता रहा होगा लेकिन उस दौर में इस एक कृत्य ने उन स्त्रियों के साथ उनके परिवारों को आर्थिक रूप से सम्बल दिया होगा।
मुझे वह मॉडल बहुत प्रेरक लगा था, 'अमूल' और 'लिज्जत' जैसे प्रकल्पों की जानकारी बहुत बाद में हुई।
प्रश्न ही उठाते रहने वालों के प्रश्न कभी समाप्त नहीं होते। प्रतिबद्धता के मापदण्ड पर देखेंगे तो ऐसे लोग समाधान खोजने वालों से इक्कीस नहीं इकतीस ही होते हैं क्योंकि इन पर समाधान का कर्तव्य/दायित्व नहीं होता।
अब तो वैसे भी टूलकिट जैसी तकनीक आ चुकी है। डिपो से रंग-बिरंगे प्रश्न कच्चे माल के रूप में उठाओ, ट्विटर/फेसबुक/इंस्टा में पिरो दो। अगले दिन डिपो से नया प्रश्न उठाओ & so on..
Show must go on...