जून माह के मध्य में देवभूमि के नाम से प्रसिद्ध उत्तरांचल में भारी बारिश, बादल फ़टने की प्राकृतिक घटनाओं के चलते हुई विभीषिका ने समस्त देश को हिलाकर रख दिया है। ऐसी आपदाओं के होने के कारणों पर, उनसे बचाव\पूर्व-पश्चात प्रबंधन पर हमारे विचार अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन किसी भी परिपक्पव मनुष्य की पहली प्राथमिकता स्थिति को सामान्य करने की होनी चाहिये। आपदा प्रबंधन में सेना\आईटीबीपी के अतुलनीय योगदान ने फ़िर बहुत से लोगों को बचा लिया नहीं तो हानि की मात्रा बहुत ज्यादा होती। अपने परिवार में या परिचय में एक की भी असमय मृत्यु हमें शोकाकुल कर देती है, यहाँ तो हजारों की संख्या में नागरिक असमय काल के गाल में समा गये। वास्तविक हानि का अब तक अनुमान नहीं लगाया जा सका है।
दूसरी तरफ़ इन दुर्घटनाओं से भी अपने आर्थिक, धार्मिक, राजनैतिक हित साधने वालों की कोई कमी नहीं है और ये काम इतनी सधे तरीके से किये जाते हैं कि इनकी तह तक पहुँचना बहुत आसान नहीं रहता। ब्लॉगर भाईजान अपने सेक्रेटरी पर बात डाल सकते हैं या प्रतिष्ठित अखबारों पर डाल सकते हैं, मीडियावाले अपने से भी ज्यादा प्रतिष्ठित जर्नलिस्ट्स पर डाल सकते हैं, विकल्प असंख्य हैं। ऐसे जुझारू लोग ही इस और इससे पहली पोस्ट के सरोगेट फ़ादर हैं, हम जैसों के प्रेरणास्रोत हैं। वो खुद भी बाज नहीं आते और समय समय पर हमारे अंदर का कलुष भी निकलवाते रहते हैं।
पीछे वाली पोस्ट से आगे बढ़ते हुये एक बार ’हारम’ एग्रीगेटर पर most viewed articles के अंतर्गत पहले\ दूसरे नंबर पर चमकती रही एक पोस्ट का स्नैप शॉट(एडिटिड वर्ज़न) देख लें। एडिशन में शब्दों के साथ मैंने कोई छेड़्छाड़ नहीं की है, मेरी समझ में जितना कुछ बात करने लायक है, उसे आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ।
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’महिलाओं की आबरू’ और ’उनकी आबरू पर हमला’ पर जो लिंक दिया गया है, वो वही है जो लिंक मैंने पिछली पोस्ट पर दिया था और उत्तराखंड में हुई त्रासदी से इसका संबंध पूछा था। मुझे दोनों में कोई संबंध नहीं दिखा था तो सोचा आप से मार्गदर्शन ले लूँ। हो सकता है आपके चश्मे का रंग मेरे चश्मे से अलग हो और कुछ ऐसा दिख जाये जो मुझे नहीं दिख रहा था लेकिन इस मामले में आप सब भी मेरी तरह ’ऐंवे-से’ ही निकले।
सिर्फ़ ऊपर वाली पोस्ट और उसमें दिये लिंक ही नहीं, अंग्रेजी की कई पोस्ट्स भी देखीं जिनमें महिलाओं के साथ बलात्कार होने की बात कही गई लेकिन लेखक ने जिक्र किया कि उन्होंने किसी से ऐसा सुना है। नुकसान तो दूसरे प्रांत के लोगों के साथ उत्तरांचलवासियों का भी हुआ है बल्कि उनका ज्यादा हुआ है। लूटपाट और बलात्कार वाली घटनायें जानकर मैं सोच रहा था कि भूखे-प्यासे लोग, जिनकी खुद की जान पर बनी हुई है वो क्या ऐसी हरकतों में शामिल हो सकते हैं? डाक्टर, वैज्ञानिक, मनोविशेषज्ञ इस बात पर ज्यादा अच्छे से बता सकते हैं।
मेरे खुद के एक कुलीग और बहुत अच्छे मित्र इसी क्षेत्र के रहने वाले है। उस दिन दूसरी ब्रांच से एक दूसरे गढ़वाली मित्र किसी काम से आये तो उन दोनों की बातचीत में इस बात को लेकर बहुत फ़िक्र थी कि कैसे उनके क्षेत्रवासियों का नाम ऐसी दरिंदगी भरी घटनाओं में सामने आ रहा है। अपनी दौड़ नेट तक है तो मैंने घर आकर नेट पर ऐसी खबरों की वास्तविकता जाननी चाही। वाकई कई पोस्ट्स दिखीं लेकिन जब विस्तार में जाकर पढ़ा तो कुछ और ही पाया। ऐसा नहीं कि लूटपाट नहीं हुई होगी या वो जस्टीफ़ाईड है लेकिन इस आड़ में भ्रामक दुष्प्रचार करना केवल सनसनी पैदा करने की ललक है या इसके पीछे हैं कुटिल इरादे, इस पर सबके अपने अपने ख्याल हो सकते हैं।
हो सकता है औरों को ये सब बातें बहुत बड़ी न लगती हो लेकिन सबके पैमाने भी तो एक से नहीं हो सकते। मुझे भी कई बार लगता है कि कुछ बातों पर मेरी प्रतिक्रिया अजीब सी होती है, लेकिन अंतत: तो मैं खुद के प्रति ही जवाबदेह हूँ और मुझे यही ठीक लगता है कि इस बात की तरफ़ अन्य इच्छुक मित्रों का ध्यान भी जाये। हो सकता है समय की कमी या किसी और वजह से वो इधर न देख पाये हों या फ़िर यह कि हो सकता है कि इस बहाने से मुझे ही इस घटना को मेरे किसी अनदेखे कोण से देखने का अवसर मिल जाये।
हाँ, एक बात जरूर कहना चाहता हूँ कि शब्दों का जीवन मानव-जीवन से कहीं ज्यादा लंबा है और प्रभाव असीमित। बहुत बार एक शब्द या एक वाक्य भी जीवन की दिशा बदल देता है। हम बचपन में कहावत सुनते थे कि ’मारते का हाथ पकड़ सकते हैं लेकिन बोलते का मुँह नहीं।’ आज के समय में इस मुहावरे के आयाम और भी विस्तृत हो गये हैं, बोलने के साथ हमें लिखने की भी आजादी मिल गई है तो सूचनाओं को ग्रहण करने में और भी अधिक सतर्कता की आवश्यकता है।