(कोणार्क सूर्य मंदिर का एक चित्र, गूगल से साभार)
गाड़ी में उस दिन भाई साहब हमेशा की तरह बोल तो कम ही रहे थे लेकिन चेहरा कुछ ज्यादा ही उतरा हुआ था। मैंने पूछा तो कहने लगे, "अब आप लोगों के साथ शाम का साथ छूट जायेगा। गरीबी रेखा से नीचे वाले लोगों का सर्वे शुरू हो रहा है, मेरी भी ड्यूटी लगेगी। कम से कम तीन चार महीने तक इसके बाद वाली गाड़ी पकड़ने को मिलेगी।" अनुमान लगाया तो उस अल्पभाषी सहयात्री ने शायद तीन चार महीने की एकतरफ़ा अनुपस्थिति की गणना करके ही इतना लंबा वाक्य बोला होगा, हम भी कुछ उदास तो हो ही गये।
अगले दिन ट्यूबलाईट स्माईल देखकर समझ गया कि ड्यूटी में कुछ बढ़िया सेटिंग हो गई है, कुरेदने पर उन्होंने बताया कि उनके बॉस ने सर्वे के एरिया बाँटने की ड्यूटी उन्हें ही सौंप दी थी और उसका फ़ायदा उठाते हुये उन्होंने शहर की एकमात्र पोश कालोनी वाला एरिया अपने नाम लिख लिया था। अब पोश एरिया में कितने BPL वासी होंगे? चहकते हुये बताने लगे कि हमारी शाम वाली कंपनी बनी रहेगी, इसलिये खुश हैं।
कुछ दिन बीतने के बाद भाई साहब खीझे-खीझे दिखने लगे। पता चला कि उस एकमात्र पोश कालोनी\सेक्टर में बहुत से लोग बीपीएल लिस्ट में नाम जुड़वाना चाहते हैं और इस काम के लिये नेताओं के समझाईश, धमकाईश वाले फ़ोन आ चुके हैं। "तेरी जेब से जायेगा क्या पैसा?" "सरकार की स्कीम सै, सरकार ने ही सरदर्दी लेण दे" "कोठी में रहे सैं तो फ़ेर के हो गया? कोठी उसके नाम तो ना है न? "इणका हक सै, रुकावट मत बणया कर बीच में। तेरा काम लिस्ट बनाण का सै, बणा दे चुपचाप और खुद भी ठाठ से रह।" भाई साहब की हालत साँप के गले में छछुँदर जैसी थी, न उगलते बनता था न निगलते।
बैंक सेवा के दौरान मैंने भी ऐसे कई मामले देखे। अच्छी-अच्छी जमीन जायदाद वाले लोग-लुगाईयों का नाम सरकारी सहायता वाली लिस्ट में रहता था। सोच वही कि मिल रहा है तो ले रहे हैं। एक दिन एक बुढ़िया को गार्ड साहब ने टोका भी, "ताई, तू भी यो पांच सौ रुपये महीने वाली पेंशन लेती है? करोड़ों की जमीन सै तेरे पास, धत्त तेरे की।" ताई ने अनुभव की बात बताई, "बेट्टा, सरकार तो चूण चोकर भी दे तो बेशक पल्ला पसारकर लेणा पड़े, ले लेणा चाहिये। अपना हक कदे न छोडना चाहिये।"
एक समय था जब कर्तव्य सर्वोपरि था। उसीके पालन की शिक्षा दी जाती थी और उनलोगों के द्वारा दी जाती थी जो खुद कर्तव्यपालन में विश्वास रखते थे। कर्तव्यबोध परिवार, मित्रता, जाति, धर्म, देश, मानवता किसी भी कारक से प्रेरित हो सकता था। मेढ़ बचाने के लिये आरुणि खुद सारी रात बारिश में भीगता रहा तो उसके पीछे गुरु की आज्ञा को कर्तव्य मानने की मानसिकता ही थी। लंका पहुँचने के लिये अथाह जलराशि पार करते मारुतिनंदन हनुमान को जब विश्राम का प्रलोभन मिला तो ’राम काज कीन्है बिना, मोहे कहाँ विश्राम’ स्वामी-मित्र के प्रति कर्तव्यबोध की पराकाष्ठा ही थी। आततायी शासकों को मुँहतोड़ जवाब देने के लिये खुद को और अपने परिवार को वार देना गुरू गोबिंदसिंह जी को देश, धर्म के प्रति अपना कर्तव्य ही लगा था। उदाहरण अनंत हैं, सैंकड़ो-हजारों और गिनवाये जा सकते हैं, सीमित तो हमारी खुद की लिखने पढ़ने और समझने की क्षमता है। कर्तव्य मार्ग कठिन अवश्य था और ध्यान कर्म पर ज्यादा रहता था, उसके परिणाम की अपेक्षा गौण थी। मान्यता यही थी कि ’कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फ़लेषु कदाचन"। उस मार्ग पर चलने से यानि प्रत्येक जन के अपने कर्तव्यपालन के प्रति सजग रहने से समाज के दूसरे घटकों के प्रति कोई अन्याय होने की संभावना बहुत कम थी।
समय बदलता रहता है, कठिन मार्ग का और भी कठिन लगना स्वाभाविक ही रहा होगा। आज का युग अधिकार का युग है। महिलाओं का अधिकार, श्रमिकों का अधिकार, बाल अधिकार, ग्राहकों का अधिकार और इसके अलावा बहुत से अधिकार बल्कि सबके लिये कोई न कोई अधिकार। किसी किसी के लिये तो एक से अधिक अधिकार भी। प्राथमिकतायें बदलकर कर्तव्यपालन की जगह अधिकार प्राप्ति की हो गई हैं। अपना काम निकलवाने के लिए चाहे जिस अधिकार की दुहाई देनी पड़े, दी जाती है। अपने कर्म से ज्यादा परिणाम पर फ़ोकस है और इसे जस्टिफ़ाई करने के लिये एक लंबी सी अधिकार सूची और अनंत तर्क। परिणामस्वरूप अपनी बात और अपनी आवाज को दमदार तरीके से न उठा सकने वाले अपने अस्तित्व के लिये संघर्षरत और शोषण और अन्याय को झेलने के लिये अभिशप्त हैं।
समय का चक्र चलता रह्ता है, ’रामकाज कीन्है बिना मोहे कहाँ विश्राम’ से लेकर ’ये लो अपनी कंठीमाला, भूखे भजन न होय गोपाला’ और ’कर्मण्येवाधिकारस्ते ....’ से चलकर ’साड्डा हक, ऐत्थे रख’ तक के सफ़र की मुझ समेत आप सबको बधाई। हमारे आपके योगदान के बिना ये पड़ाव इतनी सहजता से शायद न आता। आगे समय का चक्र किस पड़ाव पर ले जाकर पटकेगा, देखते रहेंगे..... हम लोग।
युगधर्म या धर्मयुग ?
जवाब देंहटाएंराम जाने...
हटाएंTAB KALYUG NAHI THA....
जवाब देंहटाएंJAI BABA BANARAS...
और अब बहुत समय तक कलयुग रहेगा.
हटाएंसत्य वचन महाराज। बीपीएल और ईमानदारी पर बैंक के जमाने की कई एक कहानियाँ याद आईं।
जवाब देंहटाएंहमारी तरफ़ से ढेर सारे इरशाद हैं जी, आण देयो एक एक करके :)
हटाएंलो जी पहली किस्त तो आ गई, अब इंडिया आने पर एक लोन-मेला दिला देना ...
हटाएंइस तरह के बीपीएल कार्डधारियों से अब स्कूल में भी मिलना पड़ रहा है ---जबकि उनके बच्चे पहले से इसी स्कूल में पढ़ रहे हैं ,और तो और ....बच्चा अगर दूसरी क्लास में है तो उसे फिर से पहली में भी करने को तैयार हो जाते हैं ... :-/...........
जवाब देंहटाएंजिन्हें वास्तव में इसका फायदा मिलना चाहिए ...उनके पास जरूरी कागजात ही नहीं होते .... बनवाने ले किए चक्कर लगाने का या तो समय नहीं होता ...(पेट के जुगाड के कारण) ...या तो वे भूखे होते हैं जिनसे कागज बनवाना होते हैं .... :-/
सार्वभौमिक घटनायें हैं ये अब।
हटाएंइस देश का आलम अजब हो गया है . जो चीज जहाँ ढूंढें वहां नहीं मिलती , समाज सेवा ,लोक सेवा के नाम पर , धर्म , शिक्षा आदि के नाम पर जो किया जाता है , वह बस उनके लिए ही नहीं होता , जो इसके वास्तविक हकदार हैं .
जवाब देंहटाएंसिस्टम की खामियां यही तो हैं , जिसे लाभ मिलना चाहिए था , नहीं मिलता . आम में जो ख़ास बन जाते हैं , बस वे ही ख़ास बने रहते हैं आम से दूरी बनाये हुए और उनमे सहयोगी आप -हम जैसे ही होते हैं .
जो चीज जहाँ होनी चाहिये, वहीं नहीं होती।
हटाएंकर्तव्य ही सर्वोपरि था। कर्तव्य ही उपदेश और कर्तव्य ही प्रेरणा था। कर्तव्य-बोध ही ज्ञान था। कर्तव्य-निष्ठा ही सदविचार और कर्तव्य-परायणता ही सदाचरण. अधिकार तो कर्तव्य-निष्ठा के फलस्वरूप सहज प्राप्य आदर था। अधिकार, कर्तव्य तप का वरदान था, याचना का अवदान नहीं.
जवाब देंहटाएंस्वार्थ ने सहज उपलब्ध अधिकार को संघर्ष और लूट बना दिया.
'मानवाधिकार' की तरह 'मानव-कर्तव्य' कभी आंदोलन बनेगा?
@ 'मानवाधिकार' की तरह 'मानव-कर्तव्य' कभी आंदोलन बनेगा?
हटाएंबहुत कठिन है डगर पनघट की,
लेकिन चलने वाले उस डगर पर चलेंगे ही।
तभी तो ये सारे सरकारी उपक्रम सुधार के बजाय स्वार्थसिद्धि के हथियार बन जाते हैं | सरकारें भी यही खेल चाहती हैं शायद |
जवाब देंहटाएंबिना सरकार के चाहे कहाँ कुछ हो सकता है.
हटाएंबहुत खूब....
जवाब देंहटाएंइसी विसंगति पर एक दोहा लिखा था कभी...
निर्धन को ना मिल सका, निर्धन का परमान।
काग़ज पर निर्धन हुए, बड़े-बड़े धनवान।।
सटीक दोहा है कविवर.
हटाएंजिस देश के निवासियों की सोच ऐसी हो, वह देश प्रकारान्तर से गुलामों का ही देश समझिये.
जवाब देंहटाएंबिलकुल समझ रहे है, सरजी।
हटाएंआँखे खोलने वाला आलेख। गाँवों में भी ऐसी ही बीपीएल की सूची बनी हुई हैं।
जवाब देंहटाएंऐसी सूचियों के मामले में भारत और इंडिया में कोई फ़र्क नहीं है।
हटाएंसच हा, सारा धन तो कोठी में लगा दिया है अब गरीब हो गये..
जवाब देंहटाएंकोठी बनाने में इत्ती माया लगा दी कि पल्ले कुछ रहा ही नहीं।
हटाएंमुफ्तखोरों की गरीबी भी कभी खत्म हुई है ?
जवाब देंहटाएंसरकार के हित में ही हैं ये मुफ़्तखोर जमात।
हटाएं... अभी जब सपा ने ऊपी में कहा कि बेरोज़गारी भत्ता दूंगी तो पूरा प्रदेश ही बेरोज़गार हो के लाइन में लग लिया.
जवाब देंहटाएंलोगों में शर्म हया कहां से आएगी जब चुने जाने वाले ही करोड़ों लगा कर हज़ारों करोड़ कमाने के लिए वहां जा डटते हैं... हालात बद से बदतर हुए जा रहे हैं पता नहीं कब कौई अण्णा इस देश की सुध लेने लायक होगा
कहीं बेरोजगारी भत्ता, कहीं रंगीन टीवी और कहीं फ़्लैट, हुण मौजाँ ही मौजां!!
हटाएं@ हमारे आपके योगदान के बिना ये पड़ाव इतनी सहजता से शायद न आता।
जवाब देंहटाएंकौन सा पड़ाव स्पष्ट लिखे ताकि बधाई दी जा सके ! kal se itani hi tippani likhi hai baba ji kaha rahe hai ki ab anuvad nahi karenge or is bhasha me to khud padha nahi jataa to aap ko tippani kya likhe koi upay ho to bataye :)
उपाय है न, आपको जरूर मिल जायेगा।
हटाएंपड़ाव बोले तो कर्तव्य पर अधिकार के प्रभुत्व की बात कहना चाह रहा था।
हटाएंधनबाद हुआ पुराना हमसे स्विजरलैंड लीजिये ! सुना है वो बैंकवालो के लिए भी स्वर्ग है :)))
हटाएंजो हम पोस्ट पर कहना चाह रहे थे वो आप ने ही कह दिया राजन जी को जवाब में की कोई किसी से कम नहीं है बस मौका मिलाना चाहिए । हा अब समय ये आ गया है की लोग बेईमानी करते है और उसे छुपाते नहीं है सीना ठोक कर उसे स्वीकार करते है ये मान कर की उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा , और जूमला ये की सभी करते है आज कौन ईमानदार है , ये तो आज का चलन है :(
हटाएंहम ठहरे कूपमंडूक, हमारे लिये गाजियाबाद\फ़रीदाबाद से आगे सब दूर के ख्वाब हैं। फ़िलहाल यही हमारा स्वर्ग है और यही हमारा नर्क।
हटाएंचोरी-सीनाजोरी वाली बात एकदम सही है, चलन वाले एक्सक्यूज़ पर याद आया कि कुछ दिन पहले एक अधीनस्थ कर्मचारी 8 P.M. के बाद गज़ब तरीके से लहरा रहा था और जब मुझ आदत से मजबूर ने कहा कि नहीं हजम होती तो क्यों करते हो ये काम तो अगले बंदे का जवाब था, "साब, करना पड़ता है। सोसाईटी में रहना है तो चलन मानना ही पड़ता है।" उसके तर्क से अपने असामाजिक तत्व होने की वजह मुझे एक बार फ़िर से पता चल गई :)
लोगों का पेट नहीं भरता ...
जवाब देंहटाएंजो भर जाए वो कुछ और हो सकता है, पेट तो बिलकुल नहीं
हटाएंक्षुधा और तृषा अमर ही होती है, जो भी मिला निगलती चली जाती है. अब अधिकारों को अधिकार भाव से निगल रही है तृष्णा.
हटाएंअधिकार के बाद अगला संभावित पड़ाव? देखते रहिये, आता हूँ एक छोटे से ब्रेक के बाद :)
हटाएंkartavya ki 'iti-shri' hua.......'adhikaron' ka shri-ganesh.....
जवाब देंहटाएंpranam.
जय हो नामराशि, चुटीली sumaary है।
हटाएंबस देखते ही रह जायेंगे...
जवाब देंहटाएंदृष्टा बने रहने का भी अलग सुख है पी.एन.सर लेकिन इसमें भी दुनिया छोड़ने से रही, याद दिला देंगे कि ’जो तटस्थ है समय लिखेगा उनका भी अपराध’
हटाएंचक्र तो गोल ही होता है अतः समय के चक्र पर चलते हुए वहीँ पहुंचेगे जहाँ से चले थे।
जवाब देंहटाएंअच्छा संजय जी मुझे जरा ये बताएं की ये वोटिंग विजिट क्या बला है ?
वहीं पहुँचेंगे जहाँ से चले थे, अपना ज्यादा गौर और जोर रास्ते के स्टेशनों पर है :)
हटाएंवोटिंग विज़िट - बताता हूँ बंधु किसी समय।
वोटिंग विज़िट ? - ऐसा गुप्त दान जिसमें दाता की दानशीलता क्षमता नीयत आदि का वृहद विवेचन न हो..... :)
हटाएंसीधा फ़ैसला कि ये ट्रेंड सामने आया है :)
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जवाब देंहटाएंराजस्थान में एक बार कई ऐसे मामले सामने आए जब लोगों ने अपने राशन कार्डों में एक दो काल्पनिक नाम बढ़ाकर लिखवा दिए थे जब इस करतूत का खुलासा हुआ तो कई लोगों ने तो ये ही कह दिया कि ये हमारे कुत्ते का नाम है हम तो उसे भी अपने घर का सदस्य ही मानते हैं :-)
जवाब देंहटाएंआज भी इस खबर को याद कर हँसी आ जाती है।
केवल गाड़ी बंगले वाले ही ऐसे उल्टे करम कर दूसरों का हक नहीं मारते हैं।गरीब भी कम नहीं हैं।
ऐसी घटनायें सार्वभौमिक हैं। सच कहूँ तो इस कमेंट के बाद ही मैंने गौर किया है कि इस बार मेरे दिये उदाहरण वाकई सिर्फ़ कार-कोठी वालों के ही रहे, ध्यान दिलाने के लिये धन्यवाद। पोस्ट तो मुख्यत: कर्तव्य और अधिकार के घटते बढ़ते चलन के बारे में लिख रहा था। कम कोई नहीं है बात सिर्फ़ मौका मिलने की है। तथाकथित गरीबों के कर्तव्य और अधिकारों पर भी बहुत कुछ कहा जा सकता है।
हटाएंtruly eye opener
जवाब देंहटाएंभाई साहब सूरज न बदला चाँद न बदला न बदला रे आसमान कितना आदमी हो गया रे बेइमान *****
जवाब देंहटाएंबेहद सटीक प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
अपने मोहल्ले का भी यही हाल है...मगर हमारे यहां बेशर्मी कुछ ज्यादा ही है...बनवाने वाले तो छोड़िए .बनवा कर देने वाले भी घर-घर जाकर जबरदस्ती बनवाने को तैयार हैं। सिर्फ वोट की खातिर नेता तो महज कुछ पैसे के लिए लोग....। हमारी कालोनी वाले महाश्य को पता था कि पिताजी ईमानदार हैं फिर भी वो कई बार मां के लिए बुजुर्ग पेंशन बनवाने कि लिए कहते थे। यहां तक कि पिताजी के जाने के बाद भी ये चूके नहीं। पिछली बार जब पार्षद के चुनाव हो रहे थे मोहल्ले के कमीने बुजुर्ग महाश्य एक अन्य बुजुर्ग के साथ आए औऱ पीछे वाला दरवाजा खटखटाया..उन्हें लगा कि मैं घर पर नहीं हूं....मगर जब मैने दरवाजा खोला तो दोनो सकते में थे...खैर किसी तरह उनमें से एक के मुंह से निकला ...वो बहनजी की बुजुर्ग पेंशन बनवानी थी....मैं चिढ़ गया...मैने कहा इतना कमाता हूं कि मां कि देखभाल कर सकता हूं....आज्ञाकारी भले न हूं पर ...बोझ न से मां मेरे लिए...। इसके बाद वो दोनो चुपचाप चले गए।
जवाब देंहटाएंनिवदेन....अपना समय के चक्र के साथ जल्दी जल्दी आया करें...और अपनी कुटलिता के प्रमाण के तौर पर पोस्ट परोसते रहा करें। ताकि आपकी कुटलिता पर हमारा विश्वास जमा रहे।
बेशर्मी को अब बेशर्मी नहीं कहते बंधु, इसका नाम बदल गया है :) सही जवाब दिया लेकिन ये परोपकारी लोग चुपचाप बैठने वालों में नहीं होते, बीड़ा जो उठा रखा होता है इन्होंने परोपकार का।
जवाब देंहटाएंनिवेदन सिर माथे पर, कुटिलता जारी रहेगी:)
बाऊ जी नमस्ते!
जवाब देंहटाएंएक अंकल जिनके अकाउंट में देहात के स्टैण्डर्ड से जड़ा-जड़ बैलेंस रहता है, उनके अकाउंट में मनरेगा का पैसा भी क्रेडिट होता है….
अब मत पूछियो "मो सम कौन…. ", तो से कहीं बड़े कुटिल, खल, कामी मौजूद सै!!!
आशीष
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थर्टीन एक्सप्रेशंस ऑफ़ लव!!!
हमारे चारो तरफ के बातावरण में यही घटित हो रहा है पर आपका भी जवाब नहीं ..इतने मजेदार शब्दों में इतनी बड़ी सामजिक समस्या को हसाते हुए गुदगुदाते हुए समझा दिया ..आपके प्रयास को हार्दिक बधाई ...सादर प्रणाम के साथ
जवाब देंहटाएंऐसे ऐसे मामले मिल जायेंगे कि ....
जवाब देंहटाएंयही हाल है सब दूर.... कल ही एक व्यक्ति मेरे पास आया. उसने बताया कि आंगनवाडी कि एक पोस्ट के लिए दो महिलाओं ने आवेदन किया है, एक विधवा है, उसके दो बच्चे हैं... गरीब भी है. दूसरी के पति कि बढ़िया नोकरी है. घर में ३-४ गाडी हैं. कुछ नगर पालिका में जुगाड़ से लगी हैं..
जवाब देंहटाएं.. नोकरी पर दूसरी महिला का हक पहले बनेगा क्योंकि वह सर्टीफाइड गरीब हैं, उसके पास गरीबी रेखा का कार्ड है.