आजकल एक चींटी ने बहुत परेशान कर रखा है। हो सकता है कि एक चींटी न होकर कई हों, लेकिन काटती एक ही जगह पर है, बायें पैर पर, तो मैं यही मानता हूं कि एक ही चींटी है। वो काटती है, और मैं एकाएक मसल देता हूँ। अगले दिन फ़िर से वही करण-अर्जुन वाली, कर्ज वाली पुनर्जन्म की कहानी………..
सुबह के समय अखबार पढ़ने का समय, जगह और अंदाज एक ही है अपना। अनार का पेड़ है एक, उसके नीचे कुर्सी बिछाई और पढ़ना शुरू। चिड़िया है एक, कई दिन से ऐन ऊपर वाली टहनी पर बैठ जाती है और चूं, चूं, चूं, चूं उसकी चलती रहती है जैसे समाचार वादन कर रही हो। दो तीन बार भगाया भी तो उड़ जाती है और दो ही मिनट में फ़िर से आकर निशाना बांधकर गोली सी मारती है, पोंछते रहो और बोलते रहो ’दाग अच्छे हैं।’ आ जाता हूँ अखबार समेटकर अंदर। उस दिन निकाली एयरगन, और निशाने से कम से कम डेढ़ फ़ुट दूर का टार्गेट बनाकर दाग दी, तो सीधे जमीन पर गिरी। हम जैसे टपंचों का निशाना लगाने का तरीका ऐसा ही होता है, slightly deviated from target to hit the aim.
एक बिल्ली भी है, वो कौन सा कम है? जब बाईक उठाकर बाहर निकलने को होता हूँ, सामने से जरूर निकलेगी, शगुन जो करना होता है। एक बार अवायड किया, दो बार अवायड किया – एक दिन पकड़ कर जमकर भिगोना, निचोड़ना किया, तब से दिखाई नहीं दी।
भैयो, हूँ तो ज्यादा सताया हुआ इन चींटी, बिल्ली, चिड़िया का ही, लेकिन जिनसे कहीं न कहीं कुछ लैंगिक समानता समझता हूँ, पीछे वो भी नहीं हैं। कुत्ते भी अब इन्सान होते जा रहे हैं, जमाना खराब आ गया है। एक कुत्ते ने पहले एक बार टेस्ट किया था मुझे, खून तो खैर मीठा है ही मेरा, जरूर लिंक डाल दिया होगा उसने बिरादरी में। अब एक और है झबरा सा, आजकल उसकी नजरें इनायत हैं मुझपर। दूर से देख लेता है, आंखों में चमक आ जाती है उसकी, दांतों में नमक वाली पेस्ट की मुस्कान दिखने लगती है और स्साला टेढ़ी पूंछ वाला दूर से ही यल्गार के ललकारे लगाता हुआ बढ़ा आता है। हरदम हाथ में ईंट रखनी पड़ती है मुझे, किसी दिन कर ही देना है उसका हैप्पी बड्डे।
एक पड़ौसी है हमारा। ऐसे पडौसियों के कारण ही लोग कहा करते हैं कि ’अफ़सोस, इतिहास को बदला जा सकता है लेकिन भूगोल को नहीं।’ घर में ही कैसीनो टाईप कुटीर उद्योग चलाता है, काऊ ब्वाय्ज़ की तरह बाईक्स पर शहर भर की क्रीम आती है जाती है, आपसी वार्तालाप में मातृभाषा का जमकर प्रचार-प्रसार करते हैं, wwf बिग बॉस टाईप के रियैलिटी शोज़ गाहे बगाहे देखने को मिलते रहते हैं। पानी सर से ऊपर जाता है तो फ़िर जो होता है, उसे इतिहास में दर्ज करें तो पानीपत की पहली, दूसरी, तीसरी लड़ाईओं वाली गिनती बहुत कम रह जायेगी। उस दिन एक दूसरा पड़ौसी कह रहा था सच में किसी दिन गोली मार देनी है इसके। मैंने कहा फ़िर तू बच जायेगा? कहने लगा, आप रोज चींटी, चिडि़या, बिल्ली, कुत्ते को ......। मैं सिर खुजाने लगा, अपना यार, और किसका खुजाता? क्या तर्क दिया है बंदे ने, मान गये।
बहुत हो गया जी दुख-दर्द मेरा, बात करते हैं ब्लॉग-जगत की। ताजा हालात में जिधर देखो, जो चर्चा देखो, एक चीज कामन है, मीट। ब्लॉगर मीट छाई हुई हैं आजकल और दूसरे मीट की चर्चा भी यानि शाकाहार और मांसाहार। हर कोई इस चर्चा में या उस चर्चा में योगदान दे रहा है, जो ज्यादा कर्मठ हैं वो दोनों तरफ़ बखूबी अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं। हम भी करेंगे जी, जितनी समझ हममें है, सारी उंडेल देंगे।
गौर से देखेंगे तो मैंने ऊपर पांच पैरा लिखे हैं और पांचों में मैंने हिंसा की है, हिंसा की बात की है। हम मानते हैं कि मानव शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना है। वनस्पति से शुरू होकर(जल तत्व), आरोह क्रम में कीट जगत, पक्षी, पशु वर्ग से मानव श्रेणी तक आते आते तत्व-संख्या बढ़ती रहती है और उसीके अनुसार की जाने वाली या होने वाली हिंसा का परिणाम भी। फ़िर जीने के लिये न्यूनतम साधन अपनाना, और केवल स्वाद के लिये हिंसा का अपनाना, इन दो बातों में तो अंतर होना ही चाहिये। कहाँ हिंसा बाध्यता है और कहाँ वैकल्पिक, इस बात को हम अपने सबसे विशिष्ट तत्व विवेक का इस्तेमाल करके देखें तो हो सकता है कि कुछ ……..। खैर हरेक का सोचने का अपना नजरिया है। जुटे हैं विद्वान, आलिम-फ़ाजिल - लगता है कुछ न कुछ फ़ैसला हो ही जायेगा।
मेरी नजर में तो ये दोनों व्यक्तिगत विषय हैं, हाँ महिमा मंडन नहीं समझ में आता। मैं खुद जनरल सेंस में शाकाहारी हूँ, लेकिन मेरे बहुत से मित्र मांस खाते हैं। न वो मुझे मजबूर करते हैं खुद को बदलने के लिये और न ही मैंने आजतक किसी को कहा है बदलने के लिये, सिवाय एक के। और फ़िर जब कुछ दिन के बाद उसने बताया कि उसने भी नॉन-वेज खाना बंद कर दिया है तो मुझे अफ़सोस हुआ कि मैं कहाँ का जज या ऐडवाईज़र हूँ जो फ़ैसले सुनाता फ़िरूँ या सलाह देता फ़िरूँ? उसका अहसानमंद हुआ और उसे भी छूट दे दी कि अपने विवेक से निर्णय ले।
तो बन्धुओं, ज्यादा नहीं भाषण देना है अब, नहीं तो साम्प्रदायिकता और पता नहीं कौन कौन सी ता का आरोप लग जाये। कुछ हो गया न तो सारे पल्ला छुड़ाकर भाग जाओगे, पता है मुझे। पहले नहीं डरता था किसी बात से, अब डरने लगा हूँ, जब से चार लोग जानने लगे हैं, जिम्मेदारी बढ़ जाती है जी। विचारशून्य बन्धु की भाषा में बोले तो ’नालायक का बस्ता और भारी हो जाता है। वो गज़ल है न जगजीत साहब की गाई हुई, ’मैं तनहा था मगर इतना नहीं था।’ सामान जितना ज्यादा हो, सफ़र में टेंशन भी उतनी ही होती है मुझे तो। खाली हाथ झुलाते, भीड़ के बीच अकेला, मजा आता है सोचकर भी, वो दिन भी क्या दिन थे सनम, बिंदास।’ लौटेगा जरूर वो गुजरा जमाना, तब देखेंगे सबको, एक एक करके, हा हा हा।
:) फ़त्तू चारपाई पर लोटा हुआ था और गा रहा था, “सीसी भरी गुलाब की, पत्थर से फ़ोड़ दूँ….।”
बापू बोल्या, “ओ बौअली बूच! सीसी लेगा, गुलाब इकट्ठे करेगा, रस काढेगा उनका, सीसी में भरेगा फ़िर उसने पत्थर मारके फ़ोड़ेगा। मेरे यार, इससे तो अपनी भैंस के चीचड़ काड लै, कुछ तो सुख पायेगी वो बेचारी।
आदरणीय, माननीय, परम श्रद्धेय प्रचारकों, उपदेशकों आदि आदि, ये इधर उधर जाकर कापी पेस्ट भड़काऊ टिप्पणियां करने की बजाय आप भी अपनी अपनी भैंस के चीचड़ निकाल लो न यारों, वो भी थोड़ा चैन पा लेगी। दूसरे धर्म की कोई अच्छी चीज भी दिखती है तुम्हें क्या?
गाना सुनवा देता हूं तलत महमूद का, मुझे बहुत अच्छा लगता है ये गाना भी और तलत महमूद की आवाज
भी। उम्मीद है अभी तक ऐसे लोगों की पहचान फ़नकार के रूप में ही होती है, न कि किसी धर्म विशेष के अनुयायी होने से। गाने का गाना हो जायेगा और हम भी सैक्यूलर समझ लिये जायेंगे। दोनों हाथों में लड्डू हैं आज तो, हा हा हा।
p.s. - सुबह नैट और ब्लॉगर ने मिलीभगत करके मेरी बेइज्जती की इज्जत खराब कर दी। क्या करें, बड़े लोग हैं ये गूगल और रिलायंस वाले, इनकी तो...:)