मंगलवार, अप्रैल 26, 2011

हम चिल्ल हो चुके सनम(some lighter moments)...


पिछले बहुत समय से  कोई फ़िल्म नहीं देखी। एक तो टिकट बहुत महंगी है, अकेले जायें तो परिवार वालों के साथ अन्याय लगता है और  बारात साथ लेकर जायें तो जेब के साथ अन्याय लगता है।    दूसरे तीन घंटे तक बैठकर अपनी आंखे खराब करो और फ़िर अब तो हर बात पर टिप्पणी की आदत  जो पड़ गई है, यह भी इसकी जिम्मेदार है। अब हम तो ठहरे ऐंवे से ही वेल्ले आदमी, टिप्पणी  कर भी देंगे लेकिन ये हीरोईन  खाली थोड़े ही हैं जो जवाब  वगैरह देंगी या और कुछ नहीं तो धन्यवाद ही दे देंगी। ऐसा वनवे ट्रैफ़िक प्यार-मोहब्बत में तो बेशक चला लिया होगा लेकिन हर जगह ऐसे करने लगे तो अपनी कंपनी और भी घाटे में चली जायेगी।

लेकिन बकरे का अब्बा कब तक खैर मनाता, इबके वाले वीकेंड में आ ही गया छुरी के तले। दोस्त के यहाँ गया तो  टीवी में आ रही थी ’हम दिल दे चुके सनम’   नाम काफ़ी सुन रखा था और फ़िर टाईटिल से लगा कि अपने ही किसी भाई-बंधु की कथा होगी। बैठ ही गये देखने। अज्जू भैया, सल्लू मियां जैसे एक्शन हीरो और ऐश्वर्या जैसी ग्लैमरस हीरोईन,  लड्डू पे लड्डू फ़ूट रहे थे जी हमारी खोपड़ी में। लेकिन  धोखा हो गया  हमारे साथ, भंसाली जी ने  बताया कुछ और दिखाया कुछ और।  कोई एक्शन नहीं, लेकिन  फ़िल्म ने  बांधे रखा।

फ़िल्म तो सबने देख ही रखी होगी जिन्होंने नहीं देखी तो कुछ सोचकर ही नहीं देखी होगी:)  अपन कोई समीक्षा वमीक्षा नहीं करने वाले। अपन तो बतायेंगे कि बाद में क्या चर्चा हुई। फ़िल्म के बाद सभी   ने  अजय देवगण के रोल की जमकर तारीफ़ की। नारी स्वतंत्रता का सम्मान करने वाले युवक की भूमिका में अभिनय तो वाकई अच्छा था। अब जब सब तारीफ़ कर रहे थे तो हम भी तारीफ़ कर देते तो  मजा नहीं आना था। अपनी छवि के प्रति बहुत जागरूक रहने के कारण  जरूरी था कि  थोड़ा हटकर बात की जाये। लिहाजा हमने तो कहा कि एक नंबर का बुद्धू था हीरो। सुनते ही सारे he &  she हमारी सोच को  ’छि छि’ बोलने लगे। घटिया मानसिकता,  पुरुषवादी,  परंपरावादी, रूढिवादी, लकीर के फ़कीर आदि जितनी तारीफ़ हो सकती थी, की गई। देश के विकास न करने के पीछे,  बढ़ती गरीबी,  जनसंख्या, अपराध यहाँ तक कि भ्रष्टाचार बढ़ने तक का जिम्मेदार हमें और हमारी सोच को बताया गया। तब तक महिलायें महिला-कोच, सॉरी किचन में चली गई और यारों ने 8 P.M. की घोषणा कर दी।

लोकतंत्र में रहते हैं, जीतेगा वही  जिसके वोट  ज्यादा होंगे(वैसे भी पीने के बाद सारे खुद को नेता\अभिनेता समझते हैं और इतने सारे देवदासों के सामने मैं अकेला लस्सीटोटलर क्या झगड़ा करता?) लेकिन अपनी राय रखने का हक तो सबको है।  यूँ  भी ’बोर्न टु बी डिफ़ीटेड’ का कापीराईट होने के कारण हारकर अपने को तसल्ली ही होती है कि  कोई अपना ही तो जीता है।  जब अपनों की  तरकश के सब तीर खाली हो गये, पूछा कि और पीनी है? एक बोला, “बस्स, हम  chill हो चुके सनम।” उड़ा लो बेट्टे मेरा मजाक, देख लेंगे तुम्हें भी कभी:) 

तो जी, फ़िर हमने भी अपना पक्ष सामने रखा। “मैंने कब कहा कि उसे अपनी बीबी को उसके पहले प्रेमी के पास छोड़ने नहीं जाना चाहिये था? मैंने तो उसे बुद्धू बताया है। उसका फ़ैसला बिल्कुल सही था, जब मन ही न मिलें तो यही फ़ैसला ठीक था। बुद्धू तो उसे इसलिये कहा कि इतना बड़ा काम  करने गया था,  तो पूरा करके आना था। हम लोग सरकारी खर्चे पर कहीं ट्रेनिंग या सरकारी काम पर जाते हैं तो घूमना फ़िरना वगैरह तो होता ही  है वो तो खैर उसने भी कर लिया। लेकिन लौटकर जिस काम से गये थे, उसकी स्टेटस रिपोर्ट तो संतोषजनक होनी चाहिये थी। अबे बुधू, गया भी और ऐन मौके पर अगली के दिल और दिमाग ने क्या पलटा खाया कि समीर को बोल दिया ’ना जी’   इधर बोल दिया ’हां जी’ और तुम सारे कर रहे हो ’वाह-जी।’  अबे इतनी मुश्किल से ऐसा सुनहरा मौका हाथ आया था  और इसने फ़िर से वही वाला माडल अपने गले बांध लिया।  इससे तो ’अग्निसाक्षी’  वाला नाना पाटेकर सही था,  बरबाद हो गया लेकिन अपनी बात से नहीं टला। दारू तुम्हारे हाथ में है, झूठ मत बोलना।  तुम सब बताओ अगर उसकी जगह होते तो क्या करते? चलो, मैं ही बताता हूँ, मैं होता तो पहले तो उसे  भला-बुरा समझाता, न मानती तो उसका हाथ थमाता  उसके मन के मीत के हाथ में,  हाथ मिलाता और गुडलक विश करके   अपना कोट अपने कंधे पर टांग कर वापिस आ जाता। चलो, अब बारी बारी से बताओ कि तुम क्या करते?”

किचन साथ ही थी, सबने सहमकर उधर देखा और एक कहने लगा, “बना यार एक एक पटियाला और, स्साली सारी उतर गई।”

गीत के बारे में तो saddest और sweetest का रिश्ता मालूम है, कम से कम अंग्रेजी गीतों के बारे में लेकिन हँसी मजाक वाली बात में ये saddest और sweetest पता नहीं सही है या नहीं:))
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आज सुनवाते हैं आपको एक पुराना पंजाबी गीत। बोल बेशक अच्छे से न समझ आयें, अपने को पसंद आया था पहली बार ही। आज के युग के honour killing से इसका कोई वास्ता नहीं, बहुत पुराना गीत है अंग्रेजों के समय का।    इस गीत में जो बात कही गई है वह है ’सुच्चा सिंह फ़ौजी’  और उसके पगड़ीबदल दोस्त ’घुक्कर’ और ’मल्ल’ के बारे में।  मल्ल की मदद से घुक्कर ने सुच्चा सिंह के भाई नारायण सिंह की बीबी ’बीरो’ पर बुरी नजर रखी और फ़िर क्या हुआ? सुनिये ’खाड़ा लगया होया सी’   (’खाड़ा’ से मतलब है आल्हा या सांग टाईप का संगीतमय आयोजन)।
http://youtu.be/fTvwlysqkMI

बुधवार, अप्रैल 20, 2011

शिकार - एक लघुकथा

                                                           (चित्र  flickr.com से साभार)                                                                                                        

धम्म से कुछ गिरने की आवाज आई और उसकी नींद खुल गई। आवाज इतनी तेज नहीं थी लेकिन शरीर इस कदर थका हुआ था कि वो हल्की सी आवाज भी ऐसी लगी जैसे एकदम कानों के पास किसी ने बम फ़ोड़ा हो। दो दिन और दो रात लगातार जागने से आंखें मानो जल रही थीं। दीवार पर टंगी घड़ी देखी तो देखा  आँख लगे अभी चालीस मिनट ही हुये थे। दीवार पर थोड़ा ऊपर की तरफ़ एक छिपकली दम साधे अपने शिकार को एकटक देख रही थी। 

पद्मा  दीवार के पास हक्की-बक्की सी खड़ी थी। उसे जाग चुका देखकर बोली, “साहब जी, देखना जरा ये।” आवाज में घबराहट थी। उठकर जाना पड़ा वहाँ तक। सोने से पहले मोबाईल चार्जिंग पर लगाया था, अब देखा तो मालूम चला कि जरूर फ़ोन पद्मा के हाथ से गिरा है, स्क्रीन तो नहीं टूटी थी लेकिन बॉडी के अंजर-पंजर खुल गये थे। चार्जर जरूर टूट गया था। सिर्फ़ देखा था पद्मा की तरफ़ और वो जैसे रोने को हो आई थी।  ’साहब जी, हम तो झाड़ू लगा रहे थे कि ये गिर गया। गलती हो गई हमसे।” कहते कहते आँखें भर आई थी। 

चार्जर को सॉकेट से निकालकर दोनों चीज लेकर वो फ़िर से बिस्तर पर आ गया। दिमाग और खराब होने लगा था। एक बार तो सोचा कि जो होना था हो गया, पहले नींद पूरी की जाये उसके बाद देखेंगे लेकिन धड़कन से भी ज्यादा जरूरी हो चुके फ़ोन को चैक करना भी जरूरी था। इधर फ़ोन की बॉडी को फ़िर से खोलना- जोड़ना जारी था और उधर पद्मा की गैरजरूरी सफ़ाईयां जारी थीं। दीवार पर शिकारी और शिकार थोड़ा और नजदीक आ चुके थे। छिपकली के शरीर में कोई हरकत नहीं थी, शायद मानसिक रूप से खुद को और तैयार किया जा रहा था और बेचारा शिकार उसे मुर्दा समझने की गफ़लत पाल चुका था।

’साहब जी, ज्यादा  नुसकान हो गया?’  रुआँसी  पद्मा ने फ़िर पूछा।  होता पहले वाला समय तो नुसकान और नुकसान का फ़र्क बताने बैठ जाता वो लेकिन आज चुप रहा। पता नहीं शरीर की थकान ज्यादा थकाती है या मन की थकान?  “कोई बात नहीं, जानबूझकर थोड़े ही किया है तुमने। और अब रोने से क्या हो जायेगा?” मन ही मन सोचने लगा कि  फ़ोन तो बच गया, शुक्र है। चार्जर जरूर नया लेना पड़ेगा। वो और पास आ गई और हाथ जोड़कर कहने लगी, “हमें माफ़ कर दीजिये, जितना भी नुसकान हुआ है,  हम हर महीने कटवा देंगे उसके पैसे।” दीवार पर देखा तो लगा कि  शिकार जैसे आज खुद  कुर्बान होने पर आमादा हो। 

कई साल हो गये हैं पद्मा को उनके घर काम करते हुये, कभी शिकायत का मौका नहीं दिया है उसने। “जाने दो, जो हो गया सो हो गया।” कहकर वो दूसरी तरफ़ मुँह करके सोने की कोशिश करने लगा।  “नहीं साहब जी, आपने पहले भी मेरे लिये बहुत किया है। मुझे सजा मिलनी ही चाहिये।”   पद्मा ने उसकी बाजू छूकर कहा। पता नहीं क्या हुआ उसे, वो एकदम से पलटा। उधर दीवार पर भी छिपकली और शिकार अपना अपना धर्म निभा रहे थे। एक फ़ना हो रहा था और दूसरे की क्षुधापूर्ति  हो रही थी।

बुधवार, अप्रैल 13, 2011

काश कभी यूँ भी हो.... A monologue


मैंने कभी दो दिन भी बालों में तेल नहीं लगाया तो कितना गुस्सा आता था तुम्हें? मैं छेड़ता था तुम्हें जानबूझकर कि मुझे अपने चिपचिपे बाल नहीं अच्छे लगते और तुम्हारा कहना था कि मैं कौन होता हूँ इस बारे में फ़ैसला करने वाला। कितना मन होता था तुम्हारा कि अपनी गोद में मेरा सर रखकर मेरे सर की मालिश करो।       पिछली सर्दियों में नारियल के तेल में डालने के लिये camphor  की टिकिया लेकर आया था। रैपर भी खोल दिया फ़िर देखा कि तेल जमा हुआ है। फ़िर कभी डाल देंगे, ऐसा सोचकर वो टिकिया ऐसे ही रख छोड़ी थी। अभी शिफ़्टिंग करते हुये जब सामान समेट रहा था तो अलमारी खोलने पर एक  भीनी सी खुशबू आई तो सब याद आ गया। पदारथ गायब हो चुका था, एक हल्की सी खुशबू बाकी थी। अलमारी कुछ देर खुली रही तो वो खुशबू भी हवाओं में गुम हो गई।

आजकल आँखों में नींद भरी रहती है। कभी  ऐसा समां था कि दिन में भी आँखों में ख्वाब  तैरते रहते थे  और अब रातों के ख्वाब भी ख्वाब सरीखे हो गये हैं। पहले  सोते हुये भी मानो जगा रहता था मैं और अब जैसे जागते में भी हरदम सोया रहता हूँ।    कल तक तो लगता था कि अभी उम्र ही क्या है? और अब लगने लगा है कि अब रहा ही क्या है? बैकुंठ का एक पल, इस धरती के जाने कितने युगों के बराबर होता है, ऐसा सुना था। लेकिन इस धरती पर  भी कभी तो युग भी पलों के बराबर लगते  थे और अब पल भी युगों में बदल गये हैं।

कभी ऐसा भी हो कि हमेशा की तरह सुबह सूरज निकले, पंछी चहचहायें, बच्चे स्कूल के लिये और बड़े अपनी रोजी रोटी की दौड़ के लिये निकल पड़ें।  रसोई से कुछ बनने की आवाज और मसालों की महक एक दूसरे से होड़ ले रही हों, ट्रैफ़िक की चिल्ल-पों हमेशा की तरह बदस्तूर अपने होने की आपाधापी का अहसास करवा रही हो। सब किसी न किसी काम में, सोच में व्यस्त हों। काश कभी ऐसा हो कि  किसी को भनक भी न लगे और मैं यहाँ से हटकर वहीं चला जाऊँ, उसी वीरान दुनिया में।  यूँ भी बहुत भीड़ है  यहाँ। जितने जाने पहचाने लोग, उतने ही अनजाने अनचीन्हे लोग,    मशहूरी और तरक्की के लिये तरसते, बरसते, दमकते, बमकते लोग।  एक दूसरे को धकियाते, गरियाते. लतियाते लोग।

काश  ऐसा   हो कि सब जरूरी वाले काम निबटाकर तुम आओ,  दरवाजा खोलो और यकायक ठिठकना पढ़ जाये तुम्हें। एक भीनी सी महक तुम्हारे अंदर तक समा जाये, फ़िर शायद  तुम्हें भी एकदम से याद आयेगा कि कभी कुछ रख छोड़ा था तुमने और फ़िर ध्यान नहीं रहा था। रोशनी की दुनिया से आना होगा न तुम्हारा, एकदम अंधेरे में आकर तुम्हें ऐसा लगे  कि जो पदारथ था, वो तो गायब हो चुका है, बस यही खुशबू है जो बची है। गहरी साँसों में समेटना होगे इसे ही, जितनी समेटी जाये क्योंकि दरवाजा खुला रहा तो ये भी हवाओं में घुल ही जायेगी। बस इतना और जान लेना कि  ये खुशबू तुम्हारी ही थी,  तुमसे ही थी। बहुत आँसू बहाने का शौक है ना तुम्हें? जी भर के रोना फ़िर  और उसके बाद  एकदम से दरवाजे के पीछे छुपा हुआ मैं सामने आकर तुम्हें हैरान कर दूँगा। हँसूंगा उस दिन जोरों से और तुम्हारे आँसू फ़िर बहने लगेंगे लेकिन तासीर कुछ और होगी उन आँसुओं की, कुछ और ही होगी।

काश ऐसा हो कभी कि ये दुनिया यूँ ही चलती रहे, सुबह शाम, दिन रात और ….और यूँ ही बरसात भिगोती रहे.




शनिवार, अप्रैल 09, 2011

ऑफ़िस-ऑफ़िस


बैंक की वार्षिक लेखाबंदी, पेंशन वितरण, ऑडिट आदि आदि के चलते मुश्किल से दो दिन की छुट्टी का जुगाड़ हो पाया था। सोमवार को ड्यूटी करके रात भर बस में जागकर सुबह दिल्ली पहुँचा। नहा धोकर नाश्ता किया और जिस स्कूल में बच्चों के एडमिशन की बात पहले से कर(वा) रखी थी, वहाँ पहुंच गया। प्रिंसीपल महोदया से मिलने का सुयोग जब तक मिला, बारह बज चुके थे। परिचय देकर जब मिलने का मकसद बताया तो उन्होंने कहा कि छोटे बेटे का टैस्ट ले लेते हैं लेकिन बड़ा जोकि दसवीं कक्षा में आया है, उसका दाखिला मुश्किल है। सी.बी.एस.ई. बोर्ड के तहत अब दसवीं कक्षा में एडमीशन देने के लिये बहुत सी औपचारिकतायें हैं और बहुत दिक्कत आती है। सारा केस उन्हें फ़िर से बताया तो वे कन्विन्स तो हो गईं कि आपका जेनुईन मामला है, लेकिन वही बात कि सी.बी.एस.ई. से अनुमति आपको खुद ही लेकर आनी होगी। थोड़ा इंतजार कीजिये, दो बजे स्कूल के मैनेजर कम डायरेक्टर साहब आते हैं, उनसे बात कर लीजिये। साथ ही उन्होंने आश्वासन दिया कि जितनी मदद हो सकेगी वे करेंगी। मैनेजर साहब आये, फ़िर से वही सारी कहानी दोहराई गई और इस बार मैंने खुद ही कहा कि सी.बी.एस.ई. वाली अनुमति की जिम्मेदारी मेरी। तब इधर से भी हरी झंडी मिल गई। मैनेजर साहब ने  बताया कि एक एफ़िडेविट भी देना होगा जिसमें तमाम तरह के डेक्लेरेशन रहेंगे, एफ़िडेविट तैयार करवाकर स्कूल में लाकर दिखा दिया जाये तो वो इस आशय का एक पत्र सी.बी.एस.ई. को एड्रेस करके स्कूल के लैटर हैड पर बनवाकर दे देंगे। अगले दिन एक बजे का समय तय हो गया।   इस बीच छोटे वाले का टैस्ट भी हो चुका था। समय हो चुका था तीन, सुबह से बच्चे भी भूखे थे और जिसके माध्यम से स्कूल में बात चल रही थी, वो सज्जन भी सुबह से ही हमारे साथ थे, बोले तो जैसे हम भूखे वैसे हमारे मेहमान भी भूखे।  आधी जंग जीतकर बुद्धू पार्टी घर को लौट आई। एम.बी.बी.एस. के अकेले अकेले फ़ोटू भी एडमीशन फ़ार्म पर लगाने को  चाहिये थे। शाम को ये आयोजन भी संपन्न हुआ।  अथ श्री प्रथम दिवसे कथा।

दूसरे दिन एफ़िडेविट तैयार करवाकर निश्चित समय यानि एक बजे से पहले ही स्कूल पहुंचे। एफ़िडेविट से संतुष्ट होकर प्रिंसीपल साहिबा ने फ़ारवर्डिंग लैटर तैयार करवा दिया। टाईपिस्ट महोदय ने लैटर टाईप किया, हमने प्रूफ़ जाँचा। दूसरे के दोष पकड़ने के माहिर होने की विशेषता के चलते(थैंक्स टु सो मैनी यंगर ब्लॉगर्स) वो साधारण सा लैटर तीसरी बार में जाकर ओके हुआ। अटकते भटकते सी.बी.एस.ई. कार्यालय पहुंचे। डीलिंग सीट पर जाकर नमस्ते की तो साहब ने ऊपर से नीचे देखा, पहले मुझे फ़िर चिट्ठी को। पहला ओब्जैक्शन आया कि साथ में पिछली कक्षा की मार्कशीट और ट्रांसफ़र सर्टिफ़िकेट की अटैस्टेड फ़ोटोकापी लगानी थी जबकि मैंने स्कूल के कहे अनुसार ओरिजिनल लगा दी थी। दरयाफ़्त करने पर पता चला कि जिस स्कूल में एडमीशन करवाना है, वही अटैस्ट करेंगे। मैंने पूछा कि अटैस्टेड का क्या मतलब होता है?  जवाब मिला कि अटैस्टेड का मतलब है कि ये असली की ही फ़ोटोकापी है। मैंने अपना पक्ष रखा कि जब स्कूल के लैटर हैड पर उन्होंने संलग्न कागजों में इसका विवरण दे दिया है फ़िर अटैस्टेड की क्या जरूरत रही? और फ़िर मैं तो उसके बदले में आपको ओरिजिनल ही दे रहा हूँ।  नियमों से बंधे बाबू साहब ने दलील दी कि ओरिजिनल की आपको जरूरत पड़ेगी। 
मैंने पूछा, “कहां जरूरत पड़ेगी? ये देखकर अगर इन्हें नौकरी मिलती हो तो फ़िर मैं एडमीशन नहीं करवाता।”  
बाबू साहब उवाच, “भाई साहब, आप मजाक कर रहे हैं? नवीं क्लास की मार्कशीट के आधार पर चौदह साल के बच्चे को नौकरी मिल जायेगी क्या?”  
मैंने कहा, “श्रीमान जी, मजाक तो आप कर रहे हैं। मैं आपको ओरिजिनल देने को तैयार हूँ और आप हैं कि अटैस्टेड फ़ोटोकापी की जिद कर रहे हैं।” 
उन्होंने किसी नियम का हवाला दिया कि वहाँ ऐसा ही लिखा है। मैंने कहा कि मैं भी एक जगह नौकरी करता हूँ, आप जैसी रौब वाली जगह तो नहीं है, लेकिन फ़िर भी कुछ चीजें डीलिंग हैंड के विवेकाधीन होती हैं। अगर आप मेरी बात से कन्विंस नहीं हैं तो अलग बात है, लेकिन अगर आपको मेरी बात ठीक लगती है तो कुछ पुनर्विचार करें। गलती से ये भी बता दिया कि अटैस्ट करवाने में कोई दिक्कत नहीं है लेकिन बात कम से कम कल तक जायेगी और मुझे आज रात वापिस लौटना है।  टिप्पणियां पाने के चक्कर में चमचागिरी करनी आ गई है, ये कला वहाँ काम आ गई। दो तीन बार सर सर बोला उन्हें, साहब थोड़े से फ़ूल गये और कहने लगे कि मैडम से पूछकर आता हूँ। मैंने और चढ़ाया, "भाई साहब आप भी वड्डी सरकार से कम नहीं हो वैसे:)" 

खैर, वो हाईकमान से केस डिस्कस करके आये और अहसान कर दिया मुझपर। “वैसे तो नियम एकदम स्पष्ट हैं, लेकिन आपका केस जेनुईन है इसलिये हम ओरिजिनल मार्कशीट और ट्रांसफ़र सर्टिफ़िकेट से काम चला लेंगे। कल से बच्चे को स्कूल भेज दीजिये, परमीशन आठ दस दिन में स्कूल में पहुंच जायेगी।”  नतमस्तक होकर, आभारी होकर, अनुग्रहीत होकर लौटकर घर आया तो लंच और डिनर के बीच का समय हो चुका था। फ़िर रात में वापिस भी लौटना था, अगले दिन से ब्रांच में आडिट होना था और हम बैंक वाले वैसे भी बहुत बदनाम हैं कि काम धाम कुछ करते नहीं और तन्ख्वाह सबसे ज्यादा और सबसे पहले लेते हैं। 

उससे अगले दिन जब छोटा भाई बच्चों के एडमिशन करवाने स्कूल गया तो पता चला कि सी.बी.एस.ई. कार्यालय से स्कूल में फ़ोन आ चुका है कि ट्रांसफ़र सर्टिफ़िकेट पर पुराने स्कूल के इंस्पैक्टर के काऊंटरसिग्नेचर भी चाहिये थे, वो नहीं हैं। वो बेचारा सारा दिन अपने काम का हरजा करके स्कूल, सी.बी.एस.ई. की नई बिल्डिंग और पुरानी बिल्डिंग, सीट दर सीट चक्कर काटता रहा। दो तीन बार मैंने डीलिंग हैंड से फ़ोन पर बात की और शाम तक जाकर इंस्पैक्टर के काऊंटरसिग्नेचर  की कोई वैकल्पिक व्यवस्था हो सकी। एक बार फ़िर से बच्चे को स्कूल भेजने की  आज्ञा मिल गई है, लिखित परमीशन में अभी समय लगेगा। 

बिना फ़ीस और विविध शुल्क लिये स्कूल वाले बच्चे को क्यों पढ़ायेंगे और पैसे जमा करवा देने के बाद फ़िर से कहीं कोई कोमा, बिन्दु या रेखा या कोई और ऐसा वैसा ओब्जैक्शन लग गया तो?    मेरा काम करने के लिये तो मेरा छोटा भाई है, जो अपना काम छोड़कर भी इधर से उधर धक्के खा लेगा लेकिन जिन बच्चों के पास ऐसे चाचा, मामा नहीं हैं उनका इन सब बातों में क्या कुसूर है? और बहुत सी बातें हैं, बोर्ड की परीक्षा तो वैकल्पिक हो गई, लेकिन किसी क्लास में एडमिशन के लिये परीक्षा जरूर ली जायेगी। ईश्वर न करे  जिस घर में हालात बहुत अच्छे न हों, उस घर के बच्चों को पढ़ने का भी हक शायद नहीं मिलना चाहिये। पढ़ जायेगा तो आने वाले समय में नौकरी की भी अपेक्षा कर सकता है। ये सब सवाल तो तब उमड़ रहे हैं जब एक बहुत हाई फ़ाई स्कूल की बात नहीं हो रही। और सौभाग्य से जिनसे भी वास्ता पड़ा है, स्कूल प्रबंधन हो या सी.बी.एस.ई. कार्यालय,  वो अपेक्षाकृत सहयोग ही करते दिख रहे हैं। लेकिन कुछ सुविधा शुल्क अभी तक उन्होंने लिया नहीं है, सो दिल है कि मानता नहीं कि काम हो जायेगा। 

हर ऑफ़िस आज के समय में कम्प्यूटरीकृत है, कोई ओब्जैक्शन लगानी हो तो कहीं से भी निकल कर सामने आ जायेगी, अगर किसी कागज की या रिकार्ड की सत्यता जांचनी है तो ऑनलाईन रिकार्ड का इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाता?  मेरे घर का हाऊसटैक्स रैगुलर भरा जा रहा है।  जो नहीं भरते उन्हें अभी तक नहीं पूछा गया लेकिन मेरे यहाँ नोटिस आया रखा है कि सन 2006-2010 का हाऊसटैक्स असैसमेंट और कर भुगतान मैंने नहीं किया है। दस दिन के अंदर प्राधिकृत अधिकारी के समक्ष उपस्थित हो जाऊँ नहीं तो ……। यदि भर रखा है तो सभी कागज लेकर जाऊँ कि हां जी, मैंने गुनाह किया है जो आपके कहे अनुसार टैक्स भर दिया था और ये रहे सुबूत।  किसी जमाने में जब मेरे दादालोग संयुक्त परिवार के रूप में रहते थे और फ़िर मेरे दादाजी के भाई अपने हिस्से की जमीन बेचकर कहीं और चले गये थे,   बिजली का एक कमर्शियल मीटर  जो कि मेरे दादाजी  के नाम था, हमारे हिस्से आया। दसियों साल उसका मिनिमम बिल भरने के बाद जब उसे उतरवाना चाहा तो द्स हजार सुविधा शुल्क मांगा गया था। मीटर उतरवाने के लिये दस हजार?   जवाब मिला था कि नहीं तो भरते रहिये तमाम उम्र इस हाथी का बिल।

मेरी आदम प्रवृत्तियाँ जोर मार रही हैं, सभ्यता के ढोंग में जीने की बजाय खुले आम जंगल का कानून नहीं  लागू होना चाहिये? इन स्थितियों से आदर्श स्थिति वही नहीं थी क्या.? कम से कम मालूम तो रहता था कि जीने  के लिये कितनी तरद्दुद करनी है। अभी की तरह एक भ्रम की स्थिति में तो नहीं थे हम कि हम एक सभ्य समाज हैं। सवालों के जवाब नहीं हैं, हर जवाब के सौ सवाल जरूर मिल जायेंगे। फ़िलहाल तो आज का जो हॉट टापिक चल रहा है उसी के बारे में सोच रहा हूँ, ’अन्ना की जन लोकपाल बिल की मांग मान लेने पर सब ठीक हो जायेगा न?’ ज्ञान-ध्यान की बातें अब मुझे ज्यादा समझ भी नहीं आती और मैं समझना चाहता भी नहीं, लेकिन मुझे लगता है कि  सबको शिक्षा का अधिकार का कानून, रोजगार की स्वतंत्रता का कानून, बाल श्रम कानून, सार्वजनिक स्थानों पर  धुम्रपान निषेधक कानून, दहेज विरोधी अध्यादेश वगैरह वगैरह  शायद पहले से अस्तित्व में हैं और इनके कागजों में विद्यमान होने मात्र से समर्थ लोगों की रूह काँप उठती है इसीलिये ऐसे अपराध और इन कानूनों के अनुपालन में होने वाली चूकें अब शायद नहीं ही होती होंगी। 

सुन रहे हैं कि अन्ना की मुहिम को जबरदस्त समर्थन मिल रहा है, हमारी तरफ़ से  भी शुभकामनायें। शायद आई.पी.एल. वाले तो घाटे में रहेंगे इस बार, काहे कि अन्ना ने सारा फ़ोकस हाईजैक कर लिया दिखता है। पी.वी.आर., शापिंग माल्स, बार वगैरह अब खाली रहेंगे क्योंकि जनता ससुरी जाग गई है, एक हम जैसे हैं जिन्हें गहरी नींद ने घेर रखा है। नींद है कि जाती नहीं, होश है कि आता नहीं। 
’सुखिया सब संसार है, खावत है और सोत,
दुखिया दास कबीर है, जागत है और रोत।"

खाने दो यारों मुझे भी और सोने दो, प्लीज़ डू नॉट डिस्टर्ब:)) 




शुक्रवार, अप्रैल 01, 2011

मौके की बात..


दूसरे शहर में रिश्तेदारी में एक मृत्यु हो गई थी और अंतिम संस्कार में जाने के लिये घर की तरफ़ से मेरी ड्यूटी लगा दी गई थी। अपने उम्र थी लगभग अठारह उन्नीस साल, दुनियादारी का अनुभव तब तक न के बराबर था। संयोग कुछ ऐसा बैठा कि गाड़ी में आठ सवारियाँ थी, छह महिलायें और दो पुरुष। बेमन से जाना पड़ रहा था।  चुपचाप जाकर सूमो की पिछली सीट पर बैठ गया। लगभग तीन घंटे का रास्ता था, सारे रास्ते चाचियाँ  दादियाँ आपस में हंसी मजाक, निंदा चुगली वगैरह वगैरह करती रहीं। अपन दार्शनिक मुद्रा में जीवन-मृत्यु के बारे में सोच रहे थे और उन सबकी जीवंतता पर गर्व महसूस कर रहे थे। म्रुत्यु वाले घर में जाकर गाड़ी रुकी, दरवाजा खुला और उन्हीं हँसती खिलखिलाती (अ)बलाओं का  रुदन वादन देखा तो मुझे एक बार तो लगा कि मैं सारे रास्ते सो रहा था और वो हँसी-ठट्ठे सब मैंने ख्वाब में ही देखे थे, नहीं तो ये जो दोहत्थड़ मार मारकर रो रही हैं ऐसा कैसे कर सकती थीं? कुछ देर बाद वापसी के लिये गाड़ी में बैठे और गाड़ी के चलते ही फ़िर वही हँसी मजाक शुरू, अब लगने लगा सच तो यही है जो अब देख रहा हूँ। बीच का एक घंटा शायद मैं सपना देख रहा था। एक हमारी चाची लगती थीं, जिनसे थोड़ा बहुत मजाक कर लेता था।  उनसे पूछा, “चाची, ये एकदम से हँसने से रोने का और रोने से हँसने वाला बटन कहाँ होता है?”  चाची ने झिड़क दिया, “चल्ल पागल, ऐहो ज्या कोई बटन नहीं हुंदा। ऐ सब तां मौका देखके करना ही पैंदा है। मौका देख्या जांदा है।”  चलो, कोई मरा सो मरा. अपने को  कुछ तो ज्ञान प्राप्ति हुई। अब हम कोई गौतम तो थे नहीं कि बुढ़ापा और मौत देखकर बुद्ध बनने निकल पड़ते। इतना ही बहुत है।

महीना भर पहले की बात है, ओफ़िस से लौटकर घर गया तो गोल्डी (छोटा बालक) कहने लगा, “पापा, अर्शी की मम्मी कह रही थी कि जब तुम लोग दिल्ली जाओगे तो अपना बैड हमें बेच देना।” मैंने कहा, “अच्छा, इसीलिये तुझे कभी कभी मैगी खिलाती थी वो? ताकि मौका आने पर औने-पौने दाम पर बैड वगैरह मिल जाये।” अपना बालक नाराज हो गया, उसके दोस्त की मम्मी की निष्ठा पर शक जो किया था मैंने।

उसके बाद पता चला कि ज्यूँ ज्यूँ बच्चों के एग्ज़ाम खत्म होने की और बढ़ रहे हैं,  कई आंटियों ने फ़्रिज, अलमारी, टी.वी. वगैरह पर अपना दावा दायर करना शुरू कर दिया है, अगर बेचना हो तो हमें दे देना। अपन भी बालकों को यही कहते रहे कि बेटा आतिथ्य का आनंद उठाते रहो और कहते रहो कि अगर बेचना पड़ा  तो आप को ही बेच देंगे:))

अपने को भी घर से बाहर निकलते ही मिलने वाली नमस्ते, सत श्री अकाल की मात्रा बढ़ती हुई लग रही थी। बराबरी का समय है, भाई लोग कैसे पीछे रहते? दो जनों ने हमारी मोटर साईकिल के खरीदार होने की पुष्टि की और उनमें से एक ने तो बाकायदा दूसरी स्टेट के नंबर से पेश आने वाली दुश्वारियों का पूरा नखशिख वर्णन करते हुये सलाह दी कि दूसरी स्टेट के वाहन लेकर जाने की बजाय तो बेशक तौल के हिसाब से बेचनी पड़े, मोटर साईकिल बेचकर ही जाना। घर जाकर नई मोटर साईकिल बल्कि कार ले लेना, आपको तो बैंक से आसानी से लोन मिल ही जायेगा। सतवचन भाईसाहब, आप का कसूर नहीं है,  मुझ बावली बूच की शक्ल ही ऐसी है कि ..।

बच्चों के जाने का दिन आ गया, जाने से पहले वो लोग अपनी मम्मी के साथ जाकर अडौस-पड़ौस की सब आंटियों से मिल आये। लौटे तो बताया कि कई आंटियाँ तो सच में रो पड़ी थीं। मैंने समझाया कि बेटा, मौका ही ऐसा है वो बेचारी क्या करतीं?  ट्रक में सामान लाद रहे थे  तो तीन चार भाभियाँ(मेरी आंटी थोड़े ही हैं?:)  बाहर गली में निकल आईं, “वीर जी, जा रहे हो?”  तीन साल हो गये एक ही मकान में रहते हुये, किसी ने बात नहीं कि और आज जब जाने का समय आया तो कैसे उदास हो गईं हैं बेचारियाँ? मैं कह देता कि मैं तो आ रहा हूँ लौटकर, ये लोग अब नहीं आयेंगे। बच्चों का नाम लेकर रुआँसी हो गईं सारी,  हमारा तो इतना दिल लगा हुआ था आपके बच्चों के साथ वगैरह वगैरह।  यही कहा कि खुशकिस्मत हैं बालक, जो आप लोग इतना प्यार करती हैं।

बच्चों को छोड़ आया हूँ (मय उनकी मम्मी) उनके दादा दादी और चाचा चाची के पास और अपन हो गये हैं बैक टु पैविलियन। चार पांच दिन उसी भरे भरे मकान में बिताये, जो अब बिल्कुल सूना हो गया था और आज  मेट्रो से जिला मुख्यालय, वहाँ से शहर वाले अपने सफ़र को आगे बढ़ाते हुये आज अपना बोरिया बिस्तर लेकर गाँव में पहुंच गया हूँ। देखते हैं ये सफ़र अब और कहाँ तक पहुंचता है।

आज जब फ़ाईनली अपना सामान लेने गया तो एक भाभीजी फ़िर मिल गईं। उनका  फ़िर वही सवाल, आज मेरा जवाब बदला हुआ था, “हाँ जी, आज मैं भी जा रहा हूँ। दो तीन महीने गाँव में ही रहूँगा।”  भाभीजी आँखों में आँसू भर लाईं, “गोल्डी को मैं दिन में कई बार याद करती हूँ। मेरी तरफ़ से बहुत बहुत प्यार देना उसे, और उसे कहना आज मुझसे फ़ोन पर बात करेगा। मेरे भतीजों जैसा लगता है मुझे।” मैंने कहा, “भतीजों जैसा क्या, भतीजा ही तो है आपका।” हँसकर आगे बढ़ दिया। उन्होंने फ़िर पीछे से आवाज लगाई, “वीरजी, अगर कम्प्यूटर वाला टेबल आपने न रखना हो तो….”

ऐसे मौके पर मैं कन्फ़्यूज़ हो जाता हूँ, ख्वाब कौन सा है – हँसते खिलखिलाते चेहरे या आँसू भरी आँखें? किसी से नेह-प्रेम मौका देखकर बढ़ाना चाहिये या इन संबंधों में भी मौके की तलाश में रहना चाहिये?   उन्हें तो कह दिया कि मुझे खुद के अलावा कुछ नहीं बेचना है, और अपने मन को बहलाया कि इतना बाचली बूच नहीं हुआ कि औने पौने दाम में अपना सामान ऐसे बेच दूँगा। जाओ न किसी ऐंटीक शाप में अकबर का हुक्का, माईकल जैक्सन की पेंट, एल्विस प्रैस्ले का गिटार खरीदने तो पता चल जायेगा तुम्हे। भाव सुनकर गश खा जाओगे और लोग चले हैं मेरा बैड, मोटर साईकिल, कम्प्यूटर टेबल वगैरह खरीदने:)) लोगों को कदर ही नहीं है, हा हा हा।

किराये के नये मकान में आने में कौन सा कम ड्रामा हुआ? कहीं मालिकों को हम पसंद नहीं आये और कहीं मालिक वगैरह हमें पसंद नहीं आये। कहीं एकदम रेगिस्तान सा माहौल और कहीं एक्दम गार्डन गार्डन। अब जाते जाते हाई कमान से हुकम मिला था  कि हाथ पाँव समेट कर रहना। तो सिमटा हुआ हूँ फ़िलहाल।  देख लो पोस्ट भी बारह दिन के बाद लिखी है। जाने से पहले कुछ न कहा होता तो देखनी थी मेरी चाल:)

गुस्सा तो बहुत आ रहा है और बहुतों पर आ रहा है। अपने ऊपर ऐसी बीत रही है कि चाय तक मिलनी मुहाल हुई पड़ी हैं और हमारे ही यार हैं कि सलाह दे रहे हैं कि हफ़्ते में कम से कम दो दिन अर्थ-ऑवर मनाना चाहिये।  भैये, हम तो तैयार हैं पर करें क्या?  मौके की बात है:)

आज से नई जगह सैटल हुआ हूँ, अब यहाँ के अनुभव कैसे रहते हैं, जानेंगे आप लोग..