पता नहीं कौन से संत कवि हुये थे कबीर जी या रहीम जी या कोई और, उचार गये अपनी मौज में आकर कि जीवन भर घास पात खाकर गुजारा करने वाली बकरी का भी गला छुरी से रेता जाता है क्योंकि वह जब भी मिमियाती है तो ’मैं….मैं..’ की ध्वनि निकालती है। ’जिस देश में गंगा बहती है’ नाम की फ़िल्म में प्राण साहब डाकू बने थे और शायद उस डाकू के दिमाग में अपने भविष्य के बारे में जो फ़ोबिया बना हुआ था उसी के चलते पूरी फ़िल्म में अपनी गर्दन पर हाथ फ़ेरते रहते थे, गोया फ़ाँसी की रस्सी को अपनी गर्दन पर कसा जाता महसूस कर रहे हों।
कई दिन हो गये मैं भी अपनी गर्दन पर हाथ फ़ेरता रहता हूँ, चाहे छुरी फ़िरे या फ़ाँसी, गर्दन को तैयार रहना चाहिये। सोचकर एक बार तो झुरझुरी सी उठती है, लेकिन और कोई उपाय है भी नहीं। इस ’मैं’ और ’मेरी’ ने कहीं का नहीं रखा। हर युग में, हर काल में ज्ञानी लोग अपने तरीके से समझाते रहे है कि ’मैं’ रूपी अहंकार को सर मत उठाने दो, लेकिन किसी का बिना मांगे दिया ज्ञान हम ऐसे मानने लगे तो हो गया काम। हम जैसे न हों तो कौन इन्हें ज्ञानी मानेगा?
अपनी भी लगभग हर पोस्ट में मैं ऐसा, मैं वैसा, मैंने ये किया और वो किया जैसे कंटेंट मिलेंगे। अलबेला खत्री जी की एक पोस्ट पढ़ी थी जिसमें उन्होंने बताया था कि एक समुदाय विशेष के द्वारा आयोजित कार्यक्र्म में जब वो गये तो सामने भीड़ देखकर उन्होंने चुटकुलों का केन्द्र बिन्दु बदल कर सुदूर दक्षिण कर दिया कि कहीं पब्लिक नाराज न हो जाये, और अभी शुरू किया ही था कि भीड़ में से एक ने खड़े होकर धमका दिया, “ओये, पैसा असी खरच कीता है, कार्यक्रम साड्डा, तुसी चुटकुले दूजेयां दे सुनाओगे?” तो हास्य कवि को अपनी प्रस्तुति बदलनी पड़ी थी। उन्होंने नहीं कहा कि हमारी बात मानो, इसलिये हमने मान ली। ब्लॉग हमारा, पी.सी, नैट बिजली का खर्चा हमारा, उंगलियां हम तोड़ें, दिमाग के स्कूटर बाईक(घोड़े आऊटडेटिड चीज हो चुके हैं) हम दौड़ायें और पोस्ट मैं और मेरी पर न लिखकर औरों पर लिखें, ऐसे भी सिरफ़िरे अभी नहीं हुये।
अपनी नजर में नायक, महानायक, खलनायक, सहनायक हम ही हैं। मेरी दुनिया ’मैं’ से शुरू होकर ’मैं’ पर ही सिमटती है, बहुत विस्तार हुआ तो”हम’ तक। असली बात ये है कि किसी सीनियर ब्लॉगर के बारे में लिखेंगे तो लोग कहेंगे फ़लां गुट में पैठ बनाना चाह रहा है, अपने से जूनियर के बारे में लिखा तो कहेंगे कि टिप्पणी पाने के लिये लिख रहा है| इसलिये अपना तो ये फ़ार्मूला ’मैं और मेरी’ वाला जारी रहेगा। वैसे भी आप सबने छूट दे ही रखी है, बल्कि हमने इमोशनल करके ले रखी है। तारीफ़ करनी होगी, गुण बखानने होंगे तो अपने ही बखानेंगे और मजाक उड़ाना होगा, बुरा भला कहना होगा तो भी खुद को ही कहेंगे। दूसरों की कमी निकालनी भी पड़ी कभी तो या तो प्रधानमंत्री की निकालेंगे या किसी मंत्री टाईप बंदे की। जवाब दे तो उसकी हेठी और न दे तो हमारी वाहवाही कि देखो पंगा लिया भी तो किससे? अपने आसपास के किसी की आलोचना करेंगे तो रोटी. रोजी, या टिप्पणी पर खतरा मंडरा सकता है और आने वाले दो दशक तक रोटी, एक दशक तक रोजी और एक महीने तक टिप्पणी को खतरे में डालने का रिस्क हम लेना नहीं चाहते:)
वैसे ’मैं’ हमेशा बुरी नहीं होती। यूँ भी हम कभी दावा नहीं करते कि हम कोई साधु सन्यासी हैं, आम आदमी हैं तो आम आदमी के गुण दोष तो रहेंगे ही। बादशाह शाहजहाँ के बारे में एक बात मशहूर है कि जब आखिरी दिनों में उन्हें कैद कर दिया गया था तो एक दिन प्यास लगने पर कुयें से खुद ही पानी खींच रहे थे, उनका सिर ऊपर चर्खी से टकराया तो खुदा का शुक्र करने लगे। नजदीक खड़े पहरेदार ने पूछ ही लिया, “आपके सिर में चोट लगी और आप खुदा का शुक्र कर रहे हैं?” जवाब मिला, “मैं, जिसे कुँये से पानी भी निकालने की तमीज और तहजीब नहीं, इतने सालों तक हिन्द का बादशाह रहा, खुदा का शुक्र न करूँ तो क्या करूँ?”
कबीर साहब के पास बलख-बुखारे का शहजादा शिष्य बनने के लिये आया था और बारह साल तक उनकी शागिर्दी करता रहा। गृह मंत्रालय ने नरम पड़ते हुये कबीर साहब से निवेदन किया कि अब इसे गुरू-मंत्र दे दीजिये। उसके बाद हुआ ऐसा कि शहजादा गली से निकल रहा था तो ऊपर से कूड़ा ऐसे गिराया गया कि शहजादा उसमें लथपथ हो गया। कुछ नहीं कहा, बस ऊपर की ओर देखा और बोला, “न हुआ बलख बुखारा, नहीं तो….।” बारह साल और वैसे ही गुजारने पड़े, फ़िर इतिहास की पुनरावृत्ति हुई। इस बार कूड़ा कर्कट सिर पर गिरा तो शहजादा बोला, “ऐसा करने वाले, तेरा भला हो। मैं नाचीज़ था ही इस काबिल।” इस बार परीक्षा में पास हो गया शहजादा।
इस्तेमाल तो मैं का ही किया था न शाहजहाँ ने भी और शहजादे ने भी। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि अपनी भी मैं और मेरी अभी प्राईमरी स्टेज पर हो? जब तक इस दुनिया की नजर में महापुरुष कहलाने के लायक नहीं हो जाते, ये ’मैं और मेरी’ चलती रहेगी।
कोशिश की है वैसे हमने, एक पूरा दिन ये सोचकर बिताया कि आज मैं नहीं बोलना(जा), मैं को तू से और मेरी को तेरी से रिप्लेस कर देना है। करके देखा, मुश्किल भी बहुत आई, लेकिन मजा भी बहुत आया। थोड़ी बहुत गड़बड़ भी हुई, वो तो खैर होनी ही थी। हमारे होते हुये भी न होती, तब फ़िक्र की बात थी। उस दिन सुबह सुबह ही हीर-रांझा के किस्से पर नजर पड़ गई, हीर अपनी सहेलियॊ से कह रही होती है कि
’आओ नी मैन्नू रांझा सद्दो, हीर न आखो कोई’( आओ री, मुझे रांझा कहकर बुलाओ, कोई मुझे हीर मत कहो)’
बुल्ले शाह के बारे में सर्च किया तो उनका कलाम दिखाई दिया जिसमें वो कहते हैं कि जो मुझे सैय्यद(जिस उच्च जाति\उपजाति में वो जन्मे थे) कहेगा वो दोज़ख में जायेगा और जो मुझे मेरे पीरो-मुर्शिद साईं ईनायत शाह की वजह से अराईं(सामाजिक ढांचे के हिसाब से अपेक्षाकृत कुछ दोयम स्तर की जाति\उपजाति) कहेगा वो बहिश्त में पींगे डालेगा। वो थी प्रेम की इंतिहा, हम ठहरे इक्कीसवीं सदी के ब्लॉगर। इतनी शिद्दत अपने में होनी बहुत मुश्किल है, सो बीसवीं सदी के कुछ गाने मन ही मन सोचे और कोशिश-वोशिश की औपचरिकता पूरी कर ली। रिप्लेस्ड एंड एडिटिड वर्ज़न कुछ इस तरह से थे -
१. तू तेरे प्यार में पागल
२. तू न भूलेगा, तू न भूलेगी
३. तुम्हें तुमसे प्यार कितना
४. तू ये सोच कर तेरे दर से उठा था
५. तू बेनाम हो गया(इसपे सबसे ज्यादा वाहवाही के चांस हैं:))
उस दिन बहुत सारे सोचे थे, आज इतने ही याद आते हैं। आप भी कभी वेल्ले टाईम में सोच सकते हैं लेकिन अपने रिस्क पर। मोटी सी बात ये है कि बात जमी नहीं। ’मैं’ को जहाँ होना चाहिये, वहीं है अभी तो। अगर गई भी तो जाते-जाते ही जायेगी, फ़ोर्टी ईयर्स का साथ है:) वैसे कहते हैं कि ’लाईफ़ बिगिन्स @ 40, सो कोशिश जारी रहेगी। किसी को ऐतराज हो तो बता दे नहीं तो हम समझेंगे कि पंचों की सहमति है कि बंदा अभी बिगड़ा ही रहे।
अब ये गाना सुन देख लो, निवेदन है कि इसके साथ पंगा नहीं लेना। काहे से कि अपने को ये वाला बहुत पसंद है और मेरी चीज के साथ छेड़खानी करूंगा तो मैं ही, सिर्फ़ मैं:)
देख लो जी, ये ’मैं’ भी काफ़िर छूटती नहीं है मुंह से लगी हुई।