भाग एक से आगे
अंदर डाक्टर और उनकी टीम अपना काम कर रहे थे और बाहर खड़े हम एक दूसरे को दबी जबान में कोस रहे थे। 302 के संभावित आरोपियों में दो नाम थे, पहला उस दोस्त का जिसने टीए बिल पास करने में शर्त सोची थी और दूसरा मैं जिसने यह शर्त चाचा को बताई थी। खैर, हमारे चाचा ने हमें आत्मग्लानि से बचा लिया। थोड़ी देर में हमें बताया गया कि उन्हें अस्पताल लाने में कुछ और देर होती तो खतरा हो सकता था। कुछ दिनों के आराम के बाद चाचा जब दोबारा ड्यूटी पर आये तो पहले से भी ज्यादा अनुशासित होकर, सुबह वाली एकमात्र चाय भी बंद कर दी। चाय का कलेश ही खत्म, न पियें न पिलायें। एक दिन उस शनिवार को याद करके मुझे कहने लगे, "अनेजा साहब, तबियत खराब हुई उसका गम नहीं लेकिन उस दिन हुई इसका गम हमेशा रहेगा। तुम लुच्चों ने सारी उमर यही प्रोपोगेंडा करना है कि चाचा बहल से उस दिन जबरदस्ती चाय पी थी इसलिये उसे हार्ट अटैक हुआ था।" चाचा नहीं हँसता था, शायद डाक्टर ने मना किया हो लेकिन मुझपर ऐसी कोई बंदिश नहीं थी, सो मैं खूब हँसा। बल्कि चाचा से कहा कि ये तो वही बात हो गई कि ’मुझको बरबादी का कोई गम नहीं, गम है कि बरबादी का चर्चा हुआ।" चाचा बहल मुस्कुरा दिये, "बिल्कुल यही बात है।" डेली पैसेंजरी जारी रही।
चाचा के एक भाई दिल्ली में रहते थे और वो कहते थे कि अगर वो हफ़्ते में एक दिन उसके घर जा सकें तो रोज की थकान कुछ कम हो सकती थी। दिक्कत थी तो सिर्फ़ ये कि वो दिल्ली की भीड़ और दिल्ली की डीटीसी बस सर्विस के साथ बहुत कम्फ़र्टेबल नहीं थे। उनके मतलब की बस दिल्ली स्टेशन के बाहर से ही बनकर चलती है, कई बार बताने के बाद भी वो नर्वस हो जाते थे। भृतृहरि के बताये मध्यम पुरुष के लक्षण ’मेरा काम भी हो जाये, उसका काम भी हो जाय’ की तर्ज पर मैंने एक रास्ता निकाला। दिल्ली स्टेशन के सामने ही लाईब्रेरी थी, बहुत दिन से उधर जाना नहीं हो रहा था। हमने जुगत भिड़ाई कि चाचा पर अहसान जतायेंगे और सप्ताह में एक बार उन्हें बाहर जाकर बस में सवार करवा देंगे और खुद सड़क पार करके लाईब्रेरी हो आया करेंगे। हींग लगी न फ़िटकरी, रंग चोखा होने लगा। अपनी चवन्नी भी नहीं लगी और चाचा अहसान तले दबने लगे। मैं उन्हें बस तक छोड़ता लेकिन वो मेरा हाथ नहीं छोड़ते थे।
पुरानी दिल्ली का इलाका जिन्होंने देख रखा है वो जानते होंगे कि खाने-खिलाने के शौकीन लोगों के लिये वो पेरिस\जेनेवा से कम नहीं। चाचा बहुत ताकीद से कहते, "अनेजा साहब, मेरा बड़ा दिल है कि आपको कुछ खिलाऊँ" और मैं उस शनीचरी चाय को याद करके लरज जाता और अगली बार का वादा करके जबरन हाथ छुड़ा लेता। शुरू के कुछ हफ़्ते तो अगली बार का वायदा करना पड़ा, उसके बाद चाचा एक बार वही डायलाग बोलते और फ़िर खुद ही कहते, "अगली बार पक्का न?" और धीरे से गुनगुनाते, "मुझको बरबादी का कोई गम नहीं......" हम दोनों हँस पड़ते लेकिन सच में वो जब कुछ खिलाने की बात कहते थे तो साफ़ पता चलता था कि ऊपर ऊपर से नहीं बल्कि दिल से कह रहे हैं।
धीरे धीरे मौसम में ठंड बढ़ने लगी। चाचा की परेशानियाँ और बढ़ गईं। एक दिन शाम को हम स्टेशन की तरफ़ जा रहे थे तो उन्होने एक बार फ़िर से बारी बारी से बढ़ती ठंड, अपनी बढ़ती उम्र, उस शहर, नौकरी और अपनी बीमारी की माँ-बहन के साथ रिश्तेदारी जोड़नी शुरू की। वो कई बार स्टाफ़ के सामने मेरी तारीफ़ किया करते थे कि ये अगर कोई परेशानी बताता है तो साथ साथ उसका संभावित हल भी बताता है, उस दिन भी ताजी ताजी तारीफ़ से हम कुप्पा हुये थे तो संभावित हल बता दिया, "चाचा, एक काम करो। जब तक सर्दी है, यहीं मकान ले लो।" चाचा ने ओब्ज्क्शन मी-लार्ड लगाया, "रोज आने-जाने से छुट्टी मिल जायेगी लेकिन रोटी-पानी और दूसरे पंगे खड़े हो जायेंगे?" भतीजे ने ओब्जेक्शन ओवर रूल किया, "चाची को भी यहीं ले आओ। आप ही तो बताते हो कि शादी से पहले चाची का परिवार यहीं रहता था। आपकी रोटी की समस्या भी हल हो जायेगी और ........."
मैं बोलते-बोलते रुका था, चाचा चलते-चलते रुक गये। कन्हैयालाल की तरह चश्मे के ऊपर से झाँककर बोले, "हम्म्म्म, सही बात। तुम्हारी चाची को यहीं ले आता हूँ, मेरी रोटी-वोटी भी बना दिया करेगी और पुराने यारों से भी मिल लेगी।"
"ओ चाच्चा, मैंने ये कब कहा है यार?"
"सब पता है मुझे, एक नंबर के बदमाश हो तुम लड़के।"
अगले हफ़्ते से चाचा ने वहीं एक मकान किराय पर ले लिया और हमारा ट्रेन का साथ छूट गया। एक दिन हम चार-पाँच साथी स्टेशन की तरफ़ जा रहे थे कि सामने से चाचा-चाची आते हुये मिल गये। सबने नमस्ते की, चाचा ने सबके साथ अपनी धर्मपत्नी का परिचय करवाया। जब इस बैकबेंचर का नंबर आया तो उनसे कहने लगा, "ये संजय है, इसीने आईडिया दिया था कि सर्दियों में तुम्हें यहाँ लेकर रहने लगूँ। मेरी रोटी का जुगाड़ भी हो जायेगा और..."
चाचा ने आगे क्या कहा ये मैं नहीं सुन पाया क्योंकि मैं ’चाचा चुप, चाचा चुप’ का गाना गा रहा था, चाची कह रही थी कि ’आपको कभी शरम नहीं आनी’ और साथी लड़के जोर-जोर से हँस रहे थे। उस दिन चाची की तरफ़ से घर चलकर चाय पीने का न्यौता मिला और मेरे कुछ कहने से पहले ही चाचा बोले, "जवाब मुझे पता है, अगली बार।" हम हँसने लगे, उधर स्टेशन पर गाड़ी की अनाऊंसमेंट सुनकर हमने गुलाबी चेहरे वाली अपनी प्रौढ़ा चाची से विदा ली क्योंकि लोग अस्त-व्यस्त होते हैं लेकिन चाचा गुनगुनाने में मस्त-व्यस्त था, "ओ मेरी जोहराजबीं...’
चाचा ने हैल्थ ग्राऊंड पर ट्रांसफ़र के लिये आवेदन कर रखा था। मैं एक सप्ताह के लिये LTC पर गया हुआ था, उसी दौरान चाचा के आर्डर आये और वो अपने गृहस्थान को चले गये। कुछ समय तक जब भी उस ब्रांच से कोई पत्र-व्यवहार होता था तो चिट्ठी के साथ एक छोटी सी चिट लगी आती थी,
"संजय अनेजा,
अगली बार कब होगी?
regards
चाच्चा बैल"
उसके बाद कई शाखाओं में काम करना पड़ा, जब भी उनके शहर से कोई स्टाफ़ मिलता तो चाचा बहल के बारे में मैं जरूर पूछता लेकिन कोई विशेष जानकारी नहीं मिली। अभी एक ट्रेनिंग के सिलसिले में लौटते समय स्टेशन पर फ़िर ऐसे ही एक स्टाफ़ से मुलाकात हुई, पूछने पर पता चला कि दो साल पहले बहल साहब का देहांत हो चुका। वो अपने कोच में चले गये और मैं अपने कोच में आकर बैठ गया।
गाड़ी चलने में अभी आधा घंटा बाकी था। खिड़की के बाहर देखा तो कुछ दूर रेल की पटरियों के बीच बैठा एक कुत्ता अगले दोनों पंजों में एक सूखी हड्डी लिये बैठा था। उस सूखी हड्डी को ही व्यंजन मानकर अपने दाँतों से नोच-भंभोड़ रहा था। उस सूखी हड्डी में तो क्या रस होगा, होगा भी तो खुद उस कुत्ते के मसूढ़ों का खून होगा जिसे उस हड्डी से टपकता मानकर वो मग्न बैठा होगा।
अपने पास भी ऐसी बहुत सी सूखी हड्डियाँ हैं। कल किसी और की बारी थी, आज चाचा की बारी, कल किसी और की बारी।
ऐसे ही हड्डियों को नोचते-भंभोड़ते रहेंगे, हम लोग....
(चित्र गूगल से साभार)