गुरुवार, अगस्त 23, 2012

विचार-विमर्श


                                                                          
                                                              (चित्र गूगल से साभार)

अचानक ही अमृतसर जाने का प्रोग्राम बन गया था, रिज़र्वेशन  करवाने   का समय  भी  नहीं था और तब ओनलाईन रिज़र्वेशन होते भी नहीं थे| यानी कि  यानी कि  समझ गए न?   फिर वही  कोई पुरानी बात!!   

1991, बैंक का इंटरव्यू दिया ही था,  उसके फ़ौरन बाद की बात है| अमेरिका ने तो अपनी तरफ से पूरी कोशिश की थी कि ये संजय कुमार बेरोजगार रह जाए वरना क्या जरूरी था उसे हमारे इंटरव्यू से एक दिन पहले ही ईराक पर हमला करने की? एक तो वैसे ही बंधी बंधाई पढाई  करने में हमारा दिमाग दिक्कत मानता था, फिर जो तैयारी की थी तो उस हमले के बाद एक बार तो लगा कि गया भैसा पानी में, बस तबसे ही हमें अमेरिका नापसंद हो गया| आप भी कहोगे  अजीब आदमी है ये, अमृतसर जाने की बात करके ईराक और अमेरिका की सुना रहा है  लेकिन मित्रों बैकग्राऊंड मजबूत हो तो अच्छा रहता है|  

Anyway, let us come to the point,  बिना आरक्षण के जाना पड़ रहा था, गनीमत ये थी कि साथ में कोई औरत या बुजुर्ग नहीं थे| एक मैं और एक मेरा प्यारा सा हमउम्र सा चाचाजानी|  सुबह सुबह   घर से परौंठे खाके और लस्सी पीके नई दिल्ली से शान-ए-पंजाब पकड़ने चल दिए| वो हमें और हम उन्हें दिलासा दे रहे थे कि दो जनों को एक भी सीट मिल गई तो कल्लेंगे  फिफ्टी -फिफ्टी| पहुंचे तो देखा कि खूब भीड़ थी, सीट का नो-चांस| अब दिलासे का प्रकार बदल गया, कोई बात नहीं यार जवान बन्दे हैगे, रास्ते में सीट मिल गई तो ठीक न मिली तो भी ठीक| बैठने की जगह तो दूर थी, खड़े होने की जगह के भी लाले पड़ गए| जगह मिली कोच के गेट के पास| 

गाडी चल दी तो धीरे धीरे सब सामान्य सा होने लगा|  समय बिताने का सस्ता, सुन्दर और टिकाऊ शगल ये है कि किसी भी और हर किसी मुद्दे पर बहस छेड़ दी जाए, वही हुआ| तुसी कित्थे जाना है? से शुरू होकर  गाड़ियों में बढ़ती भीड़ से  होकर बात वहीं आ पहुँची जहां उसे आना था, यानी ईराक पर अमेरिका का हमला| सारी सवारियां दो हिस्सों में बाँट गयी और शुरू हो गए दुनिया के मसले सुलझाने| हर जगह की तरह वहां भी दो गुट बन  गए अमेरिका समर्थक और ईराक समर्थक|  पानीपत आते आते मुद्दा व्यक्तिगत हो गया, बुश Vs सद्दाम|  अम्बाला तक आते आते रह गया सद्दाम हुसैन,  हममें से आधे वार्ताकार सद्दाम हुसैन की तारीफ़ कर रहे थे और आधे  उसका विरोध| सब  पूरी सक्रियता से अपने अपने तर्क पेश कर रहे थे, वहीं भीड़ में खड़े थे एक सरदारजी| छः फुटा कद, पर्सनल्टी नहीं पूरा पर्सनैलटा  था उनका| रात में शायद नींद पूरी नहीं हुई थी, सो खड़े खड़े ही श्रीमानजी अपनी नींद पूरी कर रहे थे| जब गाडी को कभी जोर से झटका लगे तब या जब इधर बहस गरम हो जाती थी तब, धीरे से आँख खोलते और जायजा लेकर धीरे से वाहेगुरू वाहेगुरू बुदबुदाते और फिर से आँखें बंद| 

बहसते बहसते लुधियाना और जालंधर भी पीछे छोड़ दिए, जैसे मोमबत्ती बुझने से पहले जोर से भभकती है हम लोगों की बहस भी जोरों से भड़क गयी|   गाडी अमृतसर के आऊटर सिग्नल पर पहुंचकर झटके से रुक गयी| सरदारजी की आँख खुली, बाहर झांककर देखा और अबकी बार  उन्होंने  आँखें दोबारा बंद नहीं  की | बहस की तरफ ध्यान देने लगे, हम लोगों को भी जैसे एक निष्पक्ष निर्णायक की प्रतीक्षा थी, असली बात ये थी कि स्टेशन पास आ चुका था|  

एक बोला, 'सद्दाम की हिम्मत तो माननी पड़ेगी कि ये जानते हुए भी कि अमेरिका से जीत नहीं सकता, उसने हार नहीं मानी|'  
दूसरी पार्टी में से एक प्रखर वक्ता बोला, 'यही बात है तो सद्दाम की क्या हिम्मत है? हिम्मत तो उसके सिपाहियों की है जो मैदान में लड़ रहे थे|'  इस पार्टी वाले  निरुत्तर, एकदम से इस तर्क का जवाब नहीं सूझा| 
अपने सरदार जी बोले, 'वीरे, तेरी गल्ल सई  है लेकिन इसी गल्ल नूं  अग्गे वधाईये ते असली हिम्मत तां बम्बां दी हैगी जेड़े लड़ाई दे मैदान विच फट रये सी|(भाई, तेरी बात सही है लेकिन तेरी सही बात को ही आगे बढायें तो असली हिम्मत तो बमों की है जो मैदान में फट रहे थे)| चलो भाई, आ गयी गुरू  दी   नगरी, जो बोले सो निहाल,  सत श्री अकाल| ' तर्क में तुक  थी या नहीं थी, लेकिन तेली के सर में कोल्हू वाली बात करके सरदारजी ने हम  सबको अमृतसर पहुंचा दिया|  

थ्योरी में तो  हमारे पिताजी भी कई बार समझा चुके कि बेटा बहस में कोई न कोई जीतेगा ही, ये जरूरी नहीं लेकिन कोई न कोई हारता जरूर है और कभी कभी दोनों भी हार जाते हैं|  कभी हमें भी बहुत शौक चढ़ा था अपना ज्ञान झाड़ने का फिर अपने साथ एक दो वाकये ऐसे हुए कि हम बहस करना भूल गए| समझ गए कि हम बहस करने के लिए नहीं बने, ईश्वर सबको सब गुण नहीं देता| इसका ये मतलब भी नहीं कि बहस विमर्श करते लोगों को  किसी तरह से कमतर समझ   
लिया जाए, इन लोगों में बदलाव की इच्छा तो है| कम से कम इन्होने दुष्यंत जी को पढ़ा तो है 'आग जला तो रखी है' that is great. 


साड्डी दिल्ली के उस्ताद ज़ौक साहब के कलाम की पंक्ति अपने को बहुत पसंद है -
अए ज़ौक  किसको चश्म-ए-हिकारत से देखिये,
सब हमसे हैं ज़ियादा,   कोई हमसे कम नहीं|

विमर्श देखने पढने का आनंद मैं भी भरपूर लेता हूँ|   ब्लॉग पर भी जरूरी-जरूरी बहसें चलती रहती हैं| एक सुझाव या अनुरोध करना चाहता हूँ कि बहस के समापन पर निष्कर्ष  क्या निकला, ये जानकारी जरूर दी जाए|

रविवार, अगस्त 19, 2012

किस्सा\किस्से

ऑफिस से स्वतंत्रता दिवस के बाद दो दिन का अवकाश ले रखा था, कुछ जरूरी काम थे|  ये ऐंवे ही  आपको बता रहा हूँ, कहीं इसे प्रार्थी का निवेदन   न समझ लीजियेगा :-)          हुआ ये कि गैस एजेंसी का एक स्टाफ कुछ दिन पहले  KYC compliance    (Know Your Customer कम्प्लायेंस )  का  एक  फ़ार्म दे गया था मय एक मीठी  सी  चेतावनी,  कि इसके  जमा न करने पर कंपनी की तरफ से गैस सप्लाई बंद करने के आदेश हैं| अब हम ठहरे महासुस्त आदमी, ये सोचा कि अगली सप्लाई न देंगे इस डर से अपनी  इस मानव  देह जिसे पाने के लिय देवता भी वोटिंग लिस्ट में रहते हैं, को क्यों परेशान किया जाए?  जो सिलेंडर इस्तेमाल में है, उसे थोड़े ही न उखाड कर ले जायेंगे कंपनी वाले? तो उस फ़ार्म को  'रेफर टू  ड्राअर' करके सुस्ताते रहे|  यूं भी बैंकर होने के नाते KYC अपनी जानी पहचानी चीज थी  और जानियों पह्चानियों चीजों  को हम हल्के-फुल्के तरीके से नहीं लेते, हैंडल विद केयर करने की कोशिश करते हैं|    इस तरह के दो तीन काम इकट्ठे हो गए तो फिर पाला बदलकर सोचने लगे कि कंपनी ने सचमुच सप्लाई रोक दी तो रोटी के लाले इस मानव देह को ही पड़ने हैं, देवताओं का कुछ आना जाना नहीं है| हमने अवकाश लेकर गैस एजेंसी जाने का निर्णय कर  लिया|

कागज़ पत्तर इकट्ठे करके जब जाने लगा तो देखा माताश्री अन्य सब्जियों  के साथ साथ करेलों का भी  कलेजा काटने को तत्पर हैं| अब करेला उन चुनिन्दा कड़वी चीजों में से एक हैं, जिन्हें देखकर हमारे मुंह में पानी  आ जाता है और मेरे घर में सिर्फ मैं ही हूँ जो करेला बड़े शौक से खाता हूँ|  समझ गया कि हमारी छुट्टी को स्पेशल बनाने का यह  माताश्री की तरफ से प्रयास है| कहने लगीं, "देख ज़रा, कितना वजन होगा इनका अंदाजे से?"   मैंने पूछा, " क्या हुआ?"   कहने लगीं, "दस रुपये के ढाई सौ ग्राम  बता रहा था, लेकिन वजन कम लग रहा है| उस समय तो सारी सब्जियां  उसने एक ही थैली में डाल दीं,  ये ढाई सौ  ग्राम तो नहीं लगते|" अपन तो फुर्सत में थे ही, दुकान से वजन करवाया, निकले 180 ग्राम| माताजी सब्जीवाले को लक्ष्य करके बार बार यही कह रही हैं, "पन्द्रह रुपये के ढाई सौ ग्राम देता, लेकिन तौल तो सही रखना चाहिए था|" सब्जीवाला तो कब का जा चुका था, मैं सुन रहा था बल्कि मैं भी कहाँ सुन रहा था? मैं तो हिसाब लगा रहा था -
a. 28% की हेराफेरी 
b. वजन के हिसाब से देखें तो सिर्फ 70 ग्राम की ठगी
c. रुपयों में गिने तो कुल दो रुपये अस्सी पैसे की हेराफेरी
d. करने वाला गरीब आदमी 
e. हम ही कौन सा बहुत ईमानदार हैं. 

कौन सा विकल्प सबसे सही है
a/b/c/d/e/none of these/all of these ?

गैस एजेंसी पहुंचा और काऊंटर पर फ़ार्म जमा कर रहा था कि ग्राहकों की भीड़ को जल्दी निबटाने के लिए वहाँ के मैनेजर\मालिक काऊंटर पर आये और कुछ कस्टमर्स को अपने साथ ले गए|  उन्होंने KYC वाला  फ़ार्म ले लिया तो मैंने उनसे कहा कि मैंने नैट पर चैक किया है कि मेरे नाम पर DBC कनेक्शन जारी दिखाया जा रहा है|  मैं आपकी एजेंसी की तत्परता, ग्राहक सेवा वगैरह का शुक्रगुजार होना चाहता हूँ, आजतक से भी तेज, सबसे तेज| मेरे मन में अभी ये DBC वाला विचार आया ही था और आपने उसे  इम्प्लीमेंट   भी कर दिया, 'वाह  ताज|' बस मुझे वो कागज़ देखने हैं कि कब मुझे DBC अलोट हुई थी?"   शुरू में तो मालिक साहब ने इसका श्रेय मुझे ही दिया कि मैंने अप्लाई किया होगा और सिलेंडर लिया होगा, तभी रिकार्ड DBC दिखा रहा है  या फिर ये कि आपका एकाऊंट तो कहीं और से ट्रांसफर होकर आया होगा, वगैरह वगैरह वरना उनके एजेंसी इतने भी तेज नहीं है| लेकिन फिर धीरे धीरे धरती पर लैंड कर गए कि भाई साहब, आज  शुक्रवार है और अलविदा की  नमाज है| माहौल थोड़ा ठीक नहीं है, इसीलिये मैं आधे कस्टमर्स को खुद अटेंड कर रहा हूँ| मुझे थोड़ा सा वक्त दीजिए,  हम फिर किसी दिन  बैठकर बात कर लेंगे|" जिस दिन जाऊंगा, यकीन है कि बात हो जायेगी और मुझे सिलेंडर मिल जाएगा| लेकिन  मेरे साथ या औरों के साथ जो हो चुका या होता रहता ........................ विकल्प दूं फिर से ?

अभी आज की ही बात है, बाईक में पेट्रोल डलवाना था| एक पम्प पर दो अटेंडेंट आपस में बातों में मस्त थे लेकिन इशारा करके मुझे बुला लिया| दो सौ रुपये का पेट्रोल डलवाना था, मेरे बताने के बाद उन्होंने टंकी में पाईप रख दिया और फिर मीटर में अमाऊंट सेट करने लगा,  बल्कि  ज्यादा देर लगाकर और  ख्वामख्वाह की झल्लाहट दिखाते हुए अपसेट करने लगा|   अब बातों में मुझे भी शामिल करने लगे, 'सर ये दस दस के नोट दीजियेगा न, हमारे काम आ जायेंगे|'  बिना मतलब की बेसिरपैर की बातें,  और उसके बाद उनमें से पहला  दूसरे से पूछने लगा, 'मशीन कितने पर रुकी थी, पचास पर?'  दूसरे  ने हामी भरी, 'हाँ, पचास पर रुक गई थी|  अब डेढ़ सौ का और डाल  दे|'  पचास रुपये का चूना?  माँगा था पेट्रोल, लगाते  चूना:)   लेकिन बंदे थे बड़े शरीफ cum ईमानदार,  जल्दी ही पटरी पर आ गए|  पहली ही घुडकी के बाद  हामी भरने वाला प्रश्वाचक मुद्रा में आ गया, 'अच्छा, मशीन चली ही नहीं थी?'  पूछने वाला डांटक मुद्रा में आ गया उस पर, 'तूने अच्छे से  देखा नहीं था फिर बोलता क्यूं है?'   कल्लो बात, हमने तो जैसे  ऐसी नूरा कुश्ती कभी देखी ही न  हो|  हाँ तो, दो सौ रुपये में से पचास रुपये का कितना प्रतिशत बैठा जी?   विकल्प..........

कुछ साल पहले एक परिचित के यहाँ कुछ पार्टी शार्टी थी| मित्र का एक रिश्तेदार भी आया हुआ था, किसी सरकारी पशु चिकित्सालय में कार्यरत था| उसी की ज़ुबानी उसका किस्सा सुन लीजिए, "नौकरी करते हुए साल भर ही हुआ था कि मैं भयंकर रूप से  बीमार हो गया| दो महीने तक ड्यूटी पर नहीं जा सका| फिर एक दिन थोड़ी तबियत ठीक थी तो चला गया|  स्टाफ के सब लोगों से मिला, उन्होंने अलमारी में से वेतन  रजिस्टर निकाला, रसीदी टिकट पर मेरे साइन करवाए और मुझे पैसे पकड़ा दिए| जब मैंने पूछा कि ये क्या है, कितने हैं तो बताया गया कि दो महीने की तनख्वाह है| मैं अकड़ गया कि ये तो मेरी तनख्वाह है ही, मेरा हिस्सा किधर है?  हिस्सा देने पर  स्टाफ के लोग  नहीं  मान रहे थे तो  मैंने कहा कि ठीक है फिर,  कल से मैं रोज आऊँगा|   सबको सांप सूंघ गया हो जैसे, आपस में सलाह मशविरा करके मुझे हजार रुपये और दिए और समझाने लगे कि मैं अपनी तबियत का ध्यान रखूँ, सरकारी काम तो यूं  ही चलते रहेंगे| तब से मैंने अपनी तबीयत का ध्यान रखना शुरू कर दिया, महीने बाद जाता  हूँ, तनख्वाह और पांच सौ रुपये लेकर उसी में से दो-तीन  सौ रुपये की उनकी पार्टी कर देता हूँ, वो  भी खुश और मेरा भी काम चल रहा है| महीने में एकाध कोई प्रोपर्टी का सौदा करवा देते हैं  और यूं ही बस गुजारा चल रहा है|

पहले तीन वाकये पिछले तीन दिन के हैं वो भी खुद के साथ घटित, औसतन एक दिन में एक किस्सा| इसका एक मतलब ये भी निकलता है कि क्या  this international phenomenon i.e. corruption समाज की रग-रग में इस तरह पैबस्त हो चुका है कि अब ये सब खलता नहीं है?  सबके पास अपने तर्क हैं, कोई गरीबी ज्यादा बताता है तो कोई महंगाई ज्यादा बताता है|  मेरा मुंह तो पेट्रोल पम्प वाले ने सिर्फ एक बात से बंद कर दिया, 'सरजी, हमें पचास रुपये की गलती पर आप गाली निकाल दोगे लेकिन वो कोयले वाला घोटाला हुआ है उसमें जीरो कितनी लगेंगे, ये बताओ तब जानें आपको|'  जा यार, मुझे तो कसम से एक लाख की जीरो  नहीं  मालूम  और तू पूछ रहा है 1.86 लाख करोड़ की जीरो का? not my rake of coal :)

जुटे रहो भाई आम-ओ-खास बन्दों, बेडा डुबोने में  अपना अपना योगदान देते रहो|  बेस्ट ऑफ लक|                                                       

सोमवार, अगस्त 13, 2012

ना.का. का पापा

बात छोटी सी है लेकिन हमेशा की तरह तम्बू-तम्बूरा पूरा ताना जाएगा|  काम की बातें छोटी ही अच्छी लगती है, फालतू की करनी हों तो फिर XL या  XXL से कम हम बात नहीं करते, पहले बताए देते हैं|

हम उन दिनों नौकरी के चक्कर में ट्रेन से डेली पैसेंजरी किया करते थे| ग्रुप में सिंचाई  विभाग में कार्यरत एक  जे.ई. साहब भी  थे, मुदगल  साहब|  निहायत ही शरीफ,  इतने शरीफ  कि उनकी शराफत देखकर कभी कभी शक होता था कि ये इंजीनियर हैं भी या नहीं:)  अपनी मुंहफट आदत के चलते एक बार मैंने उनसे ये कह भी दिया तो खूब हँसे| कहने लगे कि यार तुम्हारी भाभी भी यही ताना देती है|  खैर, परिचय नया नया ही था कि कहने लगे कि उनके एक चचेरे भैया हमारे ही बैंक में हैं और उनका काफी रसूख भी है,  मैं अपना बायोडाटा दे दूं तो मेरा दिल्ली ट्रांसफर करवाने की बात की जाए| अब इस मामले में हमारी सोच शुरू से ही खराब रही है, हमने  'No, Thank you ji' कह दिया और फिर से एक बार बहुत शरीफ(अहमक) होने का खिताब पा लिया|

कुछ दिन बाद पता चला कि हमारी ब्रांच में मैनेजर बनकर कोई 'मुदगल  साहब' ट्रांसफर पर  आ रहे हैं, जिस ब्रांच  से आ रहे थे उसका नाम मालूम चला तो कन्फर्म हो गया कि वही हमारे जे.ई. साहब के कजिन हैं| उन दिनों अपन भी मानस पाठ कर रहे थे सो 'कोऊ नृप होय हमें का हानि' मोड चालू था, जे.ई. साहब से इस बात का कोई जिक्र नहीं किया| वो दिन भी आ गया, जिस दिन नए मैनेजर साहब ने ज्वायन करना था| सुबह गाड़ी पकड़ने स्टेशन पहुंचा तो देखा ओवरब्रिज पर ही जे.ई. साहब खड़े थे| समझ गया मैं कि अब क्लास लगेगी| मुझे देखकर  जे.ई. साहब लपक कर आगे आये और हाथ मिलाने के बाद पूछने लगे कि आपके यहाँ ब्रांच मैनेजर बदल गए हैं क्या? मैंने हंसकर बताया कि हाँ, आज ही आपके भाईसाहब ज्वायन करेंगे| जे.ई. साहब ने फिर से मुझे अजीब आदमी बताया, "यानी कि आपको मालूम था कि मेरे कजिन आपके मैनेजर बनकर आ रहे हैं? सच में बहुत अजीब आदमी हो यार आप|" वहीं ब्रिज पर ही मुझे  रोक लिया कि भाई साहब भी आ रहे हैं, साथ ही चलेंगे| कुछ देर में साहब आ गए और परिचय वगैरह होने के बाद हम गाड़ी में आकर बैठ गए|

अब मुदगल साहब शाखा की ज्योग्राफी, हिस्ट्री वगैरह जानने के लिए स्वाभाविक रूप से ही जिज्ञासा रही होगी, वो स्टाफ के बारे में पूछ रहे थे और मैं कहता था कि सरजी, खुद ही पता चल जाएगा आपको क्योंकि  मैं किसी के बारे में बताऊंगा तो उस स्टाफ के प्रति अपनी भावनाओं के अनुरूप ही बताऊंगा| उधर ताश पार्टी वाले बार बार आकर 'संजय भाई साहब, आओ न  जल्दी'  की गुहार लगा रहे थे| मैंने मुदगल साहब से पूछा कि ताश खेलते हैं आप? न में जवाब सुनकर अपने ग्रुप में जाकर बैठ गया| दो तीन दिन तक ऐसा ही चला, मुदगल साहब ने पूछा  भी कि ताश क्या इतनी जरूरी है? हमने वहाँ नहीं बैठना था तो नहीं ही बैठे| सच तो ये है कि ऐसा करने में अपने अहम को पोषित करता था शायद मैं, कि अपने सीनियर्स की परवाह नहीं करता , कितना महान हूँ मैं:)

3-4 दिन के बाद जे.ई. साहब ने बताया कि यार भाई साहब तो अपनी कार से जाया करेंगे, अब आपका और हमारा साथ छूटी जाएगा| मैंने आश्वस्त कर दिया कि ज्यादा लग्ज़री बर्दाश्त नहीं होती, अपन तो इस रेलगाड़ी से ही जाया करेंगे| उन्होंने भी और हमारे मैनेजर साहब ने भी बहुत समझाया कि रूट एक ही है तो क्यूं नहीं कार में साथ जाते? मैंने नहीं मानना था तो उस समय नहीं ही माना|  पांच छह महीने बीत गए,  एक बार फिर जे.ई. साहब ने मुझे भाई साहब के साथ आने जाने  के लिए समझाया| तब तक वैसे भी हम लोग एक दुसरे को अच्छे से समझ चुके थे, मुदगल साहब सही मायने में एक True gentleman लगे मुझे, नतीजतन उनकी बड़ी सी कार में सुबह शाम का साथ भी हो गया| तब तक उनकी कार में एक दूसरे बैंक के मैनेजर और एक हमारा ऑडिटर भी साथ जाना शुरू कर चुके थे| त्रिकोण का चौथा खम्भा हुआ मैं| अब आते हैं  अपनी छोटी सी बात पर|

शाम को लौटने का तय समय नहीं था लेकिन सुबह जाने का तो फिक्स्ड टाईम था| कुछ दिनों में सड़क पर बहुत सी ऐसी गाडियां दिखने लगीं, जो इसी समय सड़क पर उतरा करती थी| ज्यादा संभावना ये थी कि सब नौकरीपेशा ही रहे होंगे, उन्हीं का तय समय होता है| एक मारुती 800 कई बार दिखती थी, कम से कम मैं तो उस कार को उसके पीछे लिखे एक स्लोगन के कारण पहचानता ही था | कार ड्राईव करते हुए मुदगल साहब  ने उस दिन शायद पहली बार उस मारुती 800 पर गौर किया| हँसते हुए कहने लगे, "ये पढ़ो ज़रा, उस कार के पीछे क्या लिखा है?"  सबने पढ़ा, यूं तो मैं अपने हिस्से का आनंद पहले ही ले चुका था लेकिन अच्छा लगा कि जिस चीज जो मैं बहुत पहले  एंजाय कर चुका हूँ आज मुदगल साहब के चलते औरों का भी ध्यान गया| कार की पिछली स्क्रीन पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था, "नारायण कार्तिकेयन का बाप"

मैंने कहा, "हौंसला देखिये बंदे का|"   मुदगल साहब बोले, "हौंसला? बेवकूफी है ये, खुन्नस है ये| पट्ठा काम करता होगा नारायण कार्तिकेयन की कंपनी में और उसने निकाल दिया होगा किसी बात पर, इसलिए लिख लिया होगा|" मेरे लिए ये जानकारी नई थी कि नारायण कार्तिकेयन की कोई कंपनी भी है| मेरे जिज्ञासा प्रकट करने पर बताया गया कि इन्फोसिस के मालिक हैं मि. ना. का.| वैसे तो हमें सिखाया जाता है कि -
1. Boss is always right.
2. Even if he\she is wrong, remember point 1.
लेकिन सीखने के मामले में भी और बहुत से मामलों की तरह अपन रूढ़िवादी हैं:)    

मैंने कहा, 'सर, आपको गलती लग रही है| इन्फोसिस के मालिक का नाम मि. नारायण मूर्ति है| ये नारायण कार्तिकेयन अलग  हैं, भारत के फार्मूला वन रेसर हैं|'  

बॉस का चेहरा तल्ख़ हो गया, कोई सबोर्डिनेट अपने अधिकारी की बात काट दे, वो भी दूसरों के सामने, उन्हें हजम नहीं हुआ था| दुसरे सहयात्री नीचे नीचे से मेरी जांघ पर हाथ रखकर चुप रहने का इशारा कर रहे थे और मुंह से उस 800 वाले को इन्फोसिस के जनक का जनक ही सिद्ध कर रहे थे| अब जिस बात पर मैं कन्फर्म रूप से जानता हूँ , उसे सिर्फ इसलिए मान लेना कि मेरा सीनियर कह रहा है या जिसकी कार में मैं रोज सुबह शाम आता जाता हूँ, मुझे उचित नहीं लगा| हम दोनों अपनी अपनी बात पर अड़े रहे|  मुदगल साहब का मूड ऑफ हो चुका था| उस दिन उसके बाद पूरे रास्ते और कोई बात नहीं हुई|

बैंक पहुचकर मुदगल साहब कार पार्क करने लगे और बाकी साथी अब मुझे दुनियादारी पढ़ा रहे थे, "क्या जरूरत थी आपको बहस करने की?"  मेरी नजर में मैंने बहस नहीं की थी, एक सही जानकारी शेयर कर रहा था और उसे गलत रूप में प्रतिस्थापित होने देने से रोकने का प्रयास कर रहा था| एक बार फिर से सुन लिया कि यार आप बिलकुल भी प्रैक्टिकल नहीं हैं, etc.etc.   मजा आता है न  ऐसी बात सुनकर?

उस दिन दोपहर में ही  मैंने मुदगल साहब से कह दिया कि आज मैं शाम को ट्रेन से जाऊंगा| पूछने लगे, 'क्या हुआ?' मैंने बता दिया कि ट्रेन वाले ग्रुप में किसी से कुछ काम है, बहाने बनाने में कौन बहुत सोचना पड़ता है? गुलजार महफ़िल के बंदे ठहरे हम, हमारी वजह से माहौल बोझिल बने, इससे बढ़िया तो अपनी थ्योरी यही है कि पहले ही रास्ता नाप लिया जाए:)  यूं भी ताश खेले बिना मन बहुत उदास हो रहा था|

अगले दिन सुबह सुबह मुदगल साहब का फोन आ गया कि रोज वाले समय से पन्द्रह मिनट पहले मिल जाना, कुछ काम है| मैंने कहा कि मुझे तो ट्रेन से ही जाना है लेकिन उन्होंने मना कर दिया| कोई बड़े अधिकारी ब्रांच में विजिट  करने आ रहे थे, ट्रेन में देर सवेर हो सकती है इसलिए कार में ही जाना है बल्कि ये भी कहा कि पन्द्रह मिनट पहले निकालने की कोशिश कर लूं , निकल सका तो ठीक  नहीं तो वो तो इंतज़ार करेंगे ही| हाय  मेरी ताश पार्टी :(

हम रोज की तरह मिले, अभिवादन हुआ और दोनों चुपचाप बैठ गए|  चार पांच किलोमीटर के बाद दुसरे  दोनों साथी भी इंतज़ार करते मिले| पिछली शाम मैं कार में नहीं था, मालूम नहीं कैसा माहौल रहा होगा लेकिन आज फिर मुझे देखकर दोनों और ज्यादा  सीरियस दिखने लगे:) जब कोरम पूरा हो गया, मुदगल साहब बोले, "संजय, कल तुम ठीक थे और मुझे भूल लगी थी| मैंने घर जाकर बेटे से कन्फर्म किया और मेरे न मानने पर बेटे ने नैट पर मुझे चैक करवाया और गलती दुरस्त की|   थैंक्स डियर|"  इतने में फिर वही कार दिखी और मुदगल साहब ने मुस्कुराते हुए उस ड्राइवर को हाथ हिलाकर वेव किया|  कहने लगे,  "after all, we are daily passengers. Same community, isn.t it?'

उस दिन कोई उच्चाधिकारी हमारे यहाँ विजिट पर नहीं आये| मुदगल साहब चाहते तो अपनी जानकारी दुरस्त करके चुपचाप भी रह सकते थे या जानकारी न भी चैक करते तो उनकी सैलरी पर या फैमिली को कोई फर्क नहीं पड़ने जा रहा था| चार पांच किलोमीटर तक हम अकेले ही रहे थे, वो पहले भी यह बात मान सकते थे लेकिन  बात कहने के लिए उन्होंने कोरम पूरा होने तक का इन्तजार किया| मुझे ये छोटी छोटी बातें नहीं भूलतीं|  इन बातों से इंसान की ऊंचाई, गहराई बहुत कुछ पता चलता है|  मुदगल साहब के साथ दो साल बहुत अच्छे से कटे, कई बार ऐसे वाकये आये कि किसी बात पर हमारी राय नहीं मिलती थी लेकिन बाद में अगर उन्हें लगता था कि वो गलत थे तो बिना इस बात की परवाह किये कि वो सीनियर हैं, स्वीकार कर लेते थे और वो भी  अपने royal style में| मेरी नजर में उनका कद दिनों दिन ऊंचा ही हुआ|



:-) -  बेरोजगारी से जूझ रहे फत्तू ने एक नवाब साहब  का दामन जा पकड़ा| दरयाफ्त करने पर बताया कि वो बातों का रफूगर है और नवाब साहब जो बेसिरपैर की छोडने के लिए मशहूर थे, उनकी बातों पर पैबंद लगा दिया करेगा| मुलाजमत पक्की हो गई| एक महफ़िल में नवाब साहब ने फेंकी, 'शेर की तरफ तानकर मैंने बन्दूक से ऐसी गोली छोड़ी कि वो उसके पैर के पंजे से होते हुए उसके माथे में जा धंसी|' सुनने वालों ने बात हंसी में उड़ानी चाही तो नवाब साहबी ने फत्तू की तरफ देखा| फत्तू ने कहा, 'दरअसल जब उसे गोली लगी, उस वक्त  शेर पंजे से अपना माथा खुजा रहा था | गोली पंजे से पार होकर शेर के माथे  में जा धंसी थी|' वाह-वाह का शोर मच गया|  अगली महफ़िल में नवाब साहब  और कोंफिडेंट होकर बोले, "एक बार मैंने शेर पर गोली चलाई, शेर ने छलांग लगाई और भाग निकला| नदी, नाले पार कर गया और कई किलोमीटर तक भागता फिरा, गोली ने पीछा नहीं छोडा, उसकी जान ले ही ली|" लोगों ने फिर शुबहा जाहिर किया तो नवाब साहब ने फत्तू, जो कि कागज़ पेंसिल लेकर उलझा था. उसे पुकारा, " बेटे रफूगर|" फत्तू ने बताया कि गोली तो शेर के पिछवाड़े  में पहले ही लग गई थी, अब शेर चाहे नदी नाला कूदे या पहाड़-पर्वत, खून इतना बह गया कि बेचारा चार-पांच किलोमीटर तक भागने दौड़ने के बाद  मर गया|" नवाब साहब की फिर से जय जयकार हो गई|  अगली महफ़िल में नवाब साहब ने फरमाया, "मैंने एक बार शेर पर निशाना साधकर वो गोली मारी कि शेर दो हिस्सों में बंट  गया| आखिर में जब गोली निकाली गई तब कहीं जाकर शेर बेचारे की लाश वन-पीस बनी|" लोग बाग हैरान परेशान होने लगे| नवाब साहब ने फिर पुचकारा, "बेटा रफूगर, खडा तो हो ज़रा|" फत्तू ने नवाब साहब के हाथ में एक कागज थमाया और बोला, "ले बे नवाब की औलाद, मेरा इस्तीफा| मैं बातों का रफूगर हूँ, छोटी मोटे पैबंद को तो रफू कर  भी देता|  इत्ती बड़ी काट-फांट को तो किसी रफूगर का बाप भी नहीं रफू कर सकता| यूं भी अब सरकार हर हाथ में मोबाईल देने  जा रही है, तेरी बेसिरपैर की रफू करने की बजाय मैं अपना ही ब्लोग बनाकर मोबाईल से खुद ही हांक भी लूंगा और रफू भी कर लूंगा|  हैप्पी इंडिपेंडेंस डे|"

शुक्रवार, अगस्त 10, 2012

युगपुरुष

वो किसी राजमहल का सुसज्जित प्रसूति कक्ष नहीं बल्कि कारागार था|  आततायी सत्ता का जैसा प्रभाव बाहर समाज में  था, वैसा ही उस अंधेरी काल कोठरी में भी था| वहाँ  पसरा सन्नाटा बाहर के सन्नाटे का ही सहोदर था| यूं तो सत्ता बहुधा निरंकुशता की ही प्रतीक रही है, रामराज्य अपवाद ही होते हैं लेकिन  निरंकुशता की निरंतरता जब दिनोदिन गहरी और गाढी होती जाती है,  कभी न कभी वह क्षण आता ही है जब अन्धकार भी अपना विस्तार थामने को विवश हो जाता है| यही वह क्षण होता है जब गहन अन्धकार को चीरकर प्रकाश की एक लौ भभकती है,  एक ज्योति प्रज्ज्वलित होती है -  एक अमर ज्योति| यही वह क्षण होता है जब असुरी सत्ता के सर्वनाश का शंखनाद करता  एक युगपुरुष इस धरती पर अवतरित होता है|  

आतंक, अन्याय, दुराचार, शोषण अपने दांतों और नाखूनों से जब  मानवता को नोच खसोट रहे होते हैं, असल में वे अपने पाप का घडा स्वयं भर रहे होते हैं| अपने खोखले उसूलों को क्रूरता का जामा पहनाकर वो सामान्य जन को प्रताडित तो करते दिखते हैं लेकिन असल में वो खुद अंतर में कातर और भयभीत होते हैं और यही कुंठा उन्हें उनके कुकृत्यों के लिए बाध्य करती है| यही वह क्षण होता है जब किसी कृष्ण का धर्म की फिर से स्थापना के लिए आगमन होता है| 

उस कृष्ण का आगमन, जिसने जन-जन में उत्साह का संचार कर दिया| वही साधारण जन जो निरीह और खुद को असहाय मान कर हरदम कमर झुकाए और घुटने टिकाये सत्ता के सामने नतमस्तक होना अपना भाग्य समझते थे, अपनी और संगठन की शक्ति पहचानने लगे| 

परम्परागत आत्मनिर्भर ग्राम्य अर्थव्यवस्था को  बाजारी शक्तियाँ नष्ट करने  लगी थीं|  गाँव देहात में बहुतायत में उपलब्ध  दूध, दही,  घी का दोहन करके दुग्ध सरिता  का रुख नगरों की ओर मोड़ दिया गया  था| बालक कृष्ण ने बाल सुलभ तरीकों से समाज का ध्यान इस तरफ आकर्षित किया|

जल जैसे प्राकृतिक साधन पर कुंडली मारे बैठे कालिया नाग का मर्दन करते कृष्ण ने  अपनी प्राथमिकताएं सिद्ध कर दी| लोकोपयोगी संसाधनों पर बलपूर्वक कब्जा समाज को स्वीकार्य नहीं| 

इंद्र जैसे प्रभावशाली देवता की अपेक्षा गोवर्धन को ज्यादा मान देकर कृष्ण ने फिर से स्पष्ट  किया कि वन, भूमि जैसे प्राकृतिक संसाधन हमारे लिए कितने महत्वपूर्ण हैं|

ठेठ बालपन में ही पूतना, वकासुर जैसों और फिर बाद में अग्रज बलराम की सहायता से अपने से कहीं विशालकाय चाणूर, मुष्टिक मल्लों को पराजित करके कंस के अत्याचारों को चुनौती दे दी थी कि अब अन्याय सहन नहीं होगा| 

कालान्तर में कंस वध भी हुआ और शिशुपाल वध भी| और ये सब करते हुए निर्भय कृष्ण कहीं भी अहम प्रदर्शन करते नहीं दिखते बल्कि उनकी निर्भीकता आमजन के लिए अभय का सन्देश और साथ में सखा भाव  लिए थी|  महाभारत के युद्ध में संख्या बल में भारी असमानता के रहते भी पांडवों की विजय संभव हुई तो सिर्फ इसलिए कि श्रीकृष्ण मात्र अर्जुन के रथ के सारथी ही नहीं थे, वरन सम्पूर्ण पांडव पक्ष के सारथी की भूमिका में थे|

त्रेतायुग  में राम  ने  मर्यादाओं के पालन पर जोर दिया, वो उस युग की मांग थी| द्वापर तक आते आते सभ्यता ने कई रंग देख लिए|  द्वापर के इस अवतार कृष्ण  ने आवश्यक होने पर पुरातन मान्यताओं का अंधानुकरण करने की बजाय नए युग की नई मान्यताएं स्थापित कर दीं|  योग और शक्ति के  साथ कूटनीति, राजनीति को मिलाया| 

युगपुरुष किसी एक धर्म, जाति, देश के नहीं होते वरन सम्पूर्ण मानवता के होते हैं क्योंकि उनके द्वारा किये जाने वाले काम व्यक्तिगत हित से ऊपर उठकर सर्वजन के हित के ही होते हैं|.व्यक्तिगत रूप से तो जैसे कष्ट  उठाने के लिए ही अवतार लेते हैं लेकिन फिर भी कोई रुदन नहीं, कोई विलाप नहीं, कोई प्रलाप नहीं|  कर्तव्य हमेशा सर्वोपरि| 

गीता जैसा अनमोल सन्देश विश्व को देने वाले श्रीकृष्ण ने जिस भारतभूमि पर जन्म लिया, वह भूमि धन्य है और हम सब  धन्यभागी हैं|

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर आप सबको बहुत बहुत शुभकामनाएं| 

                                               

रविवार, अगस्त 05, 2012

An interview with Field Marshal Sam Manekshaw


                                                                                                                                                                                 

                                                     

अप्रैल का समय था या अप्रैल जैसा ही था| एक कैबिनेट मीटिंग में मुझे बुलाया गया| श्रीमती गांधी बहुत गुस्से में  और परेशान  थीं  क्योंकि शरणार्थी पश्चिम बंगाल, असम और त्रिपुरा में आ रहे थे|

'देखो इसे, अधिक-से-अधिक आ रहे हैं - असम के मुख्यमंत्री का तार, एक और तार.....से,  इस बारे में आप क्या कर रहे हैं?' उन्होंने मुझसे कहा|

मैंने कहा, 'कुछ भी नहीं, इसमें मैं क्या कर सकता हूँ?'

उन्होंने कहा, 'क्या आप कुछ नहीं कर सकते? आप क्यों कुछ नहीं करते?'

'आप मुझसे क्या चाहती हैं?'

'मैं चाहती हूँ कि आप अपनी सेना अंदर ले जाएँ|'

मैंने कहा, 'इसका मतलब है - युद्ध?'  

और उन्होंने कहा, 'मुझे नहीं पता, यदि यह युद्ध है तो युद्ध ही सही|' 

मैं बैठ गया और कहा, 'क्या आपने 'बाईबल' पढ़ा है?' 

सरदार स्वर्ण सिंह ने कहा, 'अब इसका बाईबल से क्या वास्ता?'

'बाईबल के पहले अध्याय के पहले अनुच्छेद में ईश्वर ने कहा है -- 'वहाँ प्रकाश हो तो वहाँ प्रकाश हो गया', आपने भी वैसा महसूस किया| वहाँ युद्ध हो, और वहाँ युद्ध हो जाए| क्या आप तैयार हो?...मैं निश्चित रूप से तैयार नहीं हूँ|'

तब मैंने कहा, 'मैं आपको बताऊँगा कि क्या हो रहा है| यह  अप्रैल महीने का अंत है| कुछ दिनों में 15-20 दिनों में, पूर्वी पाकिस्तान में मानसून का प्रवेश होगा| जब बारिश होगी तो वहाँ की नदियाँ सागर में तब्दील हो जायेंगी| यदि आप एक किनारे पर खड़े होंगे तो दुसरे किनारे को नहीं देख सकेंगे| अंततः: मैं सड़कों तक ही सीमित हो जाऊंगा|' वायुसेना मुझे सहायता देने में अक्षम होगी और पाकिस्तानी मुझे परास्त कर देंगे - यह एक कारण है| दूसरा मेरी कवचित डिवीज़न बबीना क्षेत्र में है, दूसरा डिवीजन -याद नहीं आ रहा है-सिकंदराबाद क्षेत्र में है| हम अभी फसल काट रहे हैं| मुझे प्रत्येक वाहन, प्रत्येक ट्रक, सभी सड़कें, सभी रेलगाडियां चाहिए होंगी, ताकि जवानों को रवाना कर सकूं| और आप फसलों को लाने-ले जाने में अक्षम होंगी| फिर मैं कृषि मंत्री श्री फखरुद्दीन अली अहमद की ओर मुड़ा और कहा कि यदि भारत में भुखमरी हुई तो वे लोग आपको दोषी ठहराएंगे| मैं उस वक्त उस समय दोष सहने के लिए नहीं रहूँगा| तब मैंने उनकी तरफ घूमकर कहा, 'मेरा कवचित डिवीज़न मेरा आक्रामक बल है| आप जानते हैं, उनके पास सिर्फ 12 टैंक हैं, जो सक्रिय  हैं?'

वाई..बी.चव्हाण  ने पूछा,  'सैम, सिर्फ 12 क्यों?'

मैंने कहा, 'सर, क्योंकि आप वित्त्त्मंत्री हैं| मैं आपसे कुछ महीनों से आग्रह कर रहा हूँ| आपने कहा, 'आपके पास पैसे नहीं हैं, इसी कारण|'

तब मैंने कहा, 'प्रधानमंत्री जी, सन 1962 में आपके  पिताजी ने एक सेना प्रमुख के रूप में जनरल थापर की जगह अगर मुझसे कहा होता, 'चीनियों को बाहर फेंक दो|'  मैंने उनकी तरफ देखकर कहता, इन सब समस्याओं को देखिये| अब मैं आपसे कह रहा हूँ, ये समस्याएं हैं| यदि अब भी आप चाहती हैं कि मैं आगे बढूँ तो प्रधानमंत्रीजी, मैं दावा करता हूँ कि शत-प्रतिशत हार होगी| अब आप मुझे आदेश दे सकती हैं|'

तब जगजीवन राम ने कहा, 'सैम, मान जाओ न|'

मैंने कहा, 'मैंने अपना मत दे दिया है, अब सरकार निर्णय ले सकती है|' प्रधानमंत्री ने कुछ नहीं कहा| उनका चेहरा लाल हो गया था| बोलीं, 'अच्छा, कैबनेट में चार बजे मिलेंगे|' सभी लोग चले गए| सबसे कनिष्ठ होने के कारण मुझे सबसे अंत में जाना था| मैं थोड़ा मुस्कराया|

'सेनाध्यक्षजी, बैठ जाईये|'

मैंने कहा, 'प्रधानमंत्रीजी, इससे पहले कि आप कुछ कहें, क्या आप चाहती हैं कि मानसिक या शारीरिक स्वास्थ्य के आधार पर मैं अपना इस्तीफा भेज दूं?'

उन्होंने कहा, 'बैठ जाओ, सैम| आपने जो बातें बताईं, क्या  वे सही हैं?'

'देखिये, युद्ध मेरा पेशा है| मेरा काम लड़ाई करके जीतने का है| क्या आप तैयार हैं? निश्चित रूप से मैं तैयार नहीं हूँ| क्या आपने सब अंतर्राष्ट्रीय तैयारी कर ली है? मुझे ऐसा नहीं लगता है| मैं जानता हूँ, आप क्या चाहती हैं; लेकिन इसे मैं अपने मुताबिक, अपने समय पर करूँगा और मैं शत-प्रतिशत सफलता का वचन देता हूँ| लेकिन मैं सब स्पष्ट करना चाहता हूँ| वहाँ एक कमांडर होगा| मुझे ऐतराज नहीं, मैं बी.एस.एफ., सी.आर.पी.एफ. या किसी  के भी अधीन, जैसा आप चाहेंगी, काम कर लूंगा|  लेकिन कोई सोवियत नहीं होगा, जो कहे कि मुझे क्या करना है| मुझे एक राजनेता चाहिए, जो मुझे निर्देश दे| मैं शरणार्थी मंत्री, गृहमंत्री, रक्षा मंत्री सभी से निर्देश नहीं चाहता| अब आप निर्णय कर लीजिए|'

 उन्होंने कहा, 'ठीक है सैम, कोई दखलअंदाजी नहीं करेगा| आप मुख्य कमांडर होंगे|'

'धन्यवाद, मैं सफलता का दावा करता हूँ|'

इस प्रकार, फील्ड मार्शल के पद और बर्खास्तगी के बीच एक पतली  सी रेखा थी| कुछ भी हो सकता था|
--------------------------------------------------------------------------------------------------------

मेजर जनरल शुभी सूद  की लिखी पुस्तक 'फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ' से साभार|

('सोल्ज़र टॉक : एन इंटरव्यू विद फील्ड मार्शल सैम मानेकशा',  क्वार्टरडेक-1996, इ.एस.ए. द्वारा प्रकाशित, नौसेना मुख्यालय, नई दिल्ली, पृ. 10-11' )