बुधवार, नवंबर 24, 2010

चींटी, चिड़िया, बिल्ली और ........

आजकल एक चींटी ने बहुत परेशान कर रखा है। हो सकता है कि एक चींटी न होकर कई हों, लेकिन काटती एक ही जगह पर है, बायें पैर पर, तो मैं यही मानता हूं कि एक ही चींटी है। वो काटती है, और मैं एकाएक मसल देता हूँ। अगले दिन फ़िर से वही करण-अर्जुन वाली, कर्ज वाली पुनर्जन्म की कहानी………..

सुबह के समय अखबार पढ़ने का समय, जगह और अंदाज एक ही है अपना।  अनार का पेड़ है एक, उसके नीचे कुर्सी बिछाई और पढ़ना शुरू। चिड़िया है एक, कई दिन से ऐन ऊपर वाली टहनी पर बैठ जाती है और चूं, चूं, चूं, चूं उसकी चलती रहती है जैसे समाचार वादन कर रही हो। दो तीन बार भगाया भी तो उड़ जाती है और दो ही मिनट में फ़िर से आकर निशाना बांधकर गोली सी मारती है, पोंछते रहो और बोलते रहो ’दाग अच्छे हैं।’   आ जाता हूँ अखबार समेटकर अंदर। उस दिन निकाली एयरगन, और निशाने से कम से कम डेढ़ फ़ुट दूर का टार्गेट बनाकर दाग दी, तो सीधे जमीन पर गिरी। हम जैसे टपंचों का निशाना लगाने का तरीका ऐसा ही होता है, slightly deviated from target to hit the aim. 

एक बिल्ली भी है, वो कौन सा कम है? जब बाईक उठाकर बाहर निकलने को होता हूँ, सामने से जरूर निकलेगी, शगुन जो करना होता है। एक बार अवायड किया, दो बार अवायड किया – एक दिन पकड़ कर जमकर भिगोना, निचोड़ना किया,  तब से दिखाई नहीं दी।

भैयो, हूँ तो ज्यादा  सताया हुआ इन चींटी, बिल्ली, चिड़िया का ही, लेकिन जिनसे कहीं न कहीं  कुछ लैंगिक  समानता समझता हूँ, पीछे वो भी नहीं हैं।   कुत्ते  भी अब इन्सान होते जा रहे हैं, जमाना खराब आ गया है।     एक कुत्ते ने  पहले एक बार टेस्ट किया था मुझे, खून तो खैर मीठा है ही मेरा, जरूर लिंक डाल दिया होगा उसने बिरादरी में। अब   एक और है झबरा सा, आजकल उसकी नजरें इनायत हैं मुझपर। दूर से देख लेता है, आंखों में चमक आ जाती है उसकी,  दांतों में नमक वाली पेस्ट की मुस्कान दिखने लगती है और स्साला टेढ़ी पूंछ वाला  दूर से ही यल्गार के ललकारे लगाता हुआ बढ़ा आता है। हरदम हाथ में ईंट रखनी पड़ती है मुझे, किसी दिन कर ही देना है उसका हैप्पी बड्डे।

एक पड़ौसी है हमारा। ऐसे पडौसियों के कारण ही लोग कहा करते हैं कि ’अफ़सोस, इतिहास को बदला जा सकता है लेकिन भूगोल को नहीं।’  घर में ही कैसीनो टाईप कुटीर उद्योग चलाता है, काऊ ब्वाय्ज़ की तरह बाईक्स पर शहर भर की क्रीम आती है जाती है, आपसी वार्तालाप में मातृभाषा का जमकर प्रचार-प्रसार करते हैं, wwf  बिग बॉस टाईप के रियैलिटी शोज़ गाहे बगाहे देखने को मिलते रहते हैं। पानी सर से ऊपर जाता है तो फ़िर जो होता है, उसे इतिहास में दर्ज करें तो पानीपत की पहली, दूसरी, तीसरी लड़ाईओं वाली गिनती बहुत कम रह जायेगी। उस दिन एक दूसरा पड़ौसी कह रहा था सच में किसी दिन गोली मार देनी है इसके। मैंने कहा फ़िर तू बच जायेगा?   कहने लगा, आप रोज चींटी, चिडि़या, बिल्ली, कुत्ते को ......।  मैं सिर खुजाने लगा, अपना यार,  और किसका खुजाता?  क्या तर्क दिया है बंदे ने, मान गये।

बहुत हो गया जी दुख-दर्द मेरा, बात करते हैं ब्लॉग-जगत की। ताजा हालात में जिधर देखो, जो चर्चा देखो, एक चीज कामन है, मीट।    ब्लॉगर मीट छाई हुई हैं आजकल     और      दूसरे मीट की चर्चा भी यानि शाकाहार और मांसाहार। हर कोई इस चर्चा में या उस चर्चा में योगदान दे रहा है, जो ज्यादा कर्मठ हैं वो दोनों तरफ़ बखूबी अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं। हम भी करेंगे जी, जितनी समझ हममें है, सारी उंडेल देंगे।

गौर से देखेंगे तो मैंने ऊपर पांच पैरा लिखे हैं और पांचों में मैंने हिंसा की है, हिंसा की बात की है।  हम मानते हैं कि मानव शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना है। वनस्पति से शुरू होकर(जल तत्व), आरोह क्रम में कीट जगत, पक्षी, पशु वर्ग से मानव श्रेणी तक आते आते तत्व-संख्या बढ़ती रहती है और उसीके अनुसार की जाने वाली या होने वाली हिंसा का परिणाम भी। फ़िर जीने के लिये न्यूनतम साधन अपनाना, और केवल स्वाद के लिये  हिंसा का अपनाना, इन दो बातों में तो अंतर होना ही चाहिये। कहाँ हिंसा बाध्यता है और कहाँ वैकल्पिक, इस बात को हम अपने सबसे विशिष्ट तत्व विवेक का इस्तेमाल करके देखें तो हो सकता है कि कुछ ……..। खैर हरेक का सोचने का अपना नजरिया है। जुटे हैं विद्वान, आलिम-फ़ाजिल - लगता है कुछ न कुछ फ़ैसला हो ही जायेगा।

मेरी नजर में तो ये दोनों व्यक्तिगत विषय हैं, हाँ महिमा मंडन नहीं समझ में आता। मैं खुद जनरल सेंस में शाकाहारी हूँ, लेकिन मेरे बहुत से मित्र मांस खाते हैं। न वो मुझे मजबूर करते हैं खुद को बदलने के लिये और न ही मैंने आजतक किसी को कहा है बदलने के लिये, सिवाय एक के। और फ़िर जब कुछ दिन के बाद उसने बताया कि उसने भी नॉन-वेज खाना बंद कर दिया है तो मुझे अफ़सोस हुआ कि मैं कहाँ का जज या ऐडवाईज़र हूँ जो फ़ैसले सुनाता फ़िरूँ या सलाह देता फ़िरूँ? उसका अहसानमंद हुआ और उसे भी छूट दे दी कि अपने विवेक से निर्णय ले।

तो बन्धुओं, ज्यादा  नहीं भाषण देना है अब, नहीं तो साम्प्रदायिकता और पता नहीं कौन कौन सी ता का आरोप लग जाये। कुछ हो गया न तो सारे पल्ला छुड़ाकर भाग जाओगे, पता है मुझे। पहले नहीं डरता था किसी बात से, अब डरने लगा हूँ, जब से  चार लोग जानने लगे हैं, जिम्मेदारी बढ़ जाती है जी।  विचारशून्य बन्धु की भाषा में बोले तो ’नालायक का बस्ता और भारी हो जाता है।    वो गज़ल है न जगजीत साहब की गाई हुई, ’मैं तनहा था मगर इतना नहीं था।’  सामान जितना ज्यादा हो, सफ़र में टेंशन भी उतनी ही होती है मुझे तो। खाली हाथ झुलाते, भीड़ के बीच अकेला, मजा आता है सोचकर भी, वो दिन भी क्या दिन थे सनम, बिंदास।’ लौटेगा जरूर वो गुजरा जमाना, तब देखेंगे सबको, एक एक करके, हा हा हा।

:) फ़त्तू चारपाई पर लोटा हुआ था और गा रहा था, “सीसी भरी गुलाब की, पत्थर से फ़ोड़ दूँ….।”   
बापू बोल्या, “ओ बौअली बूच!       सीसी लेगा, गुलाब इकट्ठे करेगा, रस काढेगा उनका, सीसी में भरेगा फ़िर उसने पत्थर मारके फ़ोड़ेगा।  मेरे यार, इससे तो  अपनी भैंस के चीचड़ काड लै,  कुछ तो सुख पायेगी वो बेचारी।

आदरणीय, माननीय, परम श्रद्धेय प्रचारकों, उपदेशकों आदि आदि,   ये इधर उधर जाकर कापी पेस्ट भड़काऊ टिप्पणियां करने की बजाय आप भी अपनी अपनी भैंस के चीचड़ निकाल लो न यारों, वो भी थोड़ा चैन पा लेगी। दूसरे धर्म की कोई अच्छी चीज भी दिखती है तुम्हें क्या?

गाना सुनवा देता हूं  तलत महमूद का, मुझे बहुत अच्छा लगता है ये गाना भी और तलत महमूद की आवाज 
भी। उम्मीद है अभी तक ऐसे लोगों की पहचान फ़नकार के रूप में ही होती है, न कि किसी धर्म विशेष के अनुयायी होने से। गाने का गाना हो जायेगा और हम भी सैक्यूलर समझ लिये जायेंगे। दोनों हाथों में लड्डू हैं आज तो, हा हा हा।
p.s. - सुबह नैट और ब्लॉगर ने मिलीभगत करके मेरी बेइज्जती की इज्जत खराब कर दी। क्या करें, बड़े लोग हैं ये गूगल और रिलायंस वाले, इनकी तो...:)


शनिवार, नवंबर 20, 2010

वाईन है तो फ़ाईन है....आंय..

आज जाकर मूड कुछ ठीक हुआ है जी हमारा। उस दिन शायद महीने भर के बाद अखबार पढ़ी तो लेख देखा, ’जवानी में वाईन तो बुढ़ापा फ़ाईन।’। वैरी गुड, बचपन और जवानी तो जैसे तैसे निकाल दी, कभी बहक कर और कभी ठिठक कर, एक बुढ़ापे का सहारा था कि आराम से कट जायेगा, इस पर भी पानी फ़ेर दिया विद्वान लोगों ने।
अमां जो पीते हैं, वो जवानी भी फ़ाईन गुजारें और बुढ़ापा भी, और हम जैसे बहार में भी सूखे रहे और जब चैन से बैठने का समय आये, उस समय भी बेचैन रहें। सही है तुम्हारा इंसाफ़।
आप कह सकते हैं कि हमें किसने रोका है, हम भी तो ये सब कर सकते थे और वैसे भी मलिका पुखराज का गाना ’अभी तो मैं जवान हूँ’  मुफ़ीद बैठता है हम पर तो अभी क्यों न कर लें यह शुभ काम? फ़ायदा ही फ़ायदा, जो मन में आये वो कर सकेंगे। किसी से प्यार का इजहार,  किसी को गाली-गुफ़्तार, किसी की च्ररण-वंदना और किसी की इज्जत का फ़लूदा, कुछ भी कर देंगे और अगर बाद में बात बिगड़ गई तो माँग लेंगे माफ़ी कि यार खा-पी रखा था, कह दिया होगा कुछ, जाने दो। वैसे भी यहाँ जबसे पधारे हैं हम,  टिप्पणी, सलाह, मार्गदर्शन, माफ़ी, कॉफ़ी कुछ भी माँगने में शर्म नहीं आती। और फ़िर हमें शर्म आई तो कोई तो होगा कहीं मसीहा, जो हमारे लिये सफ़ाई दे देगा?  इत्ते सारे बड़े भाई, छोटे भाई, उस्ताद जी, वस्ताद जी, यार-दोस्त, मित्र-बन्धु बनाये हैं, हमारे गाढ़े हल्के में काम न आये तो फ़िर क्या फ़ायदा इतना वजन उठाने का हमारा?
अब करें क्या, शुरुआत खराब हो गई थी अपनी। बचपन से ही पहले तो टीचर ऐसे मिले, जिनकी किताबें पढ़ीं शुरू में वो लेखक ऐसे मिले, फ़िल्में पसंद आईं तो ऐसे निर्देशकों की जिन्होने हमें बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी।  शराफ़त, नैतिकता, ईमानदारी, शालीनता जैसी विलुप्त प्रजाति की चिडि़याओं का बसेरा करवा दिया हमारी खोपड़ी में। इन्हें जेहन में बसाकर उम्र भर के लिये बरबाद कर दिया हमें। ये सब चीजें न ओढने की, न बिछाने की। न इधर के रहे न उधर के। न खुदा ही मिला न विसाले सनम। जमाने को देखें तो सरपट भागता दिखता है और हम ताल से ताल मिलाने की असफ़ल सी कोशिश करते हुये। हमने बिगड़ने और बिगाड़ने का फ़ैसला कर लिया है, मसौदा बना रहे हैं और जल्दी ही पेश करेंगे।
अब मूड ठीक कैसे हुआ, ये बकवास सुनो।   सुबह  सुबह यह पोस्ट   देखी और कमेंट्स पढ़े। किसी को उल्टी आ रही है, किसी के साथ कुछ हो रहा है, कोई उसे जायज ठहरा रहा है तो कोई और बाल की खाल निकाल रहा है। हमने तो देखे जी दोनों वीडियो कई बार, दोनों के लिये धर्मनिरपेक्ष होकर कह रहे हैं कि प्रेम, करुणा, सौहार्द, अलाना, फ़लाना  आदि का सागर और जोरों से ठाठें मारने लगा है।
इतने लोगों को पुण्य-सबाब  मिलेगा, ये सोचकर मूड सही हो गया। इन बेजुबान बेचारों ने तो मरना ही था और फ़िर तुम ताकतवर हो इनसे, तो तुम्हारा हक भी है। वैसे शायद तुम से ताकतवर कोई और भी हो कहीं.......    तुम ले लो यारों पुण्य-सबाब, वहाँ जाकर पीने को मिल जायेगी तुम्हें और तुम हो लेना खुश उसमें, हमारी और हम जैसों की  जवानी जैसी गुजरी, गुजर गई और बुढ़ापा फ़ाईन न गुजरेगा तो न गुजरे, वो भी देखी जायेगी। 
हम तो यहीं गा गुनगुना लेंगे – ये आठ के ठाठ है बंधु…..
:) फ़त्तू के बाल वाल रूखे से बिखरे से थे, वरिष्ठ….  ने समझाया, “रै, बालों में तेल गेर लया कर माड़ा सा।”  
फ़त्तू बोल्या, “जी तो म्हारा भी बोत करे सै जी, पर आड़े तो हाल इसे हैं कि छौंक लगाती हाण भी पानी का इस्तेमाल करना पड़  रया सै, आप बात करो सो बालां में तेल गेरन की।”
आयेगा सही टाईम भी फ़त्तू का, देख लेना

सोमवार, नवंबर 15, 2010

हार की जीत

शाम ऑफ़िस से घर के लिये निकला तो छिटपुट अंधेरा शुरू हो गया था। वैसे तो बाईक पर हम दो साथी इकट्ठे जाते हैं, लेकिन उस दिन मैं अकेला था। कुलीग का घर  मेरे मकान के पास ही है। इकट्ठे जाने के और फ़ायदों के साथ एक फ़ायदा यह भी हो जाता है कि रास्ते में कुछ प्लानिंग कर लेते हैं कि आज फ़लां काम को निबटाना है या आज डाक की पेंडेंसी देखनी है। मेरे यह कुलीग मेरे से हर लिहाज में सीनियर हैं। न सिर्फ़ उम्र के लिहाज से,  बल्कि ज्ञान, दुनियादारी वगैरह हर मामले में मुझसे इक्कीस नहीं, इकतीस बल्कि इकतालीस हैं। आजकल उन्हें शाम को  किसी काम से दूसरी तरफ़ जाना होता है, सो हम दोनों अपनी अपनी बाईक से जाते हैं।
थोड़ी दूर ही आया था कि दो सज्जन खड़े दिखाई दिये और मुझे रुकने का इशारा किया। चलने के लिये तो फ़िर भी हमें प्रेरित करना पड़ता है, लेकिन रुकने का तो जी बहाना चाहिये होता है। रुक गया तो एक महाशय आकर पीछे बैठ गये और कहने लगे. “चलो जी।” चल दिये जी हम। असल में सीधा सा ही रास्ता है तो सबको मालूम है कि कोई इस तरफ़ जा रहा है तो कम से कम मेन रोड तक तो जायेगा ही। इसलिये कोई औपचारिकता नहीं, ऐसा नहीं कि दिल्ली की तरह अँगूठे दिखा दिखाकर लिफ़्ट मांगी जाये। यहाँ तो सामने वाला रुक भर जाये, फ़िर तो खुद ही बैठ जाते हैं भाई लोग।
मेन रोड पर आकर मैंने बाईक रोकी और उनसे कहा कि मैं इधर गांव वाले रास्ते से जाऊँगा। वो उतर गये। रोड पार ही की थी कि प्रौढ़ उम्र के आदमी औरत खड़े थे, अब उन्होंने रोक लिया। महिला आकर बैठ गईं और हम चल दिये। आगे गाँव में जाकर उन्हें उतारा और मन भर आशीर्वाद अपने सर पर चढ़ाकर मैं आगे निकल पड़ा।
बहुत समय हो गया है जब मैं किसी के साथ होता हूँ,  तब मैं खो जाता हूँ कहीं। हैरान होकर, चकित होकर लोगों को बातें करता देखता रहता हूँ। यार, कैसे ये लोग इतनी बातें और इतनी अच्छी तरह से कर लेते हैं? अपने से तो एक वाक्य बोलना पड़े तो तेरह व्याकरण की गलती, पन्द्रह उच्चारण की गलती हो जाती हैं। हाँ, जब अकेला होता हूँ, तब बहुत बोलता हूँ। सोचता रहता हूँ, खुद से ही सवाल जवाब करता रहता हूँ।
ख्याल भी बहुत बेतरतीब से और अजीब से आते हैं। एक दिन सोच रहा था, एक महानगर में पैदा होकर वहीं डिग्री विग्री ली(पढ़ा लिखा कुछ नहीं और न ही उसका मोल है कुछ – शिक्षा म्यान है और डिग्री तलवार जो बेरोजगारी रूपी कैद को काटने के काम आती है),  नौकरी के सिलसिले में एक जिला केन्द्र   पर पहुंचा। अगला कदम एक कस्बे में रखा और फ़िलहाल एक गांव में हूँ। लोग अपना विस्तार करते हैं ऊपर उठते हैं, मैं वृहत से लघु की ओर जा रहा हूँ। अब अगला पड़ाव क्या होगा?   ट्रेंड के हिसाब से तो अगला मुकाम कोई रेगिस्तान या पहाड़ लगता है, जहाँ चारों तरफ़ वीराना पसरा हो। न कोई आने वाला हो, न कोई जाने वाला। मिलने की खुशी न मिलने का गम, खत्म ये झगड़े हो जायें – देखें क्या होता है। लेकिन ऐसा हो तो शायद मेरे मन को सुकून ही मिलेगा। लोगबाग जहाँ इंच-इंच जगह के लिये लड़ रहे हैं, मैं अकेला मीलों सरजमीन का उपयोगकर्ता।  क्या कहा जाये, हाऊ रोमांटिक या पागलपन?
खैर, उन महिला को उतार कर चला तो दिमाग में ये आ रहा था कि मैंने ऐसा क्या विशेष कर दिया कि वो बेचारी अपनी तरफ़ से इतने आशीर्वाद दे गई। ’जुग जुग जी मेरे पुत्तर, ज्यूंदा रह ते तरक्की कर और ये और वो’। मेरा दिमाग बहुत जल्दी सनक जाता है जब कोई मुझे ऐसी बातें बोलता है। मैं क्या उसे अपने कंधे पर बिठाकर लाया या मुझे उसके कारण कोई ज्यादा सफ़र करना पड़ा? मैं बाईक पर इस तरफ़ ही आ रहा था तो उनके कहने पर उन्हें भी साथ ले आया, इसमें क्या बड़ी बात हुई?
मेरे जिन कुलीग की बात मैंने पहले की है,  वो किसी के रोकने पर अपनी बाईक नहीं रोकते। पहले दो तीन बार ऐसा हो चुका है, और मुझे भी हर बार यही समझाया उन्होंने कि मैं भी एवायड किया करूँ। उनके अपने अनुभव रहे होंगे, और मैं उनकी अधिकतर बातें आँख बन्द करके मान लेता हूँ क्योंकि उनके अनुभव का मैं प्रशंसक हूँ। लेकिन इस बात पर मुझसे उनकी बात नहीं मानी जाती। अभी कुछ दिन पहले ऐसी ही एक घटना हुई कि हम दोनों अपनी अपनी बाईक पर लौट रहे थे, वो आगे थे और मैं पीछे। एक मोड़ पार करने पर एक बीस बाईस साल का लड़का था, उसने हाथ देकर शहर तक छोड़ने की रिक्वेस्ट की, मैंने मान ली। बताने लगा कि ट्रेन पकड़नी थी, टैम्पो वगैरह कोई आया नहीं, लेट हो गया तो ट्रेन मिस हो जायेगी।
अगले दिन ऑफ़िस में लंच के बाद बैठे हुये थे कि वही बात उन्होंने छेड़ दी, “कल मैंने तो उस लड़के को मना कर दिया था लेकिन आपने उसे लिफ़्ट दे दी। आजकल जमाना खराब है, जिसे आप जानते नहीं उसके साथ भलाई करने का भी जमाना नहीं है। बाई चान्स, आगे चैकिंग हो और उस लड़के के पास कोई हथियार या कोई नशीला पदार्थ निकल आये तो आप साथ में नप जायेंगे”      सबने उनकी हाँ में हाँ मिलाई, बात गलत थी भी नहीं। मैं भी उन्हें मेरा शुभचिंतक ही मानता हूँ लेकिन मैं कन्विंस नहीं हो पाता,  मैंने सुदर्शन पंडित की लिखी कहानी ’हार की जीत’ सुनाई, जो हमारे गार्ड साहब को बहुत पसंद आई।
लेकिन सच ये है कि आज के समय में बाबा भारती कोई आदर्श नहीं।  आदर्श है ’बंटी और बबली’  जैसे या ’धूम’ के हाई प्रोफ़ाईल बाईकर लुटेरे। नई पीढ़ी को दोष नहीं देता मैं, उन्हें ये सब देखने पढ़ने को ही मिल रहा  है। लेकिन हम  जैसे क्या करें? 
बड़े शहरों में मुझे भी मालूम है कि लिफ़्ट लेने देने के खेल में बहुत कुछ होता है, सौदे से लेकर ब्लैक्मेलिंग तक, रिश्तों के कई आयाम हैं इस लिफ़्ट लेने-देने में जिसकी परिणति कई बार पैसे के लेनदेन से लेकर हत्या जैसे जघन्य अपराध तक में देखने को मिलती है।
कितना बदल गये हैं हम लोग कि आज से बीस तीस साल पहले जो बातें  हमें सिखाई जाती थीं कि औरों की मदद करो, दयालु बनो, मित्रवत व्यवहार करो आदि, आज इससे उलट शिक्षा हमें दी जा रही है।मेट्रो में और रेलवे स्टेशनों पर बाकायदा घोषणा की जाती है कि अजनबियों से सावधान रहें। और तो  और, अखबारों में ऐसी वारदातें पढ़ी हैं कि पानी पीने के बहाने घर में घुसकर  लूटपाट हो गई।  
ओबामा क्या दे गया और क्या ले गया, इससे ज्यादा मेरे लिये ये जानना जरूरी है कि हमें अविश्वासी होकर जीना चाहिये ताकि किसी मुसीबत में न फ़ंस जायें     या      सहज विश्वास करना चाहिये दूसरों पर कि हो सकता है वाकई इसे मदद की जरूरत है? आखिर हम जो करेंगे वही तो हमारे बच्चे सीखेंगे।  मैं तो अभी तक विश्वास करता रहा हूँ, हाँ, थोड़ा सा सावधान रहने में कोई हर्ज नहीं।  अविश्वास किसी पर नहीं करता लेकिन अंधविश्वास भी हर किसी पर नहीं करता। 
है किसी के पास ऐसा पैमाना जो बता सके कि सामने वाला सच बोल रहा है या झूठ?  
आज ढाई साल पूरे हो गये हैं जी हमें घर छोड़े।  अब जैसे जैसे दिन बीत रहे हैं,  ये जगह, यहाँ के लोग और अच्छे लगने लगे हैं। ऐसा शायद सबके साथ ही होता होगा  कि जिस से जुदा होने का समय करीब आये, उसमें अच्छाईयां दिखने लगती हैं  या फ़िर मुझे ही ऐसा लगता है?
सवाल बहुत हैं, ऐसा जवाब कोई नहीं मिलता जो सवालों को संतुष्ट कर दे। और कुछ न सही, सवालों के ढेर तो इकट्ठे हो ही रहे हैं।
छोड़ो जी, आज बस इतना ही, गाना सुनो, एक कम पॉपुलर गीत लेकिन मेरा पसंदीदा, बहुत ज्यादा,  पता नहीं क्यों? ये     ’पता नहीं’    भी स्साला लाल रंग की तरह कब मुझे छोड़ेगा। खैर, देखी जायेगी.....

गुरुवार, नवंबर 11, 2010

मजा नहीं आया यार.....

उस दिन एक दोस्त से बात चल रही थी, कहने लगा कि यार इस बार तुम्हारी पोस्ट में मजा नहीं आया। शिकायत सुनकर अपने को मजा आ गया। जब तारीफ़ में उससे ये बात कही तो  उसे भी  मजा आ गया। अब साहब, क्या बतायें, इस मजे की कहानी?   इसकी थाह नहीं पायी किसी ने।
एक बार कालेज में अपने दोस्तों को अंग्रेजी फ़िल्मों के अपने अनुभव सुना रहे थे(ये पहले ही किलियर करे दे रिया हूं कि अपना अनुभव सिरिफ़ देखने तक का है कहीं बाद में कहो कि अनुभव तो ऐसे लिखा है जैसे बड़े वो कौन सा वाशिंगटन है डैज्ली या बैज्ली हों),  तो यारों ने चढ़ा दिया कि अबकी बारी इंगलिश फ़िल्म देखी जाये। प्रोग्राम बनाने की जिम्मेदारी हमपर ही डाल दी गई। नेकी और पूछ पूछ, हमने अपनी टोली को लिया और चल  दिये अपने फ़ेवरेट  सिनेमा की ओर।  खुद से ज्यादा उस सिनेमा पर भरोसा था, न अखबार देखी न कुछ और, कौन सी फ़िल्म है, कुछ नहीं मालूम किया। तीन चार बसें बदल कर पहुंचे तो शो शुरू हो चुका था। हमारे दोस्तों को तो फ़िल्म का नाम ही समझ नहीं आया omar mokhtar  ऐसा ही था कुछ। एक दो ने उसे बांग्ला मूवी समझा और दो तीन ने कोई चैक मूवी। जाकर बैठे तो थोड़ी देर के बाद पता चला कि फ़िल्म के हीरो का नाम है उमर मुख्तार, अरब की कोई कहानी थी। कहां तो यार लोग ऊह आह आऊच टाईप कुछ सुनने देखने गये थे, वहां तो सारी फ़िल्म में लड़ाई होती रही। बस तलवारों की आवाज और हिनहिनाहट, वो भी ऊँट-घोड़ों की। सारी फ़िल्म खत्म हो गई, नायिका तो क्या कोई घोड़ी भी नहीं आई पर्दे पर। लौटते में सारे रास्ते वही सुनते रहे कि जरा सा भी मजा नहीं आया, दि खराब कर दिया, पैसे खराब कर दिये। हमने तो कभी किसी से नहीं कहा कि हमारी जिंदगी खराब कर दी, कैरियर खराब कर दिया। देख लो जी, कैसे  दोस्त थे हमारे... एक तो उनका चरित्र एकदम  ठीक रखते थे हम, ऊपर से बातें सुनते थे। कितने तो डालर पौंड लग गये होंगे, कितने घोड़े जख्मी हलाक हुये होंगे, पूरी यूनिट ने कितनी मेहनत की होगी और हमारे दोस्तों ने फ़टाक से सर्टिफ़िकेट दे दिया कि मजा नहीं आया।
तो बात चल रही थी उस दोस्त से मजे के बारे में। हमने बताया कि हमारा मजा तो बड़े और मशहूर लोगों ने लूट लिया है, आईडिया हमारे होते थे और चुरा लेता था कोई और। और ये जबरदस्ती हमारे साथ हमेशा से होती रही है।  पहले मैमोरी लॉस वाली कहानी हो गई, अब लेटेस्ट किस्सा ’मूत्र विसर्जन’ से संबंधित है।  थ्री ईडियट्स में इस सिच्युऐशन में बहुत मजे ले रहे हैं सब, हमने ये मजे लेकर छोड़ दिये।
लगभग दो दशक पहले की बात है, बैचलर लाईफ़ चल रही थी अपनी। मैं, जीतू, राजीव, राजा और जैन साहब इकट्ठे रहा करते थे। जीतू, राजीव और राजा का जिक्र तो सिल्वर स्पीच वाली पोस्ट में कर ही चुका हूँ, बचे जैन साहब, तो  उम्र में हम सबसे बड़े थे जनाब। एक अदद बीबी और एक बालक के पिता थे, नौकरी नई नई होने के कारण फ़िलवक्त फ़ोर्स्ड बैचलर बनकर हमारे साथ रहते थे। एकदम शरीफ़ इंसान,  हमारी हरकतें देखकर मुस्कुराते रहते, खुलकर हंसते भी नहीं थे। पांच साल हम इकट्ठे रहे, उनकी आंखों में चमक सिर्फ़ तब देखी जब बेटा फ़िल्म में  माधुरी को धक धक करते हुये देखा उन्होंने। अकेली फ़िल्म थी जो उन्हें पसंद आई, वो भी सिर्फ़ सात आठ मिनट की।  साथ कभी नहीं छोड़ते थे हमारा, फ़िल्म देखने जाना हो या नुमाईश देखने जाना हो। बड़े  होने के नाते  एक बार हतोत्साहित करते थे जरूर, हम उनका बड़े होने का फ़र्ज मान लेते थे और उनकी नाफ़रमानी करके खुद को चे-ग्वेरा से कम नहीं समझते थे।
अब जो हमें जानते हैं तो इतना इतिहास उन्हें पता है कि रात को सोने की हमें कभी जल्दी नहीं रही। अब तो     वैसे एक जगह पढ़ा था कि राक्षसों को निशाचर भी कहा जाता है, तो क्या हम भी…?  तो जी हमारा रूटीन रहता था रात देर से  मकान पर लौटने का। मकान ले रखा था शहर से दूर, antisocial (जो सामाजिक न हो, उसे अंग्रेजी में यही कहते हैं न?) थे शुरू से ही। स्टेशन के एक तरफ़ शहर था और दूसरी तरफ़ थी वो कालोनी जिसे हमने गुलजार कर रखा था। स्टेशन और कालोनी के बीच एक लंबा सा, सुनसान सा, वीरान सा गलियारा था जिसके एक तरफ़ पेड़ लगे थे और एक तरफ़ थी रेलिंग जो एक मैदान के किनारे लगी थी। जिन दिनों की बात बताने जा रहा हूँ उन दिनों में हम तीन जने ही थे - मैं जीतू और जैन साहब। अब जैन साहब निखालिस शरीफ़ आदमी, ताश वो न खेलें, दम वो न लगायें, ताकझांक वो नहीं करते थे कहीं तो शुरू में तो हमें उलझन होती थी कि यार ये कमरे में ही क्यों नहीं बैठते? फ़िर धीरे धीरे समझ आई कि अकेलेपन से डरते थे सो मन मसोसकर भी हमारे साथ घूमते रहना उनकी मजबूरी थी। एकाध बार कहा भी उन्होंने कि मजा नहीं आता लेकिन क्या करें, साथ नहीं छोड़ा जाता। मजा, मजा इतनी बार सुन चुके थे कि जीतू तो कई बार झल्ला ही जाता कि अबे, हम क्या मजे लेने की चीज रह गये हैं तेरे लिये? फ़िर सब हंस देते थे।
उस दिन लौटते समय ठंड बढ़ गई थी मौसम में भी और कुछ आपसी रिश्तों में भी। किसी बात पर जीतू और जैन साहब की बहस हो गई थी। जैन साहब जिद पर थे कि लौटॊ जल्दी कमरे पर सो वापसी हो रही थी। रेलिंग के पास से गुजर रहे थे कि जीतू ने हाँक लगाई, “रुको यार, एक मिनट, सू-सू कर लूँ।” जैन साहब भड़क गये, “घर जाकर कर लेता! जानबूझकर देर कर रहा है।” जीतू के शायद जोर से लगी हुई थी, कहने लगा कि “तू जा फ़िर, तेरे को ज्यादा जल्दी है तो।” अब जैन साहब अकेले कैसे जायें, कहने लगे, “चल जल्दी कर।” और जीतू भी कभी टांग को किसी मुद्रा में ले जाये और कभी किसी मुद्रा में, ताकि प्रैशर पर काबू पा सके और जानबूझकर बहस किये गया। मैं कभी इसे समझाता कभी उसे, और हंसी थी कि रुकती नहीं थी। आखिर जैन साहब ने बड़प्पन दिखाते हुये समझाया कि असल में रात के समय ऐसे खुले में MV(चलेगा न?) करना बहुत खतरनाक होता है, ऊपरी हवा, आदि आदि का डर दिखाया। बात हो गई अब प्रेस्टीज की। दोनों बहस किये जा रहे थे और आखिर में हार जीत तय करने की जिम्मेदारी आई इस गैर जिम्मेदार पर।
महात्मा गांधी ने कहा था कि कोई काम भी करने से पहले यह सोचो कि लघुत्तम इकाई पर आपकी क्रिया का क्या असर होगा? अपन अपने मतलब की बात पकड़ते हैं बस, देखा कि इन दोनों में छोटा कौन है? जीतू!!    हमारा वोट जीतू की तरफ़। अगल बगल में खड़े होकर दोनों ने MV करना शुरू किया। बाद में जो झुरझुरी सी छूटी दोनों की, दोनों के मुंह से एकसाथ ये शब्द निकले, “मजा आ गया।” जैन साहब गुस्साये रहे। उस रात के बाद हमारा रोज एक काम और बढ़ गया, जब नाईट पैट्रोलिंग करके उस स्थान के पास से निकलते, MV जरूर करते। एकाध बार तो ऐसा हुआ कि बातें करते करते उस जगह से आगे निकल आये, फ़िर ध्यान आने पर लौटकर वहीं जाते और जैन साहब, मजबूरी में ही सही हमारे साथ घिसटते हुये to & fro होते रहते। फ़िर तो उन्हें भी मजा आने लगा। एक दिन बोल ही पड़े, “जितना मजा तुम्हारी हरकतों में आता है, उतना तो माधुरी की धक धक में भी नहीं आता।” सही फ़ार्मूला था जैन साहब का, बस न चले तो नजरिया बदल लो।
बात पते की है जी, मजे का कुछ तय नहीं है कि किसे, कब और क्यों  आ जाये। आना हो तो MV में ही आ जाये और न आना हो तो एंजेलिना के साथ डेट पर जाकर भी न आये। मजा आना हो तो मिट्टी के खिलौने को पाकर ही आ जाये, न आना हो तो कोहिनूर पाकर भी न आये। आना हो मजा तो तसव्वुर में ही आ जाये, न आना हो तो ताउम्र के लिये हासिल कर लेने में भी न आये। किसी को जलने में मजा आ जाये है तो किसी को जलाने में मजा आ जाये। किसी को आ जाता है मजा दूसरों को सताने में तो ऐसे भी हैं जिन्हें अपनों के द्वारा सताये जाने में मजा आ जाये। किसी को दूसरे के हिस्से की रोटी भी छीनने में मजा आ जाता है और संत नामदेव जैसे ऐसे भी हुये हैं जिनकी रोटी छीनकर कुत्ता भागा तो उसके पीछे वे भी भागने लगे कि दोस्त, ये घी तो ले ले, रूखी रोटी में तुझे मजा नहीं आयेगा? कभी चढ़ाई पर ठेला खींचते किसी मजदूर के बिना कहे भी ठेली को पीछे से धकेलने में भी मजा आता है, लिया है कभी?  औरों को मजा आता होगा वाटर रिसोर्ट में जाकर, कुछ को साधारण बारिश में भीगने में मजा आ जाता है। बड़े महंगे डियो सर में चढ़ जाते हैं, लेकिन मिट्टी की सोंधी खुशबू में, गर्मियों में कोरी सुराही या मटके से जो महक आती है, उसमें भी मजा आ जाता है किसी को। ऐसे ऐसे आतताई हुये जिन्हें नवजात बच्चों को नेजे पर टांगने में मजा आता था, ऐसे शौदाई भी हैं जिन्हें किसी गरीब, बिना नहाये  बच्चे  के घुंघराले बालों में हाथ फ़ेरने में ही मजा आ जाये। विलक्षण दुनिया है जी, छोटी सी जिन्दगी, जिसे मजा जिस चीज में आये और जैसे आये ले ले, अपन भी अभी तो फ़ुल्ल मजा ले रहे हैं, आगे जो होगा देखी जायेगी।
:) फ़त्तू ने सड़क किनारे बिकते जामुन देखे तो पाव भर खरीद लिये। चल दिया मस्ती में। लिफ़ाफ़े से निकालकर मुंह में डाले जाता था जामुन और चुभलाता जाता। ऐसे ही एक बार मुंह में जामुन डाला तो साथ में एक भौंरा
भी, जो जामुनों की चमक, महक, रूप-रंग  से मोहित-मस्त था, मुंह में चला गया। जब उसने संकट में देखकर भिन भिन करनी शुरू की तो फ़त्तू महाराज बोले, “बेट्टे, कितनी ही कर ले भिन भिन, अस्सी रुपये किलो में तुलकर आया है। इब आया सै जाढ़ तले, छोड्डू कोनी तन्नै”
फ़त्तू बेचारा ये नहीं जानता कि हम सब बेभाव में तुलकर आये हैं, आखिर में तो जबाड़े तले आना ही है। जब तक  बचे हुये हैं,  जैसे हैं और जिस हाल में हैं, मजा मानकर रहें तो वक्त बढि़या कट जायेगा।

रविवार, नवंबर 07, 2010

वो मेरा खोया हुआ सामान..

बात ये है जी कि हम करना कुछ चाहते हैं और हो कुछ जाता है। पिछली पोस्ट में एक डायरी का जिक्र कर बैठा था। कई साल पहले एक सेठ दिवाली के मौके पर गिफ़्ट दे गया था। उस डायरी में शुरू में एक कोई रचना, कविता, गज़ल, नज़्म या पता नहीं क्या थी, थी कोई स्त्रीलिग वाली ही चीज, बहुत पसंद आई थी हमें।    सबके लिये  सुख की कामना इतने अच्छे शब्दों में की गई थी कि पूछिये मत।   यही वजह थी कि उसे घर तक ले आये थे।  नहीं तो दीवाली  जैसे मौकों पर   रास्ते में ही कोई न कोई यारा-प्यारा टोक दिया करता था और वैसे भी डायरी वगैरह लिखने लायक किस्से थे ही नहीं अपने पास तो हम ये गिफ़्टेड चीजें आगे ठेलकर मुफ़्त की वाहवाही लूट लेते थे और भार उठाने से बच जाया करते थे।  अब जब  ब्लॉगर(बोत वड्डे वाले)  बन ही गये हैं  तो सोचा था कि दिवाली वाले दिन वो जो भी थी गज़ल टाईप की चीज, उसे लिख देंगे अपनी पोस्ट में। काम का काम हो जायेगा और नाम का नाम। दाम कुछ लगेगा नहीं और हमारा भी शुमार होने लगेगा शायरों, कवियों, गीतकारों में। पहले तो कोई ध्यान से पढ़ता ही नहीं फ़त्तू के अलावा, पढ़ता तो पहचानता नहीं कि चोरी का माल है, पहचान लेता तो मुरव्वत में टोकता नहीं हमें(टोकाटाकी करने का एकाधिकार सिर्फ़ हमारा है) और फ़िर भी कोई टोक देता तो हम खेद प्रकट कर देते, येल्लो बात खत्म थी।
लेकिन ऐन मौके पर वो कमबख्त डायरी खो गई। मेरी बात रही मेरे मन में।  दीवाली की रात  पूजा, सन्ध्या वगैरह करने के बाद फ़िर एक राऊंड लगाया गया उस तलाश-ए-डायरी में, लेकिन हम कौन सा ओबामा के स्निफ़र्स ठहरे?  हैं तो हिंदुस्तानी मध्यमवर्ग के मानुष, बस्स ’वैल ट्राई पर काम न आई’ करके रह गये। खो गई चीजें, वो भी हमारी, ऐसे नहीं मिला करतीं। इनामी राशि भी घोषित की गई, संजय कुमार MBBS जुट गये तलाश में। ईनाम की आधी राशि तो काम होने से पहले ही अर्पित कर दी थी, डायरी नहीं मिली लेकिन सर्चिंग पार्टी का तर्क था कि हमने तो मेहनत की है न? शेष आधी राशि भी सौंप दी शराफ़त से।
कोई अजीज चीज या इंसान खो जाये तो ये गम ही बहुत बड़ा होता है, फ़िर हमसे दूसरी गलती ये हो गई कि सारी बात लिख दी पोस्ट में। अब जब इंटरनेट वाले अनलिमिटेड पैक के नाम पर जेब काट ही रहे हैं, हम भी टाईप कर ही रहे हैं तो काहे को कुछ छुपायेंगे? और हमारे खैरख्वाह भी ऐसे हैं कि ये सलाह नहीं देते कि जो खो गई उसे भूल जाओ और नई पर नजर डालो, जिसे देखो वही सलाह दे रहा है उसे ही ढूंढो।  बहुत अच्छे, हम तो लगे रहें उसी खोई हुई की तलाश में, नई नई तुम सब हड़प लो:)  सब समझते हैं हम, ये फ़ार्मूले हमने भी बहुत चलाये हैं कभी।  नहीं ढूंढेंगे उसे, जाओ कल्लो क्या करोगे हमारा? उसे अगर रहना ही होता मेरे पास तो खो क्यों जाती?
वैसे फ़ार्मूला तो उसे ढूंढने का भी मालूम है। कोई और कीमती चीज जानबूझकर गुम कर देता हूं, फ़िर जब उसे खोजने लगेंगे तो वो नहीं मिलेगी, ये मिल जायेगी। और ये सिलसिला ऐसी ही चलता रहेगा तो फ़िर क्यों न इस डायरी के खो जाने पर ही सब्र कर लूं?  अपना अनुभव है कि कुदरत खाली स्थान नहीं रहने देती। इससे अच्छी वाली, इससे बेहतर वाली डायरी मिलेगी।  इस नजरिये से तो कुछ पाने के लिये पहले कुछ खोना जरूरी है।  और तो और, ’हरि’ को पाने के लिये  ’मैं’  को खोना पड़ता है। डायरी का गम तो बर्दाश्त कर लेंगे, लेकिन मेरी  ’मैं’   चली जाये, ऐसा कब होगा? ऐसा चाहता भी बहुत हूँ और कसकर पकड़ भी रखा है इस ’मैं’ को।
एक  सौ प्रतिशत शर्तिया गारंटी और कामयाबी वाला फ़ार्मूला भी है, एक बार ये शोशा भर उछाल देना है कि उस डायरी में अपने लिखे कोई नितांत व्यक्तिगत पत्र हैं, घर के जिस सदस्य को वो डायरी मिले तो उसे बिना खोले ही मुझे लौटा दे। फ़िर तो जनाब चाहें सातवें पाताल में क्यों न हो, डायरी बरामद हो जानी है। ये अलग बात है कि उसके बाद क्या होगा? हमारी तो देखी जायेगी वाली बात हर जगह नहीं चलती है।
वैसे भी कौन सा ये हवाला वाली डायरी है जिसके कारण सियासत में भूकंप आ गया था, निजाम बदल गये थे। अंजाम उसका भी यही निकला  था ’सिफ़िर’, सारे बाइज्जत बरी, हमारे वाली खोई हुई मिल भी गई तो थोड़ा सा होहल्ला हो लेगा और फ़िर तो बरी हो ही जाना है हमने। हम कौन सा उस डायरी के विछोह में  पोस्ट लिखने से रह गये? बल्कि एक पोस्ट और लिख मारी। भारी  भरकम और गंभीर टाईप की एक दो पोस्ट लिख दी थीं, इस खोने पाने से  मूड चेंज होना शुरू हो गया है, फ़िर से मजा आने लगा है जीने में। एक निर्जीव डायरी के खो जाने के बदले आप जैसों का आभार जताने का मौका मिलता है, ये थोड़ी नियामत है क्या? 
कई बार अपनी उम्र को और अपने लिखे को  देखता हूँ तो दिमाग पूछता है  कि कब बड़ा होऊंगा मैं?  दूसरी ओर दिल कहता है कि सारी उम्र बच्चे बने रह सको तो ज्यादा अच्छा होगा। द्वैध में फ़ंसा ये फ़ैसला ही करता रहता हूं कि मैं इधर जाऊँ  या उधर जाऊँ? आखिर में दिल ही जीतता है।   इतना गम और  इतनी आपाधापी फ़ैली हुई है हर तरफ़ कि जिसकी  कोई थाह नहीं।  कोई आये गमों से घबराकर, उकताकर और मेरे दर पर दो घड़ी सुस्ता ले। ताजादम होकर  बिना बोझ लिये फ़िर से चल दे अपने सफ़र पर, तो अपना लिखा वसूल है।
:) फ़त्तू के पडौस में नई नई शादी हुई थी। रोज दोपहर में फ़त्तू पहुंच जाता पडौस में, बाहर बुढ़िया बैठी रहती। फ़त्तू  आग के बहाने चूल्हे पर रोटी बनाती भाभी के पास जाकर बतलाया करता। एक दिन नई दुल्हन का भाई आया और उसे कुछ दिन के लिये अपने साथ ले गया। रूटीन के हिसाब से फ़त्तू आया और बुढ़िया से पूछा, “ताई आग सै?” ताई बोली, “छोरे, तेरी आग तो ज्या ली आज बारह वाली रेल में।”
फ़त्तू के मुंह पर तबसे बारह बजे रहते हैं,  हमें भी बारह वाली रेल बहुत बुरी लगने लगी है।
भीगना है क्या बेमौसम की बारिश में? रेडियो पर ये बजता था तो कमरे का दरवाजा बंद करके हम भी माईकल जैक्सन बन जाते थे कभी,  रोज वाली मैट्रो(सवारियाँ) मिस करनी पड़ती थी। देखा मैंने भी पहली बार ही है, आभार यूट्यूब:)

शुक्रवार, नवंबर 05, 2010

दिये जलते हैं, फ़ूल खिलते हैं.............

तमस पर प्रकाश की विजय के इस शुभ पर्व पर सभी ब्लॉग मित्रों को हार्दिक शुभकामनायें। आप सबकी प्राप्त और अप्राप्त शुभकामनाओं के लिये बहुत धन्यवाद। पिछले कुछ महीनों में आप सबसे हुये परिचय ने बहुत कुछ दिया है, जिसका प्रत्युत्तर देना अपने वश का नहीं। अपने अंदर का अंधेरा कुछ कम कर सका तो मेरी तो दीवाली वही होगी, और मुझे यकीन है कि मैं कर लूंगा - इतने शुभचिंतक जो हैं मेरे।
ईश्वर से यही कामना है कि आप सबको, आपके परिवार को, इष्ट मित्रों को  हर प्रकार से सुख, सम्रुद्धि और स्वास्थ्य दे। आने वाला समय आप सबके लिये शुभ हो।

p.s. १. एक डायरी में एक रचना पढ़ी थी, आज के मौके के मतलब की। सोचा था वही लिख कर इम्प्रैस करूंगा आप सबको। सुबह से वो डायरी नहीं मिली।
       २. एक घंटे से तस्वीर टांगने की कोशिश कर रहा हूँ, वो नहीं लगी।
तो जी, फ़त्तू ऐंड फ़्रैंड्स की तरफ़ से सीधे सादे शब्दों में ’हैप्पी दीवाली’ स्वीकार करें। गाना सुन लें, जब भी टाईम लगे।




सोमवार, नवंबर 01, 2010

काँपी थी ये जमीन जब.....

"वन इलैवन ऐटी फ़ोर", यही कहा था उनमें से किसी एक ने और वो जो हरदम हँसता रहता था उसके चेहरे के रंग बदलने लगे थे। चेहरा लाल हो गया था, उत्तेजना के कारण मुँह से गालियों के साथ थूक निकलने लगे थे। सर पर पगड़ी तो हमेशा ही अस्त-व्यस्त रहती थी, अब वो बार-बार उसे खोल लपेट रहा था। आसपास खड़े आठ दस लोग तमाशा देख रहे थे। हमारे पैर वहीं जम से गये थे।   उसका स्टेशन पर होना ऐसा ही स्थाई था, जैसे प्लेटफ़ार्म और रेलवे लाईन का हिस्सा ही हो वो। पिछले छ:सात साल से तो हम ही उसे देख रहे थे, किसी भी समय स्टेशन पर आना हो, ऐसा कभी नहीं हुआ कि वो न दिखता हो। शायद इतना स्थाई हिस्सा होने के कारण ही अपना इंटरेस्ट उसमें कभी हुआ नहीं, जबकि दूसरे लोग बहुत आनंद लेते थे उसके पागलपन में। हमें आनंद मिलता था ताश खेलने में, मंडली के चार स्थायी सदस्यों में से एक थे(वीटो पावर सहित), तो उधर ही मगन रहते थे। अपने स्थाई ठिकाने पर ही जा रहे थे। आज की ही तारीख थी उस दिन, और सिर्फ़ ’वन इलैवन ऐटी फ़ोर’ सुनते ही उसकी प्रतिक्रिया देखकर हम हिल नहीं पा रहे थे वहाँ से।
दो दोस्त थे हम,  मनोज और मैं। जाकर उसी छेड़ने वाले से बात शुरू की, "सही तमाशा है।" प्रोत्साहन पाकर वो  बताने लगा कि कैसे चौरासी में इसके परिवार को जलाकर मार दिया गया था, घर लूट लिया गया था और इसके केश कत्ल कर दिये गये थे लेकिन इसकी किस्मत ऐसी थी कि बच गया। दिमाग हिल गया है उस दिन से इसका। रेलवे में ही नौकर था, फ़िर नौकरी कर नहीं पाया। फ़िर भी सारा दिन वहीं घूमता रहता है, स्टाफ़ में कोई भी कुछ काम कह देता है तो ये मना नहीं करता। जैसे हो, जितना हो उससे,  कर देता है। बदले में रोटी चाय जो मिल जाये, खा लेता है और मस्त रहता है।  बोलता ऊलजलूल है तो सबका मनोरंजन होता रहता है, बिना टिकट। हाँ, उस हादसे की याद दिलाओ तो इसके तेवर देखने वाले होते हैं, मजा आ जाता है।"  
"साल्ले, मादर...,   जो इसके साथ हुआ है उसका दस प्रतिशत भी तेरे साथ हो लेता और दुनिया तेरे मजे लेती, कैसा लगता?" मनोज ने गिरेबान पकड़ ली थी उसकी। एक बार तो उखड़ा वो बंदा भी, "तुम्हें तो मैंने कुछ नहीं कहा, फ़िर तुम क्यों बीच में आते हो? अपना काम करो।" फ़िर समझाया उसे हिन्दी में कि देख अभी तेरी छित्तर परेड होने वाली है और क्योंकि बाकी सबको हम कुछ नहीं कह रहे तो कोई बीच में नहीं आयेगा।  उसके बचाते बचाते भी एक दो तो लग ही गये थे उसके, लेकिन समझ गया वो और गलती मान ली उसने।
आज छब्बीस साल हो गये हैं 01.11.1984 को थी। देश की राजधानी में जो कुछ हुआ, देखा बहुत कम उसका लेकिन सुना बहुत। हमारी गली में दस बारह सिख परिवार रहते थे, हमें गर्व है कि उन घरों में किसी का एक पैसे का नुकसान नहीं हुआ। आसपास की जो खबरें मिल रही थी, उसके चलते हम खुद रातों में नाके लगाकर ड्यूटी देते थे। दस बारह साल से लेकर साठ साल तक के लोगो ने जरा सी कोताही नहीं की। दिन के समय एक बार भीड़ आई भी, लेकिन जल्दी हो समझ आ गया उन भेड़ों को कि यहाँ कुछ नहीं कर पायेंगे। हमसे बड़े लड़के, उस कर्फ़्यू में इस मोहल्ले की दूसरी कालोनियों में ब्याहता लड़कियों, बहनों के घर जाकर कैसे कैसे उन्हें, उनके बच्चों को  लेकर आये थे, सुनकर रोमांच होता था। लेकिन सच ये भी है कि सब ऐसे खुशनसीब नहीं थे। एक दो नहीं, सैंकड़ों हजारों की तादाद में ऐसे ऐसे हादसे हुये थे कि एक एक पर सिर धुना जा सकता है। और फ़िर जब बाद में एक जिम्मेदार शख्सियत का यह व्यक्तव्य आया कि ’जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो आसपास की धरती कुछ काँपती ही है’ तो एक बार तो ईश्वर से पूछने को मन कर आया था कि ऐसा ही होना है तो बड़े पेड़ बनाता ही क्यों है? 
वो भीड़ किसके इशारों पर काम कर रही थी, कौन लीड कर रहा था उन्हें, ट्रकों में भरभर कर उन्हें कहाँ से लाया जा रहा था, प्रशासन क्या कर रहा था उस समय - इन सवालों पर कई एफ़.आई.आर., जांच, मुकदमे चल चुके हैं। कई बार आरोपी अपराधी घोषित हो चुके हैं और कई बार बाईज्जत बरी भी हो चुके हैं। कानून अपना काम कर रहा है।
काँपी थी ये ज़मीन जब, वो दिन आज का ही था
इंसाँ का क्या मरे या जिये, मुद्दा  ताज का ही था।
कौन सी तो किताब थी वो, ऐनिमल फ़ार्म या ऐसी ही कोई, एक डायलाग था उसमें - all are equal, but some are more equals.  ये लिखने वाले तो लिख विख कर निकल लेते हैं अपनी राह पर, हमें छोड़ देते हैं टोबा टेकसिंह बनने के लिये। जितने मुकदमे, कार्रवाईयां, अदालतों द्वारा स्वविवेक से मुकदमे खोलने जैसी बातें दूसरे मौकों पर हुई हैं वो चौरासी दंगों पर ऐसी कार्रवाईयों के मुकाबिल कम थी या ज्यादा, सब जानते हैं। शायद more equals among all equals वाला सिद्धांत प्रगतिशीलता का भी द्योतक है।
कोशिश रहती है जहाँ रहना हो, वहाँ की स्थानीय भाषा में सोचा जाये। आज ऑफ़िस में जाकर काम शुरू किया ही था कि एक फ़ार्म में पहला कालम तारीख का था। पता नहीं क्यों मन ही मन बोलना शुरू किया तो वन लैवन के बाद टैन की जगह ऐटी फ़ोर बोला भी गया और लिखा भी गया। तबसे दिमाग में फ़ितूर बैठा है। जो बातें भूलनी चाहियें, वो याद रह जाती हैं और जिनका याद रखना श्रेयस्कर है वो हाथ में से रेत की तरह फ़िसल जाती हैं। 
लेकिन अब नजरिया बदलने लगा हूँ धीरे धीरे अपना - बजाय इसके कि दुखी होकर भड़काऊ सा कोई टाईटिल देकर अपना दुख जाहिर करूँ,  गनीमत मना रहा  हूँ कि हमारी आम जनता अभी इतनी आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष. प्रगतिशील नहीं हुई और वैलेंटाईन डे, फ़्रेंडशिप डे, अलाना डे फ़लाना डे की तर्ज पर आज  हैप्पी अर्थ वाईब्रेटिंग डे नहीं मना रही, वरना ...। 
आज फ़त्तू के लिये माफ़ी चाहता हूँ,  वैसे ही हंस लेना मेरी तरह।
कहाँ तो गाना लगाना चाहिये था ’दीवारों से मिलकर रोना अच्छा लगता है, हम भी पागल हो जायेंगे ऐसा लगता है’ नहीं लगाया जी, दूसरा लगा दिया है, अब ठीक है न नजरिया अपना?